आज गूगल के सर्च-इंजिन पर
महान शायर मिर्जा “ग़ालिब” को विशेष रूप से सम्मानित करने के लिए उनके 220वें जन्म-दिवस
(27दिसम्बर) पर ‘डूडल’ बनाकर प्रदर्शित
किया है ।
मिर्ज़ा असद -उल्लाह बेग ख़ां उर्फ
“ग़ालिब” (27 दिसम्बर 1796 – 16
फरवरी 1869) उर्दू एवं फ़ारसी भाषा के महान शायर थे ।
इनको उर्दू भाषा का सर्वकालिक महान शायर माना जाता है और फ़ारसी कविता के प्रवाह
को हिन्दुस्तानी जबान में लोकप्रिय करवाने का श्रेय भी इनको दिया जाता है । यद्दपि इससे
पहले के वर्षो में मीर तक़ी "मीर" भी इसी वजह से जाने
जाता है । ग़ालिब के लिखे पत्र, जो
उस समय प्रकाशित नहीं हुए थे, को भी उर्दू लेख न का
महत्वपूर्ण दस्तावेज़ माना जाता है ।
ग़ालिब को भारत और पाकिस्तान में एक महत्वपूर्ण कवि के रूप में जाना जाता है । उन्हे दबीर-उल-मुल्क और नज़्म-उद-दौला का खिताब मिला ।
ग़ालिब (और असद) नाम से लिखने वाले मिर्ज़ा
मुग़ल काल के आख़िरी शासक बहादुर शाह ज़फ़र के दरबारी कवि भी रहे थे ।
आगरा, दिल्ली और कलकत्ता में अपनी ज़िन्दगी गुजारने वाले ग़ालिब को मुख्यतः उनकी
उर्दू ग़ज़लों को लिए याद किया जाता है । उन्होने अपने बारे में स्वयं लिखा था कि दुनिया में यूं
तो बहुत से अच्छे कवि-शायर हैं, लेकिन उनकी शैली सबसे निराली है:
“हैं
और भी दुनिया में सुख़न्वर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ग़ालिब का है अन्दाज़-ए बयां और”
जीवन परिचय : ग़ालिब
का जन्म आगरा में एक सैनिक
पृष्ठभूमि वाले परिवार में हुआ था ।
उन्होने अपने पिता और चाचा को बचपन में ही खो दिया था, ग़ालिब
का जीवनयापन मूलत: अपने चाचा के मरणोपरांत मिलने वाले पेंशन से होता था (वो ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी में सैन्य अधिकारी थे) । ग़ालिब
की पृष्ठभूमि एक तुर्क परिवार से थी और इनके दादा मध्य एशिया के समरक़न्द से सन् 1760
के आसपास भारत आए थे । उनके दादा मिर्ज़ा
क़ोबान बेग खान अहमद शाह के शासन काल में समरकंद से भारत आये ।
उन्होने दिल्ली,
लाहौर व जयपुर में काम किया और अन्ततः आगरा में बस गये ।
उनके दो पुत्र व तीन पुत्रियां थी । मिर्ज़ा अब्दुल्ला
बेग खान व मिर्ज़ा नसरुल्ला बेग खान उनके दो पुत्र थे ।
मिर्ज़ा अब्दुल्ला बेग (गालिब के पिता) ने
इज़्ज़त-उत-निसा बेगम से निकाह किया और अपने ससुर के घर में रहने लगे ।
उन्होने पहले लखनऊ के नवाब और बाद में हैदराबाद के निज़ाम के यहाँ काम किया ।
1803 में अलवर में एक युद्ध में उनकी मृत्यु के समय
गालिब मात्र 6 वर्ष के थे ।
जब ग़ालिब छोटे थे तो एक नव-मुस्लिम-वर्तित
ईरान से दिल्ली आए थे और उनके सान्निध्य में रहकर ग़ालिब ने फ़ारसी सीखी । ग़ालिब
की प्रारम्भिक शिक्षा के बारे में स्पष्टतः कुछ कहा नहीं जा सकता लेकिन ग़ालिब के
