अब है यहाँ क्या ? दम्भ है, दौर्बल्य है, दृढ़-द्रोह है,
आलस्य, ईर्ष्या, द्वेष है, मालिन्य है, मद, मोह है।
है और क्या ? दुर्बल जनों का सब तरह सिर काटना,
पर साथ ही बलवान का है श्वान-सम पग चाटना ॥३००॥
अपने लिए यदि दूसरों को दुःख देना धर्म हो,
यदि ईश-नियमों का निरादर न्याय से सत्कर्म हो।
निश्चेष्ट होकर बैठने में हो न पुण्यों की कमीं-
तो मुक्ति के भागी हमीं हैं, मुक्ति के भागी हमीं !॥३०१॥