भारतीय सिनेमा जगत के सुनहरी पर्दे पर 1983 में एक सुपर स्टार्स फिल्म आई थी “जाने भी दो यारों" । एनएफ़डीसी द्वारा निर्मित इस फिल्म को ‘कुन्दन शाह’ द्वारा निर्देशित किया गया है, जिसमें उस जमाने में व्याप्त भ्रष्टाचार सम्बन्धी बात किया गया है । मीडिया, राजनीति , उच्चाधिकारियों और बिल्डरों के बीच की साँठ-गांठ को दो नवोदित फोटोग्राफरों द्वारा उजागर किया जाना, इस फिल्म की कहानी का मुख्य केंद्र-बिन्दु है । फिल्म में एक नया बना हुआ ‘पुल’ टूट जाता है और उसके बाद कहानी आगे बढ़ती है ।
आजकल भी नया ‘पुल’ का टूटना सामान्य घटना वाली बात है । कुछ समय पूर्व कोलकत्ता
में एक पुल टूटा था, दिल्ली में भी मेट्रो रेल निर्माण के समय पुल टूटा था, सूरत में
भी कुछ वर्ष पूर्व पुल टूटा था जिसमें अनेक मजदूरों की मौत हुई थी । किन्तु विकास की
इस स्पर्धा में हमारे देश भारत में अनेक घटनाएँ होती रहती है और चर्चा का विषय
बनती है ।
‘दिलवाले दुलहनियाँ ले जाएँगे' फिल्म में शाहरुख खान एक डायलॉग बोलता है “बड़े-बड़े देशों में ऐसी छोटी-छोटी बातें होती रहती है ।” हमारे देश में जब भी कोई इस प्रकार की घटना होती है तब हम सभी भारतीय लोग, अक्सर बहुत आक्रोशित और गुस्सा होते है तथा जवाबदार व्यक्ति को कोसते और दोष देते हुए सिस्टम को जिम्मेदार बनाते है । इसके बाद अचानक रूप से घटना को भूल जाते है, जो थोड़े बहुत ऐसी घटना को याद रखते है, उन्हें कहते है कि, जाने भी दे यार... अब होगा ! ...इस प्रकार तो होता ही रहता है ... इत्यादि-इत्यादि । वैसे भी हमारे देश के लोग “जाने भी दो यारों" के सूत्र की तरह, भूल जाने का ‘हुनर' इस लोकतंत्र में भली प्रकार से सीख ही चुके है । इसे हम जानबूझकर अवगणना कहें अथवा सत्य से पीछा छुड़ाने का अचूक रास्ता... यह सभी के लिए एक बहुत ही बड़ा प्रश्न चिन्ह है !!!
अभी कुछ दिनों पूर्व
ही गोरखपुर (यूपी) में ऑक्सीज़न की कमी के कारण मासूम बच्चों की मौत हुई । पहले तो लोगों
का खून खौल उठा, अब धीरे-धीरे शांत हो रहा है और कुछ दिन दिन बाद कोई आंदोलन/चक्रवात
नहीं बनेगा बल्कि लोगों का खून जम जाएगा । सभी लोग अपने-अपने काम-धंधों में व्यस्त
हो जाएंगे । बहुत ज्यादा उपामोह हुआ तो लोग मोमबत्तियाँ (केंडल्स मार्च) लेकर सड़कों
पर उतर आएंगे । इसके बाद सब कुछ भूलकर, उन्ही मोमबत्तियों के नीचे ‘केंडल लाइट’ डिनर
करके सो जाते है । देश की उन्नति के लिए ‘सपने' देखने के लिए सोना भी जरूरी होता है
। वैसे भी सपने देखना अधिक महत्त्वपूर्ण है, उन्हे पूरा करना नहीं !! क्योंकि सपने
पूरे करने के लिए तो अथक कठिन परिश्रम करना आवश्यक है ताकि, ऐसे जागृत समाज का निर्माण
किया जा सके, जिसमें कोई पुल टूटे नहीं, कोई मासूम बालक अपमृत्यु का शिकार ना बने...
