यहाँ जिस चीज़ को चाहो, वही ना पास आती है
ज़िन्दगी खेल में अपने, फ़कत सबको नचाती है
जो अपने पास होता है, कदर उसकी नहीं होती
दूसरे की सफलता जाने क्यों, सबको लुभाती है
खिलाए गैरों के गुलशन, फक्र इसका मुझे हैं पर
अपनी उजड़ी हुईं बगिया देखो, मुझको रूलाती है
कभी थी रोशनी जिससे, शमा वो अब नहीं दिखती
एक लपट आग की बस, मेरे इस घर को जलाती है
मेरे इस दिल के सागर में, ज्वार तो अब भी आते हैं
मगर मधुकर की खुद की बेबसी, उसको दबाती है