इंसान की नजर में, इस दुनिया में व्यवहारिक रूप में, सबसे छोटी उम्र अवधि किसकी है ?
आप कहेंगे अमीबा, वाइरस, की... !
जी नहीं, श्रीमानजी !! इस दुनिया में सबसे छोटी उम्र है सुख की । क्योंकि आनंद को मातम में बदलने में कुछ भी समय नहीं लगता है ।
उदाहरण : एक परिवार के सदस्य नदी में नहाने जाते है । एक के बाद एक चार जवान बेटे, अपने पिताजी कि आँखों के सामने नदी के बहाव में बह जाते है और परिवार बिना लड़कों के हो जाए... ! हँसते और मस्ती करते हुए कुछ मित्र दूर स्थल पर वेकेशन मनाने के लिए जा रहे है और केवल एक ही भूल, वो भी उनकी नहीं बल्कि, सामने वाले वाहन चालक की और दुर्घटना में सब कुछ साफ़... !!
वर्षों से सुखी और नियमित जीवनयापन करने वाला, जिसका कभी नाखून भी ना दुखा हो । उसको एक दिन पेट में दर्द उठता है और चैकअप में पता चले कि, उसके पेंक्रियाज़ में अंतिम स्टेज का कैंसर है और इस स्टेज में इसका कुछ भी ईलाज सम्भव नहीं है और दो महीने के अंदर ही केंसर पूरे शरीर में फैल जाए तथा एक दिन फ़ोटो ‘श्रद्धांजलि’ विभाग में... !!!
....ऐसा क्यो और कैसे होता है ?? “नो आन्सर”.... । मनुष्य लाचार... ।
प्रकृति अक्सर अपना स्वरूप बदलती रहती है; मनुष्य में भी हमेशा बदलाव आता रहता है क्योंकि, आसपास की भी परिस्थितियाँ भी बदल जाती है । ...चाहे जितनी भी इंश्योरेंस पॉलिसी ले ले, किन्तु जीवन में कोई विशेष बदलाव नहीं आता है, जो होना है, उसे कोई रोक नहीं सकता है । ऐसे समय में “मनुष्य काँच का बर्तन है” यह कहावत बिलकुल ही सच्ची लगती है । ऐसे समय के लिए एक कवि ने कहा है... “मुट्ठी में ही रखकर फिरते है, फिर भी कितने क्षण अपने होते है ।”
हमारे सम्बन्धों में भी समय-समय पर बदलाव की आदत होती है । अनेक बार हम लोग तुलनात्मक भाव से एक-दूसरे को अनदेखा करने लगते है । एक जमाने में जिन दोस्तों को, एक दूसरे से बात किए बिना चैन नहीं पड़ता हो । उसी दोस्त के साथ जब दिन, महिने और कभी-कभी वर्षों बीत जाए तब मौन ही चुभता है और मौन में भी सन्नाटा पड़ा हुआ हो, ऐसा लगता है । ...कभी-कभी जिस विवाहित जोड़े को देखकर या जिनके अटूट प्रेम की दुहाई अक्सर लोग देते हो..., जिस जोड़ी के लिए ‘दो शरीर एक जान' की उपमा दिया जाता हो.., जिनसे लोग सुखी दाम्पत्य जीवन के सम्बंध में सलाह लेते हो । ऐसे किसी जोड़े के बारे में सुनने को मिले कि, उनका ‘डायवोर्स' हो रहा है, वह भी दोनों की सम्मति और इच्छा से नहीं बल्कि, एक दूसरे पर दोषारोपण करते हुए... बड़ा ही आश्चर्यजनक लगने के साथ-साथ आघात स्वरूप भी होता है ।
समय को आदत है, गिनती को उल्टा करने की और मनुष्य को आदत है गिनती करने की... दोनों ही आदत से मजबूर है ।
जीवन में इस प्रकार की अकल्पनीय घटनाओ के कारण, कई बार ऐसे मौके पर ‘आस्तिक’ हो तो, कब ‘नास्तिक’ और ‘नास्तिक’ हो तो, कब ‘आस्तिक’ बन जाए... कुछ भी कहा नहीं जा सकता है ।
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...जीत को हार में बदलने में देर नहीं लगती है,
...सर्जक को संहारक बनने में देर नहीं लगती है,
...जीभ को कटार बनने में देर नहीं लगती है,
...बचाव को प्रहार बनने में देर नहीं लगती है,
...प्रेम को तकरार बनने में देर नहीं लगती है,
...झूठ को बलवान बनने में देर नहीं लगती है,
...जमा को उधार बनने पर देर नहीं लगती है,
...स्वस्थ को बीमार बनने में देर नहीं लगती है,
...बस्ती को वीरान बनने में देर नहीं लगती है,
...वस्तु को नुकसान होने में देर नहीं लगती है,
...घर को शमशान बनने में देर नहीं लगती है,
...इंसान को शैतान बनने में देर नहीं लगती है ।
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