'न को हिन्दू, न को मुसलमान । हम केवल एक इंसान हैं ।'
'एक पिता एकस के हम बारिक'
कार्तिक पूर्णिमा को संसार में एक महापुरुष का
आविर्भाव हुआ । इस ज्योति पुरुष और सिख धर्म के प्रथम गुरु नानक देवजी के नाम से
जाना गया । श्री गुरु नानक का मिशन मानवतावादी मिशन था । उनका चिंतन धर्म के सत्य, शाश्वत मूल्यों का मूल था
इसीलिए उन्होंने जगत के प्राणियों को मजहब, जातियों, वर्गों आदि से ऊपर उठकर एकात्मकता का संदेश दिया ।
उन्होंने स्पष्ट कहा- जो धर्म के सच्चे उसूलों पर
चलता है वही सच्चा मुसलमान है, वही सच्चा
हिन्दू है । गुरुजी की दृष्टि में प्रभु का सिमरन बाहरी और दिखाने की नहीं,
आत्मसात करने की चीज है । धर्म दर्शन है, बाहरी
प्रदर्शन नहीं ।
गुरु नानक का जन्म आधुनिक पाकिस्तान में लाहौर के पास
तलवंडी में 15 अप्रैल 1469 को एक हिन्दू परिवार में हुआ जिसे अब ननकाना साहब कहा जाता है । पूरे देश में गुरु नानक का जन्मदिन प्रकाश दिवस के रूप
में कार्तिक पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है ।
उनकी शिक्षाओं में मुख्यत: तीन बातें हैं- पहला जप यानी प्रभु स्मरण, दूसरा कीरत यानी अपना काम करना और तीसरा
जरूरतमंदों की मदद ।
श्री
गुरु नानकदेवजी का जीवन एवं धर्म-दर्शन युगांतरकारी लोक कल्याणकारी दर्शन था । वे
गृहस्थ त्याग संन्यास लेने के खिलाफ थे, क्योंकि वे सहजयोग के हामी थे ।
उन्होंने लोक कल्याण के लिए गृहस्थ जीवन को श्रेष्ठ कहा । उन्होंने स्वयं भी
गृहस्थ जीवन का पालन करते हुए भी ताउम्र उदासीन गृहस्थ की भूमिका निभाई । उन्होंने
नाम जपना, किरत करना एवं बंड छकना को सफल गृहस्थ जीवन का
मंत्र बताया । यही गुरु मंत्र सिख धर्म का मुख्य आधार है यानी अंतरआत्मा से ईश्वर
का नाम स्मरण करें, पुरुषार्थ भाव से ईमानदारी एवं परिश्रम
से कर्म करें और अर्जित धन से असहाय, दुःखी, पीड़ित, जरूरतमंद इंसानों की सेवा करें । गुरु
नानकदेवजी ने अन्न की शुद्धता, पवित्रता और सात्विकता पर जोर
दिया ।
श्री
गुरु नानकदेवजी ने मानवीय प्रामाणिक मूल्यों को तोड़ने वाले अहंभाव को पूरी तरह से
नकारा है । गुरुजी ने सभी धर्मों को श्रेष्ठ बताया । मनुष्य की जाति और नाम व्यर्थ
है । उन्होंने कहा- धन, जाति, वर्ण, पौरुष का भी
अभिमान गलत है, लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि नानकजी ने
अहंकार को नकारा है, आत्मसम्मान को नहीं ।
एक बार श्री गुरु नानक देव जी के पास
एक नवाब और काजी आए । उन्होंने आकर गुरुजी से कहा- आप कहते है ना! ना कोई हिन्दु
और ना मुसलमान...! सब कुदरत के बन्दे हैं । अगर आप यही मानते है कि ईश्वर एक ही है
तो आज आप हमारे साथ चल कर नमाज़ पढि़ए ।
गुरुजी ने कहा- ठीक है, मैं आपके साथ चलता हूँ । नमाज़ का समय हुआ तो
सभी लोग नमाज़ पढ़ने लगे । नमाज़ खत्म होने पर काज़ी और नवाब गुरुजी के पास आए और
कहने लगे हम आपसे बहुत नाराज हैं क्योंकि हम जानते है कि आपने हमारे साथ नमाज नहीं
पढ़ी ।
गुरुजी उनकी बात को धीरज से सुनते रहे और फिर
उन्होंने कहा- 'काजी साहब, मैं
नमाज़ किसके साथ पढ़ता!आप तो यहाँ थे ही नहीं?'काजी गुस्से
में कहने लगे- 'क्या बात करते हैं? मैं
यही पर आपके सामने नमाज़ पढ़ रहा था ।'
गुरुजी ने उत्तर दिया-'यहाँ तो सिर्फ आपका शरीर था, पर आपका मन तो अपने घर में था । फिर भला मैं आपके साथ नमाज़ कैसे पढ़ता?'
काजी ने कहा चलिए ठीक है 'मैं मानता हूँ कि मेरा ध्यान यहाँ नहीं बल्कि
अपने घर में था, पर नवाब साहब तो यहाँ थे आप इनके साथ नमाज़
पढ़ लेते?'गुरु साहिब जी ने कहा- 'नवाब
साहब भी यहाँ कहाँ थे, वो तो हिन्दुस्तान के भी बाहर जाकर
काबुल में घोड़े खरीद रहे थे । मेरा मतलब है कि नमाज़ के समय उनका ध्यान काबुल के
घोड़ो में था ।'
काजी और नवाब अपनी बात पर शर्मिंदा हुए तब गुरुजी
ने उनको समझाया कि केवल शरीर से पूजा या नमाज़ पढ़ने से सही रूप से आराधना नहीं
होती । असली आराधना तो तब होती है जब आप पूरे मन से, एकाग्र होकर ईश्वर की आराधना करें । चाहे वो किसी के भी आगे करें । इसलिए
हमेशा पहले अपने मन को प्रभु के चरनो में जोड़ना चाहिए ।
गुरुजी
ने जगत कल्याण के लिए धर्म निरपेक्षता एवं सर्वधर्म समभाव का सिद्धांत जगत को दिया
।
गुरुजी ने केवल उपदेश ही नहीं दिए अपितु मन, वचन, कर्म से धर्म के सत्य सिद्धांतों को व्यावहारिक रूप में स्थापित किया । गुरु नानकदेवजी का विराट व्यक्तित्व एवं कृतित्व जितना सरल, सीधा और स्पष्ट है उसका अध्ययन, चिंतन और अनुसरण भी उतना ही व्यावहारिक है । वे साधु फक्कड़ स्वभाव के थे । गुरुजी उदार प्रवृत्ति वाले स्वतंत्र और मौलिक चिंतक थे । श्री गुरु का जीवन भी उनके विचारों, सिद्धांतों के समर्थन में खरा उतरता है ।