“भगवान या ईश्वर ” है या नहीं ? इस विषय पर अनादिकाल से वाद-विवाद चलता हुआ आ रहा है किन्तु इस चर्चा का आजतक कोई सर्वमान्य ठोस जवाब नहीं मिला है । इस बाबत न तो पौराणिक ग्रन्थों, न ही आधुनिक वि ज्ञान के पास कोई भी ठोस सबूत अथवा जवाब है । अधिकतर लोग मानते है कि,’भगवान’ है जो अति दयालु एवं सभी जीवों को प्रेम करने वाला है । यह मान्यता कितनी सच्ची एवं कितनी झूठी, इसकी चर्चा हजारों वर्षों से चल रही है किन्तु परिणाम ‘शून्य’ । इसके विपरीत, जो निरीश्वरवादी है, उनका पक्ष यह है कि, यदि भगवान है और वह सर्वशक्तिमान है, तो दुनिया इतनी अन्यायी क्यों ? इतने सारे दुख क्यो है ? भगवान सामने क्यों नहीं आता है ? मुट्ठीभर लोगों को ही क्यो सुख प्रदान करता है ? इत्यादि-इत्यादि .... इसके विरुद्ध में भगवान को मानने ‘श्रद्धालुओं’ द्वारा कहा जाता है कि, भगवान तो हमारे साथ ही होता है और हम लोगों द्वारा ‘माया-मोह’ में संलिप्त होने के कारण, हमें दिखाई नहीं देते है । मनुष्य द्वारा यदि निर्मल हृदय से भक्ति की जाए तो कण-कण में भगवान के दर्शन होने लगता है । अतः मनुष्य के दुखी होने का कारण, ईश्वर नहीं बल्कि “कर्मफल का नियम” है अन्यथा उसकी मर्जी के विरुद्ध एक ‘तिनका’ भी नहीं हिल सकता है । निरीश्वरवादी इसके लिए प्रतिप्रश्न करते है कि, यदि सब कुछ भगवान की मर्जी से ही होता है तो ‘पुण्य’ भी उसकी मर्जी से होता है और ‘पाप’ भी उसकी ही मर्जी से होता है । बड़े विचित्र सवाल और विचित्र ही उत्तर .... इस बात को समझना इतना आसान भी नहीं है क्योंकि ‘भगवान’ पाप या ‘पुण्य’ कुछ भी नहीं करवाता है और यदि देर-सवेर मनुष्य को इस बात का ज्ञान हो जाए तो, समझो “मोक्ष” मिल गया तथा इसके बाद जो कुछ भी किया जा रहा है, वह भगवान के निमित्त मात्र बनके करता है । इस प्रकार से “ आस्तिक ” एवं “ नास्तिक ” के बीच विचारयुद्ध चलता ही रहता है ।
‘मोक्ष’ के सम्बंध में मशहूर कवि स्व. मनोज खंडेरिया कहना है “जीवन से माँगें तू, जीवन को मोक्ष मानूँ मै; कारण कि, जीवन जीने मेरी एक अलग ही विचारधारा है ।” मुझे तो लगता है कि, ‘नास्तिक’ को ज्यादा ‘ सत्य वादी’ होना चाहिए क्योंकि ‘आस्तिक’ को असत्य को बोलने के लिए कथित ‘ धर्म ’ का भी बहाना मिलता है, जबकि ‘नास्तिक’ के पास इस प्रकार का कोई बहाना नहीं होता है ।
क्या “नास्तिक” वास्तव में ध्यान कर सकता है ? ‘ध्यान’ मुख्यतः निरीश्वरवादी जैसे दो ‘महामानवों’ ‘गौतम बुद्ध’ एवं ‘महावीर स्वामी द्वारा दी गई अमूल्य भेट है । दोनों ही निरीश्वरवादी थे परंतु ‘महावीर’ “आत्मा” में विश्वास रखते थे जबकि ‘बुद्ध’ तो आत्मा में भी विश्वास नहीं रखते थे । मुख्यतः ‘बुद्ध' धर्म की फिलोसफ़ी पर आधारित और भारत में गोयनका जी द्वारा प्रचलित “विपश्यना" ध्यान में, ‘ईश्वर' के अस्तित्त्व को स्वीकार करना या न करना जरूरी नहीं है । वास्तव में ध्यान ‘आस्तिक' एवं ‘नास्तिक' को जोड़ने वाली कड़ी है । ‘आस्तिक' जब झूठ बोलता है तो ईश्वर को धोका देता है जबकि ‘नास्तिक' झूठ बोलता है तो, वह स्वयं को धोका देता है । जो अपने आप को ‘रेशनलिस्ट’ कहलाना पसंद करता है और झूठ बोलता है, उसे ‘रेशनलिस्ट' कहना बंद कर दिया जाना चाहिए क्योंकि वह ‘दम्भी-भगत' से भी ज्यादा बुरा होता है । गांधीजी ‘रेशनलिस्ट' नहीं थे परंतु सत्यनिष्ठ होने से सत्य के पक्षधर थे और यही कारण था कि, उनका महाविधान “सत्य ही ईश्वर है" किसी भी ‘रेशनलिस्ट' को पसंद आ जाए, ऐसा था ।
