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अध्याय 13: पथेर दाबी

26 अगस्त 2023

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जिस समय वे 'पथेर दाबी ' लिख रहे थे, उसी समय उनका मकान बनकर तैयार हो गया था । वे वहीं जाकर रहने लगे थे। वहां जाने से पहले लगभग एक वर्ष तक वे शिवपुर टाम डिपो के पास कालीकुमार मुकर्जी लेने में भी रहे थे।

यह मकान उन्होंने अपनी दीदी के गांव गोविन्दपुर के पास सामतोबेड में रूपनारायण नदी के किनारे पर बनवाया था। प्रशस्त स्थान था, पास में दो पोखर और एक बगीचा, ये भी उन्होंने तैयार करवाये थे। अपनी सुविधानुसार सभी बातों का ध्यान उन्होंने रखा था। तभी तो उस युग में लगभग सत्रह हज़ार रुपये खर्च कर दिये थे।

गांव का मूल नाम सामता था परन्तु उनका मकान चूंकि एकदम किनारे पर बाड़ की तरह था इसलिए वे सामताबेड लिखते थे। रेल द्वारा देउल्टी स्टेशन पहुंचकर वहां से पालकी के द्वारा ही गांव पहुंचा जा सकता था, वर्षा में पानी भर जाने के कारण असुविधा की कोई सीमा नहीं रहती थी लेकिन प्राकृतिक सौन्दर्य उसको अनुभव ही नहीं होने देता था। चारों ओर फैले हुए धान के खेत, प्रहरी के समान खड़े हुए केले और खजूर के पेड़ और पूरम्पार भरी हुई नदी, तीव्रता से और उच्छ्वसित रूप से जल के संघर्ष के कारण फेन लट्टू की तरह घूमते हुए आगे बढ़ते थे। मार्ग में नाले भी कम नहीं थे। बांस के पुल पर से पार करना पड़ता था।

मार्ग की सारी बाधाओं के बावजूद रूपनारायण नद उनके शिल्पी मन को शुरू से ही पुकारता आ रहा था। अपने कैशोर्य में वे दीदी के पास अवश्य आये होंगे। कम से कम बर्मा जाने से पूर्व तो वे अवश्य आये थे। तब उन्होंने मामा गिरीन्द्रनाथ को लिखा था, “फिर भी एक बार अवश्य आओ। दीदी प्रसन्न होगी। घर ठीक विशाल रूपनारायण के सामने है। सुना है, शिकार की व्यवस्था भी है. ....... अगर तुम सचमुच आना चाहते हो तो अवश्य आओ । हम रेलवे स्टेशन का निरीक्षण करेंगे, जो भव्य है। रूपनारायण पर बना पुल तो और भी भव्य है। फिर हम नौकाविहार करेंगे। क्या कहते हो !.. .."I

तन और मन के स्वास्थ्य को ठीक करने की चेष्टा में ही उन्होंने शेष जीवन के कुछ वर्ष गांव में बिताने का विचार किया था। पिछले कुछ दिनों से उन्हें नाना प्रकार के आघात सहने पड़ रहे थे। कई प्रियजनों की मृत्यु ने उनके मन को बहुत चोट पहुंचाई थी । देशबन्धु चितरंजनदास की मृत्यु ने उन्हें बहुत कुछ अस्त-व्यस्त कर दिया था। किन्तु उससे भी पहले उनके चिरसंगी कुत्ते भेलू की मृत्यु हो चुकी थी। उनका जीवन भेलू के बिना कितना अपूर्ण था, इसको वही जान सकते थे जिनको उनके पास रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था उसको लेकर उन्हें बहुत कुछ सहना पड़ा था। पर वे सदा उसे अपने हृदय के अन्तरतम से प्यार करते रहे। उनका यह सहज विश्वास था कि भेलू जैसा शान्त, शिष्ट कुत्ता और कोई नहीं है। इलाचन्द्र जोशी से उन्होंने कहा था, "कुत्ता प्यार में भी क्रोध का भाव जताता हुआ भुंकता है। इस सत्य से केवल वे ही लोग परिचित होते हैं जो कुत्ते को प्यार कर चुके हैं और उसका प्यार पा चुके हैं.. कुत्ता आदमी को आदमी से अधिक पहचानता है, मेरी यह बात तुम

गांठ बांध लो। "

इसलिए वह मानते थे कि भेलू यदि किसी को काटता भी है तो आदर से काटता है। इस आदर के कारण उन्हें अदालत में जाना पड़ा, पीड़ितों को रुपया देना पड़ा और बार-बार उसकी लार की परीक्षा करवानी पड़ी। लेकिन उसका अनादर वे कभी नहीं कर सके। बड़े आदर-प्यार के साथ वे उसे अपने पास बिठाते थे। उस दिन एक सम्भ्रान्त महिला ने उनके लिए थाल भरकर सन्देश भेजे। साथ में एक पत्र था। लिखा था - ग्रहण करेंगे तो कृतार्थ होऊंगी। इला ।

भेलू ने जैसे ही उस पात्र को देखा वह उसके आसपास मंडराने लगा। बड़े प्यार से शरत् बाबू ने उसे एक सन्देश खाने को दिया। खाकर उसने और मांगा। वह मांगता रहा और शरत् बाबू तब तक देते रहे जब तक पात्र खाली नहीं हो गया । कवि नरेन्द्रदेव बैठे हुए सब कुछ देख रहे थे। बोले, “यह आपने क्या किया? उन महिला ने जो सन्देश आपके लिए श्रद्धापूवक भेजे थे, वे सभी आपने कुत्ते को खिला दिए। वह सुनेगी तो कितना कष्ट होगा ! सोचो तो। "

शरत् बाबू ने उत्तर दिया, “यही तो तुम्हारा दोष है। किसी बात की गहराई में जाकर समझने की चेष्टा नहीं करते । इला ने मुझे सन्देश क्यों भेजे थे? इसी आशा से न, कि मैं खाकर तृप्त होऊंगा। अब सोचो मैंने स्वयं न खाकर भेलू को खिला दिए। उन्हें खाकर वह जितना तृप्त हुआ है, उतना क्या मैं हो पाता ? मेरे विचार में इला का अदान व्यर्थ न होकर पूर्ण रूप से सार्थक हुआ है।

इस तरह की अनेक घटनाएं भेलू को लेकर प्रचलित हो गई थीं। हो सकता है इस घटना-विशेष में कुछ कम सचाई हो, और एक मुंह से दूसरे मुंह तक जाते-जाते कल्पना ने उसे यह रूप दे दिया हो, पर शेष घटनाओं का प्रतिवाद करना भी मूर्खता है।

परन्तु यह सच है कि जब कोई उनसे मिलने आता और पुकारता, 'शरत् बाबू!' तो सबसे पहले उसका स्वागत करने के लिए यह भेलू ही भौंकता हुआ दौड़ पड़ता । आगन्तुक उसका रूप और स्वर देख-सुनकर घबरा जाता। तब शरत् बाबू प्यार से पुकारते, 'ऐ भेलू !' और भेलू भलेमानुसों की तरह उनके पास आ बैठता। एक दिन एक नवागन्तुक ने घबराकर पूछा, “क्या यह कुत्ता काट लेगा?"

