साहित्य का विस्तार अब भी है हमारा कम नहीं;
प्राचीन किन्तु नवीनता में अन्य उसके सम नहीं।
इस क्षेत्र से ही विश्व के साहित्य-उपवन हैं बने ;
इसको उजाड़ा काल ने आघात कर यद्यपि घने ॥८३॥
वेद
फैला यहीं से ज्ञान का अलोक सब संसार में,
जागी यहीं थी जग रही जो ज्योति अब संसार में ।
इंजील और कुरान आदिक थे न तव संसार में-
हमको मिला था दिव्य वैदिक बोध जब संसार में ॥८४॥
जिनकी महत्ता का न कोई पा सका है भेद ही,
संसार में प्राचीन सब से हैं हमारे वेद ही ।
प्रभु ने दिया यह ज्ञान हमको सृष्टि के आरम्भ में,
है मूल चित्र पवित्रता का सभ्यता के स्तम्भ में ॥८५॥
विख्यात चारों वेद् मानों चार सुख के सार हैं,
चारों दिशाओं के हमारे वे जय-ध्वज चार हैं ।
वे ज्ञान-गरिमाऽयार हैं, विज्ञान के भाण्डार हैं;
वे पुण्य-पारावार हैं, आचार के आधार हैं ॥८६॥
उपनिषद्
जो मृत्यु के उपरान्त भी सबके लिए शान्ति-प्रदा-
है उपनिषद्विद्या हमारी एक अनुपम सम्पदा ।
इस लोक को परलोक से करती वही एकत्र है,
हम क्या कहें, उसकी प्रतिष्ठा हो रही सर्वत्र है ॥८७॥
सूत्र-ग्रन्थ
उन सूत्र-ग्रन्थों का अहा ! कैसा अपूर्व महत्त्व है,
अत्यल्प शब्दों में वहाँ सम्पूर्ण शिक्षा-तत्त्व है।
उन ऋषि-गणों ने सूक्ष्मता से काम कितना है लिया,
आश्चर्य है, घट में उन्होंने सिन्धु को है भर दिया ! ॥८८॥
दर्शन
उस दिव्य दर्शनशास्त्र में है कौन हमसे अग्रणी ?
यूनान, यूरुप, अरब आदिक हैं हमारे ही ऋणी।
पाये प्रथम जिनसे जगत् ने दार्शनिक संवाद हैं-
गोतम, कपिल, जैमिन, पतंजलि, व्यास और कणाद हैं ॥८९॥
दृष्टान्त दर्शन ही हमारी उच्चता के हैं बड़े,
हैं कह रहे सबसे वही संसार में होकर खड़े
"हे विश्व ! भारत के विषय में फिर कुशंकाएँ करो
हम दर्शनों का साम्य पहले आज भी आगे धरो"॥९०॥
गीता
यह क्या हुआ कि अभी अभी तो रो रहे थे ताप से,
हैं और अब हँसने लगे वे आप अपने आप से।
ऐं क्या कहा, निज चेतना पर आ गई उनको हँसी,
गीता-श्रवण के पूर्व थी जो मोह माया में फँसी ॥९१॥
धर्मशास्त्र
रचते कहीं मन्वादि ऋषि वे धर्मशास्त्र न जो यहाँ,
कानून ताजीरात जैसे आज वे बनते कहाँ ?