‘ईश्वर' है या नहीं ? इस इस विवाद को छोड़िए; सत्य को तो मानना और सत्य रहना ही है । यदि ‘ईश्वर' नहीं भी है तो उससे अपना कुछ बिगड़ता नहीं है । यह धरती, सूर्योदय, सूर्यास्त, पुर्णिमा, अमावस्या, ऋतुएँ है और इसमें कोई भी शंका नहीं है । यदि पृथ्वी पर बसंत हो और पतझड़ भी हो; फिर ‘ईश्वर' न भी हो तो, उसके बिना कुछ रुकता नहीं है और ‘ईश्वर' का भी हमारे बिना कुछ अटकता नहीं है । पेड़ पर कोई मजेदार पुष्प खिला हुआ है, क्या इसमे पुष्प के पुष्पत्त्व पर कोई शंका है ? इसी प्रकार से मनुष्य है, क्या इसमें मनुष्यत्त्व के बारे में कोई शंका है ? उर्दू कवि सुदर्शन फ़कीर द्वारा लिखी गई और जगजीत सिंह की आवाज़ में कितनी सुंदर बात कही गई है - “सामने है जो, उसे लोग बुरा कहते है; जिसको देखा ही नहीं, उसे खुदा कहते है ।" कवि महोदय का कहना है कि, ईश्वर है या नहीं, इस विवाद को थोड़ी देर बाजू में रखकर अपने आसपास कि दुनियाँ में गौर फरमाइए, इससे अधिक बड़े और गम्भीर सवाल दिखाई देते है । यदि उन पर ‘फोकस’ किया जाए तो कितना अच्छा होगा ? देश के बहुत सारे अंदरूनी गाँवों में पानी की कमी की स्थिति इतनी खतरनाक है कि, एक बाल्टी पानी के लिए मार-काट हो जाती है ! कई जगहों पर बीमारियाँ इस सीमा तक फैली हुई है कि, वहाँ पर आवश्यक संख्या में डॉक्टर या हॉस्पिटल के अभाव में हजारों इंसान दम तोड़ रहे है ! कई जगहों पर भुखमरी इतनी विकट है कि, अच्छे-अच्छों का हृदय विदीर्ण हो जाए ! जाति और धर्म के नाम पर होने वाली हिंसा, आज के समय का अहम प्रश्न है ! अंधश्रद्धा के अंधकार में डूबे लोग, कथित धर्मरक्षकों के हाथों की कठपुतली बन कर धोखा खा रहे है ! पाखंडी धर्मगुरुओं के ‘सेक्स-काण्ड’ और ‘ब्लेक-मनी’ सम्बन्धी किस्से तथा गोरखधंधों के समाचार ों की स्याही समाचार पत्रों से सूख ही नहीं पाती है !!
इस सम्बंध में थोड़ा विचार करें और इस दिशा में, समुन्द्र की एक बूँद के समान भी अपने हिस्से का ‘कर्तव्य' निभा दिया जाए तो वह बहुत कुछ बदलाव लाने के लिए अच्छा होगा ।
मेरा मानना है की, कई सवालों के जवाब ना ही मिले तो, अच्छी शोभा है । ‘ईश्वर' का अस्तित्व है या नहीं ?? भले ही इस पर हमेशा चर्चा चलती रहे; किन्तु साथ-साथ में मनुष्य-हित के लोक कल्याणकारी कार्य ज़ोरशोर से चलते रहे, यह उससे भी ज्यादा जरूरी है और यह, इस बात की पक्की गारंटी होगी कि, “GOD" के अस्तित्व की तो खबर नहीं है, परंतु “GOOD" का अस्तित्व तो अवश्य ही है ।
फिल्म ‘ओह माय गोड' का डायलोग : “जहाँ धर्म है ना, वहाँ सत्य के लिए जगह नहीं है और जहाँ सत्य है, ट्रूथ है, वहाँ पर धर्म की जरूरत ही नहीं है ।"
(सौजन्य : NGS से साभार अनुवादित एवं उद्धर्त)