क्या देर लगती है बिगड़ते, जब बिगड़ने पर हुए।
फिर क्या, परस्पर बन्धु ही तैयार लड़ने पर हुए !
आखिर महाभारत-समर का साज सज ही तो गया,
डंका हमारे नाश का बेरोक बज ही तो गया !॥१९९॥
हाँ सोचनीय, परन्तु ऐसा कलह भी होगा नहीं,
तू ही बता हे काल ! ऐसा हाल देखा है कहीं?
हा ! बन्धुओं के ही करों से बन्धु कितने कट मरे,
यह भव्य-भारत अन्त में बन ही गया मरघट हरे ! ॥२००॥
इस सर्वनाशी युद्ध का वह दृश्य कैसा घोर था,
उस ओर था यदि पुत्र तो लड़ता पिता इस ओर था।
सन्तान ही के रक्त में यह मातृभूमि सनी यहाँ,
उस स्वर्ग की-सी वाटिका की हाय ! राख बनी यहाँ ! ॥२०१॥