शरतचन्द्र कभी नियमित होकर नहीं लिख सके। उनसे लिखाया जाता था। पत्र- पत्रिकाओं के सम्पादक घर पर आकर बार-बार धरना देते थे। बार-बार आग्रह करने के लिए आते थे। भारतवर्ष' के सम्पादक रायबहादुर जलधर सेन आते, शरत् बाबू के सेवक भोला को पुकारते, “ओरे भोला, चा ले आ और भीतर बऊ मां को कह दे कि आज मैं यही नहाऊंगा खाऊंगा।”
इतना कहकर वे कपड़े उतारते और एक तकिए के सहारे लेटकर चुरुट पीने लगते। शरत् बाबू सब कुछ देखते, मुस्कराकर पूछते, “क्या बात है दादा, इस सबका क्या मतलब है?"
“मतलब पांच बजे चाय पीकर जाऊंगा। तुम्हारा लेख भी लेता जाऊंगा। इसलिए अब समय व्यर्थ न खोकर लिखना शुरू कर दो।”
‘विचित्रा' के लिए लेख लेकर आते श्री तुलसी, जो रेल विभाग में काम करते थे। उपेन्द्रनाथ स्वयं स्टेशन जाकर लेख ले आते थे। वे स्वयं इसलिए जाते थे जिससे शरत् बाबू उनका लिहाज करके सुस्ती न करें।
यदि, ये लोग ऐसा न करते तो उनके लिए लिखना असम्भव जैसा था। इसी बात की गवाही देती हुई उनकी कितनी ही रचनाएं असमाप्त पड़ी रह गई हैं। काशी प्रवास मैं उनकी भेंट साहित्यकार श्री केदारनाथ बंदोपाध्याय से हुई थी। शीघ्र ही वह भेंट प्रगाढ़ बंधुत्व में परिवर्तित हो गई। उन्हीं केदार बाबू ने अपनी पत्रिका 'प्रवास ज्योति' में लिखने के लिए उनको आमंत्रित किया था। वे तुरन्त उन्हें एक उपन्यास देने के लिए वचनबद्ध हो गए। लेकिन बार-बार आग्रह करने पर केवल एक किस्त ही वे भेज सके। उस समय एक बार एक पत्र में उन्होंने लिखा-
“आपके साथ मेरा व्यवहार काफी निन्दनीय हो गया, लेकिन मजबूर होकर ही ऐसा हुआ। आशा है भविष्य में फिर कभी ऐसा नहीं होगा। पहली बात है, बीमारी में बिस्तर पर पड़ा था। कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। इसके बाद जब शरीर स्वस्थ हुआ तो दूसरे उपसर्ग दिखाई पड़े। आपके लिए रचना इस महीने भेज मकता था, पर भारतवर्ष' में न भेजने के कारण आप लोगों को भी न भेज सका। उनको न देकर आप लोगों को देने से उनको असीम व्यथा ही न पहुंचती, अपमान भी होता ।
“इस महीने से फिर सब कुछ नियमित होगा। मुझे लेकर जो भी कोई कारबार करते हैं, उन्हें इसी तरह भुगतना पड़ता है। मैं केवल खुद ही अन्याय नहीं करता और पांच आदमियों को भी विडम्बिन करता हूं। इसे आप लोग निज गुण से क्षमा करें। स्वभाव......। “मैं जितनी जल्दी हो सकेगा (किस्त) भेज रहा हूं। इस विषय में इस बार निश्चिन्त रह सकते हैं।”
लेकिन ऐसा नहीं हो सका। वे उनको कुछ भी नहीं भेज सके। यह तथाकथित असमर्थता उनके स्वभाव का अंग बन गई थी। कारण अनेक थे, होते ही है। जो मजलिसी हैं उनके लिए न काल कोई अर्थ रखता है न नियम । इन्हीं केदार बाबू के साथ वे काशी में गप्प-शप्प करते-करते दिन पर दिन बिता देते थे। केदारनाथ अस्वस्थ हैं, इन्हें बाहर लेकर जाना ही होगा। तांगेवाले को आदश मिला आठ बजे आने का ।
