कहावतों में जिंदगी
अनन्त राम श्रीवास्तव
कितना हँसोड़ रहा होगा वह आदमी जिसने एक ऊँट के साथ मजाक किया होगा उसके मुँह में जीरे का एक दाना रखकर और " ऊँट के मुँह में जीरा " जैसा सदाबहार कहावत की सौगात दे गया। जिसे आज भी हम उसी रूप में प्रयोग कर रहे हैं।
सचमुच बड़ा फक्कड़ और वह बड़ा ही मस्तमौला रहा होगा वह व्यक्ति जिसने छछूंदर के सिर पर चमेली के तेल मले जाने की मजेदार बात सोची होगी। भले उसने यह बात किसी से ठिठोली करने के लिए सोची होगी। इसमें बिना कोई परिवर्तन किये हम आज भी व्यंग के रूप में प्रयोग कर रहे हैं।
जरा कहावतों के जन्म के बारे में सोचें ! किसने कहा होगा पहली बार " अधजल गगरी छलकत जाए " से हम आज भी प्रेरणा लेकर पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने पर बल देते हैं।
" गये थे हरिभजन को ओटन लगे कपास " आज भी हमें ऊर्जा प्रदान करता है कि हमें अर्जुन की तरह अपने लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए अन्यथा हम अपनी मंजिल से भटक सकते हैं।
वे हमारे पूर्वज थे जिन्हें कवि नहीं बनना था और न ही उन्हें प्रसिद्ध होना था इसलिए उन्होंने कहावतों में अपना नाम नहीं जोड़ा क्योंकि वे निस्वार्थ भाव से समाज का पथ प्रदर्शन करना चाहते थे।
हमारे पूर्वज जिंदगी के कटु आलोचक रहे होंगे गुलमोहर की लाल हंसी हंसने वाले समय को गेंद की तरह उछालने वाले अपनी नींद और अपने आराम के बारे में खुद फैसले लेने वाले समाज के शुभ चिंतक लोग रहे होंगे।
उनमें से कोई तेज-तर्रार भड़भूंजा रहा होगा जिसने पहली बार महसूस किया होगा कि "अकेला चना भाँड़ नहीं फोड़ता" आज भी उसके दिये ज्ञान का हमारे पास कोई तोड़ नहीं है।
कोई उत्साही मल्लाह रहा होगा जिसने निष्कर्ष निकाला होगा कि बिना गहराई में जाये हम दरिया ( विशाल जलराशि ) के बारे में कुछ भी नहीं जान सकते हैं। "जिन खोजा तिन पाइयां गहरे पानी पैठ" को हम उसी रूप में अंगीकार कर रहे हैं।
क्या तुम उन अनाम पूर्वजों के साहस की तपिश महसूस कर सकते हो जिन्होंने समाज को कुछ देने के लिए अपना जीवन होम कर दिया। जरा सोचो उस दिन क्या हुआ होगा जब उन्हीं में से किसी ने एक ढोंगी की ओर उँगली उठाकर कहा होगा "मुँह में राम बगल में छुरी " आज भी हम धोखा देने वाले को इसी कहावत से विभूषित करते हैं।
उन अनाम पूर्वजों ने डरना तो शायद सीखा ही नहीं होगा जब मौत भी उनके सिरहाने आ खड़ी होती होगी तो वे उसे रँगासियार कहकर चिढ़ाते होंगे। अब नहीं दिखते वैसे मस्तमौला, फक्कड़ और साहसी लोग
जो जिंदगी के कटु आलोचक थे और उनमें समाज को कुछ नया देने का जुनून था। इसीलिए अब नयी कहावतें आकार नहीं ले पा रहीं हैं। हम पूर्वजों की दी हुयी कहावतों से काम चला रहें हैं।
तुम्हें अपनी भाषा की कितनी कहावतें याद हैं यह समझदार लोगों का दौर है यह चालाक कवियों का दौर है यह प्रायोजित शब्दों का दौर है
काश इस दौर के बारे में मैं एक सटीक कहावत कह पाता। इस पर भी हमें पूर्वजों का ही सहारा लेना होगा। उन्होंने ऐसे लोगों के लिए कहावत बना दी थी " अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनना "
साभार
डा0 संत लाल