शरत् बाबू ने प्रत्युत्तर में उनसे पूछा, “क्या इसने आपको काटा है ?"

आछेप का आभास तक उन्हें उद्विग्न कर देता था, लेकिन इसी भेलू के कारण कभी- कभी बड़ा अद्भुत दृश्य उपस्थित हो जाता था। उस दिन मकान मालिक किराया लेने के लिए आए। उन्हें रुपये देकर शरत् बाबू तुरन्त खाना खाने के लिए चले गए और जब खाकर लौटे तो क्या देखते हैं कि मकान मालिक एक कोने में कांपते हुए खड़े हैं। किराये के रुपये वैसे ही उनके हाथ में हैं और सामने बैठा हुआ भेलू एकटक उन्हें ताक रहा है।

शरत् बाबू बहुत दुखी हुए। उन्होंने भेलू को अपने पास बुलाया और मकान मालिक से क्षमा मांगते हुए कहा, “छिःछिः, आपको इस तरह यहां खड़े रहना पड़ा! खाना नहाना भी नहीं हुआ ! बड़ा अन्याय हुआ। लेकिन मैं जानता नहीं था । "

इतना होने पर भी उन्होंने भेलू को एक शब्द नहीं कहा। यदि कोई पड़ोसी कभी उसे डांट देता तो बस उसकी खैर नहीं थी । हुक्का पीते होते तो उसे लेकर ही वे दौड़ पड़ते और धाराप्रवाह भाषण देना शुरू कर देते। उस भाषण की प्राकृत भाषा सुनकर पड़ोसी को बस सिर झुका लेने के सिवा और कोई मार्ग नहीं सूझता था।

चाय भी पिलाते थे! प्याली में उसके बाल गिर पड़ते, तो भी न वह स्वयं आपत्ति करते थे न किसी दूसरे की आपत्ति सह सकते थे। इस असंगत- असीम प्यार के कारण मित्र लोग भेलू को व्यंग्य से उनका बेटा या युवराज कहते थे। लीलारानी को उन्होंने स्वयं यही लिखा था, “इस समय मेरा बेटा है मेरा भेलू कुत्ता, इसे सभी पहचानते हैं। सभी जाते हैं कि यह कुत्ता शरत् बाबू को प्राणों से भी प्यारा है।" 2

वही उनके प्यार का अधिकारी एक दिन अचानक बीमार हो गया, वे तुरन्त उसे बेलियाघाट के अस्पताल में दाखिल करवाकर आए। उन्हें ढाका जाना था। वहां से लौटकर वे उसे फिर घर ले आए। स्वास्थ्य कुछ ठीक हो चला था, लेकिन घर आते ही उसका रोग फिर बढ़ गया। डाक्टर ने आकर बताया कि एक्यूट गैसटाइटिस का केस है।

अब कोई दवा काम नहीं कर सकी। आखिरी दिन सचमुच उसे बहुत कष्ट हुआ। पहले दिन शरत् बाबू ने चम्मच से उसे औषधि पिलाने की बहुत चेष्टा की, लेकिन दवा पेट में नहीं जा सकी। गुस्से में आकर उसने उनके हाथ में काट लिया। फिर सारी रात उनके गले के पास अपना मुंह रखकर वह रोता रहा । सवेरे उसका वह रोना थम गया । उनके एकाकी जीवन का चौबीस घंटे का साथी, प्रवास का बन्धु, इस दुनिया में वह केवल उन्हें ही पहचानता था। जब उसने उन्हें काटा तब सब लोग बहुत डर गए, लेकिन स्वयं शरत् बाबू के मन में रवि बाबू की यह पंक्ति गूंजती रही, 'तुम्हारे प्रेम में आघात है, अवहेलना नहीं ।' भेलू ने उनके शरीर पर आघात किया था, पर उसके मन में अवहेलना नहीं थी, यही बात पूरे विश्वास के साथ उन्होंने सबसे कही। लेकिन इतनी व्यथा उन्होंने पहले कभी नहीं पाई थी। वे बच्चों की तरह रोये और स्वयं अपने हाथों से पड़ोसी के बाग में उसके लिए समाधि का निर्माण किया। एक खाते में उसकी मृत्यु का सम्वाद उन्होंने इस प्रकार लिखा, “भेलू, देह त्याग करने का दिन 10 वैशाख, बृहस्पतिवार, 1322 सवेरे छ: बजे, 23 अप्रैल, 1925 ई० । समाधि वेला साढ़े नौ बजे, बाजे शिवपुर, हावड़ा। रात्रिर-दिनेर संगी आमार परम लेकेर बन्धु।"

उनका नहाना-खाना सब बन्द हो गया। बस समाधि के पास बैठकर रोते रहते। बड़ी बहू समझाकर हार गई, पर वे शान्त नहीं हुए । सन्देशा पाकर 'भारतवर्ष' के सम्पादक रायबहादुर जलधर सेन उनसे मिलने के लिए आए। उनकी छाती से लगकर रोते-रोते शरत् बाबू ने कहा, "दादा, मेरा भेलू मुझे धोखा देकर चला गया।"

उन दिनों जो भी मिलने जाता उसके सामने इस प्रकार शोकांत हो उठते मानो उनके सबसे प्रिय व्यक्ति की मृत्यु हो गई है। अपने प्रिय मित्र चारुचन्द्र बंदोपाध्याय को उन्होंने लिखा, “मेरा चौबीस घंटे का साथी नहीं रहा। संसार में जो इतना बड़ा दुख का व्यापार है, उसको ठीक तरह से नहीं समझता था। शायद इसीलिए मुझे इसकी आवश्यक्ता थी । चारु, एक और बात समझ सका, इस संसार में ऑब्जेक्टिव कुछ भी नहीं है, सब कुछ सब्जेक्टिव ही है। नहीं तो वह एक कुत्ते के सिवा और क्या था? राजा भरत की कहानी किसी तरह मिथ्या नहीं है।“ 3 मामा सुरेन्द्र से उन्होंने कहा था, “जीवन में कितने दुख-कष्ट पाए हैं, उनको भेलू ने बहुत बार तुच्छ कर दिया है.... दुख के दिनों में उसके सहारे मेरा समय सुख से कट गया । "

कितना एकात्म भाव था उन दोनों में एक पशु, एक दरदी मानव ।

इस कहानी से गलतफहमी हो सकती है कि वे केवल अपने कुत्ते को ही इतना प्यार करते थे, लेकिन यह सत्य नहीं है। जीव मात्र से उन्हें प्रेम था । कुत्तों से कुछ विशेष प्रेम था। अपने मोटरचालक को उन्होंने आदेश दे रखा था कि देखो बापू, यदि तुम किसी मनुष्य को मोटर के नीचे दबा दोगे तो शायद मैं कुछ न कहूं, परन्तु यदि तुमने किसी कुत्ते को दबा दिया तो समझ लेना कि तुम्हारी नौकरी गई।

