झारखण्ड यानी
'झार' या 'झाड़'
जो स्थानीय रूप में वन का पर्याय है और 'खण्ड' यानी
टुकड़े से मिलकर बना है। अपने नाम के अनुरुप यह मूलतः एक वन प्रदेश है जो झारखण्ड आंदोलन के फलस्वरूप सृजित हुआ । प्रचुर
मात्रा में खनिज की उपलबध्ता के कारण इसे भारत का 'रूर'
भी कहा जाता है जो जर्मनी में खनिज-प्रदेश के नाम से विख्यात है ।
1930 के आसपास गठित आदिवासी महासभा ने जयपाल सिंह मुंडा की अगुआई में अलग ‘झारखण्ड’ का
सपना देखा । पर वर्ष 2000 में केंद्र सरकार ने 15 नवम्बर (आदिवासी नायक बिरसा मुंडा के जन्मदिन) को भारत का अठ्ठाइसवाँ
राज्य बना झारखण्ड भारत के नवीनतम प्रान्तों में से एक है । बिहार के दक्षिणी
हिस्से को विभाजित कर झारखण्ड प्रदेश का सृजन किया गया था । औद्योगिक नगरी राँची इसकी राजधानी है । इस प्रदेश के अन्य
बड़े शहरों में धनबाद, बोकारो एवं जमशेदपुर शामिल
हैं ।
झारखण्ड की सीमाएँ उत्तर में बिहार, पश्चिम में उत्तर प्रदेश एवं छत्तीसगढ़,
दक्षिण में ओड़िशा और पूर्व में पश्चिम बंगाल को छूती हैं । लगभग संपूर्ण प्रदेश छोटानागपुर के पठार पर अवस्थित है ।कोयल, दामोदर, खड़कई और सुवर्णरेखा, स्वर्णरेखा यहाँ की
प्रमुख नदियाँ हैं । संपूर्ण भारत में वनों के अनुपात में प्रदेश एक अग्रणी राज्य
माना जाता है तथा वन्य जीवों के संरक्षण के लिये मशहूर है ।
झारखण्ड
क्षेत्र विभिन्न भाषाओं,
संस्कृतियों एवं धर्मों का संगम क्षेत्र कहा जा सकता है । द्रविड़,
आर्य, एवं आस्ट्रो-एशियाई तत्वों के सम्मिश्रण
का इससे अच्छा कोई क्षेत्र भारत में शायद ही दिखता है । इस शहर की गतिविधियाँ
मुख्य रूप से राजधानी राँची और जमशेदपुर, धनबाद तथा बोकारो
जैसे औद्योगिक केन्द्रों से सबसे ज्यादा प्रभावित होती हैं ।
झारखण्ड राज्य के स्थापना
दिवस पर राज्य की जनता को हार्दिक शुभकामनाएं और आदिवासी जननायक बिरसा मुंडा जी को
सादर नमन...
बिरसा
मुंडा 19वीं सदी के एक प्रमुख आदिवासी जननायक थे । उनके नेतृत्व में मुंडा आदिवासियों ने 19वीं सदी के आखिरी वर्षों में मुंडाओं के महान आन्दोलन उलगुलान को अंजाम दिया । बिरसा को मुंडा समाज के लोग भगवान के रूप में पूजते हैं
।
आरंभिक
जीवन : सुगना मुंडा और करमी
हातू के पुत्र बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1875 को झारखण्ड
प्रदेश में राँची के उलीहातू
गाँव में हुआ था । उनके पिता, चाचा,
ताऊ सभी ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था । बिरसा के पिता 'सुगना मुंडा'
जर्मन धर्म प्रचारकों के सहयोगी थे । बिरसा का बचपन अपने घर में,
ननिहाल में और मौसी की ससुराल में बकरियों को चराते हुए बीता ।
साल्गा गाँव
में प्रारम्भिक पढाई के बाद वे चाईबासा इंग्लिश
मिडिल स्कूल में पढने आए । परन्तु
स्कूलों में उनकी आदिवासी संस्कृति का जो उपहास किया जाता था, वह बिरसा को सहन नहीं हुआ । इस पर उन्होंने
भी पादरियों का और उनके धर्म का भी मजाक उड़ाना शुरू कर दिया । फिर क्या था !!! ईसाई धर्म प्रचारकों
ने उन्हें स्कूल से निकाल दिया ।इनका मन हमेशा अपने समाज की ब्रिटिश शासकों द्वारा की गयी बुरी दशा पर सोचता रहता था । उन्होंने मुंडा लोगों को अंग्रेजों से मुक्ति पाने के
लिये अपना नेतृत्व प्रदान किया । 1894 में मानसून के छोटानागपुर में
असफल होने के कारण भयंकर अकाल और महामारी फैली हुई
थी । बिरसा ने पूरे मनोयोग से अपने लोगों की सेवा की । इसके बाद बिरसा के जीवन में एक नया मोड़ आया । उनका स्वामी
आनन्द पाण्डे से सम्पर्क हो गया और उन्हें हिन्दू धर्म तथा महाभारत के पात्रों का परिचय मिला । यह कहा जाता है कि 1895 में कुछ ऐसी आलौकिक घटनाएँ घटीं, जिनके कारण लोग
बिरसा को भगवान का अवतार मानने
लगे । लोगों में यह विश्वास दृढ़ हो गया कि बिरसा के स्पर्श मात्र से ही रोग दूर
हो जाते हैं । जन-सामान्य
का बिरसा में काफ़ी दृढ़ विश्वास हो चुका था,
इससे बिरसा को अपने प्रभाव में वृद्धि करने में मदद मिली । लोग उनकी
बातें सुनने के लिए बड़ी संख्या में एकत्र होने लगे । बिरसा ने पुराने
अंधविश्वासों का खंडन किया । लोगों को हिंसा और मादक पदार्थों से दूर रहने की सलाह
