जिस समय वे 'पथेर दाबी ' लिख रहे थे, उसी समय उनका मकान बनकर तैयार हो गया था । वे वहीं जाकर रहने लगे थे। वहां जाने से पहले लगभग एक वर्ष तक वे शिवपुर टाम डिपो के पास कालीकुमार मुकर्जी लेने में भी रहे थे।
यह मकान उन्होंने अपनी दीदी के गांव गोविन्दपुर के पास सामतोबेड में रूपनारायण नदी के किनारे पर बनवाया था। प्रशस्त स्थान था, पास में दो पोखर और एक बगीचा, ये भी उन्होंने तैयार करवाये थे। अपनी सुविधानुसार सभी बातों का ध्यान उन्होंने रखा था। तभी तो उस युग में लगभग सत्रह हज़ार रुपये खर्च कर दिये थे।
गांव का मूल नाम सामता था परन्तु उनका मकान चूंकि एकदम किनारे पर बाड़ की तरह था इसलिए वे सामताबेड लिखते थे। रेल द्वारा देउल्टी स्टेशन पहुंचकर वहां से पालकी के द्वारा ही गांव पहुंचा जा सकता था, वर्षा में पानी भर जाने के कारण असुविधा की कोई सीमा नहीं रहती थी लेकिन प्राकृतिक सौन्दर्य उसको अनुभव ही नहीं होने देता था। चारों ओर फैले हुए धान के खेत, प्रहरी के समान खड़े हुए केले और खजूर के पेड़ और पूरम्पार भरी हुई नदी, तीव्रता से और उच्छ्वसित रूप से जल के संघर्ष के कारण फेन लट्टू की तरह घूमते हुए आगे बढ़ते थे। मार्ग में नाले भी कम नहीं थे। बांस के पुल पर से पार करना पड़ता था।
मार्ग की सारी बाधाओं के बावजूद रूपनारायण नद उनके शिल्पी मन को शुरू से ही पुकारता आ रहा था। अपने कैशोर्य में वे दीदी के पास अवश्य आये होंगे। कम से कम बर्मा जाने से पूर्व तो वे अवश्य आये थे। तब उन्होंने मामा गिरीन्द्रनाथ को लिखा था, “फिर भी एक बार अवश्य आओ। दीदी प्रसन्न होगी। घर ठीक विशाल रूपनारायण के सामने है। सुना है, शिकार की व्यवस्था भी है. ....... अगर तुम सचमुच आना चाहते हो तो अवश्य आओ । हम रेलवे स्टेशन का निरीक्षण करेंगे, जो भव्य है। रूपनारायण पर बना पुल तो और भी भव्य है। फिर हम नौकाविहार करेंगे। क्या कहते हो !.. .."I
तन और मन के स्वास्थ्य को ठीक करने की चेष्टा में ही उन्होंने शेष जीवन के कुछ वर्ष गांव में बिताने का विचार किया था। पिछले कुछ दिनों से उन्हें नाना प्रकार के आघात सहने पड़ रहे थे। कई प्रियजनों की मृत्यु ने उनके मन को बहुत चोट पहुंचाई थी । देशबन्धु चितरंजनदास की मृत्यु ने उन्हें बहुत कुछ अस्त-व्यस्त कर दिया था। किन्तु उससे भी पहले उनके चिरसंगी कुत्ते भेलू की मृत्यु हो चुकी थी। उनका जीवन भेलू के बिना कितना अपूर्ण था, इसको वही जान सकते थे जिनको उनके पास रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था उसको लेकर उन्हें बहुत कुछ सहना पड़ा था। पर वे