इन आघातों ने नये मकान में आने के बाद भी उनका पीछा नही छोड़ा। अभी नौ महीने भी नही बीते थे कि एक और प्रबल आघात उन्हें सहना पड़ा। उनके छोटे भाई प्रभासचन्द्र लगभग पन्द्रह वर्ष पूर्व संन्यासी हो गए थे। दो वर्ष तक वे मायावती अद्वैत आश्रम में रहे। फिर कई वर्ष तक रामकृष्ण मिशन सेवा आश्रम, वृन्दावन की व्यवस्था का भार उन पर रहा। कुछ दिन पूर्व वे मिशन के कार्य में बर्मा चले गए थे। शरत् बाबू की तरह स्वास्थ्य उनका भी कोई बहुत अच्छा नहीं था। बर्मा से लौटने पर वे कलकत्ता रुके और जैसा कि वे सदा करते थे, पूर्वाश्रम के अपने बड़े भाई शरत् बाबू के पास ही ठहरे। यहीं पर सहसा उनको ज्वर हो आया। अभी कुछ माह पूर्व स्वस्थ होकर ही तो यहां से गए थे, लेकिन निरन्तर बीमार रहने के कारण उनका शरीर बहुत शिथिल हो गया था। कई बार उन्होंने कहा था कि अब इस शरीर को छोड़ देने की आवश्यकता है। शायद आवश्यकता का वह क्षण आ पहुंचा था। अगले दिन ही वे बहुत बेचैन हो उठे। घर और बिस्तर छोड़कर वे बाहर चले आए। उन्होंने अपना सिर शरत् बाबू की छाती पर रख दिया और फिर शरीर का त्याग कर दिया | मृत्यु के समय शरत् बाबू, अनिला देवी, हिरण्मयी देवी और प्रकाशचन्द्र पूर्वाश्रम के यही चार परिजन उनके पास थे।

घर के एक पशु-पक्षी की भी जो मृत्यु नहीं सह सकते थे, वे शरत् बाबू इस भातृ- वियोग से बहुत ही व्यथित हो उठे। उस समय लिखे गए उनके एक पत्र से उस व्यथा का कुछ आभास मिलत है-“नहीं जानता था कि मैं इतना दुर्बल हूं। यह व्यथा मैं कैसे सहूंगा?"

अपने भाई की समाधि उन्होंने अपने घर के पास ही नदी के तट पर बनबाई। जब तक सामताबेड में रहे प्रतिदिन संध्या को उस पर दीपक जलाते रहे। यही नहीं, लिखते-लिखते वे बहुधा उठ खड़े होते और समाधि के पास जाकर खड़े हो जाते। उनके श्राद्ध के दिन वह प्रतिवर्ष कीर्तन और भोज कराते ।

संन्यासी हो जाने के बाद प्रभासचन्द्र स्वामी वेदानन्द के नाम से जाने जाते थे। उनकी मृत्यु का समाचार पाकर बेल्लूरमठ के एक स्वामी शरत् बाबू के पास आए और बोले, “आपने स्वामी वेदानन्द की देह हमें क्यों नहीं सौंपी ? स्वयं ही संस्कार क्यों किया? उनकी समाधि बेल्लूरमठ में बननी चाहिए थी। यहां क्यों बनवाई?”

स्वामीजी ने ठीक कहा था कि संन्यासी हो जाने के बाद पूर्वाश्रम के परिजनों से कोई संबंध नहीं रह जाता, लेकिन शरत् बाबू स्वामीजी की बात सुनकर विरक्त हो उठे। बोले, “आप यह क्यों भूल जाते हैं कि वे मेरे सहोदर थे। आपसे अधिक मेरा उन पर अधिकार था। आप उनके कौन हैं?”

शरतचन्द्र ने विधि-विधानों की दासता कभी स्वीकार नहीं की। उनके सामने आदि शंकराचार्य का उदाहरण था। उन्होंने अपनी मां का स्वयं दाहसंस्कार किया था। उन्हीं की तरह शरत् बाबू ने भी जड़ नियमों पर आघात किया। बहुत तर्क-वितर्क हुआ, लेकिन बेल्लूरमठ के स्वामी किसी भी तरह आश्वस्त नहीं हो सके। तब सहसा शरत् बाबू बोल उठे, “खैर उसे जाने दीजिए। एक और स्वामीजी यहां हैं उन्हें ले जाइए। "

स्वामीजी बहुत चकित हुए, लेकिन वे कुछ कह पाते इससे पूर्व ही शरत् बाबू ने जोर से पुकारा, स्वामीजी ! स्वामीजी !”

तुरन्त ही एक मोटा-ताज़ा बकरा भागता हुआ आया। भरतचन्द ने उसकी ओर देखते हुए कहा, बेल्लूरमठ के ये स्वामीजी तुम्हें लेने के लिए आए हैं। इनका कहना है कि कोई भी स्वामी गृहस्थी के घर में नहीं रह सकता। तुम चाहो तो इनके साथ जा सकते हो।“

फिर स्वामीजी की ओर मुड़कर बोले, “डसे यदि आप एक गेरुआ चादर पहना देंगे तो यह आपके दल में मिल जाएगा।"

जैसा कि स्वाभाविक था इस व्यंग्य से स्वामीजी तिलमिला उठे और अग्निरूप होकर तुरन्त ही वहां से चले गए।

यह कथा भी मात्र एक प्रवाद हो सकती है परन्तु यदि सच भी है तो इसमें अस्वाभाविक कुछ नही। बहुत वर्ष बाद ' 'स्वामी विवेकानन्द के जन्मोत्सव पर बेल्लूरमठ में श्री सुभाषचन्द्र बोस के सभापतित्व में जो सभा हुई थी, उसमें भी उन्होंने इस मठ की कार्य- पद्धति की आलोचना करते हुए कहा था, “आप लोग रामकृष्ण परमहंस और विवेकानन्द के आदर्श के अनुरूप कार्य नहीं कर रहे। "