अनुसार उन्होने 11 वर्ष की अवस्था से ही उर्दू एवं फ़ारसी में गद्य
तथा पद्य लिखने आरम्भ कर दिया था । उन्होने अधिकतर फारसी और उर्दू में पारम्परिक भक्ति और सौन्दर्य रस पर
रचनाये लिखी जो गजल में लिखी हुई है । उन्होंने
फारसी और उर्दू दोनो में पारंपरिक गीत काव्य की रहस्यमय-रोमांटिक शैली में सबसे
व्यापक रूप से लिखा और यह गजल के रूप में जाना जाता है ।
13 वर्ष की आयु में उनका विवाह नवाब ईलाही
बख्श की बेटी उमराव बेगम से हो गया था । विवाह के बाद वह
दिल्ली आ गये थे जहाँ उनकी तमाम उम्र बीती । अपने पेंशन
के सिलसिले में उन्हें कोलकाता कि लम्बी यात्रा भी करनी पड़ी थी,
जिसका ज़िक्र उनकी ग़ज़लों में जगह–जगह पर
मिलता है ।
शाही खिताब : 1860 में शहंशाह बहादुर शाह ज़फ़र द्वितीय ने मिर्ज़ा गालिब को दबीर-उल-मुल्क और नज़्म-उद-दौला के खिताब से नवाज़ा । बाद में उन्हे मिर्ज़ा नोशा क खिताब भी मिला । वे शहंशाह के दरबार में एक महत्वपूर्ण दरबारी थे । उन्हे बहादुर शाह ज़फर द्वितीय के ज्येष्ठ पुत्र राजकुमार फ़क्र-उद-दिन मिर्ज़ा का शिक्षक भी नियुक्त किया गया । वे एक समय में मुगल दरबार के शाही इतिहासविद भी थे ।
19 वीं शताब्दी के सबसे
बड़े कवि और शायर मिर्ज़ा ग़ालिब अपनी लेखनी से जो कमाल कर गये वो शायद ही इतिहास
में कोई और शायर कर पाया हो, और शायद ही भविष्य में कोई शख्स ऐसी
कालजयी कृतियों के निशां छोड़ पाये । ग़ालिब ने
जो शायरी लिखी हैं उन पर आज लोग अध्य्यन कर रहे हैं ।
“मैं वाकिफ़ हूं जन्नत की हकीकत से, लेकिन दिल बहलाने
को ये ख़्याल अच्छा है गालिब।” जैसी
मुक्कमल शायरी कितनी पुरानी होने के बाद भी वर्तमान हालातों का विरोध सा करती है ।
ग़ालिब के लेखन में यही बात निराली है कि उनके द्वारा लिखे गये शेर तब भी वास्तविक
से प्रतीत होते थे और आज भी होते हैं । दौर बदलते गये लेकिन
ग़ालिब की शायरी समाज को वैसे ही आईना दिखाती रही ।
तो चलिए चलते हैं ग़ालिब की दुनिया में, जहां
दर्द है, उम्मीद है और एक ऐसा अटूट रिश्ता है जिसकी डोर
ग़ालिब द्वारा लिखी पंक्तियों से ही बंधी हुई है ।
1
. तुझ
सा और कहां से लाऊं
2 . हंसना भी भूल गया है कोई
3 . आईने से एक ख़्याल आया
4 . समय चाहिए इस प्यार को
5 . वो बाशिंदा बड़े काम का था
6
. यही तकरार ही तो प्यार है
7
. बस मौन ही रहे हमारा रिश्ता
8 . एक जलती आग है इश्क
9 . तेरा दीदार ही दवा है
10 . बार-बार मरना ही जीना है ग़ालिब
11 . उम्मीद के बिना भी चलती हैं सांसें
12 . बस होता ही क्यों रहता है सबकुछ
13 . उनकी चाह से ही है मेरा संसार
14
. तेरे होना ही मेरा सदका है
15 . मेरी इबादत तेरा दीदार है...
दिल-ऐ -ग़म गुस्ताख़
फिर
तेरे कूचे को जाता है ख्याल
दिल -ऐ -ग़म गुस्ताख़ मगर याद आया
कोई वीरानी सी वीरानी है .
