पर ठीक वैसा ही हमारा यह प्रसिद्ध विकास है
जैसा कि बुझने के प्रथम बढ़ता प्रदीप-प्रकाश है।
हो बौद्ध लक्ष्य-भ्रष्ट सहसा घोर नास्तिक ही रहे,
सँभले न फिर हम आर्य भी, इस भाँति विषयों में बहे ॥२१६॥
यद्यपि सनातन धर्म की ही अन्त में जय जय रही,
भगवान् शंकर ने भगा दी बौद्ध-भ्रान्ति भयावही।
पर हाय ! हम चेते नहीं फँसकर कलह के जाल में,
क्या फूट की जड़ फैलती है फूटकर पाताल में ! ॥२१७।।
बढ़ने लगा विग्रह परस्पर क्रान्तियाँ होने लगीं,
अनुदारतामय स्वार्थ के वश भ्रान्तियाँ होने लगीं;
जिसमें हुआ कुछ बल वही अधिकार पर मरने लगा,
सौभाग्य भय खाकर भगा, दुर्भाग्य जय पाकर जगा ॥२१८॥
बहु तुच्छ रजवाड़े बने, साम्राज्य सब कट छंट गया ;
यों भूरि भागों में हमारा दीन भारत बँट गया !
जो एक अनुपम रत्न था परिणत कणों में हो गया,
वह मूल्य और प्रकाश सारा टूटते ही खो गया ।।२१९॥
आचार और विचार तक ही यह विभेद बढ़ा नहीं,
बहु भिन्न भाषाएँ हुईं , फैली विषमता सब कहीं।
आलाप करना भी परस्पर क्लेश हमको हो गया,
निज देश में ही हा विधे ! परदेश हमको हो गया ।।२२०।।