अन्याय-अत्याचार करना तो किसी पर दूर है,
जिसका किया हमने किया उपकार ही भरपूर है ।
पर पीड़ितों का त्राण कर जो दुःख हम खोते नहीं
तो आज हिन्दुस्तान में ये पारसी होते नहीं ॥१३६॥
जाकर कहाँ हमने जलाई आग युद्ध-अशान्ति की ?
थे घूमते सर्वत्र पर हमने कहाँ पर क्रान्ति की ?
करते वही थे हम कि जिससे शान्ति सुख पावें सभी,
स्वार्थान्ध होकर, पर-हित-व्रत छोड़ सकते थे कभी ? ॥१३७॥
भूले हुओं को पथ दिखाना यह हमारा कार्य था,
राजत्व क्या है, जगत हमको मानता आचार्य था।
आतङ्क से पाया हुआ भी मान कोई मान है ?
खिंच जाय जिस पर मन स्वयं सच्चा वही बलवान है ॥१३८॥