वह आया पर अभी तो चाय चल रही है, अब नवयुवक मिलने आ गए है। बारह बज गए। अब क्या जाने का वक्त है! अच्छा चार बजे आना । न-न, डरी नहीं, किराया पूरा मिलेगा। तांगेवाला दो दिन ऐसे ही आता रहा और रात को ग्यारह बजे पूरा किराया लेकर जाता रहा। उनका बाहर जाना न होना था न हुआ।
ऐसा व्यक्ति अगर अफीम भी खाता हो तो..... एक तो करेला फिर नीम चढ़ा.....।
एक और अवसर पर अपनी इस चिरपरिचित असमर्थता की कैफियत देते हुए उन्होंने कवि गिरिजाकुमार को जो पत्र लिखा, उसमें उन्होंने अपने मन की बात कुछ अधिक स्पष्टता से कही कही है।
...मुझे यह विश्वास है कि किसी और के सामने अपने दोषों के स्पष्टीकरण देने का कोई मार्ग हो या न हो, तुम्हारे सामने तो है। कारण यह कि तुम केवल किसी मासिक या साप्ताहिक के सम्पादक ही नहीं हो, स्वयं कवि भी हो । अर्थात् सगोत्र हो । सजातीय हो । साहित्य-सेवा में जो आनन्द और जो वेदना होती है, उसको जानते हो । साहित्य सेवी की दुरवस्था को पहचानते हो। तुमको यह बताना नही होगा कि साहित्यकार का बाह्य और अन्तर दोनों एक सूत्र में गुंथे हुए नहीं होते। एक के प्रमाण से दूसरे पर विचार नहीं किया जा सकता। ऐसी विडम्बना भी होती है कि जब शरीर स्वस्थ दिखाई देता है, लेकिन मन एकदम दिवालिया हो जाता है। मस्तिष्क हो उठता है बिलकुल रेगिस्तान । उनको हिलाने-दुलाने से 'भाव' के बदले 'अभाव' की रसहीन धूल ही बाहर आना चाहती है। आजकल मेरी यही दुरवस्था हो रही है।"
कैफियत नाना प्रकार से दी जा सकती है, दी भी जाती थी। लेकिन सत्य यही है कि उनसे रचना प्राप्त करने के लिए सम्पादकों को बहुत बार आग्रह का ऋजुपथ छोड़कर दुराग्रह का कुटिल मार्ग ग्रहण करने को विवश होना पड़ता था। उस बार 'बिजली' के सम्पादक नलिनीकान्त सरकार ने पूजा के अंक के लिए समय से बहुत पहले एक रचना के लिए प्रार्थना की।
शरत ने कहा, “तुम्हारे पत्र में मैं निश्चय लिखूंगा।“
आश्वासन पाकर नलिनी बाबू धन्य हो गये। एक सप्ताह बाद वे फिर आए। उनके अतिथ्य में किसी प्रकार की कोई कमी नहीं हुई। बातों का भी कोई अन्त नहीं आया । संन्यासी दल की कथा, वेश्यालयों में रहने की कथा, यात्रा दल, गाना-बजाना, नाटक, अतीत के जीवन की न जाने कितनी कहानियां उन्होंने नलिनी बाबू को सुना डालीं। विदा के समय नलिनी ने पूछा, “दादा, मेरे लेख की बात तो याद है न । "
उत्तर दिया, “खूब याद है, तुम्हें एक लेख दूंगा।”
दिन बीते महीने बीते। नलिनी आते रहे। आतिथ्य, स्नेह, कथा-वार्ता सभी कुछ होता रहा, पर लेख नहीं लिखा जा सका तो नहीं ही लिखा जा सका। आखिर नाम देने का समय आ गया। उसी उत्साह मे शरत् बाबू ने कहा, “निश्चय ही लेख दूंगा । कहा है तो दूंगा। तब नाम देने में क्या?"
नाम भी छप गया, पर लेख कहीं नहीं था। अन्त में एक दिन निश्चित करना ही पड़ा। उस दिन आने पर नलिनी बाबू को जो कुछ मिला, वह यह पत्र था.
