उस दिन जलधर दादा मिलने आए थे। देखा शरत्चन्द्र मनोयोगपूर्वक कुछ लिख रहे हैं। मुख पर प्रसन्नता है, आखें दीप्त हैं, कलम तीव्र गति से चल रही है। पास ही रखी हुई गुड़गुड़ी की ओर उनका ध्यान नहीं है। चिलम की आग ठंडी पड़ गई है। यह देखकर उन्हें बड़ा आनन्द हुआ। आह्याद से भरकर, हाथ की लाठी से उन्होंने मेज़ पर चोट की और शरत्चन्द्र को चक्ति करते हुए बोल उठे, "खूब, खूब, इतने दिन बाद तुमने कलम पकड़ी है शरत्! तुम लिख रहे हो!"
मुख उठाकर शरत्चन्द्र बोले, "हां दादा, लिख रहा हूं।"
दादा खुश होकर पास की कुर्सी पर बैठ गए। पूछा, "यह तुमने क्या आरम्भ किया है?"
शरत्चन्द्र के मन में बड़े भाई के समान इस मित्र के लिए बड़ा कष्ट हुआ। म्लान हंसी हंसकर बोले, "कहानी, उपन्यास नहीं लिख रहा हूं दादा, देशबन्धु जेल से छूट आए हैं। - उसका सार्वजनिक अभिनन्दन हो रहा है। उसी के लिए अभिनन्दन पत्र लिख रहा हूं।
देशबन्धु जेल से सविनय अवज्ञा आन्दोलन को नया रूप देने की परिकल्पना लेकर आए थे। उन्होंने कौंसिलों में प्रवेश करने का प्रस्ताव पेश किया। असहयोग के युग में यह प्रस्ताव सबको चकित कर देने वाला था, लेकिन शरत्चन्द्र ने देशबन्धु का साथ नहीं छोड़ा। वे परिषदों को खत्म कर देना चाहते थे, लेकिन अन्दर जाकर। उन्होंने कहा, "ये सुधरी हुई परिषदें नौकरशाही के चेहरे पर एक नकाब हैं। हमारा यह कर्तव्य है कि हम इसे उतार फेंकें। इन परिषदों को खत्म कर देना ही हमारा सबसे प्रभावशाली बहिष्कार होगा। यह तभी सम्भव हो सकता है जब परिषदों में हमारा बहुमत हो । यदि हम चुनाव लड़ें तो उनके परिणामों से पता चल जाएगा कि हम तथ्यों के आधार पर आगे बढ़े हैं, कल्पनाओं के सहारे नहीं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि बहुमत हमारे पक्ष में रहेगा।"
बंगाल में इन प्रस्तावों का तीव्र विरोध हुआ । इतना कि शरत् बाबू को कांग्रेस कमेटी के सभापति पद से इस्तीफा देना पड़ा 2 कांग्रेस दो दलों में बंट गई-परिवर्तनवादी और अपरिवर्तनवादी । गया अधिवेशन में 2 जिसके सभापति स्वयं देशबन्धु थे, यह प्रश्न बड़े उग्र रूप से सामने आया। शरत्चन्द्र उस समय अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य थे। अस्वस्थ हो जाने के कारण वे बीच में ही क्लकत्ता लौट आए थे लेकिन उन्होंने कौंसिल- प्रवेश के कार्यक्रम का पूर्ण समर्थन किया। कहा, "असहयोग आन्दोलन को सहसा स्थगित कर देने से जो घोर निराशा छा गई है, उससे मुक्त होने का एकमात्र उपाय यही है।"
चारों ओर के विरोध और अप्रिय आलोचना तथा अशिष्ट आक्रमण के बीच वे निरन्तर देशबन्धु को उत्साहित करते रहे कि जिस सत्य की उपलब्धि उन्होंने की है, उसका वे निरन्तर प्रचार करते रहें।
अपने अध्यक्षीय भाषण में देशबन्धु ने स्पष्ट और निस्संकोच भाव से परिषदों में प्रवेश का प्रस्ताव उपस्थित किया, लेकिन वह पारित न हो सका। तब उन्होंने तुरन्त अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया और पंडित मोतीलाल नेहरू के सहयोग से स्वराज्य पार्टी की नींव डाली। 4 उन्होंने घोषणा की कि एक दिन देश मेरा कार्यक्रम स्वीकार करेगा।........