। यह काम बड़ा ही कठिन हो जाता है, इससे तो ज्यादा बेहतर पहली ही उक्ति “जाने भी दो
यारों” अच्छी है; क्योंकि इस उक्ति के सहारे जीने की आदत के कारण, हम कथित जागृत नागरिक
कभी सोते नहीं है । कभी-कभी चुनावों के समय अचानक नींद के नशे से जागकर, सरकार तक बदल
देते है और इसी प्रकार के चमत्कारों के कारण ही हमारा लोकतंत्र सलामत है । वैसे ऐसे
चमत्कार सामान्य दिनों के दौरान देखने को नहीं मिलते है । इस प्रकार के चमत्कारों से
पुरानी सरकार और नई सरकार के बीच, स्थायी रूप से विद्यमान/कार्यरत ‘लाल फीताशाही के
बादशाह" अर्थात संभ्रांत नौकरशाहों (ब्यूरोक्रेट्स) के बीच आम आदमी
की समस्याएँ, हमेशा वैसी की वैसी ही बनी रहती है । किसी भी घटना की निंदा करने के लिए
शब्द और आरोप अक्सर वही रहते है; जवाब भी वही रहते है और बदलता है तो केवलमात्र दल
या पक्ष ।
जिसके सहारे मनुष्य जीवन जीता है, वह संस्कृति
नहीं है; फिर भी जिसके लिए जीता है, उसी का नाम संस्कृति है । किसी भी घटना को “जाने
भी दो यारों" के डायलोग की तरह से भुलाने की कला लोकतन्त्र में लगभग सभी नागरिक
बहुत अच्छी प्रकार से सीख गए है और आजकल हमारा मनपसंद राष्ट्रीय डायलोग है “जाने
भी दो यारों" । हम सभी को ’जाने देने’ और ‘भूल जाने’ की आदत, एक जागृत प्रजा
के रूप में बदलनी ही होगी । इन्दिरा गाँधी द्वारा ‘इमरजेंसी' लागू किए जाने के उपरांत
चुनाव में हराने वाली जागृत प्रजा (मतदाताओं) द्वारा दो वर्ष के अंदर ही पूर्ण बहुमत
से सत्तारूठ किया गया था, यह सभी को भली प्रकार से याद ही होगा ।
अभी हाल ही में उत्तरप्रदेश के
मुख्यमंत्री जी द्वारा गोरखपुर हॉस्पिटल प्रशासन / तंत्र की लापरवाही से हुई बच्चों की मौत से अधिक उत्साह जन्माष्टमी
का त्यौहार मनाने मे देखने को महसूस हुआ । इस तरह के मामलों से उन पर क्षणिक गुस्सा / आक्रोश व्यक्त करने वाला मतदाता
अथवा नागरिक (बच्चों को खो देने वाले माँ-बाप के अलावा), भविष्य में सम्भवतः इस घटना को
भूल लाए... बाकी सभी किसी भी प्रकार के नशे / उन्माद में नौकरी-धंधा करे, खेती-बाड़ी
करे, मजदूरी करे अथवा जिसके जो ज़िम्मेदारी में काम आया है, उसमें व्यस्त हो जाएगा ।
इसमें अनेक लोग ट्विटर या फेसबुक पर अपना गुस्सा / आक्रोश व्यक्त करेंगे और आखिर
में जैसा चल रहा था वैसा ही हो जाएगा किन्तु अपने मासूम बच्चों को खो चुके, माँ-बाप की व्यथा का किसी के पास कोई उपाय नहीं होगा । अंततः प्रिंट-मीडिया भी
सरकारी रबर स्टाम्प की तरह, इस प्रकार की घटनाओं को लोगो के मानस-पटल से मिटाने का
काम शुरू कर देगा । डोकलाम इश्यू, नापाक पाकिस्तान, धार्मिक कट्टरता, आतंकवाद अथवा काश्मीर समस्या.... विभिन्न प्रकार के डोज़ देकर भुलवा ही देगा
। यदि हमें वास्तव में देश का विकास करना है तो जागृत प्रजा की तरह याद रखना और सीखना ही पड़ेगा, भूलना नहीं । याद रखना ही पड़ेगा...
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उत्सव जैसा क्या होगा मेरे जीवन में तेरे आभाव में, हर दिन मेरी आँखों में मेले लगते है ।
एकांत, मौन, शून्यता, अँधेरा या खुद, फिर किस बात का डर है ।।
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सारे जहाँ से अच्छा... हिंदोस्ताँ हमारा…
: जय हिन्द :