है कृषि-प्रधान प्रसिद्ध मारत और कृषि की यह दशा !
होकर रसा यह नीरसा अब हो गई है कर्कशा ।
अच्छी उपज होती नहीं है, भूमि बहु परती पड़ी;
गो-वंश का वध ही यहाँ है याद आता हर घड़ी ! ॥ ५९ ॥
यूरोप में कल के हलों से काम होता है सही,
जुत क्यों न जाती हो अरब में ऊँट के हल से मही ।
गो-वंश पर ही किन्तु है यह देश अवलंबित सदा,
पर दीन भारत ! हाय रे भाग्य में है क्या बदा ! ॥ ६० ॥
है भूमि बन्ध्या हो रही, वृष-जाति दिन दिन घद रही;
घी-दूध दुर्लभ हो रहा, बल-वीर्य की जड़ कट रही ।
गो-वंश के उपकार की सब ओर आज पुकार है;
तो भी यहाँ इसका निरन्तर हो रहा संहार है ! ॥ ६१ ॥
वह भी समय था एक, जो अब स्वप्न जा सकता कहा,
घी तीस सेर विशुद्ध रुपये में हमें मिलता रहा !
देहात में भी सेर भर से अब अधिक मिलता नहीं !
दुर्बल हुए हम आज यों, तनु भार भी झिलता नहीं ॥६२॥
दाँतों तले तृण दाबकर हैं दीन गायें कह रहीं-
"हम पशु तथा तुम हो मनुज, पर योग्य क्या तुमको यही?
हमने तुम्हें माँ की तरह है दूध पीने को दिया,
देकर कसाई को हमें तुमने हमारा वध किया ॥६३॥
"जो जन हमारे मांस से निज देह-पुष्टि विचार के-
उदरस्थ हमको कर रहे हैं, क्रूरता से मार के।
मालूम होता है सदा, धारे रहेंगे देह वे-
या साथ ही ले जायँगे उसको बिना सन्देह वे ! ॥६४||
"हा ! दूध पीकर भी हमारा पुष्ट होते हो नहीं,
दधि, घृत तथा तक्रादि से भी तुष्ट होते हो नहीं।
तुम खून पीना चाहते हो, तो यथेष्ट वही सही,
नर-योनि हो, तुम धन्य हो, तुम जो करो थोड़ा वही ! ॥६५॥
"क्या वश हमारा है भला, हम दीन हैं, बलहीन हैं,
मारो कि पालो, कुछ करो तुम, हम सदैव अधीन हैं।
प्रभु के यहाँ से भी कदाचित् आज हम असहाय हैं,
इससे अधिक अब क्या कहें, हा ! हम तुम्हारी गाय हैं ॥६६॥
"बच्चे हमारे भूख से रहते समक्ष अधीर हैं,
करके न उनका सोच कुछ देती तुम्हें हम क्षीर हैं।
चरकर विपिन में घास फिर आती तुम्हारे पास हैं,
होकर बड़े वे वत्स भी बनते तुम्हारे दास हैं ॥६७॥
"जारी रहा क्रम यदि यहाँ यों ही हमारे नाश का-
तो अस्त समझो सूर्य्य भारत-भाग्य के आकाश का।
जो तनिक हरियाली रही वह भी न रहने पायगी,
यह स्वर्ण-भारत-भूमि बस मरघट-मही बन जायगी ॥६८॥
"बहुधा हमारे हेतु ही विग्रह यहाँ होता खड़ा,
सहवासियों में वैर का जो बीज बोता है बड़ा।
जो हे मुसलमानो ! हमें कुर्बान करना धर्म है-
तो देश की यों हानि करना क्या नहीं दुष्कर्म है? ॥६९॥
"बीती अनेक शताब्दियाँ जिस देश में रहते तुम्हें,
क्या लाज आवेगी उसे अपना 'वतन' कहते तुम्हें ?
तुम लोग भारत को कभी समझो अरब से कम नहीं?
यद्यपि जगत् में और कोई देश इसके सम नहीं ॥७०॥
"जिस देश के वर-वायु से सकुटुम्ब तुम हो जी रहे,
मिष्टान्न जिसका खा रहे, पीयूष-सा जल पी रहे।
जो अन्त में तनु को तुम्हारे ठौर देगा गोद में,
कर्तव्य क्या तुमको नहीं रखना उसे आमोद में? ॥७१॥
"जिसमें बुजुर्गों के तुम्हारे हैं शरीर मिले हुए,
जिसने उगाये हैं वहाँ छायार्थ वृक्ष खिले हुए।
क्या मान्य ‘मगरिब' की तरह तुमको न होगी वह धरा?
अजमेर की दरगाह का कर ध्यान सोचो तो जरा ॥७२॥
"हिन्दू हमें जब पालते हैं धर्म अपना मान के,
रक्षा करो तब तुम हमारी देशहित ही जान के।
यदि तुम कहो—अब हम कलों से काम ले लेंगे सभी,
तो पूछती हैं हम कि क्या वे दूध भी देंगी कभी? ॥७३॥
"हिन्दू तथा तुम सब चढ़े हो एक नौका पर यहाँ,
जो एक का होगा अहित तो दूसरे का हित कहाँ।
सप्रेम हिलमिल कर चलो, यात्रा सुखद होगी तभी ;
पीछे हुआ सो हो गया, अब सामने देखो सभी" ॥७४॥
हा ! शोचनीय किसे नहीं गो-वंश का यह ह्रास है?
इस पाप से ही बढ़ रहा क्या अब हमारा त्रास है?
घृत और दुग्धाभाव से दुर्बल हुए हम रो रहे,
होकर अशक्त, अकाल में ही काल-कवलित हो रहे ॥७५॥
जो नित्य नूतन व्याधियाँ करती यहाँ आखेट हैं,
क्या दीन-दुर्बल ही अधिक होते न उनको भेंट हैं?
'दैवोऽपि दुर्बलघातकः' फिर याद आता है यहाँ,
'छिद्रेष्वनर्था' वाक्य पर भी ध्यान जाता है यहाँ ॥७६॥