shabd-logo

अध्याय 3: खोज और खोज

24 अगस्त 2023

45 बार देखा गया 45

वह अपने को निरीश्वरवादी कहकर प्रचारित करता था, लेकिन सारे व्यसनों और दुर्गुणों के बावजूद उसका मन वैरागी का मन था। वह बहुत पढ़ता था । समाज विज्ञान, यौन विज्ञान, भौतिक विज्ञान, दर्शन, कुछ भी तो नहीं छूटा था। मणीन्द्रकुमार मित्र के साथ पाश्चात्य दार्शनिकों को लेकर उसकी खूब चर्चा चलती थी। इसी दर्शन प्रेम के कारण वह स्थानीय रामकृष्ण मिशन के स्वामी रामकृष्णानन्द के सम्पर्क में आया। प्रारम्भ में वह वहां मिस्त्री पल्ली के निवासियों के साथ कीर्तन में भाग लेने के लिए जाया करता था। बाद में वह कभी-कभी उनके साथ ईश्वर-संबंधी चर्चा भी करने लगा। उस दिन उसने स्वामीजी से पूछा, “अच्छा, स्वामीजी आप ईश्वर को क्यों नहीं देख पाते?"

स्वामीजी बोले, “ठाकुर ने कहा है, समुद्र में रत्न हैं, यत्न करने की आवश्यकता है। संसार में ईश्वर है, साधना करनी चाहिए। काई से ढके तालाब के सामने खड़े होकर यदि जल लेना चाहो तो काई को हटाना होगा। इसी प्रकार माया से ढके हुए नेत्र लेकर ईश्वर के दर्शन नहीं हो सकते। सबसे पहले माया से मुक्त होना है।”

शरत् ने जिज्ञासा की, “माया क्या चीज़ है?”

स्वामीजी बोले, “विषय, वस्तु और कामिनी - कंचन में डूबे रहना ही माया है। इनके मोह को छिन्न-भिन्न करके सरलप्राण होकर पुकारने पर मन शुद्ध होगा। उसकी दया होगी।” शरतचन्द्र ने पूछा, “सुना जाता है वे मंगलमय हैं। ऐसा होने पर पृथ्वी पर इतना दुख क्यों है?"

स्वामीजी मुस्कराए, उत्तर दिया, “इस संसार में जिसको हम दुख कहते हैं वह तो वास्तविक दुख नहीं है। वह तो उसकी दीक्षा है। सुख पाते ही मनुष्य उसको भूल जाता है। व्यथा रूपी दुख पाने पर ही उसके मन में समझ आती है। दुख ही सबसे बढ़के इस पृथ्वी की प्रिय वस्तु है। नहीं तो उसको याद ही क्यों करोगे। उसकी महिमा की उपलब्धि का अवसर कैसे पाओगे?”

शरत् सहसा अनमना हो उठा। कई क्षण बाद बोला, “अच्छा, अदृष्ट दैव और पुरुषकार का अर्थ क्या है?”

स्वामीजी बोले, “पूर्व जन्म में अर्जित फल का नाम अदृष्ट है। अवश्य ही वर्तमान जीवन के कुछ अंशों का उसके साथ सम्बन्ध है, जिसको हम चलती भाषा में कर्म कहते हैं। दैव तथा पुरुषकार, दोनों एक ही हैं। एक को छोड़कर दूसरे की गति नहीं। इसलिए दैव की साधना में पुरुषकार आवश्यक है। इसी तरह पुरुषकार साधना में दैव या भगवत्कृपा आवश्यक है।" 

शरत् फिर मौन हो गया। कई क्षण बाद बोला, “गेरुवा वस्त्र बिना पहने क्या संन्यासी हुआ जा सकता है?"

स्वामीजी ने उत्तर दिया, "धर्म का सम्बन्ध मन से है। गेरुआ न पहनने पर भी मुक्त हुआ जा सकता है। मनुष्य मन से ही बन्धन में आता है। मन के कारण ही मुक्त होता है। इसलिए पहले मन चाहिए, बाद में बाहर की सहायता । मन यदि अच्छा है तो बाहर के गेरुए वस्त्र तुम्हारी सहायता करेंगे। नहीं तो ढोंग की ही सृष्टि होगी।" 1

इसी प्रकार यह विचार विनिमय दिन पर दिन चलता रहता था और सब व्यसनों के बावजूद उसका वैरागी मन चुपचाप सच्चे ईश्वर की खोज की ओर उन्मुख होता आ रहा था। सहसा तभी रंगून में प्लेग फूट पड़ी। मित्र महोदय के घर भी चूहे मरने लगे। वह भय से कांप उठे और तुरन्त वह घर छोड़कर शहर से दूर एक छोटे से घर में रहने चले गये । शरत् उनके साथ नहीं जा सका। वह दफ्तर के बाबुओं के मेस में जाकर रहने लगा।

प्लेग का यह आक्रमण इतना भयानक था कि हर व्यक्ति किसी दूसरे की चिन्ता किए बिना भाग खड़ा हुआ। रोगी अकेल तड़प-तड़प कर समाप्त होने लगे। शरत् असहाय लोगों की सहायता करने में सदा आगे रहता आया था। यहां भी आगे रहा। जहां 'पिलेग' शब्द सुनकर बड़े से बड़ा साहसी भी अपने प्रिय से प्रिय जन को छोड़ देता था, वहां शरत् एक अजनबी के पास भी पहुंच जाता था। औषधि आदि खरीद देने तक में उसे संकोच नहीं होता था। राजू की पाठशाला में मानवीय करुणा का जो पाठ उसने पढ़ा था, उसे वह कभी भूल नहीं सका।

न जाने कैसे-कैसे अनुभव उसे हुए और वर्षों बाद ये ही अनुभव चित्र प्रस्फुटित हुए 'श्रीकान्त' में। अचानक एक दिन उसे भी बुखार हो आया। उसका साथी पहले ही रोगग्रस्त हो चुका था। बहुत देर तक दोनों एक दूसरे के सिर पर आइस बैग रखते रहे, लेकिन साथी की अवस्था निरन्तर बिगड़ती जा रही थी । बीच-बीच में उसे होश आ जाता था। अपना अन्त निकट जानकर उसने शरत् से कहा, "मेरे ट्रंक में कुछ गिन्नियां हैं, वे मेरी पत्नी को भेज देना।”

