आरम्भ से ही जो हमारे मुख्य धर्म-क्षेत्र हैं
अब देख कर उनकी दशा आँसू बहाते नेत्र हैं।
हा ! गूढ़ तत्त्वों का पता ऋषि-मुनि लगाते थे जहाँ
सबसे अधिक अविचार का विस्तार है सम्प्रति वहाँ ॥१९०।।
वे तोर्थ जो प्रभु की प्रभा से पूर्ण हो पूजित हुए
राजर्षि-युत ब्रह्मर्षियों के कण्ठ से कूजित हुए,
अब तीर्थ-गुरु ही हैं अधिक उनको कलङ्कित कर रहे,
हा ! स्वर्ग के सु-स्थान में हम नरक अङ्कित कर रहे !॥ १९१ ।।
वे तीर्थ-पण्डे, है जिन्होंने स्वर्ग का ठेका लिया;
है निन्द्य कर्म न एक ऐसा हो न जो उनका किया !
वे हैं अविद्या के पुरोहित, अविधि के आचार्य हैं,
लड़ना-झगड़ना और अड़ना मुख्य उनके कार्य हैं ॥ १९२॥
वे आप तो हैं ही पतित, कामी, कु-पथगामी बड़े
पर पाप के भागी हमें भी हैं बनाने को खड़े ।
हम-भस्म में घृत के सदृश-देते उन्हें जो दान हैं
बस वे उसी से दुर्व्यसन के जोड़ते सामान हैं ॥ १९३॥