इससे अनुमान किया जा सकता है कि इस घटना में कुछ न कुछ सचाई की सम्भावना है? फिर भी यह कहना कि वे अधार्मिक या नास्तिक थे असत्य होगा । यौवन के आवेश में निश्चय ही उन्होंने कई बार धर्म और ईश्वर पर आक्रमण किया पर वह आक्रमण उनके अन्तर में विश्वास का परिणाम नहीं था। वे अन्धविश्वासों और संकीर्णता पर ही चोट करना चाहते थे। दैवी चमत्कारों और पाखण्डपूर्ण कर्मकाण्डों में उनका विश्वास नहीं था, पर एक सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान ईश्वर में उनकी सच्ची आस्था थी। जो वास्तविक धर्म है उसमें आयु के साथ-साथ उनकी श्रद्धा निरन्तर बढ़ती जा रही थी। उनका सारा साहित्य इस बात का प्रमाण है। देशबन्धु दास ने राधाकृष्ण की जो प्रतिमा उन्हें भेंट में दी थी उसके लिए नित्य पूजा की व्यवस्था थी। विशेष रूप से एक पण्डितजी उसकी देखभाल करते थे। जिस दिन पण्डितजी नहीं आ पाते उस दिन वे स्वयं पूजा करते थे। कहते थे, “देशबन्धु उसकी पूजा का भार मुझ पर सौंप गए हैं। उसे यथासाध्य पूरा करना ही है । "

वे यज्ञोपवीत पहनते थे। गले में तुलसी की माला रहती थी। एक दिन उन्होंने कहा था, "मेरे गले में तुलसी की माला देखकर अचरज होता है। जो व्यक्ति दुर्नीति परायण साहित्य की सृष्टि करता है, वह तुलसी की माला पहनेगा, यह बात कोई नहीं सोच सकता।" यज्ञोपवीत वे स्वयं ही नहीं पहनते थे अपने मित्रों के गले में भी उसे देखना चाहते थे। कलकत्ता के उनके पड़ोसी अध्यापक निर्मलचन्द्र भट्टाचार्य ने जनेऊ का परित्याग कर दिया था। एक दिन शरत्चन्द्र ने उनको नंगे बदन देखकर पूछा, “तुम्हारा जनेऊ क्या हुआ?” निर्मलचन्द्र ने उत्तर दिया, “मैंने जनेऊ का त्याग कर दिया है। "

सुनकर शरतचन्द्र व्यथित हो उठे। बोले, “यज्ञोपवीत न पहनने से पितरों का अपमान होता है । "

वे वैष्णव धर्मग्रंथों का पारायण भी करते थे। जीवन के अनेक विरोधाभासों की तरह उनके धर्म-विश्वास के बारे में अनेक किंवदंतियां प्रचलित हो गई थीं, जो साधारण से दिखने वाले विरोधाभास को जटिल से जटिलतर बनाने में ही सहायक हो सकती थी। आज जो मनुष्य का विश्वास है वह कल बदल सकता है, यह न असम्भव ही है और न घृणा के योग्य ही । देशबन्धु के सम्पर्क में आने के बाद उनके धार्मिक दृष्टिकोण में परिवर्तन हुआ, यह सम्भव ही नहीं, निश्चित-सा दिखाई देता है।

संघर्ष और प्रसिद्धि के उन दिनों में उनके स्वभाव में कई परिवर्तन हुए, परन्तु मानवीय

करुणा ने मनुष्य शरत्चन्द्र का साथ कभी नहीं छोड़ा सर्वोत्तम सौन्दर्य के समान सर्वोत्तम ने मानवीय करुणा ही क्या ईश्वर नहीं है?

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रचनाएँ
आवारा मसीहा
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मूल हिंदी में प्रकाशन के समय से 'आवारा मसीहा' तथा उसके लेखक विष्णु प्रभाकर न केवल अनेक पुरस्कारों तथा सम्मानों से विभूषित किए जा चुके हैं, अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद प्रकाशित हो चुका है और हो रहा है। 'सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार' तथा ' पाब्लो नेरुदा सम्मान' के अतिरिक्त बंग साहित्य सम्मेलन तथा कलकत्ता की शरत समिति द्वारा प्रदत्त 'शरत मेडल', उ. प्र. हिंदी संस्थान, महाराष्ट्र तथा हरियाणा की साहित्य अकादमियों और अन्य संस्थाओं द्वारा उन्हें हार्दिक सम्मान प्राप्त हुए हैं। अंग्रेजी, बांग्ला, मलयालम, पंजाबी, सिन्धी , और उर्दू में इसके अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं तथा तेलुगु, गुजराती आदि भाषाओं में प्रकाशित हो रहे हैं। शरतचंद्र भारत के सर्वप्रिय उपन्यासकार थे जिनका साहित्य भाषा की सभी सीमाएं लांघकर सच्चे मायनों में अखिल भारतीय हो गया। उन्हें बंगाल में जितनी ख्याति और लोकप्रियता मिली, उतनी ही हिंदी में तथा गुजराती, मलयालम तथा अन्य भाषाओं में भी मिली। उनकी रचनाएं तथा रचनाओं के पात्र देश-भर की जनता के मानो जीवन के अंग बन गए। इन रचनाओं तथा पात्रों की विशिष्टता के कारण लेखक के अपने जीवन में भी पाठक की अपार रुचि उत्पन्न हुई परंतु अब तक कोई भी ऐसी सर्वांगसंपूर्ण कृति नहीं आई थी जो इस विषय पर सही और अधिकृत प्रकाश डाल सके। इस पुस्तक में शरत के जीवन से संबंधित अंतरंग और दुर्लभ चित्रों के सोलह पृष्ठ भी हैं जिनसे इसकी उपयोगिता और भी बढ़ गई है। बांग्ला में यद्यपि शरत के जीवन पर, उसके विभिन्न पक्षों पर बीसियों छोटी-बड़ी कृतियां प्रकाशित हुईं, परंतु ऐसी समग्र रचना कोई भी प्रकाशित नहीं हुई थी। यह गौरव पहली बार हिंदी में लिखी इस कृति को प्राप्त हुआ है।
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भूमिका

21 अगस्त 2023
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संस्करण सन् 1999 की ‘आवारा मसीहा’ का प्रथम संस्करण मार्च 1974 में प्रकाशित हुआ था । पच्चीस वर्ष बीत गए हैं इस बात को । इन वर्षों में इसके अनेक संस्करण हो चुके हैं। जब पहला संस्करण हुआ तो मैं मन ही म

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भूमिका : पहले संस्करण की

21 अगस्त 2023
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कभी सोचा भी न था एक दिन मुझे अपराजेय कथाशिल्पी शरत्चन्द्र की जीवनी लिखनी पड़ेगी। यह मेरा विषय नहीं था। लेकिन अचानक एक ऐसे क्षेत्र से यह प्रस्ताव मेरे पास आया कि स्वीकार करने को बाध्य होना पड़ा। हिन्दी

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तीसरे संस्करण की भूमिका

21 अगस्त 2023
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लगभग साढ़े तीन वर्ष में 'आवारा मसीहा' के दो संस्करण समाप्त हो गए - यह तथ्य शरद बाबू के प्रति हिन्दी भाषाभाषी जनता की आस्था का ही परिचायक है, विशेष रूप से इसलिए कि आज के महंगाई के युग में पैंतालीस या,

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" प्रथम पर्व : दिशाहारा " अध्याय 1 : विदा का दर्द