शरत् को विश्वास था कि मेस के दूसरे लोग उनकी सहायता करेंगे, लेकिन कोई नहीं आया। डरते-डरते उसने बराबर के कमरे में झांका, पाया कि दो व्यक्ति तकिये पर सिर रखे सोए पड़े हैं। लेकिन वह नींद हज़ार चिल्लाने पर भी अब टूटने वाली नहीं थी। लौटकर अपने साथी को देखा तो वह छटपटा रहा था। दो क्षण बाद वह भी सो गया। यह सोना भी वैसे ही था, जिसमें जागा नहीं जाता।

उस रात उसे नींद नहीं आई। दूसरे दिन पुलिस को बुलाने, तार देने और शवदाह की व्यवस्था करने में संध्या हो गई । तबियत अब भी बहुत साफ नहीं थी, लेकिन जाये तो कहां जाये? सौभाग्य से उसका बुखार प्लेग का बुखार नहीं निकला। कुछ दिन बाद वह ठीक हो गया। लेकिन ये दिन उसने कैसे और कहां बिताये, कोई भी ठीक-ठीक नहीं जानता ।

जहां निम्न वर्ग के लोग रहते थे, बीच-बीच में वह वहीं मिस्त्री पल्ली में जाकर रहता था। उसके अन्तर का हीन भाव उसे सभ्य समाज से दूर इन तथाकथित छोटे लोगों के बीच में ही आनन्द देता था। देश में वह जाति - बहिष्कृत था। उसके रिश्तेदार उसे अपनाने से हिचकते थे। भद्र लोगों की दृष्टि में वह चरित्रहीन था। यहां भी उच्च वर्ग के बंगाली उससे नफरत करते थे। वे मानते थे कि ऐसे लोगों से कोई वास्ता नहीं रखना चाहिए, जो अधार्मिकता और अधःपतन की ओर ले जाते हों । निश्चय ही उसके अन्तर में उनसे बदला लेने की भावना जाग उठी थी। इसीलिए वह निम्न वर्ग के लोगों को और भी अधिक प्यार करने लगा था।

उसकी इस प्रवृत्ति से अध्ययन और लिखने की रुचि को बहुत बल मिला। दफ्तर के बाद वह चुपचाप वहा की सुप्रसिद्ध बनार्ड लाइब्रेरी के एक कोने में जाकर बैठ जाता और पढ़ता रहता। उस पर किसी तरह की कोई पाबंदी नहीं थी । किस अलमारी में, कौन-सी किताब, कहां रखी है; वह यह जानता था। एक-एक पुस्तक उसने पढ़ डाली थी। एक-एक पुस्तक को वह इस तरह प्यार करता था मानो वह उसकी अन्तरंग मित्र हो । इन दिनों तास्ताय उसका प्रिय लेखक था। विशेषकर 'अन्नाकेरिनिना' और 'रिज़रेक्शन' का प्रणेता होने के कारण। 'अन्नाकेरिनिना' तो उसने पचास बार पढ़ी थी। इस साधना की छाप उसके साहित्य पर स्पष्ट देखी जा सकती है। 'नारी का मूल्य', 'नारी का इतिहास', इनकी सामग्री उसने यहीं से एकत्रित की थी।

जब वह सदा के लिए कलकत्ता जा रहा था तब उसने कहा था, “मैं इस लायब्रेरी के कारण ही रंगून छोड़ना नहीं चाहता । कलकत्ता की इम्पीरियल लायब्रेरी में इतनी स्वतंत्रता कहां मिलेगी?”

'अधिकार' में जो कवि है उसके बारे में सव्यसाची कहता है, 'तुम लोग कोई उसे पहचानती नही, भारती, उस जैसा वास्तविक गुणी आदमी सहसा कहीं ढूंढ़े नहीं मिल सकता। अपने टूटे बेहाला मात्र की पूंजी से ऐसी कोई जगह नहीं, जहां वह न गया हो । इसके सिवा बड़ा भारी विद्वान है वह कहां किस पुरतक में क्या लिखा है, उसके सिवा हम लोगों में और कोई आदमी ऐसा नहीं जो बता सकता हो।"

शरत् को भी कौन पहचानता था!

इन्हीं दिनों वह 'चरित्रहीन' लिख रहा था । यद्यपि उसका आरम्भ भारत में ही हो चुका था, लेकिन मेस जीवन की अभिज्ञता उसे यहीं प्राप्त हुई । 'चरित्रहीन' का नायक सतीश मेस में ही रहता है। दिन-भर के काम के बाद जब रात को लालटेन जलाकर वह लिखने बैठता तो उसके संगी-साथी बहुत चिढ़ते । चिल्ला-चिल्लाकर कहते, "देखो, देखो, यह बनेंगे लेखक। आधी रात में लालटेन जलाकर बैठे हैं। उहूं, पचास रुपल्ली के क्लर्क और ख्वाब देखते हैं लेखक बनने के। यह मुंह और मसूर की दाल।”

और वे ठहाका मारकर हंस पड़तें । लालटेन बुझा देते। कभी-कभी बकाबकी भी हो जाती। यह सब देखकर एक दिन उसने स्थायी रूप से मिस्त्री पल्ली में जाकर रहने का निश्चय कर लिया। वह स्थान शहर से दो मील दूर 'बोटाटांग पोजान डंग' रोड पर था। धान, काठ, डॉकयार्ड और ढलाई के कारखाने के अनेक बंगाली मिस्त्री वहां रहते थे। उसका मकान सड़क के किनारे पर ही था। उस पार विस्तृत मैदान फैला पड़ा था। जहां उसका अन्त होता था वहां से आरम्भ होती थी अर्द्धचन्द्राकार पोजान डंग की खाड़ी। यह दृश्य बहुत ही सुन्दर था। बालकनी में खड़े होकर देर तक वह उस दृश्य में डूबा रहता ।