दश्त को देख के घर याद आया
हसरत दिल में है
सादगी
पर उस के मर जाने की हसरत दिल में है
बस नहीं चलता की फिर खंजर काफ-ऐ-क़ातिल में है
देखना तक़रीर के लज़्ज़त की जो उसने कहा
मैंने यह जाना की गोया यह भी मेरे दिल में है
बज़्म-ऐ-ग़ैर
मेह
वो क्यों बहुत पीते बज़्म-ऐ-ग़ैर में या रब
आज ही हुआ मंज़ूर उन को इम्तिहान अपना
मँज़र इक बुलंदी पर और हम बना सकते “ग़ालिब”
अर्श से इधर होता काश के माकन अपना
साँस भी बेवफा
मैं
नादान था जो वफ़ा को तलाश करता रहा ग़ालिब
यह न सोचा के एक दिन अपनी साँस भी बेवफा हो जाएगी
सारी उम्र
तोड़ा
कुछ इस अदा से तालुक़ उस ने ग़ालिब
के सारी उम्र अपना क़सूर ढूँढ़ते रहे
इश्क़ में
बे-वजह
नहीं रोता इश्क़ में कोई ग़ालिब
जिसे खुद से बढ़ कर चाहो वो रूलाता ज़रूर है
जवाब
क़ासिद
के आते -आते खत एक और लिख रखूँ
मैं जानता हूँ जो वो लिखेंगे जवाब में
जन्नत की हकीकत
हमको
मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन
दिल के खुश रखने को “ग़ालिब” यह ख्याल अच्छा है
बेखुदी बेसबब नहीं ‘ग़ालिब
फिर
उसी बेवफा पे मरते हैं
फिर वही ज़िन्दगी हमारी है
बेखुदी बेसबब नहीं ‘ग़ालिब’
कुछ तो है जिस की पर्दादारी है
शब-ओ-रोज़ तमाशा
बाजीचा-ऐ-अतफाल
है दुनिया मेरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे
कागज़ का लिबास
सबने
पहना था बड़े शौक से कागज़ का लिबास
जिस कदर लोग थे बारिश में नहाने वाले
अदल के तुम न हमे आस दिलाओ
क़त्ल हो जाते हैं , ज़ंज़ीर हिलाने वाले
वो निकले तो दिल निकले
ज़रा
कर जोर सीने पर की तीर -ऐ-पुरसितम् निकले जो
वो निकले तो दिल निकले , जो दिल निकले तो दम
निकले
खुदा के वास्ते
खुदा
के वास्ते पर्दा न रुख्सार से उठा ज़ालिम
कहीं ऐसा न हो जहाँ भी वही काफिर सनम निकले
तेरी दुआओं में असर
तेरी
दुआओं में असर हो तो मस्जिद को हिला के दिखा
नहीं तो दो घूँट पी और मस्जिद को हिलता देख
जिस काफिर पे दम निकले
मोहब्बत
मैं नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते है जिस काफिर पे दम निकले
लफ़्ज़ों की तरतीब
लफ़्ज़ों
की तरतीब मुझे बांधनी नहीं आती “ग़ालिब”
तमाशा
थी
खबर गर्म के ग़ालिब के उड़ेंगे पुर्ज़े ,
देखने हम भी गए थे पर तमाशा न हुआ
काफिर
दिल
दिया जान के क्यों उसको वफादार ,
असद
ग़लती की के जो काफिर को मुस्लमान समझा
नज़ाकत
इस
नज़ाकत का बुरा हो , वो भले हैं तो क्या
हाथ आएँ तो उन्हें हाथ लगाए न बने
कह सके कौन के यह जलवागरी किस की है
पर्दा छोड़ा है वो उस ने के उठाये न बने
तनहा
लाज़िम
था के देखे मेरा रास्ता कोई दिन और
तनहा गए क्यों , अब रहो तनहा कोई दिन और
रक़ीब
कितने
शिरीन हैं तेरे लब के रक़ीब
गालियां खा के बेमज़ा न हुआ
कुछ तो पढ़िए की लोग कहते हैं
आज ‘ग़ालिब ‘ गजलसारा न
हुआ
मेरी वेहशत
इश्क़
मुझको नहीं वेहशत ही सही
मेरी वेहशत तेरी शोहरत ही सही
कटा कीजिए न तालुक हम से
कुछ नहीं है तो अदावत ही सही
ग़ालिब
दिल
से तेरी निगाह जिगर तक उतर गई
दोनों को एक अदा में रजामंद कर गई
मारा
ज़माने ने ‘ग़ालिब’ तुम को
वो वलवले कहाँ , वो जवानी किधर गई
तो धोखा खायें क्या
लाग्
हो तो उसको हम समझे लगाव
जब न हो कुछ भी , तो धोखा खायें क्या
अपने खत को
हो
लिए क्यों नामाबर के साथ -साथ
या रब ! अपने खत को हम पहुँचायें क्या
उल्फ़त ही क्यों न हो
उल्फ़त
पैदा हुई है , कहते हैं , हर दर्द की दवा
यूं हो हो तो चेहरा -ऐ -गम उल्फ़त ही क्यों न हो .
