है पण्डितों की राय यह- "सङ्गीत भी साहित्य है,"
श्रुति-मार्ग से मन को सुधा-रस वह पिलाता नित्य है।
विष किन्तु उसमें भी यहाँ हमने मिला कर रख दिया,
हतभाग्य घुल घुल कर मरा जिसने कि यह रस चख लिया ॥१७०।।
जो मञ्जु मानस में तरङ्ग था उठाता भक्ति की
अब आग भड़काता वही सङ्गीत विषयासक्ति की।
हमने बने को भी विगाड़ा, याद रखना है इसे,
लो, रम्व रस में विष मिलाना और कहते हैं किसे ? ।। १७१ ।।
सङ्गीत में जब से मदन की मूर्ति अङ्कित हो गई
वह भावुकों की भक्ति-वाणी भी कलङ्कित हो गई !
करते प्रकट थे हाय ! वे जिससे अनन्योपासना,
बढ़ने लगी देखो, उसीसे अब विषय की वासना!॥ १७२।।
गिर जाय कुछ गङ्गाम्बु भी अस्पृश्य नाली में कभी,
तो फिर उसे अपवित्र ही बतलायँगे निश्चय सभी।
यों भक्तिरस भी सन गया अश्लीलता के नील में,
गुड़ भी बनेगा नमक यदि पड़ जाय सांभर झील में ॥ १७३ ॥
कविता तथा सङ्गीत ने हमको गिराया और भी,
सच पूछिए तो अब कहीं हमको नहीं है ठौर भी।
हा ! जो कलाएँ थीं कभी अत्युच्च भावोद्गारिणी
विपरीतता देखो कि अब वे हैं अधोगतिकारिणी !॥ १७४ ।।