(आँखो में आंसू ला दिये इस कहानी ने .......)
"अरे ! भाई बुढापे का कोई ईलाज नहीं होता । अस्सी पार चुके हैं, अब बस सेवा कीजिये ।" डाक्टर पिताजी को देखते हुए बोला ।
"डाक्टर साहब ! कोई तो तरीका होगा, साइंस ने बहुत तरक्की कर ली है ।"
"शंकर बाबू ! मैं अपनी तरफ से दुआ ही कर सकता हूँ, बस आप इन्हें खुश रखिये; इस से बेहतर और कोई दवा नहीं है और इन्हें लिक्विड पिलाते रहिये जो इन्हें पसंद है ।" डाक्टर अपना बैग सम्हालते हुए मुस्कुराया और बाहर निकल गया ।
शंकर पिता को लेकर बहुत चिंतित था । उसे लगता ही नहीं था कि पिता के बिना भी कोई जीवन हो सकता है । माँ के जाने के बाद अब एकमात्र आशीर्वाद उन्ही का बचा था । उसे अपने बचपन और जवानी के सारे दिन याद आ रहे थे । कैसे पिता हर रोज कुछ न कुछ लेकर ही घर घुसते थे । बाहर हलकी-हलकी बारिश हो रही थी । ऐसा लगता था जैसे आसमान भी रो रहा हो । शंकर ने खुद को किसी तरह समेटा और पत्नी से बोला -
"सुशीला ! आज सबके लिए मूंग दाल के पकौड़े, हरी चटनी बनाओ । मैं बाहर से जलेबी लेकर आता हूँ ।"
पत्नी ने दाल पहले ही भिगो रखी थी । वह भी अपने काम में लग गई । कुछ ही देर में रसोई से खुशबू आने लगी पकौड़ों की । शंकर भी जलेबियाँ ले आया था । वह जलेबी रसोई में रख पिता के पास बैठ गया । उनका हाथ अपने हाथ में लिया और उन्हें निहारते हुए बोला -
"बाबा ! आज आपकी पसंद की चीज लाया हूँ । थोड़ी जलेबी खायेंगे ।"
पिता ने आँखे झपकाईं और हल्का सा मुस्कुरा दिए । वह अस्फुट आवाज में बोले -
"पकौड़े बन रहे हैं क्या ?"
"हाँ, बाबा ! आपकी पसंद की हर चीज अब मेरी भी पसंद है । अरे ! सुषमा जरा पकौड़े और जलेबी तो लाओ ।" शंकर ने आवाज लगाईं ।
"लीजिये बाबू जी एक और" उसने पकौड़ा हाथ में देते हुए कहा ।
"बस...अब पूरा हो गया । पेट भर गया, जरा सी जलेबी दे" पिता बोले ।
शंकर ने जलेबी का एक टुकड़ा हाथ में लेकर मुँह में डाल दिया । पिता उसे प्यार से देखते रहे ।
"शंकर ! सदा खुश रहो बेटा; मेरा दाना पानी अब पूरा हुआ", पिता बोले ।
"बाबा ! आपको तो सेंचुरी लगानी है । आप मेरे तेंदुलकर हो," आँखों में आंसू बहने लगे थे ।
वह मुस्कुराए और बोले- "तेरी माँ पेवेलियन में इंतज़ार कर रही है, अगला मैच खेलना है । तेरा पोता बनकर आऊंगा, तब खूब खाऊंगा बेटा.... ।"
पिता उसे देखते रहे। शंकर ने प्लेट उठाकर एक तरफ रख दी । मगर पिता उसे लगातार देखे जा रहे थे। आँख भी नहीं झपक रही थी। शंकर समझ गया कि यात्रा पूर्ण हुई ।
तभी उसे ख्याल आया, पिता कहा करते थे -
"श्राद्ध खाने नहीं आऊंगा कौआ बनकर, जो खिलाना है अभी खिला दे ।"
श्राद्ध का मतलब सेवा करना होता है ।
अगर माता-पिता की जीते-जी सेवा करोगे तो माता-पिता की ही सेवा होगी ....