दी । उनकी बातों का प्रभाव यह पड़ा कि ईसाई धर्म स्वीकार करने वालों की संख्या
तेजी से घटने लगी और जो मुंडा ईसाई बन गये थे, वे फिर से
अपने पुराने धर्म में लौटने लगे ।
मुंडा
विद्रोह का नेतृत्व : 1 अक्टूबर 1894 को नौजवान नेता के रूप में सभी मुंडाओं को
एकत्र कर इन्होंने अंग्रेजो से लगान माफी के लिये आन्दोलन किया । 1895 में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में दो साल के
कारावास की सजा दी गयी । लेकिन बिरसा और उसके शिष्यों ने क्षेत्र की अकाल पीड़ित
जनता की सहायता करने की ठान रखी थी और अपने जीवन काल में ही एक महापुरुष का दर्जा
पाया । उन्हें उस इलाके के लोग " धरती बाबा " के नाम से पुकारा और पूजा
जाता था । उनके प्रभाव की वृद्धि के बाद पूरे इलाके के मुंडाओं में संगठित होने की
चेतना जागी ।
विद्रोह
में भागीदारी और अन्त : बिरसा मुंडा ने किसानों का शोषण करने वाले ज़मींदारों के
विरुद्ध संघर्ष की प्रेरणा भी लोगों को दी । यह देखकर ब्रिटिश सरकार ने उन्हें
लोगों की भीड़ जमा करने से रोका । बिरसा का कहना था कि मैं तो अपनी जाति को अपना धर्म सिखा रहा
हूँ । इस पर पुलिस ने उन्हें गिरफ़्तार करने का प्रयत्न किया, लेकिन गांव वालों ने उन्हें छुड़ा लिया । शीघ्र ही वे फिर गिरफ़्तार करके
दो वर्ष के लिए हज़ारीबाग़ जेल में डाल दिये गये । बाद में उन्हें इस चेतावनी के
साथ छोड़ा गया कि वे कोई प्रचार नहीं करेंगे । परन्तु बिरसा कहाँ मानने वाले थे । छूटने के बाद उन्होंने
अपने अनुयायियों के दो दल बनाए । एक दल मुंडा धर्म का प्रचार करने लगा और दूसरा
राजनीति क कार्य करने लगा । नए युवक भी भर्ती किये गए । इस पर सरकार ने फिर उनकी
गिरफ़्तारी का वारंट निकाला, किन्तु बिरसा मुंडा पकड़ में नहीं आये । इस बार का आन्दोलन बलपूर्वक सत्ता
पर अधिकार के उद्देश्य को लेकर आगे बढ़ा । यूरोपीय अधिकारियों और पादरियों को
हटाकर उनके स्थान पर बिरसा के नेतृत्व में नये राज्य की स्थापना का निश्चय किया
गया ।1897 से 1900 के बीच मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के
बीच युद्ध होते रहे और बिरसा और उसके चाहने वाले लोगों ने अंग्रेजों की नाक में दम
कर रखा था । अगस्त 1897 में बिरसा और उसके चार सौ सिपाहियों ने तीर कमानों से लैस होकर खूँटी थाने पर धावा बोला । 1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं की
भिड़ंत अंग्रेज सेनाओं से हुई जिसमें पहले तो अंग्रेजी सेना हार गयी लेकिन बाद में
इसके बदले उस इलाके के बहुत से आदिवासी नेताओं की
गिरफ़्तारियाँ हुईं । जनवरी 1900 डोमबाड़ी पहाड़ी पर एक और संघर्ष हुआ था जिसमें बहुत से औरतें और बच्चे
मारे गये थे । उस जगह बिरसा अपनी जनसभा को सम्बोधित कर रहे थे । बाद में बिरसा के
कुछ शिष्यों की गिरफ़्तारियाँ भी हुईं । 24
दिसम्बर, 1899 को यह आन्दोलन आरम्भ
हुआ । तीरों से पुलिस थानों पर आक्रमण करके उनमें आग लगा दी गई । सेना से भी सीधी मुठभेड़ हुई, किन्तु
तीर कमान गोलियों का सामना नहीं कर पाये । बिरसा मुंडा के साथी बड़ी संख्या में
मारे गए । उनकी जाति के ही दो व्यक्तियों ने धन के लालच में बिरसा मुंडा को
गिरफ़्तार करा दिया, ऐसा कहा जाता है । अन्त में
स्वयं बिरसा भी 3 फरवरी 1900 को चक्रधरपुर में गिरफ़्तार कर लिये गये । बिरसा ने अपनी अन्तिम सें जून 1900 को राँची कारागार में लीं । शायद उन्हें विष दे दिया गया था । लेकिन लोक गीतों और जातीय
साहित्य में बिरसा मुंडा आज भी जीवित हैं ।
आज भी बिहार, उड़ीसा, झारखण्ड, छत्तीसगढ और पश्चिम बंगाल के
आदिवासी इलाकों में बिरसा मुण्डा को भगवान की तरह पूजा जाता है । बिरसा मुण्डा की समाधि राँची में कोकर के निकट डिस्टिलरी पुल के पास स्थित है । वहीं उनका
स्टेच्यू भी लगा है । उनकी स्मृति में रांची में बिरसा मुण्डा केन्द्रीय कारागार
तथा बिरसा मुंडा हवाई-अड्डा भी
है ।
A short documentary on Birsa Munda (Tribal Hero)
( Courtesy : https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%BF%E0%A4%B0%E0%A4%B8%E0%A4%BE_%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%82%E0%A4%A1%E0%A4%BE)