वर्तमान समय में विकास के लिए आवश्यक इन्फ्रास्ट्रक्चर
बढ़ाने की महत्त्वता को कोई नकार नहीं सकता है । चाहे नई बिल्डिंग बनानी हो या मेट्रो
का पुल, आज हर जगह विकास कार्य के लिए सबसे ज्यादा बलि का यदि कोई भोग बनाता है, तो वह है पेड़... । वैसे तो पेड़-पौधे हमारे जीवन ही नहीं अपितु वर्यावरण (प्रकृति)
का अहम कारक है । किन्तु आज आलम यह है कि, पेड़ लगातार कम होते
जा रहे है और आज हमें घनी आबादी में कुछेक पेड़ ही देखने को मिलते है; परिणामस्वरूप धरती का फेफड़ा कहलाने वाले पेड़, जो वायुमंडल
को दूषित करने और ग्लोबल वार्मिंग के लिए जिम्मेदार गैस कार्बनडाई-आक्साइड का शोषण
करके, ऑक्सीज़न का उत्सर्जन करते है, लगातार
कम होते जा रहे है, जिसके कारण पृथ्वी का ‘परिवर्तन-चक्र’ बुरी तरह प्रभावित हो रहा है । यदि यही
माहौल रहा और पेड़ ही नहीं होंगें तो ऑक्सीज़न की कमी के कारण हमारी तो साँसें ही घुट
जाएगी ।
संयुक्त
राष्ट्र संघ (UNO) द्वारा एवं विभिन्न देशों द्वारा पर्यावरण को बचाने के लिए अनेक योजनाओं को
लागू करते हुए, वृक्षारोपण को बढ़ावा दे रहे है और प्रकृति के
संतुलन को बनाए रखने का प्रयास कर रहे है । पेड़ हमारे जीवन में कितना महत्त्व रखते
है, इसका सबसे बड़ा नमूना 26 मार्च 1974 को वर्तमान में उत्तराखंड
(पूर्व में उत्तरप्रदेश) में शांत और अहिंसक रूप में देखा गया था । इस आंदोलन को “चिपको
आंदोलन” के नाम से जाना जाता है, जिसका मुख्य उद्देश्य था, व्यवसाय के लिए अंधाधुंध वनों की कटाई को रोकना । वनों की कटाई को रोकने
के लिये गाँव के पुरुष और महिलाएँ पेड़ से लिपट जाती थी और ठेकेदारों को पेड़ नहीं
काटने देती थी और कहते थे कि ”इन पेड़ों के साथ हमें भी काट
डालो ।”
‘ चिपको आंदोलन ’ की शुरुआत : चिपको आन्दोलन का सीधे-सीधे अर्थ है, किसी
चीज से चिपकर उसकी रक्षा करना. ‘चिपको आन्दोलन’ की शुरुआत उत्तराखंड, पूर्व
में उत्तर प्रदेश का भाग जो 2000 में उत्तर प्रदेश से अलग
होकर एक नया राज्य बना । ‘चिपको आन्दोलन’ एक पर्यावरण की रक्षा करने का एक ग्रामीण आन्दोलन था । इसकी शुरुआत
उत्तराखंड के चमोली जिले में सन 1973 में हुई थी । तब गाँव
के ग्रामीण किसानो ने राज्य के वन ठेकेदारों द्वारा वनों और जंगलो को काटने के
विरोध में ‘चिपको आन्दोलन’ लड़ा गया था ।
बात 1974 की है, जनवरी का महीना था, रैंणी गाँव के वासियों को पता
चला कि उनके इलाके से गुजरने वाली सड़क-निर्माण के लिए 2451 पेड़ों
का छपान (काटने के लिए चुने गए पेड़) हुआ है । पेड़ों को अपना भाई-बहन समझने वाले गाँववासियों
में इस खबर से हड़कम्प मच गया । गाँव वासियों के लिए अलकनंदा की प्रलयकारी बाढ़ (1970)
उनकी स्मृतियों में ऐसी थी, जैसे कल की बात हो
। इस बाढ़ ने उत्तराखंड के जनजीवन और जंगल को जिस तरह तबाह किया था, उसके बाद ही पर्यावरण संरक्षण के लिए प्रयास शुरू हुए । ‘पर्यावरण संरक्षण’ कार्यक्रम में चंडी प्रसाद भट्ट,
गोबिंद सिंह रावत, वासवानंद नौटियाल और हयात