और अगर उनके मरने के बाद उनके नाम पर सेवा करोगे तो वह किसी अन्य की ही सेवा होगी ।
अब सोच लो, सेवा माता-पिता की करनी है या किसी व्यक्ति/वर्ग विशेष की ।
अत: माँ-बाप का योग्य मान-सम्मान और सेवा करें और उन्हें जीते जी ही खुश रखें ।
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"श्राद्ध-पक्ष" ( "ओशो" की नजर में)
धर्म के धंधे का सबसे हास्यास्पद और विकृत रूप देखना है तो पितृपक्ष श्राद्ध और इसके कर्मकांडों को देखिये । इससे बढ़िया केस स्टडी दुनिया के किसी कोने में आपको नही मिलेगी !! ऐसी भयानक रूप से मूर्खतापूर्ण और विरोधाभासी चीज सिर्फ विश्वगुरु के पास ही मिल सकती है ।
...एक तरफ तो ये माना जाता है कि पुनर्जन्म होता है, मतलब कि घर के बुजुर्ग मरने के बाद अगले जन्म में कहीं ना कहीं पैदा हो गए होंगे... दूसरी तरफ ये भी मानेंगे कि वे अंतरिक्ष में लटक रहे हैं और खीर पूड़ी के लिए तड़प रहे हैं...।
अब सोचिये पुनर्जन्म अगर होता है तो अंतरिक्ष में लटकने के लिए वे उपलब्ध ही नहीं हैं; किसी स्कूल में नर्सरी में पढ़ रहे होंगे अगर अन्तरिक्ष में लटकना सत्य है तो पुनर्जन्म गलत हुआ लेकिन हमारे पोंगा पंडित दोनों हाथ में लड्डू चाहते हैं इसलिए मरने के पहले अगले जन्म को सुधारने के नाम पर भी उस व्यक्ति से कर्मकांड करवाएंगे और मरने के बाद उसके बच्चों को पितरों का डर दिखाकर उनसे भी खीर पूड़ी का इन्तजाम जारी रखेंगे...।
अब मजा ये कि कोई कहने पूछने वाला भी नहीं कि महाराज इन दोनों बातों में कोई एक ही सत्य हो सकती है ...उस पर दावा यह है कि, ऐसा करने से सुख समृद्धि आयेगी लेकिन इतिहास गवाह है कि ये सब हजारों साल तक करने के बावजूद यह देश गरीब और गुलाम बना रहा है ...। बावजूद इसके हर घर में हर परिवार में श्राद्ध का ढोंग बहुत गंभीरता से निभाया जाता है .... और वो भी पढ़े लिखे और शिक्षित परिवारों में .... ये सच में एक चमत्कार है !!!
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"बोधकथा"
एक बार गुरु रामानंद ने कबीर से कहा कि, हे कबीर ! आज श्राद्ध का दिन है और पितरो के लिये खीर बनानी है; आप जाइये, पितरो की खीर के लिये दूध ले आइये....।
कबीर उस समय 9 वर्ष के ही थे.. कबीर दूध का बरतन लेकर चल पडे.....चलते चलते आगे रस्ते में एक गाय मरी हुई पडी मिली.... कबीर ने आस पास से घास को उखाड कर, गाय के पास डाल दिया और वही पर बैठ गये...!!!
दूध का बरतन भी पास ही रख लिया.....।
काफी देर हो गयी, कबीर लौटे नहीं, तो गुरु रामानंद ने सोचा.... । पितरो को छिकाने का टाइम हो गया है...!! कबीर अभी तक नही आया....तो रामानंद जी खुद चल पडे दूध लेने ।
चले जा रहे थे तो आगे देखा कि कबीर एक मरी हुई गाय के पास बरतन रखे बैठे है...!!!
गुरु रामानंद बोले, अरे कबीर तू दूध लेने नही गया ?
कबीर बोले: स्वामीजी, ये गाय पहले घास खायेगी तभी तो दूध देगी...!!!
रामानंद बोले : अरे यह गाय तो मरी हुई है, ये घास कैसे खायेगी ??
कबीर बोले : स्वामी जी, ये गाय तो आज मरी है....जब आज मरी गाय घास नही खा सकती...!!!
...तो आपके 100 साल पहले मरे हुए पितर खीर कैसे खायेगे...??
यह सुनते ही रामानन्दजी मौन हो गये..!!
उन्हें अपनी भूल का ऐहसास हुआ.!!
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माटी का एक नाग बना के, पुजे लोग लुगाया
जिंदा नाग जब घर में निकले, ले लाठी धमकाया
जिंदा बाप कोई न पुजे, मरे बाद पुजवाया
मुठ्ठीभर चावल ले के, कौवे को बाप बनाया
यह दुनिया कितनी बावरी हैं, जो पत्थर पूजे जाय
घर की चकिया कोई न पूजे, जिसका पीसा खाय
----संत कबीर
भावार्थ : जो जीवित है उनकी सेवा करो..!! वही सच्चा और सबसे महत्वपूर्ण श्राद्ध है..!!