सदा उसे अपने हृदय के अन्तरतम से प्यार करते रहे। उनका यह सहज विश्वास था कि भेलू जैसा शान्त, शिष्ट कुत्ता और कोई नहीं है। इलाचन्द्र जोशी से उन्होंने कहा था, "कुत्ता प्यार में भी क्रोध का भाव जताता हुआ भुंकता है। इस सत्य से केवल वे ही लोग परिचित होते हैं जो कुत्ते को प्यार कर चुके हैं और उसका प्यार पा चुके हैं.. कुत्ता आदमी को आदमी से अधिक पहचानता है, मेरी यह बात तुम
गांठ बांध लो। "
इसलिए वह मानते थे कि भेलू यदि किसी को काटता भी है तो आदर से काटता है। इस आदर के कारण उन्हें अदालत में जाना पड़ा, पीड़ितों को रुपया देना पड़ा और बार-बार उसकी लार की परीक्षा करवानी पड़ी। लेकिन उसका अनादर वे कभी नहीं कर सके। बड़े आदर-प्यार के साथ वे उसे अपने पास बिठाते थे। उस दिन एक सम्भ्रान्त महिला ने उनके लिए थाल भरकर सन्देश भेजे। साथ में एक पत्र था। लिखा था - ग्रहण करेंगे तो कृतार्थ होऊंगी। इला ।
भेलू ने जैसे ही उस पात्र को देखा वह उसके आसपास मंडराने लगा। बड़े प्यार से शरत् बाबू ने उसे एक सन्देश खाने को दिया। खाकर उसने और मांगा। वह मांगता रहा और शरत् बाबू तब तक देते रहे जब तक पात्र खाली नहीं हो गया । कवि नरेन्द्रदेव बैठे हुए सब कुछ देख रहे थे। बोले, “यह आपने क्या किया? उन महिला ने जो सन्देश आपके लिए श्रद्धापूवक भेजे थे, वे सभी आपने कुत्ते को खिला दिए। वह सुनेगी तो कितना कष्ट होगा ! सोचो तो। "
शरत् बाबू ने उत्तर दिया, “यही तो तुम्हारा दोष है। किसी बात की गहराई में जाकर समझने की चेष्टा नहीं करते । इला ने मुझे सन्देश क्यों भेजे थे? इसी आशा से न, कि मैं खाकर तृप्त होऊंगा। अब सोचो मैंने स्वयं न खाकर भेलू को खिला दिए। उन्हें खाकर वह जितना तृप्त हुआ है, उतना क्या मैं हो पाता ? मेरे विचार में इला का अदान व्यर्थ न होकर पूर्ण रूप से सार्थक हुआ है।
इस तरह की अनेक घटनाएं भेलू को लेकर प्रचलित हो गई थीं। हो सकता है इस घटना-विशेष में कुछ कम सचाई हो, और एक मुंह से दूसरे मुंह तक जाते-जाते कल्पना ने उसे यह रूप दे दिया हो, पर शेष घटनाओं का प्रतिवाद करना भी मूर्खता है।
परन्तु यह सच है कि जब कोई उनसे मिलने आता और पुकारता, 'शरत् बाबू!' तो सबसे पहले उसका स्वागत करने के लिए यह भेलू ही भौंकता हुआ दौड़ पड़ता । आगन्तुक उसका रूप और स्वर देख-सुनकर घबरा जाता। तब शरत् बाबू प्यार से पुकारते, 'ऐ भेलू !' और भेलू भलेमानुसों की तरह उनके पास आ बैठता। एक दिन एक नवागन्तुक ने घबराकर पूछा, “क्या यह कुत्ता काट लेगा?"
शरत् बाबू ने प्रत्युत्तर में उनसे पूछा, “क्या इसने आपको काटा है ?"
