हिन्दू-समाज सभी गुणों से आज कैसा हीन है,
वह क्षीण और मलीन, आलस्य में ही लीन है।
परतन्त्र पद पद पर विपद में पड़ रहा वह दीन है,
जीवन-मरण उसका यहाँ अब एक दैवाधीन है॥३०५॥
हा ! आर्य-सन्तति आज कैसी अन्य और अशक्त है,
पानी हुआ क्या अब हमारी नाड़ियों का रक्त है ?
संसार में हमने किया बस एक ही यह काम है-
निज पूर्वजों का सब तरह हमने डुबोया नाम है !॥३०६॥
दुःशीलता दासी हमारी, मूर्खता महिषी सदा,
है स्वार्थ सिंहासन हमारा मोह मन्त्री सर्वदा ।
यों पाप-पुर में राज-पद हा ! कौन पाना चाहता ?
चढ़ कर गधे पर कौन जन बैकुण्ठ जाना चाहता ? ॥ ३०७ ॥
भारत ! तुम्हारा आज यह कैसा भयङ्कर वेष है ?
है और सब निःशेष केवल नाम ही अब शेष है !
ब्रह्मत्व, राजन्यत्व युत वैश्यत्व भी सब नष्ट है,
शूद्रत्व और पशुत्व ही अवशिष्ट है, हा ! कष्ट है ॥ ३०८ ।।
हा दीनबन्धो ! क्या हमारा नाम ही मिट जायगा,
अब फिर कृपा-कण भी न क्या भारत तुम्हारा पायगा ?
हा राम ! हा ! हा कृष्ण ! हा! हा नाथ ! हा ! रक्षा करो।
मनुजत्व दो हमको दयामय ! दुःख-दुर्बलता हरो ॥ ३०९ ॥