जो हो, हमारी दुर्दशा का और अन्त नहीं रहा,
हा ! क्या कहें; कितना हमारा रक्त पानी-सा बहा !
हो कर सनुज, कृमि-कीट से भी तुल्य हम लेखे गये;
दृष्टान्त ऐसे बहुत ही कम विश्व में देखे गये ।।२२६।।
रहते यवन थे रक्त-रंजित तीक्ष्ण असि ताने खड़े,
चोटी, नहीं तो हाय ! हमको शीश कटवाने पड़े !
जीते हुए दीवार में हम लोग चुनवाये गये,
बल से असंख्यक आर्य्य इसलाम में लाये गये !! ॥२२७॥
हा स्वार्थ-वश हमको अनेकों घोर कष्ट दिये गये,
कितने अवश अबला जनों के धर्म नष्ट किये गये,
घर में सुता के जन्म से होती बड़ों को थी व्यथा,
कुल-मान रखने को चली थी बालिका-वध की प्रथा ! ।।२२८।।
हा ! निष्ठुरों के हाथ से सुर-मूर्तियाँ खण्डित हुईं,
बहु मन्दिरों की वस्तुओं से मसजिदें मण्डित हुईं।
जजिया-सरीखे कर लगे, यह बात सिद्ध हुई सही
जो प्राप्त हो परतन्त्रता में दुःख थोड़ा है वही ।। २२९ ।।