ऐसा भी कोई
“ग़ालिब ” बुरा न मान जो वैज बुरा कहे
ऐसा भी कोई है के सब अच्छा कहे जिसे
तमन्ना कोई दिन और
नादान
हो जो कहते हो क्यों जीते हैं “ग़ालिब “
किस्मत मैं है मरने की तमन्ना कोई दिन और
आशिक़ का गरेबां
हैफ़
उस चार गिरह कपड़े की किस्मत ग़ालिब
जिस की किस्मत में हो आशिक़ का गरेबां होना
इश्क़
आया
है मुझे बेकशी इश्क़ पे रोना ग़ालिब
किस का घर जलाएगा सैलाब भला मेरे बाद
शमा
गम
-ऐ -हस्ती का असद किस से हो जूझ मर्ज इलाज
शमा हर रंग मैं जलती है सहर होने तक ..
जोश -ऐ -अश्क
ग़ालिब
‘ हमें
न छेड़ की फिर जोश -ऐ -अश्क से
बैठे हैं हम तहय्या -ऐ -तूफ़ान किये हुए
ख्वाहिशों का काफिला
ख्वाहिशों
का काफिला भी अजीब ही है ग़ालिब
अक्सर वहीँ से गुज़रता है जहाँ रास्ता नहीं होता
हो चुकी ‘ग़ालिब’ बलायें सब तमाम
कोई
, दिन ,
गैर ज़िंदगानी और है
अपने जी में हमने ठानी और है .
आतशे
– दोज़ख
में , यह गर्मी कहाँ ,
सोज़े -गुम्हा -ऐ -निहनी और है .
बारहन
उनकी देखी हैं रंजिशें ,
पर कुछ अबके सिरगिरांनी और है .
दे
के खत , मुहँ देखता है नामाबर ,
कुछ तो पैगामे जुबानी और है .
हो
चुकी ‘ग़ालिब’,
बलायें सब तमाम ,
एक मरगे -नागहानी और है .
‘ ग़ालिब ‘ कौन है
पूछते
हैं वो की ‘ग़ालिब ‘ कौन है ?
कोई बतलाओ की हम बतलायें क्या
तग़ाफ़ुल-ऐ-ग़ालिब
करने
गए थे उस से तग़ाफ़ुल का हम गिला
बस एक ही निगाह की बस ख़ाक हो गए
शब -ऐ -महताब
“ग़ालिब” छूटी शराब पर अब भी कभी कभी ,
पीता हूँ रोज़ -ऐ -अबरो शब -ऐ -महताब में
आरज़ू
रही
न ताक़त -ऐ -गुफ्तार और अगर हो भी ,
तो किस उम्मीद पे कहिये के आरज़ू क्या है ..
खमा -ऐ -ग़ालिब
बहुत
सही गम -ऐ -गति शराब कम क्या है
गुलाम -ऐ-साक़ी -ऐ -कौसर हूँ मुझको गम क्या है
तुम्हारी तर्ज़ -ओ -रवीश जानते हैं हम क्या है
रक़ीब पर है अगर लुत्फ़ तो सितम क्या है
सुख में खमा -ऐ -ग़ालिब की आतशफशनि
यकीन है हमको भी लेकिन अब उस में दम क्या है
दरो -ओ -दीवार
रात
है ,सनाटा
है , वहां कोई न होगा, ग़ालिब
चलो उन के दरो -ओ -दीवार चूम के आते हैं
कौन
होश में रहता है तुझे देखने के बाद
तेरे
हुस्न को परदे की ज़रुरत नहीं है ग़ालिब
कौन होश में रहता है तुझे देखने के बाद...
ग़ालिब
ने जितना लिखा उतने शब्द तो नहीं हैं लेकिन कुछ शब्दों को शब्द देने की कोशिश की
है, अगर
अच्छा लगे तो शेयर करना न भूलें….
(सौजन्य :
विकिपीडिया, उर्दू शायरी, गजब पोस्ट...)