वे भूरि संख्यक साधु जिनके पन्थ-भेद अनन्त हैं-
अवधूत, यति, नागा, उदासी, सन्त और महन्त हैं।
हा! वे गृहस्थों से अधिक हैं आज रागी दीखते,
अत्यल्प हो सच्चे विरागी और त्यागी दीखते॥१९७ ॥
जो कामिनी-काश्चन न छूटा फिर विराग रहा कहाँ ?
पर चिन्ह तो वैराग्य का अब है जटाओं में यहाँ !
भूखों मरे कि जटा रखा कर साधु कहलाने लगे,
चिमटा लिया, 'भस्मी' रमाई, माँगने-खाने लगे !! ।। १९८।।
संख्या अनुद्योगी जनों की ही न उनसे बढ़ रही-
शुचि साधुता पर भी कुयश की कालिमा है चढ़ रही।
है भस्म-लेपन से कहीं मन की मलिनता छूटती ?
हा ! साधु-मर्यादा हमारी अब दिनोंदिन टूटती ! । १९९ ।।
यदि ये हमारे साधु ही कर्तव्य अपना पालते-
तो देश का बेड़ा कभी का पार ये कर डालते ।
पर हाय ! इनमें ज्ञान तो बस राम का ही नाम है,
दम की चिलम में लौ उठाना मुख्य इनका काम है ! ।।२००।।