(जो देश चांदतारों, मंगल पर पहुंच कर इठला रहे हैं, विज्ञान के नए-नए आविष्कार कर देश के लिए खुशियां समेट रहे हैं, उन की तुलना में हम कहां हैं ? पढ़ कर आप की आंखें खुली की खुली रह जाएंगी ।)
अधिकतर भारतीय जानते ही नहीं कि, संस्कृति है क्या ? जिसे वे अपनी संस्कृति बता रहे हैं, क्या वह वास्तव में उन की है ? पश्चिम की नग्नता क्या उन की संस्कृति थी ? आज है, तो यही दर्शाता है कि उन्होंने अपनी जनता को कूपमंडूकता से बाहर निकाला है, जो भारतीयों को आज भी नसीब नहीं हुआ, तभी तो पश्चिम की संस्कृति को अपसंस्कृति नाम देते हैं ।
संस्कृति एक व्यापक शब्द है जिस से आदमी के रहनसहन, बोलने, बात करने का तरीका, यानी हमारी पूरी दिनचर्या प्रभावित रहती है । जो लोग टीवी सीरियलों को हमारी संस्कृति के विपरीत बताते हैं, क्या उन्हें अपनी संस्कृति का पता है ? शायद नहीं । क्योंकि हमारी अपनी कोई संस्कृति है ही नहीं । हम जिसे अपनी संस्कृति मानते हैं, वह बाहर से आई है । बोलने, बात करने, पढ़ने, ओढ़ने, खानेपीने, यहां तक कि ‘सौरी’, ‘थैंक्यू’ जैसे शब्दों का प्रयोग करने तक की हमें तमीज नहीं थी । आज भी सड़कों पर गाड़ी से बरसाती पानी के छींटे मारने में हमें संकोच नहीं होता । लाइन तोड़ कर टिकट खरीदने में हम अपनी शान समझते हैं । ट्रेनों में मूंगफली के छिलके फेंक कर गंदा करना हमारी संस्कृति का हिस्सा है । दूसरे शब्दों में कहा जाए तो हम भेड़ हैं । भेड़ की कोई संस्कृति नहीं होती । गड़रिया जिधर धकेलता है, हम उधर ही भागते हैं ।
पढ़ा-लिखा तबका, जो अपने को अंगरेज की औलाद समझता है, वह भी सिर्फ दिखावे कि लिए ‘थैंक्यू’ या ‘सौरी’ बोलता है । जरा सोचिए, अंगरेजों के आने से पहले, क्या हम किसी को थैंक्यू बोलते थे ? क्या सौरी कहना या अपनी गलती मानना, हम अपनी शान के खिलाफ नहीं समझते थे ? आज भी सौरी महज औपचारिकता है वरना अपटूडेट होने के बाद भी अंदर से हम अभद्र ही हैं ।
ताजमहल, फतेहपुर सीकरी, लालकिला, चारमीनार, जीटी रोड, भारतीयों की देन नहीं हैं, जिन्हें हम अपनी संस्कृति से जोड़ कर सीना चौड़ा करते हैं । आश्चर्य होता है तब, जब हम अपनी गुलामी को ‘ग्लोरीफाई’ करते हैं । वजह साफ है, हमारे पास अपना ऐसा कुछ नहीं है जिसे दुनिया के सामने रखा जा सके । यही वजह है जो हम गुलामी की विरासत को अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत से जोड़ते हैं ।
हमारे पास था क्या? पंडेपुजारियों के बनाए जातपांत, गोत्र, बेसिरपैर का वास्तुशास्त्र, योग, जिस का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं । महज गोत्र के नाम पर हत्या करनी हो तो रक्त की अलग परिभाषा गढ़ते हैं ।
सच तो यह है कि हम जिस पत्तल में खाते हैं, उसी में छेद करते हैं । न किया होता, तो गुलामी का दंश न झेलते । विभीषण हो या कृष्ण, अपनी मातृभूमि व प्रतिबद्धता के खिलाफ काम किया, जो हमारे प्रेरणास्रोत व सम्मानित विभूतियां हैं । यही हमारी संस्कृति है । भ्रष्टाचार, जो हमारी संस्कृति का हिस्सा है, आदर्श हाउसिंग सोसाइटी के जरिए कारगिल के सैनिकों की विधवाओं का हक मारने में भी हमारी आत्मा नहीं धिक्कारती । जबकि चौबीस घंटे आत्मापरमात्मा में जीते हैं । लोग भ्रष्टाचार में लिप्त हैं । जो जहां है वहीं लूटखसोट में लगा हुआ है । इस में सब लगे हुए हैं । नेता, अधिकारी यहां तक कि आम आदमी भी इस में लिप्त है । इन में कुछ ईमानदार हो सकते हैं पर उस से कुछ नहीं होने वाला ।
मानवीय कमजोरी के इस मूल में हमारे वे धार्मिक प्रसंग हैं जो कथाओं के जरिए हम बचपन से सुनते आए हैं । राक्षसों को अमृत न मिले, इस के लिए विष्णुजी ने स्त्री का रूप धरा, जो न केवल पक्षपातपूर्ण था बल्कि भ्रष्ट आचरण का नमूना भी था । यह एक प्रकार का धोखा था । चाणक्य के समय में भी अपराध था । एक ही भ्रष्ट आचरण के लिए ब्राह्मणों को कम ‘पण’ (सिक्का) तथा शूद्रों को ज्यादा ‘पण’ देने का प्रावधान था जो पक्षपात का ज्वलंत उदाहरण है । यह आज भी बदस्तूर कायम है । आज एक अरबपति भी टैक्सों की चोरी करता है । गरीबों का हक मारता है ।