उन्होंने सारे देश का तूफानी दौरा किया। इस दौरे में प्रचार का जो स्तर था उसके संबंध में मतभेद की गुंजायश है और यह भी निश्चित है कि राजनीतिक उत्तेजना में मानव की क्षति होती है, लेकिन इसमें भी कोई सन्देह नहीं कि शीघ्र ही किसी न किसी रूप में देश उनके कार्यक्रम को स्वीकार कर लिया। कुछ दिन बाद बम्बई में कार्यसमिति और महासमिति की बैठकें हुई। सर्वसम्मति से देशबन्धु महासमिति के अध्यक्ष चुने गए। श्री पुरुषोत्तमदास टण्डन द्वारा प्रस्तावित तथा श्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा अनुमोदित यह प्रस्ताव उस समिति में पास हुआ कि सब कांग्रेसियों को अपने मतभेद भुलाकर संयुक्त मोर्चा बनाना चाहिए। कांग्रेस यह निर्देश देती है कि गया में स्वीकार किए गए प्रस्ताव के सिलसिले में अब और किसी तरह का प्रचार न किया जाए।
यह उस अप्रिय संघर्ष के अन्त का आरम्भ था जो कांग्रेस के भीतर विषाक्त वातावरण पैदा कर रहा था। देशबन्धु का सबसे भयंकर विरोध स्वयं उनके प्रान्त में था। बम्बई में महासमिति की बैठक से दो सप्ताह पूर्व ही बारीसाल नगर में बंगीय प्रादेशिक कमेटी की बैठकें हुई थीं। शचिनन्दन ने लिखा है- "देशबन्धु सदल बल वहां पहुंचे थे। शरत् बायू भी साथ थे। वे सब लोग साधारण सदस्यों के साथ बैठे। किसी ने देशबन्धु से मंच पर बैठने तक का अनुरोध नहीं किया। श्री श्यामसुन्दर चक्रवर्ती सभापति थे। देशबन्धु सभापति के एक रूलिंग के संबंध में बोलने के लिए उठे । श्याम बाबू ने दूसरी ओर मुंह फिराकर कहा, मैं उस आदमी' की बात नहीं सुनूंगा?"
देशबन्धु की आखें अभिमान से जल उठीं। वे बोले, "श्याम बाबू, मैंने बहुत दिन तक बैरिस्टरी की है। हाईकोर्ट के किसी जज ने मुझसे यह कहने का साहस नहीं किया कि वह बात नहीं सुनेगा और आज आप ये शब्द कहते हैं?"
शरत्चन्द्र भी उठकर खड़े हो गए। वे कहने लगे, "श्याम बाबू आपने देशबन्धु को 'उस आदमी' कहकर पुकारा? 'महानुभाव शब्द का प्रयोग तक न कर सके?"
श्याम बाबू उत्तेजित होकर बोले, “मैं तुम्हारा मुंह नहीं देखना चाहता।”
शरतचन्द्र यह अपमान नहीं सह सकते थे। राजनीति में आदमी को जैसी मोटी खाल वाला होना चाहिए, वैसे वे नहीं थे। क्रोध से उबलते हुए उन्होंने सभा का त्याग कर दिया। जब सब लोग निवास-स्थान पर लौटे तो पाया कि वे उत्तेजित होकर बरामदे में इधर से उधर घूम रहे हैं। उन्होंने अलीपुर बम केस के सुप्रसिद्ध अभियुक्त उपेन्द्रनाथ गंगोपाध्याय के पास आकर कहा, “उपीन, तुम तो भाइ बम पार्टी के नेता थे, क्या मुझे एक बम तैयार करके दे सकते हो?"
उपेन्द्र दा ने पूछा, पम, बम क्या करेंगे आप?”