यहां आने पर मित्र मंडली से उसका सम्बन्ध बहुत कम हो गया। जो बहुत अंतरंग थे वे ही यहां आ पाते थे, नहीं तो मिस्त्री पल्ली के कारीगर ही उसके साथी थे। वे आपस में खूब लड़ते-झगड्ते और शरत् को उनका पंच बनना पड़ता । छुट्टी के लिए प्रार्थना-पत्र, घर भेजने के लिए चिट्ठी और मनीआर्डर, सब लिखना जैसे उसका नियम हो गया था। जब वे लोग बीमार हो जाते तो वह होम्योपैथ दवाओं का बैग उठाकर घर-घर उनकी परिचर्या करता फिरता ।

लेकिन अभी यहां रहते हुए कुछ ही दिन बीते थे कि उसका मित्र बंगचन्द्र दे बीमार हो गया। बहुत समय तक शरत् उसके साथ मेस में रहता रहा था। वह उसके उन कुछ मित्रों में से था, जिन्हें वह केवल प्यार ही कर सकता था। वह पूर्वी बंगाल का रहने वाला एक उच्च शिक्षाप्राप्त और अध्ययनशील व्यक्ति था । अंग्रेज़ी पत्रों में उसके लेख छपते थे, लेकिन ज्ञान की प्यास उसकी जितनी अनन्त थी, शरीर की प्यास भी उतनी ही उग्र थी। जितनी मुक्तता से वह हास-परिहास में रस लेता था, उतनी ही मुक्तता से शराब भी पीता था। दोनों प्रकार इन समान गुणों के कारण उन दोनों में गहरी प्रीति हो गई थी।

शरत् बंगचन्द्र को देहाती बंगाली कहकर चिढ़ाता और तब बंगचन्द्र खूब बकाबकी करता। बंगचन्द्र नवीनचन्द्र का परमभक्त था और शरत् उपासक था कविगुरु रवीन्द्रनाथ का। दोनों की कविताओं को लेकर उनके वाद विवाद का अन्त ही नहीं आता था। लेकिन जब शरत् तर्क न करके कविगुरु की यह कविता पढ़ता - "तोमार कथा हेथा केहो तो बॅले ना करे शुधू मिछे कोलाहल सुधा सागरेर तीरेते बसिया, पान करे शुधू हलाहल । “ तो बंगचन्द्र मौन हो जाता।

पूर्व और पश्चिम बंगाल की प्रतिस्पर्धा सर्वविदित है, लेकिन इसी कारण उन दोनों में कभी एक क्षण के लिए भी मनमुटाव नहीं हुआ। बकाबकी, हास-परिहास, पीना - पिलाना और गहन दार्शनिक विषयों पर वाद-विवाद सब एक साथ और समान रूप से चलता था। बंगचन्द्र ने शरत् की प्रतिभा को पहचान लिया था और शरत् बंगचन्द्र के ज्ञान से प्रभावित था, परन्तु उनकी अटूट मित्रता का कारण थी उनकी निविड़ मानवता ।

इसलिए बंगचन्द्र की बीमारी का समाचार पाकर शरत् तुरन्त मेस पहुंचा। रोग सचमुच सांघातिक था। आस-पास के सभी बन्धु बान्धव उसे छोड़कर चले गये थे, लेकिन शरत् ने जी-जान से उसकी सेवा की। वह ज़रा स्वस्थ हुआ तो अपने घर ले आया। अकेला था, उसके लिए दवा लाता, पानी गर्म करके सिकाई करता, साबूदाना बनाकर खिलाता और इस सबके बीच में हास-परिहास तथा बकाबकी का क्रम भी अबाध गति से चलता रहता । परन्तु इतना कुछ करके भी वह अपने मित्र के प्राण नहीं बचा सका । एक दिन उसकी गोद में सिर रखकर बंगचन्द्र दे ने उसकी ओर देखते हुए सदा के लिए अपने नेत्र मूंद लिए। अपने इस प्रिय मित्र की मृत्यु से शरत् बहुत दुखी हुआ। उस दिन उसके हृदय पर एक बार फिर मर्मान्तक चोट लगी। समाप्त हो गया हास-परिहास और गाना बजाना । रह गया केवल एकाकीपन, चिन्तन और साहित्य-सृजन । वैरागी मन और वैरागी हो उठा।

68
रचनाएँ
आवारा मसीहा
5.0
मूल हिंदी में प्रकाशन के समय से 'आवारा मसीहा' तथा उसके लेखक विष्णु प्रभाकर न केवल अनेक पुरस्कारों तथा सम्मानों से विभूषित किए जा चुके हैं, अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद प्रकाशित हो चुका है और हो रहा है। 'सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार' तथा ' पाब्लो नेरुदा सम्मान' के अतिरिक्त बंग साहित्य सम्मेलन तथा कलकत्ता की शरत समिति द्वारा प्रदत्त 'शरत मेडल', उ. प्र. हिंदी संस्थान, महाराष्ट्र तथा हरियाणा की साहित्य अकादमियों और अन्य संस्थाओं द्वारा उन्हें हार्दिक सम्मान प्राप्त हुए हैं। अंग्रेजी, बांग्ला, मलयालम, पंजाबी, सिन्धी , और उर्दू में इसके अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं तथा तेलुगु, गुजराती आदि भाषाओं में प्रकाशित हो रहे हैं। शरतचंद्र भारत के सर्वप्रिय उपन्यासकार थे जिनका साहित्य भाषा की सभी सीमाएं लांघकर सच्चे मायनों में अखिल भारतीय हो गया। उन्हें बंगाल में जितनी ख्याति और लोकप्रियता मिली, उतनी ही हिंदी में तथा गुजराती, मलयालम तथा अन्य भाषाओं में भी मिली। उनकी रचनाएं तथा रचनाओं के पात्र देश-भर की जनता के मानो जीवन के अंग बन गए। इन रचनाओं तथा पात्रों की विशिष्टता के कारण लेखक के अपने जीवन में भी पाठक की अपार रुचि उत्पन्न हुई परंतु अब तक कोई भी ऐसी सर्वांगसंपूर्ण कृति नहीं आई थी जो इस विषय पर सही और अधिकृत प्रकाश डाल सके। इस पुस्तक में शरत के जीवन से संबंधित अंतरंग और दुर्लभ चित्रों के सोलह पृष्ठ भी हैं जिनसे इसकी उपयोगिता और भी बढ़ गई है। बांग्ला में यद्यपि शरत के जीवन पर, उसके विभिन्न पक्षों पर बीसियों छोटी-बड़ी कृतियां प्रकाशित हुईं, परंतु ऐसी समग्र रचना कोई भी प्रकाशित नहीं हुई थी। यह गौरव पहली बार हिंदी में लिखी इस कृति को प्राप्त हुआ है।
1