जिस अश्लीलता को हम अपसंस्कृति मानते हैं वही हमारी सांस्कृतिक विरासत है । खजुराहो हो या कोणार्क क्या साबित करता है ? मनुस्मृति में वंश चलाने के लिए नियोग विधि से देवर के साथ संतानोत्पति करने का प्रावधान है । भीष्म अपने कामांध पिता शांतनु के लिए आजीवन अविवाहित रहने का फैसला लेते हैं । कृष्ण की 16 हजार रानियों पर कोई आपत्ति नहीं करता ।
ऐसी है हमारी संस्कृति : देवदासी प्रथा खुलेआम वेश्यावृत्ति की मिसाल है । मत्स्य पुराण में कहा गया है कि गैरब्राह्मण स्त्री को चाहिए कि ब्राह्मण को संतुष्ट होने तक भोजन कराए और हर रविवार को उस ब्राह्मण को संभोग हेतु अपना शरीर अर्पित करे । कृष्ण अर्जुन को अपनी बहन सुभद्रा को भगा ले जाने के लिए प्रेरित करते हैं । नगरवधू प्रथा हमारे राजाओं की देन थी जिस का मकसद था मनोरंजन व सहवास । निश्चय ही इस की प्रेरणा इंद्र देवता से मिली होगी । औरतों (अप्सरा) को नचाना व भोगना इन्हीं की देन है, जो हमारी संस्कृति का हिस्सा है । शिवलिंग पूजा को किस श्रेणी में रखा जाए ?
संक्षेप में कह कह सकते हैं कि व्यर्थ ही हम अपने को पश्चिम से श्रेष्ठ समझते हैं । कभी जादू-टोना, मदारी-संपेरा, झाड़-फूंक के रूप में ही हमें जाना जाता था । डायन प्रथा आज भी मौजूद है । ज्योतिषशास्त्र, जिस ने इस देश की लुटिया डुबोई, आज भी डुबो रही है । जादू-टोना, झाड़-फूंक, शक्ति के लिए बेकुसूर जानवरों को बलि देने की कुप्रथा, सती प्रथा, बालविवाह, विधवा प्रथा, जिस में वेश्या बनना तो मंजूर था पर पुनर्विवाह नहीं ।
एक तरफ जीवनमरण ऊपर वाले के हाथ में मानते हैं, दूसरी तरफ विधवा को अपने पति की मौत का जिम्मेदार मानते हैं । खानेपीने के लिए छप्पन भोग महज कागजों पर, वरना न मुगल आते न हिंदुस्तानी जानते कि तंदूरी रोटी होती क्या है । स्थापत्य कला की बारीकी मुगलों की देन है । संगीत के अनेक वाद्ययंत्र पश्चिम एशिया से आए । चिकन कला पश्चिम एशिया से आई ।
अंगरेज आए तो उन्होंने दाढ़ी व बाल काटना सिखाया । पतलूनकोट पहनना सिखाया । कांटाचम्मच उन्हीं की देन है । हाय-हैलो उन्होंने ही सिखाया । हाथ मिलाना उन्हीं से सीखा । जिस गालीगलौज को हम अपनी संस्कृति के खिलाफ समझते हैं, दरअसल, वही हमारी संस्कृति का शुद्ध पत्र है । बंद दीवारों के बीच शौच करना अंगरेजों ने ही सिखाया । हम तो खेतों में जानवरों की तरह बैठते थे । आज भी देश की काफी आबादी खेतों या रेलवे की पटरी के किनारे इत्मीनान से हमारी समृद्ध संस्कृति की विरासत को दर्शाती है । तथाकथित सभ्य समझने वाले भारतीय जब ट्रेनों के एसी डब्बे में सफर करते हैं, तो इन्हें देख कर नाकभौं सिकोड़ते हैं, जबकि कभी इस जगह पर उन का अतीत था ।
गोपाष्टमी को गाय पूजते हैं । रोजाना सूई कोंच कर दूध दुहते, न ग्वाले को खयाल आता है, न खरीद कर पीने वालों को कि, गाय हमारी माता है । जानवर ही मानें पर पूजने का पाखंड तो न करें । जान बचानी हो तो खून का ए-बी देखते हैं, पर जब महिलाएं पुत्र के दीर्घायु के लिए सूर्य देवता को अर्घ्य देती हैं । क्या इस से शिशु मृत्युदर में कमी आई ? आज भी यह दूसरे देशों की तुलना में भारत में सब से ज्यादा है । क्या अब भी हमें अपनी श्रेष्ठ संस्कृति पर गर्व करने के लिए कुछ बचा है ? झूठ, बेईमानी, भ्रष्टाचार, कपट, ईर्ष्या, भाई-भतीजावाद ही हमारी पहचान है । बेहतर होगा इन से निबटें.. ।
(नोट : हो सकता है, आप अपने दंभ में, लेखक के विचारों को गलत मानें किन्तु वर्तमान में वैज्ञानिक दृष्टिकोण और निर्भीक आत्म-विश्लेषण के साथ मनोमंथन करोगे तो, वास्तविकता अवश्य महसूस होगी ।)
(सौजन्य : सरिता, 8 नवम्बर
2019, लेखक: श्रीप्रकाश
श्रीवास्तव, लिंक : https://www.sarita.in/society/snaskriti-ka-sach )