“श्यामू चकोती के सिर पर फेंक मारूंगा। उसने मुझसे कहा कि मैं तुम्हारा मुंह नहीं देख सकता। ओरे बाबा, बारेन्दी ब्राह्मण ब्राह्मणों में बारेन्दों और रोगों में...।”
और भी बहुत अ न कहने योग्य उन्होंने कहा । ऐसा कि दूसरे लोग हंस ही सकते थे इसलिए सबके सम्मिलित अट्टहास से वह कमरा गूंज - गूंज उठा। शरत्चन्द्र और भी कुद्ध होकर बोले, हंसते हैं, मेरा इस तरह अपमान किया गया फिर भी आपको हंसी आती है ! राजनीति में किसी भले आदमी का इस तरह अपमान किया जाता है! मैं अब और इसमें नहीं ठहर सकता। काफी देख किया अब और नहीं।”
देशबन्धु स्नेह के साथ एक हाथ अपने हाथ में लेकर बोले, "ऐसा ही कीजिए। आप इसे छोड़ दीजिए। आप साहित्यिक हैं, शिल्पी हैं। आपकी अनुभूति अत्यन्त नाजुक है। इतनी व्यथा और इतना अपमान आप नहीं सह सकेंगे। आप कांग्रेस और राजनीति को एकदम छोड़ दीजिए।”
शरत् एक कुर्सी पर जा बैठे। हुक्का तैयार था। दो-तीन कश खीचकर बोले, “किन्तु कैसे छोडूं?" सहसा उनका कण्ठ वेदना से अभिभूत हो उठा। आंखें भर आईं। अन्तस्तल से एक दीर्घ निःश्वास निकला, “आपकी इस असहाय अवस्था में जब चारों ओर से बाधाएं घिरती आ रहीं हैं, तब उनके बीच में आपका विसर्जन करके भागकर अपनी आत्मरक्षा कैसे करूं? मेरी व्यथा अत्यन्त साधारण है, लेकिन आप तो दुखों के दावानल में फंसे हुए हैं। नहीं, आपको छोड़कर नहीं भाग सकता।”
और वे बड़ी तेजी से हुक्के के कस खींचने लगे।
इस अवसर पर बंगीय साहित्य परिषद् की स्थानीय शाखा ने उनका सम्मान किया। उस सभा में देशबन्धु दास, सुभाषचन्द्र बोस व किरणशंकर राय आदि भी उपस्थित थे। अभिनन्दन का उत्तर देते हुए भी वे देश को नहीं भूले। उन्होंने कहा, “आज इस देश में जिसे महान् साहित्य कहते हैं, उसका सृजन नहीं हो सकता क्योंकि हम राजनैतिक, सामाजिक किसी भी दृष्टि से मुक्त नहीं है। जिस दिन वह मुक्ति मिलेगी उसी दिन आनन्द के भीतर से उस साहित्य की सृष्टि होगी।”
देश की स्वतंत्रता के प्रति उनकी अनुरक्ति वास्तविक थी। तभी तो वे मन-वचन-कर्म से इस संग्राम में योग देने के लिए देशबन्धु के पीछे खड़े थे।
इतने विषाक्त वातावरण और इतने संधर्ष के बावजूद देशबन्धु ने बम्बई में समिति के सदस्यों को अपने दृष्टिकोण से सहमत कर लिया। इसके पश्चात् मौलाना आज़ाद के सभापतित्व में कांग्रेस का एक विशेष और कई दृष्टियों से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अधिवेशन दिल्ली में हुआ । - दिलीपकुमार राय और सुभाषचन्द्र बोस के साथ शरत्चन्द्र भी इसमें भाग लेने के लिए पहुंचे। इस अधिवेशन में कांग्रेस के दोनों दलों में अन्तिम रूप से समझौता हो गया और अगले निर्वाचनों में खड़े होने तथा अपनी राय देने के अधिकार का उपयोग करने की स्वतन्त्रता सबको दे दी गई। कौंसिल प्रवेश के विरुद्ध सब प्रचार बन्द कर दिया गया। देशबन्धु विधान मण्डलों में आकर नये सुधारों को निरर्थक सिद्ध करना चाहते थे। उन्होंने कहा, "मेरा कहना तो यह है कि या तो मैं वहां उन सुधारों को नष्ट करने के लिए जाऊं, जो हमारा खून चूस रहे हैं, या फिर बिलकुल भी न जाऊं। मुझे इस बात से अत्यन्त प्रसन्नता है। कि इस समझौते के प्रस्ताव में अहिंसात्मक असहयोग के सिद्धान्तों पर जोर दिया गया है। अगर परिषद् में हमारा अल्पमत होगा तो मैं उन सीटों को रिक्त रखूंगा। वे असहयोग के प्रकाशित दीपों का काम करेगी।"
इसके तुरन्त बाद ही बंगाल कौंसिल के चुनाव आ पहुंचे। देशबन्धु ने शरत्चन्द्र से कहा, “आप हावड़ा से खड़े होइए।”
होऊं ?”