भूमिका

21 अगस्त 2023
58
2
0

संस्करण सन् 1999 की ‘आवारा मसीहा’ का प्रथम संस्करण मार्च 1974 में प्रकाशित हुआ था । पच्चीस वर्ष बीत गए हैं इस बात को । इन वर्षों में इसके अनेक संस्करण हो चुके हैं। जब पहला संस्करण हुआ तो मैं मन ही म

2

भूमिका : पहले संस्करण की

21 अगस्त 2023
25
0
0

कभी सोचा भी न था एक दिन मुझे अपराजेय कथाशिल्पी शरत्चन्द्र की जीवनी लिखनी पड़ेगी। यह मेरा विषय नहीं था। लेकिन अचानक एक ऐसे क्षेत्र से यह प्रस्ताव मेरे पास आया कि स्वीकार करने को बाध्य होना पड़ा। हिन्दी

3

तीसरे संस्करण की भूमिका

21 अगस्त 2023
14
0
0

लगभग साढ़े तीन वर्ष में 'आवारा मसीहा' के दो संस्करण समाप्त हो गए - यह तथ्य शरद बाबू के प्रति हिन्दी भाषाभाषी जनता की आस्था का ही परिचायक है, विशेष रूप से इसलिए कि आज के महंगाई के युग में पैंतालीस या,

4

" प्रथम पर्व : दिशाहारा " अध्याय 1 : विदा का दर्द

21 अगस्त 2023
14
0
0

किसी कारण स्कूल की आधी छुट्टी हो गई थी। घर लौटकर गांगुलियो के नवासे शरत् ने अपने मामा सुरेन्द्र से कहा, "चलो पुराने बाग में घूम आएं। " उस समय खूब गर्मी पड़ रही थी, फूल-फल का कहीं पता नहीं था। लेकिन घ

5

अध्याय 2: भागलपुर में कठोर अनुशासन

21 अगस्त 2023
10
0
0

भागलपुर आने पर शरत् को दुर्गाचरण एम० ई० स्कूल की छात्रवृत्ति क्लास में भर्ती कर दिया गया। नाना स्कूल के मंत्री थे, इसलिए बालक की शिक्षा-दीक्षा कहां तक हुई है, इसकी किसी ने खोज-खबर नहीं ली। अब तक उसने

6

अध्याय 3: राजू उर्फ इन्दरनाथ से परिचय

21 अगस्त 2023
8
0
0

नाना के इस परिवार में शरत् के लिए अधिक दिन रहना सम्भव नहीं हो सका। उसके पिता न केवल स्वप्नदर्शी थे, बल्कि उनमें कई और दोष थे। वे हुक्का पीते थे, और बड़े होकर बच्चों के साथ बराबरी का व्यवहार करते थे।

7

अध्याय 4: वंश का गौरव

22 अगस्त 2023
8
0
0

मोतीलाल चट्टोपाध्याय चौबीस परगना जिले में कांचड़ापाड़ा के पास मामूदपुर के रहनेवाले थे। उनके पिता बैकुंठनाथ चट्टोपाध्याय सम्भ्रान्त राढ़ी ब्राह्मण परिवार के एक स्वाधीनचेता और निर्भीक व्यक्ति थे। और वह

8

अध्याय 5: होनहार बिरवान .......

22 अगस्त 2023
5
0
0

शरत् जब पांच वर्ष का हुआ तो उसे बाकायदा प्यारी (बन्दोपाध्याय) पण्डित की पाठशाला में भर्ती कर दिया गया, लेकिन वह शब्दश: शरारती था। प्रतिदिन कोई न कोई काण्ड करके ही लौटता। जैसे-जैसे वह बड़ा होता गया उस

9

अध्याय 6: रोबिनहुड

22 अगस्त 2023
5
0
0

तीन वर्ष नाना के घर में भागलपुर रहने के बाद अब उसे फिर देवानन्दपुर लौटना पड़ा। बार-बार स्थान-परिवर्तन के कारण पढ़ने-लिखने में बड़ा व्याघात होता था। आवारगी भी बढ़ती थी, लेकिन अनुभव भी कम नहीं होते थे।

10

अध्याय 7: अच्छे विद्यार्थी से कथा - विद्या - विशारद तक

22 अगस्त 2023
6
0
0

शरत् जब भागलपुर लौटा तो उसके पुराने संगी-साथी प्रवेशिका परीक्षा पास कर चुके थे। 2 और उसके लिए स्कूल में प्रवेश पाना भी कठिन था। देवानन्दपुर के स्कूल से ट्रांसफर सर्टिफिकेट लाने के लिए उसके पास पैसे न

11

अध्याय 8: एक प्रेमप्लावित आत्मा

22 अगस्त 2023
6
0
0

इन दुस्साहसिक कार्यों और साहित्य-सृजन के बीच प्रवेशिका परीक्षा का परिणाम - कभी का निकल चुका था और सब बाधाओं के बावजूद वह द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया था। अब उसे कालेज में प्रवेश करना था। परन्तु

12

अध्याय 9: वह युग

22 अगस्त 2023
6
0
0

जिस समय शरत्चन्द का जन्म हुआ क वह चहुंमुखी जागृति और प्रगति का का था। सन् 1857 के स्वाधीनता संग्राम की असफलता और सरकार के तीव्र दमन के कारण कुछ दिन शिथिलता अवश्य दिखाई दी थी, परन्तु वह तूफान से पूर्व

13

अध्याय 10: नाना परिवार का विद्रोह

22 अगस्त 2023
6
0
0

शरत जब दूसरी बार भागलपुर लौटा तो यह दलबन्दी चरम सीमा पर थी। कट्टरपन्थी लोगों के विरोध में जो दल सामने आया उसके नेता थे राजा शिवचन्द्र बन्दोपाध्याय बहादुर । दरिद्र घर में जन्म लेकर भी उन्होंने तीक्ष्ण

14

अध्याय 11: ' शरत को घर में मत आने दो'