सिंह जैसे अनेक जागरूक लोग थे । 23 मार्च 1974 के दिन रैंणी गाँव में कटान के आदेश के खिलाफ, गोपेश्वर
में एक रैली का आयोजन हुआ । रैली में गौरा देवी , महिलाओं का
नेतृत्व कर रही थीं । प्रशासन ने सड़क निर्माण के दौरान हुई क्षति का मुआवजा देने
की तारीख 26 मार्च तय की थी, जिसे लेने
के लिए गाँववालों को चमोली जाना था । दरअसल ये वन विभाग की एक सुनियोजित चाल थी ।
प्लान ये था कि 26 मार्च को चूंकि गाँव के सभी मर्द चमोली
में रहेंगे और समाजिक कायकर्ताओं को वार्ता के बहाने गोपेश्वर बुला लिया जाएगा ।
इसी दौरान ठेकेदारों से कहा जाएगा कि 'वो मजदूरों को लेकर
चुपचाप रैंणी पहुंचें और कटाई शुरू कर दें ।' इस आन्दोलन में
महिलाओं की संख्या अधिक थी । इस आन्दोलन में प्रसिद्ध पर्यावरण प्रेमी सुन्दरलाल
बहुगुणा, चंडीप्रसाद भट्ट, श्रीमती
गौरा देवी और गाँव के ग्रामीणों ने मिलकर इस आन्दोलन को अंजाम दिया. इस आन्दोलन को
‘सम्यक जीविका पुरस्कार’ से सम्मानित
भी किया गया है ।
प्रशासनिक
अधिकारियों की तेज बुद्धि का लोहा मानते हुए मुनाफाखोर ठेकेदार, मजदूरों
के साथ, देवदार के जंगलों को काटने निकल पड़े । उनकी इस हलचल
को एक लड़की ने देख लिया । उसे ये सब कुछ असहज लगा, उसने
दौड़कर ये खबर गौरा देवी को दी, वो फौरन हरकत में आई । उस समय,
गाँव में मौजूद 21 महिलाओं और कुछ बच्चों को
लेकर, वो भी जंगल की ओर चल पड़ी । देखते ही देखते महिलाएं,
मजदूरों के झुंड के पास पहुंच गईं, उस समय
मजदूर अपने लिए खाना बना रहे थे । गौरा देवी ने उनसे कहा, 'भाइयों,
यो जंगल हमारा मायका है, इससे हमें जड़ी-बूटी,
सब्जी-फल और लकड़ी मिलती है । जंगल को काटोगे तो बाढ़ आएगी, हमारे बगड़ बह जाएंगे, आप लोग खाना खा लो और फिर
हमारे साथ चलो, जब हमारे मर्द लौटकर आ जाएंगे तो फैसला होगा ।' ठेकेदार और उनके साथ चल रहे वन विभाग के लोग इस नई आफत से बौखला गए ।
उन्होंने महिलाओं को धमकाया, यहाँ तक कि गिरफ्तार करने की
धमकी भी दी गई, लेकिन महिलाएं अडिग रहीं । ठेकेदार ने बंदूक
निकालकर डराना चाहा तो गौरा देवी ने अपनी छाती तानकर गरजते हुए कहा, 'लो मारो गोली और काट लो हमारा मायका', इस पर सारे
मजदूर सहम गए । गौरा देवी के इस अदम्य साहस और आह्वान पर सभी महिलाएं पेड़ों से
चिपक कर खड़ी हो गईं और उन्होंने कहा, 'इन पेड़ों के साथ हमें
भी काट डालो ।' देखते ही देखते, जंगल
के सभी मार्ग पर महिलाएं तैनात हो गईं । ठेकेदार के आदमियों ने गौरा देवी को हटाने
की हर कोशिश की, यहाँ तक कि उन पर थूका भी गया । लेकिन गौरा
देवी ने आपा नहीं खोया और पूरी इच्छा शक्ति के साथ अपना विरोध जारी रखा । आखिरकार
थक-हारकर मजदूरों को लौटना पड़ा और इन महिलाओं का ‘मायका’ बच गया । अगले दिन खबर चमोली हेडक्वॉर्टर तक जा पहुंची । पेड़ों से चिपकने
का ये नायाब तरीका अखबारों की सुर्खियां बन गईं । इस आंदोलन ने सरकार के साथ-साथ
वन प्रेमियों का भी ध्यान आकर्षित किया ।
मामले की गंभीरता को समझते हुए सरकार ने डॉ.
