एक बार मेरे कमरे में अचानक 5-6 साँप घुस गए । मैं भयभीत एवं परेशान हो गया, उसकी वजह से मैं कश्मीरी हिंदुओं की तरह अपने ही घर से बेघर होकर (भगवान सब ठीक कर देगा) बाहर निकल गया । घटना की जानकारी होने से, आजू-बाजू एवं अन्य बाकी के कुछ लोग भी जमा हो गए । अनहोनी की आशंका के कारण और डर के मारे मैने पुलिस और सेना को भी खबर देकर बुला लिया ।
अब मैं बहुत खुश था कि, थोड़ी ही देर में पुलिस ना सही, कम से कम सेना तो इन साँपों को अवश्य मार देगी । तभी कुछ पशुप्रेमी और मानवतावादी संगठन भी आ गए और बोले कि, आप इन पर गोली नहीं चला सकते है वरना हम 'पेटा' के तहत केस कर देंगे ।
सेना वाले उसको 'ढेला' मारने लगे ताकि साँप डर कर बाहर निकल जाए । साँप भी उधर से बचाव करते हुए, मुँह ऊँचा करके जहर फेंकने लगे ।
एक साँप ने तो एक दो सैनिक को काट भी लिया, पर साँप भागे नहीं । ऐसे मौके पर मुझे अहसास हुआ कि, सेना की भी कुछ मजबूरियाँ होती है ।
फिर इतने में कुछ पड़ोसी मुझे ही बोलने लगे, क्या भाई तुम भी बेचारे साँप की जान के पीछे पड़े हो ? रहने दो, क्यों भगा रहे हो ? घर के कुछ चूहे एवं अन्य कीड़े-मकोड़े ही कम हो जायेंगे ! जानवर ही तो है, पेट भरेगा तो, अपने आप चले जायेंगे ।
उधर प्रशासन ने इधर-उधर खबर भिजवा दिया कि, साँप के मुँह में जहर नहीं होना चाहिए । उसके मुँह में दूध दे दो, तो वो मुँह से जहर की जगह दूध उगलेगा ।
..... मैं हैरान परेशान ...
फालतू में बात का बतंगड़ हो चुका था । समय निकलता जा रहा था और न्यूज़ चेनल भी चलने लगे थे और अपना-अपना राग अलापनेे लगे ।
एक मशहूर महिला भी चीख़-चीख कर कहने लगी कि, ये तो भटके हुए संपोले हैं और मकान मालिक इनको बेवजह परेशान कर रहा है ।
जब तक कोई हल नहीं निकलता है तब तक, मकान मालिक को चाहिए कि, वो इनको अपने घर में सुरक्षित स्थान पर इनको बिल बनाकर रहने दे और इनके खाने पीने का भरपूर ध्यान रखे ।
इसी बीच एक गुस्साए सैनिक ने 'पेलेट-गन' चला दिया और एक साँप वहीं पर ढ़ेर हो गया और मेरे मन में आशा जगी कि, सेना ही वास्तव में कुछ कर सकती है ।
तभी वहाँ के भाँड और बिकाऊ मीडिया ने कहा, 'पेलेट-गन' क्यों और किसके आदेश से चलाया ? साँप को कष्ट हो रहा है !
अभी कोई कुछ सोचता उससे पहले ही हाईकोर्ट का भी फैसला, जाने कहाँ से आ गया कि, साँप पर 'पेलेट-गन' नहीं चला सकते है क्योकि कि इस गन से उसकी आँखे और चेहरा ख़राब हो सकता है ।
उधर आम आदमी पार्टी ने कह दिया कि वहाँ जनमत संग्रह हो कि, उस घर में साँप रहेगा या आदमी !!
कुल मिलाकर साँप को भी तो जीने का हक़ है और आश्चर्यजनक रूप से इस बात पर सब एकमत हो गए ।
इतने में जो मेरा पडोसी, जो मेरा घर कब्ज़ा करना चाहता था और मौके की तलाश मे था, वो साँपों के लिए दूध, छिपकली और मेढ़क लेकर आ गया, उन्हें खिलाने लगा ।
उसकी मदद कुछ बुद्धिजीवियों, मानवतावादियो और पत्रकारों ने कर दी और 'पड़ोसी' को शाबाशी दी ।
इन परिस्थितियों में, मैं निराश होकर अब दूर से सिर्फ नजारा ही देखता था और अपनी करनी पर अफसोस कर रहा था । मन ही मन सोचने लगा कि, कोई साधु-महात्मा, पण्डित , तपस्वी इत्यादि अपनी शक्ति से ही इन्हे भस्म कर दे किन्तु सब बेकार ।
काश...
मैंने थोड़ी हिम्मत से खुद लाठी लेकर शुरू में ही इन साँपो को ठिकाने लगा दिया होता तो, आज ये दिन ही ना देखना पड़ता ।
ऐसा लगता है कि, 130 करोड़ का बहुमत होते हुए भी हमारे वादे-इरादे सिर्फ 'जुमलाबाज़ी' है ।
नोट: इस व्यंग का उद्देश्य किसी की निजी भावना या कार्यशैली को आहत करना नहीं है ।