पृथ्वी पर सैकड़ों या उससे भी ज्यादा धर्म प्रचलित हैं । हर धर्म की कुछ विशिष्टताएं होती है । प्रत्येक धर्म के धार्मिक त्यौहार मानव जीवन में नई तरो-ताजगी का संचार करते है और एक दूसरे के प्रति समानता, प्रेमभाव, भाईचारा एवं छोटी-मोटी भूलों को नजरंदाज करते हुए प्रेम-व्यवहार के साथ रहने का संदेश देते है । हिन्दुओं में ॐ , स्वास्तिक और कार्य के आरम्भ में श्री गणेशाय नम: का विशेष महत्त्व माना जाता है । सिक्खों मे अरदास, गुरुवाणी, सत श्री अकाल और पगड़ी का खास महत्व होता है । वहीं ईसाई धर्म के मानने वालों का जीजस क्राइस्ट, क्रॉस का चिन्ह, माता मरियम और बाइबिल आदि के प्रति बड़ा आत्मीय सम्मान होता है । ठीक उसी प्रकार से इस्लाम धर्म में अंक “ 786 ” को शुभ अंक या शुभ प्रतीक माना जाता है ।
( रमजान ईद विशेष )
आइए, आज हम आपको बताते है कि, हिंदुओं के लिए पवित्र शब्द ‘ॐ’ और मुस्लिमों के लिए सबसे पाक नम्बर ‘786' में क्या अटूट और अनोखा सम्बंध है, जिसे जानकार आप हैरान हो जायेंगे । मकान नम्बर हो या मोबाइल नम्बर, गाड़ी का नम्बर हो या फिर स्वयं ही की गाड़ी पर इस अंक को गुदवाना, इस्लाम धर्म में इस संख्या की महानता और महत्त्वकांक्षी प्रयोग से ही दिखाई देती है । जिस प्रकार से, हिन्दू धर्म में किसी भी काम को शुरू करने से पूर्व ‘गणेश पूजा' की जाती है; ठीक उसी प्रकार से इस्लाम धर्म में “786" अंकों का स्मरण किया जाता है ।
धर्म आस्था से जुड़े व्यक्ति, जो तन एवं मन दोनों से खुद को धर्म के नाम समर्पित कर चुके है; उनके लिए धर्म ही एकमात्र जीने का सहारा है । इसलिए जो वस्तु या शब्द या स्वर उन्हें धर्म से जोड़ता हो, वह उन्हें सबसे प्रिय होता है । इस्लाम धर्म में “बिस्मिल्लाह" यानि “ अल्लाह " के नाम को ‘786' अंक के साथ जोड़कर देखा जाता है । मुस्लिम इसे ‘पाक’ अर्थात पवित्र एवं भाग्यशाली मानते है । कहते है कि, “बिस्मिल्लाह अल रहमान अल रहीम" को अरबी या उर्दू भाषा में लिखा जाए और उन शब्दों को जोड़ा जाए तो उनका योग ‘786’ आता है और शायद इसलिए ही लोगों को अल्लाह के नाम का सम्बोधन देने के लिए, एक विकल्प के रूप में ‘786' पवित्र अंक उपयोग करने कि सलाह दी गई । इस्लाम धर्म वि ज्ञान को नहीं मानता किन्तु अंक शास्त्र में विश्वास रखता है । अतः अनुयायियों की माने, तो लोगो ने अल्लाह की इबादत से जोड़े रखने के लिए ही इस अंक ‘786' का निर्माण किया गया होगा ।
अंक ज्योतिष के अनुसार जब 7+8+6 का योग 21 आता है तथा 2+1 का योग करने पर 3 का आंकड़ा मिलता है, जो कि लगभग सभी धर्मों में अत्यंत शुभ एवं पवित्र अंक माना जाता है । इस्लाम धर्म में अल्लाह, पैगम्बर और नुमाइंदे की संख्या तीन है, हिन्दू धर्म में ब्रह्मा, विष्णु और महेश की संख्या तीन महाशक्तियाँ ‘ त्रिदेव ' मानी गई है तथा सारी सृष्टि के मूल में समाएँ प्रमुख गुण- सत् रज व तम भी तीन ही हैं ।