उन संहिताओं के विमल वे विधि-निषेध विधान हैं
या लोक में, परलोक में, वे शान्ति के सोपान हैं ॥९२॥
नीति
निज नीति-विद्या का हमें रहता यहाँ तक गर्व था-
हम आप जिस पथ पर चलें सत्पथ वही है सर्वथा।
सामान्य नीति समेत ऐसे राजनैतिक ग्रन्थ हैं
संसार के हित जो प्रथम पुण्याचरण के पन्थ हैं ॥९३॥
चाणक्य-से नीतिज्ञ थे हम और निश्चल निश्चयी,
जिनके विपक्षी राजकुल की भी इतिश्री हो गई।
है विष्णुशर्मा ने घड़े में सिन्धु सचमुच भर दिया-
कहकर कहानी ही जड़ों को पूर्ण पण्डित कर दिया ! ॥९४॥
ज्योतिष
वृत्तान्त पहले व्योम का प्रकटित हमी ने था किया,
वह क्रान्तिमण्डल था हमीं से अन्य देशों ने लिया।
थे आर्यभट, आचार्य भास्कर-तुल्य ज्योतिर्विद यहाँ,
अब भी हमारे 'मानमंदिर' वर्णनीय नहीं कहाँ ? ॥९५॥
अंकगणित
जिस अंक-विद्या के विषय में वाद का मुँह बन्द है,
वह भी यहाँ के ज्ञान-रवि की रश्मि एक अमन्द है।
डर कर कठोर कलंक से, वा सत्य के आतंक से-
कहते अरब वाले अभी तक “हिन्दसा" ही अंक से ॥९६॥
रेखागणित
उन "सुल्व-सूत्रों" के जगत् में जन्मदाता हैं हमीं,
रेखागणित के आदि ज्ञाता या विधाता हैं हमीं।
हमको हमारी वेदियाँ पहले इसे दिखला चुकीं-
निज रम्य-रचना हेतु वे रेखागणित सिखला चुकीं ॥९७॥
सामुद्रिक और फलित ज्योतिष
आकार देख प्रकार थे हम जान जाते आप ही,
वे शास्त्र 'सामुद्रिक' सरीखे थे बनाते आप ही।
विज्ञान से भी ‘फलित ज्योतिष' हो रहा अब सिद्ध है,
यद्यपि अविज्ञों से हुआ वह निन्दय और निषिद्ध है ॥९८॥
भाषा और व्याकरण
प्राचीन ही जो है न, जिससे अन्य भाषाएँ बनीं ;
भाषा हमारी देववाणी श्रुति-सुधा से है सनी।
है कौन भाषा यों अमर व्युत्पत्ति रूपी प्राण से ?
हैं अन्य भाषा शब्द उसके सामने म्रियमाण से ॥९९॥
निकला जहाँ से आधुनिक वह भिन्न-भाषा-तत्त्व है,
रखती न भाषा एक भी संस्कृत-समान महत्त्व है।
पाणिनि-सदृश वैयाकरण संसार भर में कौन है ?
इस प्रश्न का सर्वत्र उत्तर उत्तरोत्तर मौन है ॥१००॥
वैद्यक
उस वैद्यविद्या के विषय में अधिक कहना व्यर्थ है,
सुश्रुत, चरक रहते हुए संदेह रहना व्यर्थ है।
अनुवादकर्ता आज भी उपहार उनके पा रहे,
हैं आर्य-आयुर्वेद के सब देश सद्गुण गा रहे ॥१०१॥
थे हार जाते अन्य देशी वैद्यवर जिस रोग से-
हम भस्म करते थे उसे बस भस्म के ही योग से।
थे दूर देशों के नृपति हमको बुलाकर मानते',
इतिहास साक्षी है, हमें सब थे जगद्गुरु जानते ॥१०२॥
है आजकल की डाक्टरी जिससे महा महिमामयी,
वह 'आसुरी' नामक चिकित्सा है यहीं से ली गई।
नाड़ी-नियम-युत रोग के निश्चित निदान हुए यहाँ
सब औषधों के गुण समझ कर रस-विधान हुए यहाँ ॥१०३॥
कवि और काव्य
कविवर्य शेक्सपियर तथा होमर सदा सम्मान्य हैं,
विख्यात फिरदौसी-सदृश कवि और भी अन्यान्य हैं।
पर कौन उनमें मनुज-मन को मुग्ध इतना कर सके-
वाल्मीकि, वेदव्यास, कालीदास जितना कर सके ॥१०४॥