बिकता कहीं वर है यहाँ, बिकती तथा कन्या कहीं,
क्या अर्थ के आगे हमें अब इष्ट आत्मा भी नहीं !
हा ! अर्थ, तेरे अर्थ हम करते अनेक अनर्थ हैं-
धिक्कार, फिर भी तो नहीं सम्पन्न और समर्थ हैं? ॥२५१||
क्या पाप का धन भी किसी का दूर करता कष्ट है?
उस प्राप्तकर्ता के सहित वह शीघ्र होता नष्ट है।
आश्चर्य क्या है, जो दशा फिर हो हमारी भी वही,
पर लोभ में पड़कर हमारी बुद्धि अब जाती रही ! ॥२५२।।