अंक ज्योतिष शास्त्र में 7 अंक को केतु, 8 अंक को शनि और 6 अंक को शुक्र का प्रतीक माना जाता है । 7 अंक पुरुष तत्त्व या वीर की स्थिति को दर्शाता है और 6 अंक को शुक्र तथा जन्म देने वाली स्त्री रूप को प्रकट करता है । बीच में आता है 8 अंक अर्थात शनि देव, जिसे ज्योतिष शास्त्र में में नपुंशक की श्रेणी में गिनते है; जो की पुरुष और स्त्री के बीच संतुलन की स्थिति बनाए रखते है ।
सभी ग्रन्थों के निचोड़ को यदि एक पात्र में एकत्रित कर लिया जाए तो वो विष रूपी निचोड़ को ग्रहण करने वाली बस एक ही परम प्रकाशमय शक्ति है और वो है परम परमेश्वर रूद्र रूप, जिन्हें शिव के रूप से भी जाना जाता है । वैसे यह प्रकाशमय शक्ति निराकार है लेकिन यदि कोई साकार रूप में पूजन करना चाहे तो ‘शिवलिंग’ के रूप में पूजन कर सकता है ।
अनेक लोगों का मानना है कि, परम पवित्र स्थल ‘काबा' में भी निराकार, परम शक्तिमान शिवलिंग स्वरूप का ही पूजन होता है और जिस प्रकार से हिंदुओं में शिवलिंग के पराक्रम का विधान है, वहाँ भी परिक्रमा विधान है । ‘शिव’ के साकार रूप में चंद्रमा को धरण किया हुआ है और मुस्लिम समुदाय में उन्ही चंद्रमा को विशेष महत्त्व दिया गया है । यहाँ तक कि अरबी भाषा के ज़्यादातर शब्द त्रिशूल के आकार या ॐ कि आकृति में ही लिखे जाते है ।
खैर जो भी हो, इस्लाम धर्म में “786" अंकों को ‘अल्लाह' का वरदान माना गया है । इसलिए इस्लाम को मानने वाले, अपने प्रत्येक कार्य में ‘786' अंक के समावेश करते है । उनका मानना है कि, कार्य में ‘786' अंक का समावेश किए जाने से ‘अल्लाह' की कृपा होती है और कार्य पूर्ण एवं फलीभूत होता है ।
रहमतों नूरका खुशियों का खजाना बनकर,
ईद आती है तो अखलाके जमाना बनकर ....
ईद बिछड़े हुए लोगों को मिला देती है,
ईद ज़ालिम को भी इंसान बना देती है ...
.... ईद मुबारक ....
दुनिया का प्रत्येक धर्म एक-दूसरे के प्रति समानता, प्रेमभाव के साथ व्यवहार करने की प्रेरणा देते है, इसके बावजूद भी मनुष्य निज स्वार्थ के वशीभूत होकर, धर्म के मूलभूत सिद्धान्त के साथ आँख-मिचौली एवं अवहेलना करता रहता है; इसलिए समाज में अराजकता और असहिष्णुता कम होने के स्थान पर बढ़ती रहती है । प्रार्थना स्थल पर भूल/पाप के लिए प्रायश्चित करता हुआ मनुष्य, जब इस स्थल को छोड़कर, बाहर निकलते ही स्वार्थ-ईर्ष्या के दलदल में फँसता जाता है । मनुष्य वास्तव में धर्म की मूल भावना को सच्चे अर्थों में समझकर आचरण में अपनाता ही नहीं है ।
एक कवि के बड़े ही अच्छे बोल है - मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना.... । लेकिन हम लोग ही है जो धर्म मज़हब के नाम पर लड़ते रहते है । जिसने गीता पढ़ी है और जिसे कुरान के बारे में भी ज्ञान है, उसे दिवाली में ‘अली’ और रमजान में ‘राम’ नजर आता है ।
“इंसानियत ही सबसे पहला धर्म है इंसान का, इसके बाद ही पन्ना खोलो गीता और कुरान का...."