21 अगस्त 2023
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किसी कारण स्कूल की आधी छुट्टी हो गई थी। घर लौटकर गांगुलियो के नवासे शरत् ने अपने मामा सुरेन्द्र से कहा, "चलो पुराने बाग में घूम आएं। " उस समय खूब गर्मी पड़ रही थी, फूल-फल का कहीं पता नहीं था। लेकिन घ

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अध्याय 2: भागलपुर में कठोर अनुशासन

21 अगस्त 2023
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भागलपुर आने पर शरत् को दुर्गाचरण एम० ई० स्कूल की छात्रवृत्ति क्लास में भर्ती कर दिया गया। नाना स्कूल के मंत्री थे, इसलिए बालक की शिक्षा-दीक्षा कहां तक हुई है, इसकी किसी ने खोज-खबर नहीं ली। अब तक उसने

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अध्याय 3: राजू उर्फ इन्दरनाथ से परिचय

21 अगस्त 2023
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नाना के इस परिवार में शरत् के लिए अधिक दिन रहना सम्भव नहीं हो सका। उसके पिता न केवल स्वप्नदर्शी थे, बल्कि उनमें कई और दोष थे। वे हुक्का पीते थे, और बड़े होकर बच्चों के साथ बराबरी का व्यवहार करते थे।

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अध्याय 4: वंश का गौरव

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मोतीलाल चट्टोपाध्याय चौबीस परगना जिले में कांचड़ापाड़ा के पास मामूदपुर के रहनेवाले थे। उनके पिता बैकुंठनाथ चट्टोपाध्याय सम्भ्रान्त राढ़ी ब्राह्मण परिवार के एक स्वाधीनचेता और निर्भीक व्यक्ति थे। और वह

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अध्याय 5: होनहार बिरवान .......

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शरत् जब पांच वर्ष का हुआ तो उसे बाकायदा प्यारी (बन्दोपाध्याय) पण्डित की पाठशाला में भर्ती कर दिया गया, लेकिन वह शब्दश: शरारती था। प्रतिदिन कोई न कोई काण्ड करके ही लौटता। जैसे-जैसे वह बड़ा होता गया उस

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अध्याय 6: रोबिनहुड

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तीन वर्ष नाना के घर में भागलपुर रहने के बाद अब उसे फिर देवानन्दपुर लौटना पड़ा। बार-बार स्थान-परिवर्तन के कारण पढ़ने-लिखने में बड़ा व्याघात होता था। आवारगी भी बढ़ती थी, लेकिन अनुभव भी कम नहीं होते थे।

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अध्याय 7: अच्छे विद्यार्थी से कथा - विद्या - विशारद तक

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शरत् जब भागलपुर लौटा तो उसके पुराने संगी-साथी प्रवेशिका परीक्षा पास कर चुके थे। 2 और उसके लिए स्कूल में प्रवेश पाना भी कठिन था। देवानन्दपुर के स्कूल से ट्रांसफर सर्टिफिकेट लाने के लिए उसके पास पैसे न

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अध्याय 8: एक प्रेमप्लावित आत्मा

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इन दुस्साहसिक कार्यों और साहित्य-सृजन के बीच प्रवेशिका परीक्षा का परिणाम - कभी का निकल चुका था और सब बाधाओं के बावजूद वह द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया था। अब उसे कालेज में प्रवेश करना था। परन्तु

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जिस समय शरत्चन्द का जन्म हुआ क वह चहुंमुखी जागृति और प्रगति का का था। सन् 1857 के स्वाधीनता संग्राम की असफलता और सरकार के तीव्र दमन के कारण कुछ दिन शिथिलता अवश्य दिखाई दी थी, परन्तु वह तूफान से पूर्व

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अध्याय 10: नाना परिवार का विद्रोह

22 अगस्त 2023
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शरत जब दूसरी बार भागलपुर लौटा तो यह दलबन्दी चरम सीमा पर थी। कट्टरपन्थी लोगों के विरोध में जो दल सामने आया उसके नेता थे राजा शिवचन्द्र बन्दोपाध्याय बहादुर । दरिद्र घर में जन्म लेकर भी उन्होंने तीक्ष्ण

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22 अगस्त 2023
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उस वर्ष वह परीक्षा में भी नहीं बैठ सका था। जो विद्यार्थी टेस्ट परीक्षा में उत्तीर्ण होते थे उन्हीं को अनुमति दी जाती थी। इसी परीक्षा के अवसर पर एक अप्रीतिकर घटना घट गई। जैसाकि उसके साथ सदा होता था, इ

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22 अगस्त 2023
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इसी समय सहसा एक दिन - पता लगा कि राजू कहीं चला गया है। फिर वह कभी नहीं लौटा। बहुत वर्ष बाद श्रीकान्त के रचियता ने लिखा, “जानता नहीं कि वह आज जीवित है या नहीं। क्योंकि वर्षों पहले एक दिन वह बड़े सुबह

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इधर शरत् इन प्रवृत्तियों को लेकर व्यस्त था, उधर पिता की यायावर वृत्ति सीमा का उल्लंघन करती जा रही थी। घर में तीन और बच्चे थे। उनके पेट के लिए अन्न और शरीर के लिए वस्त्र की जरूरत थी, परन्तु इस सबके लि

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इसी समय निरुपमा की अंतरंग सखी, सुप्रसिद्ध भूदेव मुखर्जी की पोती, अनुपमा के रिश्ते का भाई सौरीन्द्रनाथ मुखोपाध्याय भागलपुर पढ़ने के लिए आया। वह विभूति का सहपाठी था। दोनों में खूब स्नेह था। अक्सर आना-ज

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22 अगस्त 2023
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अध्याय 16: निरूद्देश्य यात्रा

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गृहस्थी से शरत् का कभी लगाव नहीं रहा। जब नौकरी करता था तब भी नहीं, अब छोड़ दी तो अब भी नहीं। संसार के इस कुत्सित रूप से मुंह मोड़कर वह काल्पनिक संसार में जीना चाहता था। इस दुर्दान्त निर्धनता में भी उ

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अध्याय 17: जीवनमन्थन से निकला विष

24 अगस्त 2023
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घूमते-घूमते श्रीकान्त की तरह एक दिन उसने पाया कि आम के बाग में धुंआ निकल रहा है, तुरन्त वहां पहुंचा। देखा अच्छा-खासा सन्यासी का आश्रम है। प्रकाण्ड धूनी जल रही हे। लोटे में चाय का पानी चढ़ा हुआ है। एक

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अध्याय 18: बंधुहीन, लक्ष्यहीन प्रवास की ओर

24 अगस्त 2023
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इस जीवन का अन्त न जाने कहा जाकर होता कि अचानक भागलपुर से एक तार आया। लिखा था—तुम्हारे पिता की मुत्यु हो गई है। जल्दी आओ। जिस समय उसने भागलपुर छोड़ा था घर की हालत अच्छी नहीं थी। उसके आने के बाद स्थित

