है ब्राह्मणों की यह दशा अब क्षत्रियों को लीजिए,
उनके पतन का भी भयंकर चित्र-दर्शन कीजिए।
अविवेक तिमिराच्छन्न अब वे अंध जैसे हो रहे,
हा! सूर्यवंशी, चन्द्रवंशी वीर कैसे हो रहे? ॥२०८।।
विश्वेश के बाहुज अत: कर्त्तव्य के जो केन्द्र थे,
जो छत्र थे निज देश के, मूर्द्धाऽभिषिक्त नरेन्द्र थे। ।
आलस्य में पड़कर वही अब शव-सदृश हैं सो रहे ;
कुल, मान, मर्यादा-सहित सर्वस्व अपना खो रहे! ॥२०९॥
वीरत्व हिंसा में रहा जो मूल उनके लक्ष्य का,
कुछ भी विचार उन्हें नहीं है आज भक्ष्याभक्ष्य का!
केवल पतंग विहंगमों में, जलचरों में नाव ही,
बस भोजनार्थ चतुष्पदों में चारपाई बच रही! ॥२१०॥
जिनसे कभी उपदेश लेने विप्र भी आते रहे,
विख्यात ब्रह्म-ज्ञान का जो मार्ग दिखलाते रहे।
देखो, उन्हीं में पड़ गई है अब अविद्या की प्रथा,
है स्वप्न आज विदेह, कोशल और काशी की कथा! ॥२११॥
जो हैं अधीश्वर, बस प्रजा पर कर लगाना जानते,
निर्द्रव्य, डाका डालना भी धर्म अपना मानते!
जो स्वामि-सम रक्षक रहे वे आज भक्षक बन रहे,
जो हार थे मन्दार के वे आज तक्षक बन रहे! ॥२१२।।
जो देश के प्रहरी रहे घर फूंकने वाले बने,
जो वीरवर विख्यात थे वे स्त्रैणता में हैं सने।
सुर-कार्य-साधक जो रहे अब दुर्व्यसन में लीन हैं,
जो थे सहज स्वाधीन वे ही आज विषयाधीन हैं! ॥२१३॥
छाया बनी थी धीरता सर्वत्र जिनके साथ की,
वे आज कठपुतली बने हैं मत्त मन के हाथ की।
मार्तण्ड थे जो अब वही हिम-खण्ड होकर बह रहे,
वे आप कुछ न कहें भले ही, कर्म उनके कह रहे ॥२१४॥
जो शत्रु के हृत्पट्ट पर लिखते रहे जय शेल-से-
वर वीरता का कार्य जिनके पक्ष में थे खेल-से।
रहने लगी, देखो, उन्हीं पर अब चढ़ाई काम की!
नैया डुबोई है उन्होंने पूर्वजों के नाम की ॥२१५॥