आछेप का आभास तक उन्हें उद्विग्न कर देता था, लेकिन इसी भेलू के कारण कभी- कभी बड़ा अद्भुत दृश्य उपस्थित हो जाता था। उस दिन मकान मालिक किराया लेने के लिए आए। उन्हें रुपये देकर शरत् बाबू तुरन्त खाना खाने के लिए चले गए और जब खाकर लौटे तो क्या देखते हैं कि मकान मालिक एक कोने में कांपते हुए खड़े हैं। किराये के रुपये वैसे ही उनके हाथ में हैं और सामने बैठा हुआ भेलू एकटक उन्हें ताक रहा है।
शरत् बाबू बहुत दुखी हुए। उन्होंने भेलू को अपने पास बुलाया और मकान मालिक से क्षमा मांगते हुए कहा, “छिःछिः, आपको इस तरह यहां खड़े रहना पड़ा! खाना नहाना भी नहीं हुआ ! बड़ा अन्याय हुआ। लेकिन मैं जानता नहीं था । "
इतना होने पर भी उन्होंने भेलू को एक शब्द नहीं कहा। यदि कोई पड़ोसी कभी उसे डांट देता तो बस उसकी खैर नहीं थी । हुक्का पीते होते तो उसे लेकर ही वे दौड़ पड़ते और धाराप्रवाह भाषण देना शुरू कर देते। उस भाषण की प्राकृत भाषा सुनकर पड़ोसी को बस सिर झुका लेने के सिवा और कोई मार्ग नहीं सूझता था।
चाय भी पिलाते थे! प्याली में उसके बाल गिर पड़ते, तो भी न वह स्वयं आपत्ति करते थे न किसी दूसरे की आपत्ति सह सकते थे। इस असंगत- असीम प्यार के कारण मित्र लोग भेलू को व्यंग्य से उनका बेटा या युवराज कहते थे। लीलारानी को उन्होंने स्वयं यही लिखा था, “इस समय मेरा बेटा है मेरा भेलू कुत्ता, इसे सभी पहचानते हैं। सभी जाते हैं कि यह कुत्ता शरत् बाबू को प्राणों से भी प्यारा है।" 2
वही उनके प्यार का अधिकारी एक दिन अचानक बीमार हो गया, वे तुरन्त उसे बेलियाघाट के अस्पताल में दाखिल करवाकर आए। उन्हें ढाका जाना था। वहां से लौटकर वे उसे फिर घर ले आए। स्वास्थ्य कुछ ठीक हो चला था, लेकिन घर आते ही उसका रोग फिर बढ़ गया। डाक्टर ने आकर बताया कि एक्यूट गैसटाइटिस का केस है।
अब कोई दवा काम नहीं कर सकी। आखिरी दिन सचमुच उसे बहुत कष्ट हुआ। पहले दिन शरत् बाबू ने चम्मच से उसे औषधि पिलाने की बहुत चेष्टा की, लेकिन दवा पेट में नहीं जा सकी। गुस्से में आकर उसने उनके हाथ में काट लिया। फिर सारी रात उनके गले के पास अपना मुंह रखकर वह रोता रहा । सवेरे उसका वह रोना थम गया । उनके एकाकी जीवन का चौबीस घंटे का साथी, प्रवास का बन्धु, इस दुनिया में वह केवल उन्हें ही पहचानता था। जब उसने उन्हें काटा तब सब लोग बहुत डर गए, लेकिन स्वयं शरत् बाबू के मन में रवि बाबू की यह पंक्ति गूंजती रही, 'तुम्हारे प्रेम में आघात है, अवहेलना नहीं ।' भेलू ने उनके शरीर पर आघात किया था, पर उसके मन में अवहेलना नहीं थी, यही बात पूरे विश्वास के साथ उन्होंने सबसे कही। लेकिन इतनी व्यथा उन्होंने पहले कभी नहीं पाई थी। वे बच्चों की तरह रोये और स्वयं अपने हाथों से पड़ोसी के बाग में उसके लिए समाधि का निर्माण किया। एक खाते में उसकी मृत्यु का सम्वाद उन्होंने इस प्रकार लिखा, “भेलू, देह त्याग करने का दिन 10 वैशाख, बृहस्पतिवार, 1322 सवेरे छ: बजे, 23 अप्रैल, 1925 ई० । समाधि वेला साढ़े नौ बजे, बाजे शिवपुर, हावड़ा। रात्रिर-दिनेर संगी आमार परम लेकेर बन्धु।"