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" द्वितीय पर्व : दिशा की खोज" अध्याय 1: एक और स्वप्रभंग

24 अगस्त 2023
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श्रीकान्त की तरह जिस समय एक लोहे का छोटा-सा ट्रंक और एक पतला-सा बिस्तर लेकर शरत् जहाज़ पर पहुंचा तो पाया कि चारों ओर मनुष्य ही मनुष्य बिखरे पड़े हैं। बड़ी-बड़ी गठरियां लिए स्त्री बच्चों के हाथ पकड़े व

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अध्याय 2: सभ्य समाज से जोड़ने वाला गुण

24 अगस्त 2023
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वहां से हटकर वह कई व्यक्तियों के पास रहा। कई स्थानों पर घूमा। कई प्रकार के अनुभव प्राप्त किये। जैसे एक बार फिर वह दिशाहारा हो उठा हो । आज रंगून में दिखाई देता तो कल पेगू या उत्तरी बर्मा भाग जाता। पौं

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अध्याय 3: खोज और खोज

24 अगस्त 2023
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वह अपने को निरीश्वरवादी कहकर प्रचारित करता था, लेकिन सारे व्यसनों और दुर्गुणों के बावजूद उसका मन वैरागी का मन था। वह बहुत पढ़ता था । समाज विज्ञान, यौन विज्ञान, भौतिक विज्ञान, दर्शन, कुछ भी तो नहीं छू

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अध्याय 4: वह अल्पकालिक दाम्पत्य जीवन

24 अगस्त 2023
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एक दिन क्या हुआ, सदा की तरह वह रात को देर से लौटा और दरवाज़ा खोलने के लिए धक्का दिया तो पाया कि भीतर से बन्द है । उसे आश्चर्य हुआ, अन्दर कौन हो सकता है । कोई चोर तो नहीं आ गया। उसने फिर ज़ोर से धक्का

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अध्याय 5: चित्रांगन

24 अगस्त 2023
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शरत् ने बहुमुखी प्रतिभा के धनी रवीन्द्रनाथ के समान न केवल साहित्य में बल्कि संगीत और चित्रकला में भी रुचि ली थी । यद्यपि इन क्षेत्रों में उसकी कोई उपलब्धि नहीं है, पर इस बात के प्रमाण अवश्य उपलब्ध है

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अध्याय 6: इतनी सुंदर रचना किसने की ?

24 अगस्त 2023
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रंगून जाने से पहले शरत् अपनी सब रचनाएं अपने मित्रों के पास छोड़ गया था। उनमें उसकी एक लम्बी कहानी 'बड़ी दीदी' थी। वह सुरेन्द्रनाथ के पास थी। जाते समय वह कह गया था, “छपने की आवश्यकता नहीं। लेकिन छापना

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अध्याय 7: प्रेरणा के स्रोत

24 अगस्त 2023
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एक ओर अंतरंग मित्रों के साथ यह साहित्य - चर्चा चलती थी तो दूसरी और सर्वहारा वर्ग के जीवन में गहरे पैठकर वह व्यक्तिगत अभिज्ञता प्राप्त कर रहा था। इन्ही में से उसने अपने अनेक पात्रों को खोजा था। जब वह

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अध्याय 8: मोक्षदा से हिरण्मयी

24 अगस्त 2023
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शांति की मृत्यु के बाद शरत् ने फिर विवाह करने का विचार नहीं किया। आयु काफी हो चुकी थी । यौवन आपदाओं-विपदाओं के चक्रव्यूह में फंसकर प्रायः नष्ट हो गया था। दिन-भर दफ्तर में काम करता था, घर लौटकर चित्र

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अध्याय 9: गृहदाद

24 अगस्त 2023
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'चरित्रहीन' प्रायः समाप्ति पर था। 'नारी का इतिहास प्रबन्ध भी पूरा हो चुका था। पहली बार उसके मन में एक विचार उठा- क्यों न इन्हें प्रकाशित किया जाए। भागलपुर के मित्रों की पुस्तकें भी तो छप रही हैं। उनस

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अध्याय 10: हाँ , अब फिर लिखूंगा

24 अगस्त 2023
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गृहदाह के बाद वह कलकत्ता आया । साथ में पत्नी थी और था उसका प्यारा कुत्ता। अब वह कुत्ता लिए कलकत्ता की सड़कों पर प्रकट रूप में घूमता था । छोटी दाढ़ी, सिर पर अस्त-व्यस्त बाल, मोटी धोती, पैरों में चट्टी

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अध्याय 11: रामेर सुमित शरतेर सुमित

24 अगस्त 2023
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रंगून लौटकर शरत् ने एक कहानी लिखनी शुरू की। लेकिन योगेन्द्रनाथ सरकार को छोड़कर और कोई इस रहस्य को नहीं जान सका । जितनी लिख लेता प्रतिदिन दफ्तर जाकर वह उसे उन्हें सुनाता और वह सब काम छोड़कर उसे सुनते।

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अध्याय 12: सृजन का आवेग

24 अगस्त 2023
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‘रामेर सुमति' के बाद उसने 'पथ निर्देश' लिखना शुरू किया। पहले की तरह प्रतिदिन जितना लिखता जाता उतना ही दफ्तर में जाकर योगेन्द्रनाथ को पढ़ने के लिए दे देता। यह काम प्राय: दा ठाकुर की चाय की दुकान पर हो

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अध्याय 13: चरितहीन क्रिएटिंग अलामिर्ग सेंसेशन

25 अगस्त 2023
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छोटी रचनाओं के साथ-साथ 'चरित्रहीन' का सृजन बराबर चल रहा था और उसके प्रकाशन को 'लेकर काफी हलचल मच गई थी। 'यमुना के संपादक फणीन्द्रनाथ चिन्तित थे कि 'चरित्रहीन' कहीं 'भारतवर्ष' में प्रकाशित न होने लगे।

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अध्याय 14: ' भारतवर्ष' में ' दिराज बहू '

25 अगस्त 2023
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द्विजेन्द्रलाल राय शरत् के बड़े प्रशंसक थे। और वह भी अपनी हर रचना के बारे में उनकी राय को अन्तिम मानता था, लेकिन उन दिनों वे काव्य में व्यभिचार के विरुद्ध आन्दोलन कर रहे थे। इसलिए 'चरित्रहीन' को स्वी

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अध्याय 15 : विजयी राजकुमार

25 अगस्त 2023
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अगले वर्ष जब वह छः महीने की छुट्टी लेकर कलकत्ता आया तो वह आना ऐसा ही था जैसे किसी विजयी राजकुमार का लौटना उसके प्रशंसक और निन्दक दोनों की कोई सीमा नहीं थी। लेकिन इस बार भी वह किसी मित्र के पास नहीं ठ

