हम भूप होकर भी कभी होते न भोगाऽसक्त थे,
रह कर विरक्त विदेह जैसे आत्मयोगाऽसक्त थे ।
कर्तव्य के अनुरोध से ही कार्य करते थे सभी,
राजत्व में भी फिर भला हम भूल सकते थे कभी ? ॥१३९॥
हाँ मेदिनी-पति भी यहाँ के भक्त और विरक्त थे,
होते प्रजा के अर्थ ही वे राज्यकार्य्यासक्त थे।
सुत-तुल्य ही वे सौम्य उसको मानते थे सर्वदा,
होता प्रजा का अर्थ ही 'सन्तान' संस्कृत में सदा ॥ १४० ॥
देते प्रजा-हित ही बढ़ा कर प्राप्त कर वे सर्वथा,
ले भूमि से जल रवि उसे देता सहस्र गुना यथा ।
बन कर मृत-स्थानीय भी हरते प्रजा का सोच थे,
करते तदर्थ न पुत्र के भी त्याग में सङ्कोच थे॥१४१॥
"हैं मद्यपी कायर न मेरे राज्य में तस्कर कहीं,
व्यभिचारिणी तो फिर कहाँ जब एक व्यभिचारी नहीं ।"
यों सत्यवादी नृप बिना संकोच कहते थे यहाँ,
कोई बतादे विश्व में शासक हुए ऐसे कहाँ ? ॥१४२॥