उनका नहाना-खाना सब बन्द हो गया। बस समाधि के पास बैठकर रोते रहते। बड़ी बहू समझाकर हार गई, पर वे शान्त नहीं हुए । सन्देशा पाकर 'भारतवर्ष' के सम्पादक रायबहादुर जलधर सेन उनसे मिलने के लिए आए। उनकी छाती से लगकर रोते-रोते शरत् बाबू ने कहा, "दादा, मेरा भेलू मुझे धोखा देकर चला गया।"
उन दिनों जो भी मिलने जाता उसके सामने इस प्रकार शोकांत हो उठते मानो उनके सबसे प्रिय व्यक्ति की मृत्यु हो गई है। अपने प्रिय मित्र चारुचन्द्र बंदोपाध्याय को उन्होंने लिखा, “मेरा चौबीस घंटे का साथी नहीं रहा। संसार में जो इतना बड़ा दुख का व्यापार है, उसको ठीक तरह से नहीं समझता था। शायद इसीलिए मुझे इसकी आवश्यक्ता थी । चारु, एक और बात समझ सका, इस संसार में ऑब्जेक्टिव कुछ भी नहीं है, सब कुछ सब्जेक्टिव ही है। नहीं तो वह एक कुत्ते के सिवा और क्या था? राजा भरत की कहानी किसी तरह मिथ्या नहीं है।“ 3 मामा सुरेन्द्र से उन्होंने कहा था, “जीवन में कितने दुख-कष्ट पाए हैं, उनको भेलू ने बहुत बार तुच्छ कर दिया है.... दुख के दिनों में उसके सहारे मेरा समय सुख से कट गया । "
कितना एकात्म भाव था उन दोनों में एक पशु, एक दरदी मानव ।
इस कहानी से गलतफहमी हो सकती है कि वे केवल अपने कुत्ते को ही इतना प्यार करते थे, लेकिन यह सत्य नहीं है। जीव मात्र से उन्हें प्रेम था । कुत्तों से कुछ विशेष प्रेम था। अपने मोटरचालक को उन्होंने आदेश दे रखा था कि देखो बापू, यदि तुम किसी मनुष्य को मोटर के नीचे दबा दोगे तो शायद मैं कुछ न कहूं, परन्तु यदि तुमने किसी कुत्ते को दबा दिया तो समझ लेना कि तुम्हारी नौकरी गई।
इन आघातों ने नये मकान में आने के बाद भी उनका पीछा नही छोड़ा। अभी नौ महीने भी नही बीते थे कि एक और प्रबल आघात उन्हें सहना पड़ा। उनके छोटे भाई प्रभासचन्द्र लगभग पन्द्रह वर्ष पूर्व संन्यासी हो गए थे। दो वर्ष तक वे मायावती अद्वैत आश्रम में रहे। फिर कई वर्ष तक रामकृष्ण मिशन सेवा आश्रम, वृन्दावन की व्यवस्था का भार उन पर रहा। कुछ दिन पूर्व वे मिशन के कार्य में बर्मा चले गए थे। शरत् बाबू की तरह स्वास्थ्य उनका भी कोई बहुत अच्छा नहीं था। बर्मा से लौटने पर वे कलकत्ता रुके और जैसा कि वे सदा करते थे, पूर्वाश्रम के अपने बड़े भाई शरत् बाबू के पास ही ठहरे। यहीं पर सहसा उनको ज्वर हो आया। अभी कुछ माह पूर्व स्वस्थ होकर ही तो यहां से गए थे, लेकिन निरन्तर बीमार रहने के कारण उनका शरीर बहुत शिथिल हो गया था। कई बार उन्होंने कहा था कि अब इस शरीर को छोड़ देने की आवश्यकता है। शायद आवश्यकता का वह क्षण आ पहुंचा था। अगले दिन ही वे बहुत बेचैन हो उठे। घर और बिस्तर छोड़कर वे बाहर चले आए। उन्होंने अपना सिर शरत् बाबू की छाती पर रख दिया और फिर शरीर का त्याग कर दिया | मृत्यु के समय शरत् बाबू, अनिला देवी, हिरण्मयी देवी और प्रकाशचन्द्र पूर्वाश्रम के यही चार परिजन उनके पास थे।
घर के एक पशु-पक्षी की भी जो मृत्यु नहीं सह सकते थे, वे शरत् बाबू इस भातृ- वियोग से बहुत ही व्यथित हो उठे। उस समय लिखे गए उनके एक पत्र से उस व्यथा का कुछ आभास मिलत है-“नहीं जानता था कि मैं इतना दुर्बल हूं। यह व्यथा मैं कैसे सहूंगा?"