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अध्याय 16: नये- नये परिचय

25 अगस्त 2023
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' यमुना' कार्यालय में जो साहित्यिक बैठकें हुआ करती थीं, उन्हीं में उसका उस युग के अनेक साहित्यिकों से परिचय हुआ उनमें एक थे हेमेन्द्रकुमार राय वे यमुना के सम्पादक फणीन्द्रनाथ पाल की सहायता करते थे। ए

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अध्याय 17: ' देहाती समाज ' और आवारा श्रीकांत

25 अगस्त 2023
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अचानक तार आ जाने के कारण शरत् को छुट्टी समाप्त होने से पहले ही और अकेले ही रंगून लौट जाना पड़ा। ऐसा लगता है कि आते ही उसने अपनी प्रसिद्ध रचना पल्ली समाज' पर काम करना शरू कर दिया था, लेकिन गृहिणी के न

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अध्याय 18: दिशा की खोज समाप्त

25 अगस्त 2023
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वह अब भी रंगून में नौकरी कर रहा था, लेकिन उसका मन वहां नहीं था । दफ्तर के बंधे-बंधाए नियमो के साथ स्वाधीन मनोवृत्ति का कोई मेल नही बैठता था। कलकत्ता से हरिदास चट्टोपाध्याय उसे बराबर नौकरी छोड़ देने क

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" तृतीय पर्व: दिशान्त " अध्याय 1: ' वह' से ' वे '

25 अगस्त 2023
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जिस समय शरत् ने कलकत्ता छोडकर रंगून की राह ली थी, उस समय वह तिरस्कृत, उपेक्षित और असहाय था। लेकिन अब जब वह तेरह वर्ष बाद कलकत्ता लौटा तो ख्यातनामा कथाशिल्पी के रूप में प्रसिद्ध हो चुका था। वह अब 'वह'

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अध्याय 2: सृजन का स्वर्ण युग

25 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र के जीवन का स्वर्णयुग जैसे अब आ गया था। देखते-देखते उनकी रचनाएं बंगाल पर छा गई। एक के बाद एक श्रीकान्त" ! (प्रथम पर्व), 'देवदास' 2', 'निष्कृति" 3, चरित्रहीन' और 'काशीनाथ' पुस्तक रूप में प्रक

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अध्याय 3: आवारा श्रीकांत का ऐश्वर्य

25 अगस्त 2023
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'चरित्रहीन' के प्रकाशन के अगले वर्ष उनकी तीन और श्रेष्ठ रचनाएं पाठकों के हाथों में थीं-स्वामी(गल्पसंग्रह - एकादश वैरागी सहित) - दत्ता 2 और श्रीकान्त ( द्वितीय पर्वों 31 उनकी रचनाओं ने जनता को ही इस प

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अध्याय 4: देश के मुक्ति का व्रत

25 अगस्त 2023
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जिस समय शरत्चन्द्र लोकप्रियता की चरम सीमा पर थे, उसी समय उनके जीवन में एक और क्रांति का उदय हुआ । समूचा देश एक नयी करवट ले रहा था । राजनीतिक क्षितिज पर तेजी के साथ नयी परिस्थितियां पैदा हो रही थीं। ब

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अध्याय 5: स्वाधीनता का रक्तकमल

26 अगस्त 2023
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चर्खे में उनका विश्वास हो या न हो, प्रारम्भ में असहयोग में उनका पूर्ण विश्वास था । देशबन्धू के निवासस्थान पर एक दिन उन्होंने गांधीजी से कहा था, "महात्माजी, आपने असहयोग रूपी एक अभेद्य अस्त्र का आविष्क

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अध्याय 6: निष्कम्प दीपशिखा

26 अगस्त 2023
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उस दिन जलधर दादा मिलने आए थे। देखा शरत्चन्द्र मनोयोगपूर्वक कुछ लिख रहे हैं। मुख पर प्रसन्नता है, आखें दीप्त हैं, कलम तीव्र गति से चल रही है। पास ही रखी हुई गुड़गुड़ी की ओर उनका ध्यान नहीं है। चिलम की

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अध्याय 7: समाने समाने होय प्रणयेर विनिमय

26 अगस्त 2023
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शरत्चन्द्र इस समय आकण्ठ राजनीति में डूबे हुए थे। साहित्य और परिवार की ओर उनका ध्यान नहीं था। उनकी पत्नी और उनके सभी मित्र इस बात से बहुत दुखी थे। क्या हुआ उस शरतचन्द्र का जो साहित्य का साधक था, जो अड

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अध्याय 8: राजनीतिज्ञ अभिज्ञता का साहित्य

26 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र कभी नियमित होकर नहीं लिख सके। उनसे लिखाया जाता था। पत्र- पत्रिकाओं के सम्पादक घर पर आकर बार-बार धरना देते थे। बार-बार आग्रह करने के लिए आते थे। भारतवर्ष' के सम्पादक रायबहादुर जलधर सेन आते,

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अध्याय 9: लिखने का दर्द

26 अगस्त 2023
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अपनी रचनाओं के कारण शरत् बाबू विद्यार्थियों में विशेष रूप से लोकप्रिय थे। लेकिन विश्वविद्यालय और कालेजों से उनका संबंध अभी भी घनिष्ठ नहीं हुआ था। उस दिन अचानक प्रेजिडेन्सी कालेज की बंगला साहित्य सभा

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अध्याय 10: समिष्ट के बीच

26 अगस्त 2023
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किसी पत्रिका का सम्पादन करने की चाह किसी न किसी रूप में उनके अन्तर में बराबर बनी रही। बचपन में भी यह खेल वे खेल चुके थे, परन्तु इस क्षेत्र में यमुना से अधिक सफलता उन्हें कभी नहीं मिली। अपने मित्र निर

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अध्याय 11: आवारा जीवन की ललक

26 अगस्त 2023
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राजनीतिक क्षेत्र में इस समय अपेक्षाकृत शान्ति थी । सविनय अवज्ञा आन्दोलन जैसा उत्साह अब शेष नहीं रहा था। लेकिन गांव का संगठन करने और चन्दा इकट्ठा करने में अभी भी वे रुचि ले रहे थे। देशबन्धु का यश ओर प

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अध्याय 12: ' हमने ही तोह उन्हें समाप्त कर दिया '

26 अगस्त 2023
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देशबन्धु की मृत्यु के बाद शरत् बाबू का मन राजनीति में उतना नहीं रह गया था। काम वे बराबर करते रहे, पर मन उनका बार-बार साहित्य के क्षेत्र में लौटने को आतुर हो उठता था। यद्यपि वहां भी लिखने की गति पहले

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अध्याय 13: पथेर दाबी

26 अगस्त 2023
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जिस समय वे 'पथेर दाबी ' लिख रहे थे, उसी समय उनका मकान बनकर तैयार हो गया था । वे वहीं जाकर रहने लगे थे। वहां जाने से पहले लगभग एक वर्ष तक वे शिवपुर टाम डिपो के पास कालीकुमार मुकर्जी लेने में भी रहे थे

