घर के न घाट के
अनन्त राम श्रीवास्तव
रविवार को साप्ताहिक अवकाश होने के कारण मैं चाय पीते हुये होली की खरीदारी के लिए श्रीमती जी से परामर्श कर रहा था कि राम राम कहते हुये पड़ोसिन भाभी ने दस्तक दी। मैंने भी भाभी की राम राम का जवाब जय सियाराम से देते हुए श्रीमती जी से भाभी के लिए चाय लाने को कहा।
भाभी और सुनाओ कैसे आना हुआ? भाभी जी बिना किसी औपचारिकता के पूँछने लगीं
लल्ला ये नेवला प्रसाद कौन है? तुम्हाये भैय्या कल तिवारी जी से बतियाय रहे थे कि "नेवला प्रसाद न घर के रहे न घाट के" म्हारी न आओ सो पूँछन चली आयी।
श्रीमती जी भाभी जी के लिए चाय लेकर आ गयीं। मैंने बताना शुरू किया।आप तो जानती ही हो भाभी कि इस समय पाँच राज्यों में विधान सभा चुनाव चल रहे हैं। नेता अपनी पार्टी को छोड़कर दूसरी पार्टियों में जा रहे हैं। एक नेताजी ने अपनी पार्टी छोड़ते समय कहा कि" उनकी पार्टी के नेता साँप जैसे हैं। मैं नेवला बनकर उनका सफाया कर दूँगा। इसी के साथ उन्होंने कहा कि वे जिस पार्टी को छोड़ देते हैं उसका सफाया हो जाता है।
इस लिये लोग उनको नेवला प्रसाद कहने लगे।
चुनाव परिणाम घोषित हुये तो नेवला प्रसाद चुनाव हार गये इसी के साथ उनकी पार्टी भी बहुमत पाने में असफल रही। तब तो लल्ला नेवला प्रसाद वाकई में "न घर के रहे न घाट के" खुद तो चुनाव हारे ही अपने बड़बोलेपन के कारण अपनी पार्टी को भी ले डूबे। सो तो है भाभी।
नेवला प्रसाद की मुश्किलें यहीं नहीं खत्म हुयीं। चुनाव हारते ही सरकार ने उनसे सरकारी बंगला भी खाली करवा लिया। क्यों कि अब वे किसी भी सदन के सदस्य नहीं रहे। लल्ला अब तो पक्का नेवला प्रसाद न घर के ( किसी पार्टी के) रहे और न घाट ( किसी सदन के सदस्य) रहे। ऐसी महत्वाकांक्षा व बड़बोलापन किस काम का कि आदमी अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार कर धोबी के कुत्ता की तरह "न घर का रहे न घाट का"
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आपका
अनन्त राम श्रीवास्तव