अपने भाई की समाधि उन्होंने अपने घर के पास ही नदी के तट पर बनबाई। जब तक सामताबेड में रहे प्रतिदिन संध्या को उस पर दीपक जलाते रहे। यही नहीं, लिखते-लिखते वे बहुधा उठ खड़े होते और समाधि के पास जाकर खड़े हो जाते। उनके श्राद्ध के दिन वह प्रतिवर्ष कीर्तन और भोज कराते ।
संन्यासी हो जाने के बाद प्रभासचन्द्र स्वामी वेदानन्द के नाम से जाने जाते थे। उनकी मृत्यु का समाचार पाकर बेल्लूरमठ के एक स्वामी शरत् बाबू के पास आए और बोले, “आपने स्वामी वेदानन्द की देह हमें क्यों नहीं सौंपी ? स्वयं ही संस्कार क्यों किया? उनकी समाधि बेल्लूरमठ में बननी चाहिए थी। यहां क्यों बनवाई?”
स्वामीजी ने ठीक कहा था कि संन्यासी हो जाने के बाद पूर्वाश्रम के परिजनों से कोई संबंध नहीं रह जाता, लेकिन शरत् बाबू स्वामीजी की बात सुनकर विरक्त हो उठे। बोले, “आप यह क्यों भूल जाते हैं कि वे मेरे सहोदर थे। आपसे अधिक मेरा उन पर अधिकार था। आप उनके कौन हैं?”
शरतचन्द्र ने विधि-विधानों की दासता कभी स्वीकार नहीं की। उनके सामने आदि शंकराचार्य का उदाहरण था। उन्होंने अपनी मां का स्वयं दाहसंस्कार किया था। उन्हीं की तरह शरत् बाबू ने भी जड़ नियमों पर आघात किया। बहुत तर्क-वितर्क हुआ, लेकिन बेल्लूरमठ के स्वामी किसी भी तरह आश्वस्त नहीं हो सके। तब सहसा शरत् बाबू बोल उठे, “खैर उसे जाने दीजिए। एक और स्वामीजी यहां हैं उन्हें ले जाइए। "
स्वामीजी बहुत चकित हुए, लेकिन वे कुछ कह पाते इससे पूर्व ही शरत् बाबू ने जोर से पुकारा, स्वामीजी ! स्वामीजी !”
