हम मत्त हैं, हम पर चढ़ा कितने नशों का रंग है
चंडू, चरस, गाँजा, मदक, अहिफेन, मदिरा, भंग है।
सुन लो जरा हममें यहाँ कैसी कहावत है चली
“पीता न गाँजे की कली उस मर्द से औरत भली!" ॥२६८॥
क्या मर्द हैं हम वाहवा ! मुख-नेत्र पीले पड़ गये;
तनु सूखकर काँटा हुआ, सब अंग ढीले पड़ गये।
मर्दानगी फिर भी हमारी देख लीजे कम नहीं
ये भिनभिनाती मक्खियाँ क्या मारते हैं हम नहीं ! ॥२६९।।
अँगरेज वणिकों ने नशे की लौ लगाई है हमें,
हम दोष देते हैं कि तब यह मौत आई है हमें।
पर व्यर्थ है यह दोष देना; हैं हमी दोषी बड़े ;
हम लोग कहने से किसी के क्यों कुएँ में गिर पड़े? ॥२७०॥
जो मस्त होकर “तत्त्वमसि' का गान करते थे सदा
स्वच्छन्द ब्रह्मानन्द-रस का पान करते थे सदा।
मद्यादि पादक वस्तुओं से मत्त हैं अब हम वही,
करते सदैव प्रलाप हैं, सुध बुध सभी जाती रही ! ॥२७१॥
दो चार आने रोज के भी जो कुली मजदूर हैं
सन्धमा समय वे भी नशे में दीख पड़ते चूर हैं।
मर जायें चाहे बाल-बच्चे भूख के मारे सभी,
पर छोड़ सकते हैं नहीं उस दुर्व्यसन को वे कभी! ॥२७२।।
शुचिता विदित जिनकी वही हम आज कैसे भ्रष्ट हैं,
किस भाँति दोनों लोक अपने कर रहे हम नष्ट हैं।
हम आर्य हैं, पर अब हमारे चरित कैसे गिर गये,
हम दुर्गुणों से घिर गये हैं, सद्गुणों से फिर गये! ॥२७३।।