पीली साड़ी पहन............
A.R. Srivastava
बसंत पंचमी का अवकाश होने के कारण मैं आराम से अखवार देखते हुए गरमागरम चाय का आनंद ले रहा था। अखवार में बसंत पंचमी पर छपी कुण्डली पढ़ने लगा "पीली साड़ी पहन प्रेम मगन भयी सरसों" मैं कुण्डली की पहली ही लाइन पढ़ पाया था कि श्रीमती जी ने बैठक में प्रवेश करते हुए मुझे टोका 'किसकी तारीफ में कशीदे पढ़ें जा रहे हैं' मैं कुछ बोलता उसके पहले ही श्रीमती जी ने कहा क्या मैं सुंदर नहीं हूँ मैंने पूँछा क्यों? इस पर श्रीमती जी ने कहा आपने अपनी प्रोफाइल में लिख रखा है सुंदरता का परम उपासक हूँ सौंदर्य हमारी कमजोरी, काव्य साधना के लिए सदा सुंदरता की करता हूँ चोरी। आपने आज तक मेरे ऊपर तो एक लाइन तक नहीं लिखी। इस लिये या तो प्रोफाइल में लिखा झूँठ है अथवा मैं सुंदर नहीं हूँ।
मैं श्रीमती जी के सवालों का जवाब देता उसके पहले ही पड़ोस वाली भाभी जी ने धमाकेदार ढंग से प्रवेश करते हुए कहा क्या बात है देवरानी जी? मैं समझ गया कि अब दो पाटों के बीच में मेरा पिसना तय है। मैं कुछ बोलता उसके पहले ही श्रीमती जी ने शिकायती भरे लहजे में कहा आप ही बताओ भाभी ये अपने को साहित्यकार कहते हैं पर आज तक मेरे ऊपर एक भी लाइन नहीं लिखी आज माँ सरस्वती के पूजन का दिन है। इस दिन भी ये दूसरे की शान में कशीदे पढ़ रहे हैं। भाभी ने भी बिना सोचे समझे मुझे दोषी ठहराते हुए कहा लल्ला ये तो गलत बात है देवरानी तुम्हारी जीवन साथी हैं कम से कम उनके लिए तो लिखना ही चाहिए ये तो वही कहावत हुयी कि "घर के लरका खोई (रस निकलने के बाद बचा गन्ने का अवशेष ) चाटें समिधियाने के खांय राब" मैं कुछ कहता कि उसके पहले ही श्रीमती जी ने कहा आज प्रामिज करो कि मेरे ऊपर भी लिखोगे अथवा ये कहो कि मैं सुंदर नहीं हूँ।
मैनें दोनों हाँथ खड़े करते हुए कहा आप दोनों मुझे बोलने दोगी तभी तो मैं कुछ कह पाऊँगा। मेरी बात सुनते ही भाभी और श्रीमती जी दोनों चुप हो गयीं। मैंने मन में माँ वाणी से याचना करते हुए इस संकट से बचाने का अनुरोध किया। अचानक मेरे दिमाग में यह लाइनें आ गयीं। मैनें कहा अच्छा सुनो
तुम मिली तो आज फिर से हो गयी गतिमान सांसे
लव हुये खामोश बातें कह गयीं दो चार आँखें
माँ का धर कर रुप तुमने सृजन सृष्टी का किया है
अर्धांगिनी का वेश धर कर साथ जीवन भर दिया है
बहन बन कर धरा पर बाँधी राखी मेरे तुमने
जन्म बेटी का लिया तो किये पीली हाँथ हमने
सुंदरी सुकुमार शशि भी स्वयं तुमसे रुप मांगे
लव हुये खामोश बातें कह गयीं दो चार आँखें।।
वाह लल्ला तुमने तो मुझे व देवरानी जी दोनों को खुश कर दिया। भाभी से तारीफ सुनकर मुझे थोड़ा राहत मिली। श्रीमती जी ने भी भाभी का समर्थन करते हुए कहा बहुत सुंदर कविता है आज आपने साबित कर दिया कि आप सचमुच सुंदरता के पुजारी हैं स्त्री के सभी रूपों का क्या सुंदर चित्रण किया है। सचमुच नर व नारी के संबंधों पर इससे सुंदर लाइनें हो ही नहीं सकती हैं। श्रीमती जी से यह सुनकर मेरी जान में जान आयी।
मित्रो "जान बची तो लाखों पाये लौट के बुद्धू घर को आये" आपको आज की "आप बीती व जग बीती" का अंक कैसा लगा। माँ वाणी को समर्पित इस अंक पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने के साथ शेयर करना मत भूलें।
आपका
A.R. Srivastava