तुरन्त ही एक मोटा-ताज़ा बकरा भागता हुआ आया। भरतचन्द ने उसकी ओर देखते हुए कहा, बेल्लूरमठ के ये स्वामीजी तुम्हें लेने के लिए आए हैं। इनका कहना है कि कोई भी स्वामी गृहस्थी के घर में नहीं रह सकता। तुम चाहो तो इनके साथ जा सकते हो।“
फिर स्वामीजी की ओर मुड़कर बोले, “डसे यदि आप एक गेरुआ चादर पहना देंगे तो यह आपके दल में मिल जाएगा।"
जैसा कि स्वाभाविक था इस व्यंग्य से स्वामीजी तिलमिला उठे और अग्निरूप होकर तुरन्त ही वहां से चले गए।
यह कथा भी मात्र एक प्रवाद हो सकती है परन्तु यदि सच भी है तो इसमें अस्वाभाविक कुछ नही। बहुत वर्ष बाद ' 'स्वामी विवेकानन्द के जन्मोत्सव पर बेल्लूरमठ में श्री सुभाषचन्द्र बोस के सभापतित्व में जो सभा हुई थी, उसमें भी उन्होंने इस मठ की कार्य- पद्धति की आलोचना करते हुए कहा था, “आप लोग रामकृष्ण परमहंस और विवेकानन्द के आदर्श के अनुरूप कार्य नहीं कर रहे। "
इससे अनुमान किया जा सकता है कि इस घटना में कुछ न कुछ सचाई की सम्भावना है? फिर भी यह कहना कि वे अधार्मिक या नास्तिक थे असत्य होगा । यौवन के आवेश में निश्चय ही उन्होंने कई बार धर्म और ईश्वर पर आक्रमण किया पर वह आक्रमण उनके अन्तर में विश्वास का परिणाम नहीं था। वे अन्धविश्वासों और संकीर्णता पर ही चोट करना चाहते थे। दैवी चमत्कारों और पाखण्डपूर्ण कर्मकाण्डों में उनका विश्वास नहीं था, पर एक सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान ईश्वर में उनकी सच्ची आस्था थी। जो वास्तविक धर्म है उसमें आयु के साथ-साथ उनकी श्रद्धा निरन्तर बढ़ती जा रही थी। उनका सारा साहित्य इस बात का प्रमाण है। देशबन्धु दास ने राधाकृष्ण की जो प्रतिमा उन्हें भेंट में दी थी उसके लिए नित्य पूजा की व्यवस्था थी। विशेष रूप से एक पण्डितजी उसकी देखभाल करते थे। जिस दिन पण्डितजी नहीं आ पाते उस दिन वे स्वयं पूजा करते थे। कहते थे, “देशबन्धु उसकी पूजा का भार मुझ पर सौंप गए हैं। उसे यथासाध्य पूरा करना ही है । "
वे यज्ञोपवीत पहनते थे। गले में तुलसी की माला रहती थी। एक दिन उन्होंने कहा था, "मेरे गले में तुलसी की माला देखकर अचरज होता है। जो व्यक्ति दुर्नीति परायण साहित्य की सृष्टि करता है, वह तुलसी की माला पहनेगा, यह बात कोई नहीं सोच सकता।" यज्ञोपवीत वे स्वयं ही नहीं पहनते थे अपने मित्रों के गले में भी उसे देखना चाहते थे। कलकत्ता के उनके पड़ोसी अध्यापक निर्मलचन्द्र भट्टाचार्य ने जनेऊ का परित्याग कर दिया था। एक दिन शरत्चन्द्र ने उनको नंगे बदन देखकर पूछा, “तुम्हारा जनेऊ क्या हुआ?” निर्मलचन्द्र ने उत्तर दिया, “मैंने जनेऊ का त्याग कर दिया है। "
सुनकर शरतचन्द्र व्यथित हो उठे। बोले, “यज्ञोपवीत न पहनने से पितरों का अपमान होता है । "
वे वैष्णव धर्मग्रंथों का पारायण भी करते थे। जीवन के अनेक विरोधाभासों की तरह उनके धर्म-विश्वास के बारे में अनेक किंवदंतियां प्रचलित हो गई थीं, जो साधारण से दिखने वाले विरोधाभास को जटिल से जटिलतर बनाने में ही सहायक हो सकती थी। आज जो मनुष्य का विश्वास है वह कल बदल सकता है, यह न असम्भव ही है और न घृणा के योग्य ही । देशबन्धु के सम्पर्क में आने के बाद उनके धार्मिक दृष्टिकोण में परिवर्तन हुआ, यह सम्भव ही नहीं, निश्चित-सा दिखाई देता है।
संघर्ष और प्रसिद्धि के उन दिनों में उनके स्वभाव में कई परिवर्तन हुए, परन्तु मानवीय
करुणा ने मनुष्य शरत्चन्द्र का साथ कभी नहीं छोड़ा सर्वोत्तम सौन्दर्य के समान सर्वोत्तम ने मानवीय करुणा ही क्या ईश्वर नहीं है?