22 अगस्त 2023
5
0
0

उस वर्ष वह परीक्षा में भी नहीं बैठ सका था। जो विद्यार्थी टेस्ट परीक्षा में उत्तीर्ण होते थे उन्हीं को अनुमति दी जाती थी। इसी परीक्षा के अवसर पर एक अप्रीतिकर घटना घट गई। जैसाकि उसके साथ सदा होता था, इ

15

अध्याय 12: राजू उर्फ इन्द्रनाथ की याद

22 अगस्त 2023
5
0
0

इसी समय सहसा एक दिन - पता लगा कि राजू कहीं चला गया है। फिर वह कभी नहीं लौटा। बहुत वर्ष बाद श्रीकान्त के रचियता ने लिखा, “जानता नहीं कि वह आज जीवित है या नहीं। क्योंकि वर्षों पहले एक दिन वह बड़े सुबह

16

अध्याय 13: सृजिन का युग

22 अगस्त 2023
5
0
0

इधर शरत् इन प्रवृत्तियों को लेकर व्यस्त था, उधर पिता की यायावर वृत्ति सीमा का उल्लंघन करती जा रही थी। घर में तीन और बच्चे थे। उनके पेट के लिए अन्न और शरीर के लिए वस्त्र की जरूरत थी, परन्तु इस सबके लि

17

अध्याय 14: 'आलो' और ' छाया'

22 अगस्त 2023
5
0
0

इसी समय निरुपमा की अंतरंग सखी, सुप्रसिद्ध भूदेव मुखर्जी की पोती, अनुपमा के रिश्ते का भाई सौरीन्द्रनाथ मुखोपाध्याय भागलपुर पढ़ने के लिए आया। वह विभूति का सहपाठी था। दोनों में खूब स्नेह था। अक्सर आना-ज

18

अध्याय 15 : प्रेम के अपार भूक

22 अगस्त 2023
4
1
0

एक समय होता है जब मनुष्य की आशाएं, आकांक्षाएं और अभीप्साएं मूर्त रूप लेना शुरू करती हैं। यदि बाधाएं मार्ग रोकती हैं तो अभिव्यक्ति के लिए वह कोई और मार्ग ढूंढ लेता है। ऐसी ही स्थिति में शरत् का जीवन च

19

अध्याय 16: निरूद्देश्य यात्रा

22 अगस्त 2023
6
0
0

गृहस्थी से शरत् का कभी लगाव नहीं रहा। जब नौकरी करता था तब भी नहीं, अब छोड़ दी तो अब भी नहीं। संसार के इस कुत्सित रूप से मुंह मोड़कर वह काल्पनिक संसार में जीना चाहता था। इस दुर्दान्त निर्धनता में भी उ

20

अध्याय 17: जीवनमन्थन से निकला विष

24 अगस्त 2023
6
0
0

घूमते-घूमते श्रीकान्त की तरह एक दिन उसने पाया कि आम के बाग में धुंआ निकल रहा है, तुरन्त वहां पहुंचा। देखा अच्छा-खासा सन्यासी का आश्रम है। प्रकाण्ड धूनी जल रही हे। लोटे में चाय का पानी चढ़ा हुआ है। एक

21

अध्याय 18: बंधुहीन, लक्ष्यहीन प्रवास की ओर

24 अगस्त 2023
5
0
0

इस जीवन का अन्त न जाने कहा जाकर होता कि अचानक भागलपुर से एक तार आया। लिखा था—तुम्हारे पिता की मुत्यु हो गई है। जल्दी आओ। जिस समय उसने भागलपुर छोड़ा था घर की हालत अच्छी नहीं थी। उसके आने के बाद स्थित

22

" द्वितीय पर्व : दिशा की खोज" अध्याय 1: एक और स्वप्रभंग

24 अगस्त 2023
5
0
0

श्रीकान्त की तरह जिस समय एक लोहे का छोटा-सा ट्रंक और एक पतला-सा बिस्तर लेकर शरत् जहाज़ पर पहुंचा तो पाया कि चारों ओर मनुष्य ही मनुष्य बिखरे पड़े हैं। बड़ी-बड़ी गठरियां लिए स्त्री बच्चों के हाथ पकड़े व

23

अध्याय 2: सभ्य समाज से जोड़ने वाला गुण

24 अगस्त 2023
5
0
0

वहां से हटकर वह कई व्यक्तियों के पास रहा। कई स्थानों पर घूमा। कई प्रकार के अनुभव प्राप्त किये। जैसे एक बार फिर वह दिशाहारा हो उठा हो । आज रंगून में दिखाई देता तो कल पेगू या उत्तरी बर्मा भाग जाता। पौं

24

अध्याय 3: खोज और खोज

24 अगस्त 2023
5
0
0

वह अपने को निरीश्वरवादी कहकर प्रचारित करता था, लेकिन सारे व्यसनों और दुर्गुणों के बावजूद उसका मन वैरागी का मन था। वह बहुत पढ़ता था । समाज विज्ञान, यौन विज्ञान, भौतिक विज्ञान, दर्शन, कुछ भी तो नहीं छू

25

अध्याय 4: वह अल्पकालिक दाम्पत्य जीवन

24 अगस्त 2023
5
0
0

एक दिन क्या हुआ, सदा की तरह वह रात को देर से लौटा और दरवाज़ा खोलने के लिए धक्का दिया तो पाया कि भीतर से बन्द है । उसे आश्चर्य हुआ, अन्दर कौन हो सकता है । कोई चोर तो नहीं आ गया। उसने फिर ज़ोर से धक्का

26

अध्याय 5: चित्रांगन

24 अगस्त 2023
5
0
0

शरत् ने बहुमुखी प्रतिभा के धनी रवीन्द्रनाथ के समान न केवल साहित्य में बल्कि संगीत और चित्रकला में भी रुचि ली थी । यद्यपि इन क्षेत्रों में उसकी कोई उपलब्धि नहीं है, पर इस बात के प्रमाण अवश्य उपलब्ध है

27

अध्याय 6: इतनी सुंदर रचना किसने की ?