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अध्याय 14: रूप नारायण का विस्तार

26 अगस्त 2023
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गांव में आकर उनका जीवन बिलकुल ही बदल गया। इस बदले हुए जीवन की चर्चा उन्होंने अपने बहुत-से पत्रों में की है, “रूपनारायण के तट पर घर बनाया है, आरामकुर्सी पर पड़ा रहता हूं।" एक और पत्र में उन्होंने लिख

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अध्याय 15: देहाती शरत

26 अगस्त 2023
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गांव में रहने पर भी शहर छूट नहीं गया था। अक्सर आना-जाना होता रहता था। स्वास्थ्य बहुत अच्छा न होने के कारण कभी-कभी तो बहुत दिनों तक वहीं रहना पड़ता था । इसीलिए बड़ी बहू बार-बार शहर में मकान बना लेने क

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अध्याय 16: दायोनिसस शिवानी से वैष्णवी कमललता तक

26 अगस्त 2023
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किशोरावस्था में शरत् बात् ने अनेक नाटकों में अभिनय करके प्रशंसा पाई थी। उस समय जनता को नाटक देखने का बहुत शौक था, लेकिन भले घरों के लड़के मंच पर आयें, यह कोई स्वीकार करना नहीं चाहता था। शरत बाबू थे ज

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अध्याय 17: तुम में नाटक लिखने की शक्ति है

26 अगस्त 2023
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शरत साहित्य की रीढ़, नारी के प्रति उनका दृष्टिकोण है। बार-बार अपने इसी दृष्टिकोण को उन्होंने स्पष्ट किया है। प्रसिद्धि के साथ-साथ उन्हें अनेक सभाओं में जाना पडता था और वहां प्रायः यही प्रश्न उनके साम

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अध्याय 18: नारी चरित्र के परम रहस्यज्ञाता

26 अगस्त 2023
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केवल नारी और विद्यार्थी ही नहीं दूसरे बुद्धिजीवी भी समय-समय पर उनको अपने बीच पाने को आतुर रहते थे। बड़े उत्साह से वे उनका स्वागत सम्मान करते, उन्हें नाना सम्मेलनों का सभापतित्व करने को आग्रहपूर्वक आ

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अध्याय 19: मैं मनुष्य को बहुत बड़ा करके मानता हूँ

26 अगस्त 2023
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चन्दन नगर की गोष्ठी में उन्होंने कहा था, “राजनीति में भाग लिया था, किन्तु अब उससे छुट्टी ले ली है। उस भीड़भाड़ में कुछ न हो सका। बहुत-सा समय भी नष्ट हुआ । इतना समय नष्ट न करने से भी तो चल सकता था । ज

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अध्याय 20: देश के तरुणों से में कहता हूँ

26 अगस्त 2023
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साधारणतया साहित्यकार में कोई न कोई ऐसी विशेषता होती है, जो उसे जनसाधारण से अलग करती है। उसे सनक भी कहा जा सकता है। पशु-पक्षियों के प्रति शरबाबू का प्रेम इसी सनक तक पहुंच गया था। कई वर्ष पूर्व काशी में

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अध्याय 21:  ऋषिकल्प

26 अगस्त 2023
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जब कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर सत्तर वर्ष के हुए तो देश भर में उनकी जन्म जयन्ती मनाई गई। उस दिन यूनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट, कलकत्ता में जो उद्बोधन सभा हुई उसके सभापति थे महामहोपाध्याय श्री हरिप्रसाद शास्त

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अध्याय 22: गुरु और शिष्य

27 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र 60 वर्ष के भी नहीं हुए थे, लेकिन स्वास्थ्य उनका बहुत खराब हो चुका था। हर पत्र में वे इसी बात की शिकायत करते दिखाई देते हैं, “म सरें दर्द रहता है। खून का दबाव ठीक नहीं है। लिखना पढ़ना बहुत क

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अध्याय 23: कैशोर्य का वह असफल प्रेम

27 अगस्त 2023
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शरत् बाबू की रचनाओं के आधार पर लिखे गये दो नाटक इसी युग में प्रकाशित हुए । 'विराजबहू' उपन्यास का नाट्य रूपान्तर इसी नाम से प्रकाशित हुआ। लेकिन दत्ता' का नाट्य रूपान्तर प्रकाशित हुआ 'विजया' के नाम से

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अध्याय 24: श्री अरविन्द का आशीर्वाद

27 अगस्त 2023
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गांव में रहते हुए शरत् बाबू को काफी वर्ष बीत गये थे। उस जीवन का अपना आनन्द था। लेकिन असुविधाएं भी कम नहीं थीं। बार-बार फौजदारी और दीवानी मुकदमों में उलझना पड़ता था। गांव वालों की समस्याएं सुलझाते-सुल

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अध्याय 25: तुब बिहंग ओरे बिहंग भोंर

27 अगस्त 2023
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राजनीति के क्षेत्र में भी अब उनका कोई सक्रिय योग नहीं रह गया था, लेकिन साम्प्रदायिक प्रश्न को लेकर उन्हें कई बार स्पष्ट रूप से अपने विचार प्रकट करने का अवसर मिला। उन्होंने बार-बार नेताओं की आलोचना की

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अध्याय 26: अल्हाह.,अल्हाह.

27 अगस्त 2023
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सर दर्द बहुत परेशान कर रहा था । परीक्षा करने पर डाक्टरों ने बताया कि ‘न्यूरालाजिक' दर्द है । इसके लिए 'अल्ट्रावायलेट रश्मियां दी गई, लेकिन सब व्यर्थ । सोचा, सम्भवत: चश्मे के कारण यह पीड़ा है, परन्तु

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अध्याय 27: मरीज की हवा दो बदल

27 अगस्त 2023
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हिरण्मयी देवी लोगों की दृष्टि में शरत्चन्द्र की पत्नी थीं या मात्र जीवनसंगिनी, इस प्रश्न का उत्तर होने पर भी किसी ने उसे स्वीकार करना नहीं चाहा। लेकिन इसमें तनिक भी संशय नहीं है कि उनके प्रति शरत् बा

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अध्याय 28: साजन के घर जाना होगा

27 अगस्त 2023
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कलकत्ता पहुंचकर भी भुलाने के इन कामों में व्यतिक्रम नहीं हुआ। बचपन जैसे फिर जाग आया था। याद आ रही थी तितलियों की, बाग-बगीचों की और फूलों की । नेवले, कोयल और भेलू की। भेलू का प्रसंग चलने पर उन्होंने म

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अध्याय 29: बेशुमार यादें

27 अगस्त 2023
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इसी बीच में एक दिन शिल्पी मुकुल दे डाक्टर माके को ले आये। उन्होंने परीक्षा करके कहा, "घर में चिकित्सा नहीं ही सकती । अवस्था निराशाजनक है। किसी भी क्षण मृत्यु हो सकती है। इन्हें तुरन्त नर्सिंग होम ले

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