इस भाँति जब जग में हमारी पूर्ण उन्नति हो चुकी,
पाया जहाँ तक पथ वहाँ तक प्रगति की गति हो चुकी।
तब और क्या होता? हमारे चक्र नीचे को फिरे,
जैसे उठे थे, अन्त में हम ठीक वैसे ही गिरे ! ॥१९५॥
उत्थान के पीछे पतन सम्भव सदा है सर्वथा,
प्रौढ़त्व के पीछे स्वयं वृद्धत्व होता है यथा।
हा ! किन्तु अवनति भी हमारी है समुन्नति-सी बड़ी,
जैसी बढ़ी थी पूर्णिमा वैसी अमावस्या पड़ी ! ॥१९६।।
पैदा हुआ अभिमान पहले चित्त में निज शक्ति का,
जिससे रुका वह स्त्रोत सत्वर शील, श्रद्धा, भक्ति का।
अविनीतता बढ़ने लगी, अनुदारता आने लगी,
पर-बुद्धि जागी, प्रीति भागी, कुमति बल पाने लगी ॥१९७।।
फिर स्वार्थ-ईर्ष्या-द्वेष का विष-बीज जो बोने लगा,
दुर्भावना के वारि से उग वह बड़ा होने लगा।
वे फूट के फल अन्त में यों फूलकर फलने लगे-
खाकर जिन्हें, जीते हुए ही, हम यहाँ जलने लगे ॥१९८॥