24 अगस्त 2023
6
0
0

रंगून जाने से पहले शरत् अपनी सब रचनाएं अपने मित्रों के पास छोड़ गया था। उनमें उसकी एक लम्बी कहानी 'बड़ी दीदी' थी। वह सुरेन्द्रनाथ के पास थी। जाते समय वह कह गया था, “छपने की आवश्यकता नहीं। लेकिन छापना

28

अध्याय 7: प्रेरणा के स्रोत

24 अगस्त 2023
4
0
0

एक ओर अंतरंग मित्रों के साथ यह साहित्य - चर्चा चलती थी तो दूसरी और सर्वहारा वर्ग के जीवन में गहरे पैठकर वह व्यक्तिगत अभिज्ञता प्राप्त कर रहा था। इन्ही में से उसने अपने अनेक पात्रों को खोजा था। जब वह

29

अध्याय 8: मोक्षदा से हिरण्मयी

24 अगस्त 2023
3
0
0

शांति की मृत्यु के बाद शरत् ने फिर विवाह करने का विचार नहीं किया। आयु काफी हो चुकी थी । यौवन आपदाओं-विपदाओं के चक्रव्यूह में फंसकर प्रायः नष्ट हो गया था। दिन-भर दफ्तर में काम करता था, घर लौटकर चित्र

30

अध्याय 9: गृहदाद

24 अगस्त 2023
3
0
0

'चरित्रहीन' प्रायः समाप्ति पर था। 'नारी का इतिहास प्रबन्ध भी पूरा हो चुका था। पहली बार उसके मन में एक विचार उठा- क्यों न इन्हें प्रकाशित किया जाए। भागलपुर के मित्रों की पुस्तकें भी तो छप रही हैं। उनस

31

अध्याय 10: हाँ , अब फिर लिखूंगा

24 अगस्त 2023
3
0
0

गृहदाह के बाद वह कलकत्ता आया । साथ में पत्नी थी और था उसका प्यारा कुत्ता। अब वह कुत्ता लिए कलकत्ता की सड़कों पर प्रकट रूप में घूमता था । छोटी दाढ़ी, सिर पर अस्त-व्यस्त बाल, मोटी धोती, पैरों में चट्टी

32

अध्याय 11: रामेर सुमित शरतेर सुमित

24 अगस्त 2023
3
0
0

रंगून लौटकर शरत् ने एक कहानी लिखनी शुरू की। लेकिन योगेन्द्रनाथ सरकार को छोड़कर और कोई इस रहस्य को नहीं जान सका । जितनी लिख लेता प्रतिदिन दफ्तर जाकर वह उसे उन्हें सुनाता और वह सब काम छोड़कर उसे सुनते।

33

अध्याय 12: सृजन का आवेग

24 अगस्त 2023
3
0
0

‘रामेर सुमति' के बाद उसने 'पथ निर्देश' लिखना शुरू किया। पहले की तरह प्रतिदिन जितना लिखता जाता उतना ही दफ्तर में जाकर योगेन्द्रनाथ को पढ़ने के लिए दे देता। यह काम प्राय: दा ठाकुर की चाय की दुकान पर हो

34

अध्याय 13: चरितहीन क्रिएटिंग अलामिर्ग सेंसेशन

25 अगस्त 2023
2
0
0

छोटी रचनाओं के साथ-साथ 'चरित्रहीन' का सृजन बराबर चल रहा था और उसके प्रकाशन को 'लेकर काफी हलचल मच गई थी। 'यमुना के संपादक फणीन्द्रनाथ चिन्तित थे कि 'चरित्रहीन' कहीं 'भारतवर्ष' में प्रकाशित न होने लगे।

35

अध्याय 14: ' भारतवर्ष' में ' दिराज बहू '

25 अगस्त 2023
3
0
0

द्विजेन्द्रलाल राय शरत् के बड़े प्रशंसक थे। और वह भी अपनी हर रचना के बारे में उनकी राय को अन्तिम मानता था, लेकिन उन दिनों वे काव्य में व्यभिचार के विरुद्ध आन्दोलन कर रहे थे। इसलिए 'चरित्रहीन' को स्वी

36

अध्याय 15 : विजयी राजकुमार

25 अगस्त 2023
2
0
0

अगले वर्ष जब वह छः महीने की छुट्टी लेकर कलकत्ता आया तो वह आना ऐसा ही था जैसे किसी विजयी राजकुमार का लौटना उसके प्रशंसक और निन्दक दोनों की कोई सीमा नहीं थी। लेकिन इस बार भी वह किसी मित्र के पास नहीं ठ

37

अध्याय 16: नये- नये परिचय

25 अगस्त 2023
2
0
0

' यमुना' कार्यालय में जो साहित्यिक बैठकें हुआ करती थीं, उन्हीं में उसका उस युग के अनेक साहित्यिकों से परिचय हुआ उनमें एक थे हेमेन्द्रकुमार राय वे यमुना के सम्पादक फणीन्द्रनाथ पाल की सहायता करते थे। ए

38

अध्याय 17: ' देहाती समाज ' और आवारा श्रीकांत

25 अगस्त 2023
2
0
0

अचानक तार आ जाने के कारण शरत् को छुट्टी समाप्त होने से पहले ही और अकेले ही रंगून लौट जाना पड़ा। ऐसा लगता है कि आते ही उसने अपनी प्रसिद्ध रचना पल्ली समाज' पर काम करना शरू कर दिया था, लेकिन गृहिणी के न

39

अध्याय 18: दिशा की खोज समाप्त

25 अगस्त 2023
2
0
0

वह अब भी रंगून में नौकरी कर रहा था, लेकिन उसका मन वहां नहीं था । दफ्तर के बंधे-बंधाए नियमो के साथ स्वाधीन मनोवृत्ति का कोई मेल नही बैठता था। कलकत्ता से हरिदास चट्टोपाध्याय उसे बराबर नौकरी छोड़ देने क

40

" तृतीय पर्व: दिशान्त " अध्याय 1: ' वह' से ' वे '

25 अगस्त 2023
2
0
0

जिस समय शरत् ने कलकत्ता छोडकर रंगून की राह ली थी, उस समय वह तिरस्कृत, उपेक्षित और असहाय था। लेकिन अब जब वह तेरह वर्ष बाद कलकत्ता लौटा तो ख्यातनामा कथाशिल्पी के रूप में प्रसिद्ध हो चुका था। वह अब 'वह'

