उन अग्रजन्मा ब्राह्मणों की हीनता तो देख लो,
भू-देव थे जो आज उनकी दीनता तो देख लो,
थे ब्रह्म-मूर्ति यथार्थ जो अब मुग्ध जड़ता पर हुए,
जो पीर थे देखा, वही भिश्ती, बबर्ची, खर हुए !!! ।। २०१ ।।
वह वेद का पढ़ना-पढ़ाना अब न उनमें दीखता,
वह यज्ञ का करना-कराना कौन उनमें सीखता ?
बस पेट को ही आज उनमें दान देना रह गया,
है कर्म उनमें एक ही अब दान लेना रह गया !।। २०२ ॥
कुछ 'शीघ्र-बोध' रटा कि फिर वे गणक-पुङ्गव बन गये,
पश्चाङ्ग पकड़ा और बस सर्वज्ञता में सन गये !
सङ्कल्प तक भी शुद्ध वे साद्यन्त कह सकते नहीं,
व पखरवाये पाद-पङ्कज किन्तु रह सकते नहीं ।। २०३ ॥
सन्देह है, जप के समय क्या मन्त्र जपते मौन वे,
हैं 'ॐ नमः' वा 'हा ! निमन्त्रण' पाठ करते कौन वे !
निश्चय नहीं दृग बन्द कर वे लीन ही भगवान में
या दक्षिणा की मंजु-मुद्रा देखते हैं ध्यान में ! ॥२०४॥
जिन ब्राह्मणों ने लोभ को सन्तत तिरस्कृत था किया
देखा, उन्हीं के वंशजों को आज उसने ग्रस लिया।
अब आप उनकी दक्षिणा पहले नियत कर दीजिये
फिर निन्द्य से भी निन्द्य उनसे काम करवा लीजिये ! ॥२०५।।
आचार उनका आज केवल रह गया 'असनान' में,
जप, तप तथा वह तेज अब है शेष बाह्य-विधान में !
वे भ्रष्ट यद्यपि हो रहे हैं डूब कर अज्ञान में,
जाते मरे हैं किन्तु फिर भी वंश के अभिमान में !॥ २०६॥
था हाय ! जिनके पूर्वजों ने धन्य धरणीतल किया,
इस लोक की, परलोक की, प्रश्नावली को हल किया।
सर्वत्र देखो, आज वे कैसे तिरस्कृत हो रहे,
खोकर तपोबल, ज्ञान-धन, जीते हुए मृत हो रहे ॥ २०७।।