श्रीयुत 'बिजली' सम्पादक
परम कल्याणयेषु।
देश की अनेक समस्याओं की आलोचना तुम्हारे 'बिजली' पत्र में छपती है। मुझे भी बहुत कुछ देखने का सुयोग मिला है। सोचा था, इस अंक में उन्हीं के बारे में कुछ लिखूंगा। किन्तु शरीर इतना टूट गया है कि कुछ न लिख सका। भरोसा यही है कि न तो तुम्हारा पत्र बन्द होगा और न ही मैं मरूंगा । स्वस्थ होते ही लिखना शुरू करूंगा। वायदा पूरा न कर पाया, इसका दुःख है। उस पर तुम क्रोध करोगे तो दुःख और बढ़ जाएगा। अच्छी तरह जानता हूं वह तुम नहीं करोगे।
तुम्हारा,
श्री शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय
उस वर्ष के पूजा अंक में यही पत्र छपा। अगले वर्ष पूजा अंक के लिए फिर आग्रह की बारी आई। वही कहानी फिर दोहराई जाने लगी। आखिर फिर अन्तिम दिन निश्चय हो गया। उस दिन जाकर नलिनी बाबू ने देखा, घर में मेहमानों की भीड़ है। शरत् बाबू ने कहा, "देखते हो, इस भीड़ में कहीं लिखा जा सकता है!”
दो क्षण चुप रहने के बाद नलिनी बाबू बोले, “जानता था, लेख नहीं मिलेगा। लेकिन आज किसी और ही उद्देश्य से आया हूं दादा ।"
"वह क्या है?"
"दादा, 'बिजली' से जो मिलता है, उससे पेट नहीं भरता। छोटे-छोटे बच्चों को गाना सिखाकर कुछ रोजगार करता हूं। रामकृष्णपुर मैं सुना है, अमुक सज्जन को एक ऐसे ही मास्टर र्का आवश्यकता है। वे आपके पास आते है। आप उनसे कह देंगे तो काम हो जाएगा।"
लेख देने से इतनी सरलता से मुक्ति मिल जाएगी, यह कल्पना शायद शरत् बाबू ने नही खई थी। बहुत खुश हुए और जैसा कि उनका स्वभाव था, तुरन्त चलने के लिए तैयार हो गए। नलिनी बाबू टैक्सी ले आए, लेकिन वे तो चले ही जा रहे हैं। गंतव्य स्थान आकर भी चला गया है। टैक्सी क्खी ही नही । शरत् बाबू ने पूछ. “आखिर हम कहा जा रहे हैं?"
नलिनी बाबू ने उत्तर दिया, “दादा, मेरा मेस आ गया है। जब आ ही गया है तो चलिए, मेरे निवास स्थान पर चलिए। यह सौभाग्य मिला है तो चाय पीकर और कृतार्थ कीजिए। “
ऊपर जाकर सरकार महाशय ने शरत् बाबू को बड़े आदर के साथ एक कमरे में विठाया। चाय और खाने के लिए सामान लाने का आदेश दिया। आने पर उसी के साथ एक पैकेट सिगरेट, दियासलाई, राइटिंग पैड और फाउंटेन पेन भी उनके सामने रखे । चकित होकर शरत् बाबू ने पूछ “यह सब क्या है?"
सरकार महाशय ने शान्त भाव से उत्तर दिया, “दादा, चाय पीकर दया करके मेरा लेख लिख दीजिए। बिना लेख लिखे आपका छुटकारा नहीं हो सकता। इस कमरे का दरवाजा बन्द करके मैं पास के कमरे में रहूंगा। लेख पूरा होने पर मुझे पुकार लीजिए। दरवाजा खोल दूंगा।”
यह कहते हुए वे बाहर चले गए और दरवाजा बन्द कर दिया। जाते समय पाया कि विस्मय - विष्णु शरच्चन्द्र उनकी ओर देख रहे हैं। बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं था। चारों ओर शोर मच गया कि शरत्चन्द्र कमरे में बन्द होकर लेख लिख रहे हैं। तीन घंटे बाद दरवाजे पर आहट हुई। शरत्चन्द्र ने भीतर से पुकारा, मनलिनी, दरवाजा खोलो।”
दरवाजा खुला, हाथ में लेख लिए शरत्चन्द्र खडे थे। बोले, गझे धन्य हे लड़के। यह रहा तेरा लेख । "
लेख का नाम था 'कतिपय दिनों की भ्रमण कहानी।' कांग्रेस अधिवेशन में भाग लेने वे दिल्ली गए थे, उसी का यह रोचक यात्रा विवरण था, लेकिन अचरज यह कि उन्हें तनिक भी तो क्रोध नहीं आया। उड़ी तरह हंसते-हंसते नलिनी के साथ शिवपुर लौट गए।
यह सब ठीक है परन्तु क्या यह भी सत्य नहीं कि लिखने में दुतगति क्लर्क की योग्यता हो सकती है, लेखक की नहीं।
शरत् बाबू ने एक नई लेखिका को यही उपदेश दिया था।