41

अध्याय 2: सृजन का स्वर्ण युग

25 अगस्त 2023
2
0
0

शरतचन्द्र के जीवन का स्वर्णयुग जैसे अब आ गया था। देखते-देखते उनकी रचनाएं बंगाल पर छा गई। एक के बाद एक श्रीकान्त" ! (प्रथम पर्व), 'देवदास' 2', 'निष्कृति" 3, चरित्रहीन' और 'काशीनाथ' पुस्तक रूप में प्रक

42

अध्याय 3: आवारा श्रीकांत का ऐश्वर्य

25 अगस्त 2023
2
0
0

'चरित्रहीन' के प्रकाशन के अगले वर्ष उनकी तीन और श्रेष्ठ रचनाएं पाठकों के हाथों में थीं-स्वामी(गल्पसंग्रह - एकादश वैरागी सहित) - दत्ता 2 और श्रीकान्त ( द्वितीय पर्वों 31 उनकी रचनाओं ने जनता को ही इस प

43

अध्याय 4: देश के मुक्ति का व्रत

25 अगस्त 2023
2
0
0

जिस समय शरत्चन्द्र लोकप्रियता की चरम सीमा पर थे, उसी समय उनके जीवन में एक और क्रांति का उदय हुआ । समूचा देश एक नयी करवट ले रहा था । राजनीतिक क्षितिज पर तेजी के साथ नयी परिस्थितियां पैदा हो रही थीं। ब

44

अध्याय 5: स्वाधीनता का रक्तकमल

26 अगस्त 2023
2
0
0

चर्खे में उनका विश्वास हो या न हो, प्रारम्भ में असहयोग में उनका पूर्ण विश्वास था । देशबन्धू के निवासस्थान पर एक दिन उन्होंने गांधीजी से कहा था, "महात्माजी, आपने असहयोग रूपी एक अभेद्य अस्त्र का आविष्क

45

अध्याय 6: निष्कम्प दीपशिखा

26 अगस्त 2023
2
1
0

उस दिन जलधर दादा मिलने आए थे। देखा शरत्चन्द्र मनोयोगपूर्वक कुछ लिख रहे हैं। मुख पर प्रसन्नता है, आखें दीप्त हैं, कलम तीव्र गति से चल रही है। पास ही रखी हुई गुड़गुड़ी की ओर उनका ध्यान नहीं है। चिलम की

46

अध्याय 7: समाने समाने होय प्रणयेर विनिमय

26 अगस्त 2023
2
0
0

शरत्चन्द्र इस समय आकण्ठ राजनीति में डूबे हुए थे। साहित्य और परिवार की ओर उनका ध्यान नहीं था। उनकी पत्नी और उनके सभी मित्र इस बात से बहुत दुखी थे। क्या हुआ उस शरतचन्द्र का जो साहित्य का साधक था, जो अड

47

अध्याय 8: राजनीतिज्ञ अभिज्ञता का साहित्य

26 अगस्त 2023
2
0
0

शरतचन्द्र कभी नियमित होकर नहीं लिख सके। उनसे लिखाया जाता था। पत्र- पत्रिकाओं के सम्पादक घर पर आकर बार-बार धरना देते थे। बार-बार आग्रह करने के लिए आते थे। भारतवर्ष' के सम्पादक रायबहादुर जलधर सेन आते,

48

अध्याय 9: लिखने का दर्द

26 अगस्त 2023
2
0
0

अपनी रचनाओं के कारण शरत् बाबू विद्यार्थियों में विशेष रूप से लोकप्रिय थे। लेकिन विश्वविद्यालय और कालेजों से उनका संबंध अभी भी घनिष्ठ नहीं हुआ था। उस दिन अचानक प्रेजिडेन्सी कालेज की बंगला साहित्य सभा

49

अध्याय 10: समिष्ट के बीच

26 अगस्त 2023
2
0
0

किसी पत्रिका का सम्पादन करने की चाह किसी न किसी रूप में उनके अन्तर में बराबर बनी रही। बचपन में भी यह खेल वे खेल चुके थे, परन्तु इस क्षेत्र में यमुना से अधिक सफलता उन्हें कभी नहीं मिली। अपने मित्र निर

50

अध्याय 11: आवारा जीवन की ललक

26 अगस्त 2023
2
0
0

राजनीतिक क्षेत्र में इस समय अपेक्षाकृत शान्ति थी । सविनय अवज्ञा आन्दोलन जैसा उत्साह अब शेष नहीं रहा था। लेकिन गांव का संगठन करने और चन्दा इकट्ठा करने में अभी भी वे रुचि ले रहे थे। देशबन्धु का यश ओर प

51

अध्याय 12: ' हमने ही तोह उन्हें समाप्त कर दिया '

26 अगस्त 2023
2
0
0

देशबन्धु की मृत्यु के बाद शरत् बाबू का मन राजनीति में उतना नहीं रह गया था। काम वे बराबर करते रहे, पर मन उनका बार-बार साहित्य के क्षेत्र में लौटने को आतुर हो उठता था। यद्यपि वहां भी लिखने की गति पहले

52

अध्याय 13: पथेर दाबी

26 अगस्त 2023
2
0
0

जिस समय वे 'पथेर दाबी ' लिख रहे थे, उसी समय उनका मकान बनकर तैयार हो गया था । वे वहीं जाकर रहने लगे थे। वहां जाने से पहले लगभग एक वर्ष तक वे शिवपुर टाम डिपो के पास कालीकुमार मुकर्जी लेने में भी रहे थे

53

अध्याय 14: रूप नारायण का विस्तार

26 अगस्त 2023
2
0
0

गांव में आकर उनका जीवन बिलकुल ही बदल गया। इस बदले हुए जीवन की चर्चा उन्होंने अपने बहुत-से पत्रों में की है, “रूपनारायण के तट पर घर बनाया है, आरामकुर्सी पर पड़ा रहता हूं।" एक और पत्र में उन्होंने लिख

54

अध्याय 15: देहाती शरत

26 अगस्त 2023
2
0
0

गांव में रहने पर भी शहर छूट नहीं गया था। अक्सर आना-जाना होता रहता था। स्वास्थ्य बहुत अच्छा न होने के कारण कभी-कभी तो बहुत दिनों तक वहीं रहना पड़ता था । इसीलिए बड़ी बहू बार-बार शहर में मकान बना लेने क

