दोपहर तक बिक गया बाज़ार का हर एक झूँठ,
और मैं एक सच को लेकर शाम तक बैठा रहा ! (फेसबुक ज्ञान )
आज के जमाने का मनुष्य काफी स्मार्ट बन चुका है, उसे किसके साथ कितना और किस तरीके से बातचीत करनी है, सत्य को किस तरीके से तोड़-मरोड़ कर पेश करना है, इसका अहसास ही नहीं बल्कि अनुभव भी हो गया है । टीवी शो हो या सोशल मीडिया अथवा पत्रकारिता... आजकल किसी विचार का वास्तविक विरोध अथवा तरफदारी बहुत ही कम देखने में आती है । विचार किसके द्वारा प्रकट किया जा रहा है, इसके आधार पर उसका विरोध या तरफदारी अधिक होतीं है । किसी भी राजनीति क दल का वर्चस्व केवल राजनीति करने तक ही सीमित नहीं रह गया है बल्कि, अपने स्वार्थ के लिए नैतिक मानवीय मूल्यों की होली जलते हुए अनेक बार देखने को मिलती है । इसके लिए अधिकतर लोग अक्सर राज नेताओं को ही बदनाम करते आ रहे है, जबकि साहित्य, पत्रकारिता, कला इत्यादि भी इससे कहाँ अछूते है ।
‘सत्य’ को लाभ-हानि के तराजू में तोलकर, उसे स्वार्थ का अमलीजामा पहनाकर परोसने वाले को व्यवहार कुशल माना जाता है । वास्तव में ‘ असत्य ’ का विरोध ना करना अर्थात ‘ खामोशी ' यही सबसे बड़ा खतरनाक ग्रहण है । कई बार ऐसा होता है कि, गांधीजी के बताए हुए रास्ते पर चलने वाला खादीधारी, जो हमेशा सत्य की बाते करें किन्तु, जरूरी होते हुए भी वह मौके पर गहन मौन धारण कर लेता हो ; इसके विपरीत एक जींसधारी नौजवान, जो हमेशा बातों-बातों मे बोलता है कि, मुझे किसी की परवाह नहीं...और कटु सत्य बोले तो, कहने की आवश्यकता नहीं है कि, स्वर्ग में विराजमान गांधीजी का चेहरा किसे देखकर मुस्कराता होगा ?
किसी लेखक ने कहा है कि, “कड़वा सत्य, हमेशा मीठे झूठ से ज्यादा बेहतर है” किन्तु ऐसा मान लेना इतना आसान भी नहीं होता है । क्योंकि, इसमें हमेशा किसी एक पक्ष का साथ देने का मतलब है कि, दूसरे पक्ष को विरोधी बनाने की पक्की गारंटी ! इसके लिए “नरोवा कुंजरो वा" नीति हमेशा सलमातीपूर्ण रास्ता है । जो दिल में है, वही होठों पर भी है, नीति को अपने आचरण में लाने के लिए बड़ी ही हिम्मत एवं सच्ची नियत, दोनों ही जरूरी है अन्यथा सत्य के लिए “उड़ता हुआ तीर" लेना, कोई बच्चों का खेल -तमाशा नहीं है । हम जीवन में हर व्यक्ति को खुश नहीं रख सकते है और इस बात को जितना जल्दी समझ लिया जाए, उतना जल्दी ही हमारा मन का बोझ हल्का हो सकता है । यहाँ पर हर क्रिया की एक प्रतिक्रिया , हर दिन की एक रात, हर सुख का एक दुख, हर मान्यता की एक प्रतिमान्यता, हर हीरो के सामने एक विलेन, हर गुण के सामने एक दुर्गुण है । मनुष्य जो कुछ भी करे, उसकी अच्छी प्रतिक्रिया ही मिले, कोई जरूरी नहीं है ; तो फिर क्या किया जाए ? ऐसे में जो अपनी अंतरात्मा द्वारा जो सत्य और अच्छा लगे, करने के बाद परिणाम हेतु सृष्टि-चक्र चलाने वाले को सौंप दिया जाना चाहिए ।