प्रकटित हुई थी बुद्ध विभु के चित्त में जो भावना
पर-रूप में अन्यत्र भी प्रकटी वही प्रस्तावना ।
फैला अहिंसा-बुद्धि-वर्द्धक जैन-पन्थ-समाज भी,
जिसके विपुल साहित्य की विस्तीर्णता हैआज भी ।।२०८।।
श्रुति-संहिताओं से निकल ध्रुव धर्म-चिन्ता-ह्रादिनी ,
हो बौद्ध-जैनमयी त्रिपथगा बह चली कलनादिनी ।
शतश: प्रवाहों में उसे अब देखते हैं हम सभी,
फिर एक होकर ब्रह्म-सागर में मिलेगी वह कभी ? ।।२०९।।