वीरेंद्र कुमार की अध्यक्षता में एक जांच समिति गठित की । जांच में पाया गया कि
रैंणी के जंगलों के साथ ही अलकनंदा में बाईं ओर मिलने वाली समस्त नदियों, ऋषि
गंगा, पाताल गंगा, गरुड़ गंगा, विरही और नंदाकिनी के जल ग्रहण क्षेत्रों और कुंवारी पर्वत के जंगलों की
सुरक्षा पर्यावरणीय दृष्टि से बहुत आवश्यक है ।
“चिपको आंदोलन” की हीरो ‘गौरा देवी’ : चिपको आंदोलन' एक आदिवासी औरत ‘गौरा देवी’ के अदम्य साहस और सूझबूझ की दास्तान है । पांचवीं क्लास तक पढ़ी ‘गौरा देवी’ की पर्यावरण वि ज्ञान की समझ और उनकी सूझबूझ ने अपने सीने को बंदूक के आगे कर के, अपनी जान पर खेल कर, जो अनुकरणीय काम किया, उसने उन्हें सिर्फ रैंणी गाँव का ही नहीं, उत्तराखंड का ही नहीं, बल्कि पूरे देश का हीरो बना दिया । विदेशों में उन्हें ‘चिपको वूमेन फ्रॉम इंडिया’ कहा जाने लगा ।
1925 में
चमोली जिले के एक आदिवासी परिवार में जन्मी, केवल पांच दर्जे
तक पढ़ी, गौरा देवी ने आज से 43 साल
पहले पेड़ और उसे काटने वाले आरे के बीच खुद को खड़ा कर के, सिर्फ
आंदोलन ही नहीं चलाया बल्कि देश को पर्यावरण के बारे में सोचना भी सिखाया । 2011
में, मशहूर पर्यावरणविद ‘वंदना शिव’ ने इंडिया टुडे मैगजीन से बात करते हुए
कहा था कि चिपको मूवमेंट ने ही हमें पर्यावरण विभाग और पर्यावरण मंत्रालय दिया ।
इसी आंदोलन के बाद पर्यावरण से जुड़े नए कानून बनाए गए । मैं अक्सर अपने
विद्यार्थियों से कहता हूं, कि मात्रा का सिद्धांत मैंने
यूनिवर्सिटी ऑफ वेस्टर्न ओंटारियो, कनाडा से सीखा और
पर्यावरण यानी परिस्थिति विज्ञान की शिक्षा ‘चिपको-यूनिवर्सिटी’
ऑफ उत्तराखंड से पाई । पर्वतीय इलाको का खुलेआम दोहन : ये
कहानी शुरू होती है भारत-चीन युद्ध के बाद, पर्वतीय सीमाओं
तक सैनिकों की आवाजाही के लिए बनाई जाने वाली सड़क निर्माण से । इस दौरान, रक्षा के नाम पर, पर्वतीय दोहन खुलेआम किया गया ।
लेकिन इलाके के जागरूक लोगों ने इस खतरे को भांपा और इसके विरोध में अपनी आवाज
बुलंद की । चंडी प्रसाद भट्ट 1964 से इस काम में लगे हुए थे
। गौरा देवी ने
भी इस खतरे को समझा और इसके लिए जागरूकता फैलाने में लग गईं । ‘हम लोग खतरे में जी रहे हैं’, गौरा देवी की जुबां पर
हर समय यही रहता था । एक छोटी सी घटना ने, गौरा देवी के दर्द
को, उनकी आवाज को देश और दुनिया से रू-ब-रू करा दिया । सूचना
की पहरेदारी पर बैठे लोग अपना मुंह देखते रह गए । रैंणी गाँव की उसी छोटी सी घटना
को ‘चिपको आंदोलन’ के नाम से जाना जाता
है । जिस समय यह आन्दोलन चल रहा था, उस समय केंद्र की
राजनीति में भी पर्यावरण एक एजेंडा बन गया था । इस आन्दोलन को देखते हुए केंद्र
सरकार ने वन सरंक्षण अधिनियम बनाया । इस अधिनियम के अंतर्गत वनों की रक्षा करना और पर्यावरण को जीवित करना आता है । यह ‘चिपको आन्दोलन’ की देन थी की सन 1980 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने एक विधेयक बनाया जिसमें हिमालयी क्षेत्रो के वनों को काटने पर 15
सालो का प्रतिबंध लगा दिया था ।