55

अध्याय 16: दायोनिसस शिवानी से वैष्णवी कमललता तक

26 अगस्त 2023
2
0
0

किशोरावस्था में शरत् बात् ने अनेक नाटकों में अभिनय करके प्रशंसा पाई थी। उस समय जनता को नाटक देखने का बहुत शौक था, लेकिन भले घरों के लड़के मंच पर आयें, यह कोई स्वीकार करना नहीं चाहता था। शरत बाबू थे ज

56

अध्याय 17: तुम में नाटक लिखने की शक्ति है

26 अगस्त 2023
2
0
0

शरत साहित्य की रीढ़, नारी के प्रति उनका दृष्टिकोण है। बार-बार अपने इसी दृष्टिकोण को उन्होंने स्पष्ट किया है। प्रसिद्धि के साथ-साथ उन्हें अनेक सभाओं में जाना पडता था और वहां प्रायः यही प्रश्न उनके साम

57

अध्याय 18: नारी चरित्र के परम रहस्यज्ञाता

26 अगस्त 2023
2
0
0

केवल नारी और विद्यार्थी ही नहीं दूसरे बुद्धिजीवी भी समय-समय पर उनको अपने बीच पाने को आतुर रहते थे। बड़े उत्साह से वे उनका स्वागत सम्मान करते, उन्हें नाना सम्मेलनों का सभापतित्व करने को आग्रहपूर्वक आ

58

अध्याय 19: मैं मनुष्य को बहुत बड़ा करके मानता हूँ

26 अगस्त 2023
2
0
0

चन्दन नगर की गोष्ठी में उन्होंने कहा था, “राजनीति में भाग लिया था, किन्तु अब उससे छुट्टी ले ली है। उस भीड़भाड़ में कुछ न हो सका। बहुत-सा समय भी नष्ट हुआ । इतना समय नष्ट न करने से भी तो चल सकता था । ज

59

अध्याय 20: देश के तरुणों से में कहता हूँ

26 अगस्त 2023
2
0
0

साधारणतया साहित्यकार में कोई न कोई ऐसी विशेषता होती है, जो उसे जनसाधारण से अलग करती है। उसे सनक भी कहा जा सकता है। पशु-पक्षियों के प्रति शरबाबू का प्रेम इसी सनक तक पहुंच गया था। कई वर्ष पूर्व काशी में

60

अध्याय 21:  ऋषिकल्प

26 अगस्त 2023
2
0
0

जब कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर सत्तर वर्ष के हुए तो देश भर में उनकी जन्म जयन्ती मनाई गई। उस दिन यूनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट, कलकत्ता में जो उद्बोधन सभा हुई उसके सभापति थे महामहोपाध्याय श्री हरिप्रसाद शास्त

61

अध्याय 22: गुरु और शिष्य

27 अगस्त 2023
2
0
0

शरतचन्द्र 60 वर्ष के भी नहीं हुए थे, लेकिन स्वास्थ्य उनका बहुत खराब हो चुका था। हर पत्र में वे इसी बात की शिकायत करते दिखाई देते हैं, “म सरें दर्द रहता है। खून का दबाव ठीक नहीं है। लिखना पढ़ना बहुत क

62

अध्याय 23: कैशोर्य का वह असफल प्रेम

27 अगस्त 2023
2
0
0

शरत् बाबू की रचनाओं के आधार पर लिखे गये दो नाटक इसी युग में प्रकाशित हुए । 'विराजबहू' उपन्यास का नाट्य रूपान्तर इसी नाम से प्रकाशित हुआ। लेकिन दत्ता' का नाट्य रूपान्तर प्रकाशित हुआ 'विजया' के नाम से

63

अध्याय 24: श्री अरविन्द का आशीर्वाद

27 अगस्त 2023
2
0
0

गांव में रहते हुए शरत् बाबू को काफी वर्ष बीत गये थे। उस जीवन का अपना आनन्द था। लेकिन असुविधाएं भी कम नहीं थीं। बार-बार फौजदारी और दीवानी मुकदमों में उलझना पड़ता था। गांव वालों की समस्याएं सुलझाते-सुल

64

अध्याय 25: तुब बिहंग ओरे बिहंग भोंर

27 अगस्त 2023
2
0
0

राजनीति के क्षेत्र में भी अब उनका कोई सक्रिय योग नहीं रह गया था, लेकिन साम्प्रदायिक प्रश्न को लेकर उन्हें कई बार स्पष्ट रूप से अपने विचार प्रकट करने का अवसर मिला। उन्होंने बार-बार नेताओं की आलोचना की

65

अध्याय 26: अल्हाह.,अल्हाह.

27 अगस्त 2023
2
0
0

सर दर्द बहुत परेशान कर रहा था । परीक्षा करने पर डाक्टरों ने बताया कि ‘न्यूरालाजिक' दर्द है । इसके लिए 'अल्ट्रावायलेट रश्मियां दी गई, लेकिन सब व्यर्थ । सोचा, सम्भवत: चश्मे के कारण यह पीड़ा है, परन्तु

66

अध्याय 27: मरीज की हवा दो बदल

27 अगस्त 2023
2
0
0

हिरण्मयी देवी लोगों की दृष्टि में शरत्चन्द्र की पत्नी थीं या मात्र जीवनसंगिनी, इस प्रश्न का उत्तर होने पर भी किसी ने उसे स्वीकार करना नहीं चाहा। लेकिन इसमें तनिक भी संशय नहीं है कि उनके प्रति शरत् बा

67

अध्याय 28: साजन के घर जाना होगा

27 अगस्त 2023
2
0
0

कलकत्ता पहुंचकर भी भुलाने के इन कामों में व्यतिक्रम नहीं हुआ। बचपन जैसे फिर जाग आया था। याद आ रही थी तितलियों की, बाग-बगीचों की और फूलों की । नेवले, कोयल और भेलू की। भेलू का प्रसंग चलने पर उन्होंने म

68

अध्याय 29: बेशुमार यादें

27 अगस्त 2023
2
0
0

इसी बीच में एक दिन शिल्पी मुकुल दे डाक्टर माके को ले आये। उन्होंने परीक्षा करके कहा, "घर में चिकित्सा नहीं ही सकती । अवस्था निराशाजनक है। किसी भी क्षण मृत्यु हो सकती है। इन्हें तुरन्त नर्सिंग होम ले

---

किताब पढ़िए