शरत्चन्द्र हंस पड़े। बोले, “आप मजाक करते है। मैं कौंसिल के चुनाव में खड़ा
"क्यों न खड़े हो ?"
"ना, ना, उससे क्या? मैं साधारण लेखक हूं। मैं क्या चुनाव में खड़े होने योग्य हूं? लोग क्या कहेंगे?"
देशबन्धु विस्मित होकर बोले, “आप क्या कहते हैं शरत् बाबू?”
शरत्चन्द्र ने उत्तर दिया, “ठीक कहता हूं। देश के लिए मैंने क्या किया है? जेल नहीं गया, वकालत-बैरिस्टरी नहीं छोड़ी। किसी प्रकार का देश निकाला या त्याग स्वीकार नहीं किया। आप मुझको प्यार करते हैं, यह मेरा और आपका व्यक्तिगत मामला है। आप स्वयं कवि और साहित्यिक हैं। साहित्यिक के रूप में ही आप मुझे प्यार करते है । मित्रता के नाते मैं आपका प्रियजन हो सकता हूं, किन्तु देश की जनता कैसे मुझे प्रियजन माने। मैं अपनी साधारण साहित्य-साधना को राजनीति का मूलधन बनाना नही चाहता। विशेषकर कौंसिल का काम, अंग्रेजी भाषण सुनना और देना, इन दोनों से ही मुझे अरुचि है। आप मुझे मुक्ति दीजिए। ऐसे किसी को खड़ा कीजिए, जिसे जनता मुक्त मन से स्वीकार करे। यूं ही आपकी विपत्तियों का कोई अन्त नही है। राय देने वालों के ऊपर अपनी रुचि लादकर अपनी बाधाओं को और अधिक न बढ़ाइए।”
शिल्पी शरत्चन्द्र ही ऐसा कह सकते थे। उस समय वे अपनी ख्याति के शिखर पर थे। जन-जन की जिहा पर उनका नाम था। शायद वे आसानी से कौंसिल के सदस्य और हावड़ा म्युनिसिपल कमेटी के चेयरमैन हो सकते थे, लेकिन उनका चिरसंगी आलस्य और शिल्पी का बैरागी मन क्या उन्हें कुछ करने देता, इसलिए उन्होंने ठीक ही अपनी साहित्य-साधना को राजनीति का मूलधन नहीं होने दिया।
जब कलकत्ता नगर निगम का पुनर्गठन हुआ तो देशबन्धु ने अधिकांश सीटें निर्विरोध ही प्राप्त कर लीं। वे कलकत्ता के प्रथम मेयर बने, लेकिन शरत्चन्द्र उसी तरह पीछे खड़े रहे। हां, जब दास बाबू ने 'फारवर्ड' दैनिक पत्र का प्रारम्भ किया तब उन्होंने शेयर बेचने में उनकी यथोचित सहायता की। चन्दा इकट्ठा करने में तनिक भी रुचि नहीं थी, परन्तु जब देशबन्धु ने ग्राम संगठन के लिए तीन लाख रुपये की अपील निकाली तब वे उनके साथ दर-दर भीख मांगते फिरे।
उस दिन रात हो आई थी। पानी बरस रहा था। उस समय देशबन्धु दास, सुभाषचन्द्र बोस और शरत्चन्द्र सियालदह के पास एक बड़े आदमी की बैठक में कुछ रुपये पाने की आशा में बैठे हुए थे। सहसा शरत् झुंझलाकर बोले, "गरज़ क्या एक आपकी ही है? देश के आदमी सहायता करने में अगर इतने विमुख हो उठे हैं, तो रहने दीजिए।”
देशबन्धु के मन पर चोट लगी। कहा, "यह ठीक नहीं है शरत् बाबू दोष हम लोगों का ही है। हम लोग काम करना नहीं जानते। अपनी बात समझाकर नहीं कह सकते। बंगाली भावुक हैं, कृपण नहीं। एक दिन जब वे समझेंगे तब अपना सर्वस्व लाकर हमारे हाथ में सौंप देंगे।"
आचार्य प्रफुल्लचन्द्र राय भी ऐसे ही आशावादी थे। उन्हीं के शब्दों में, "नारी कर्म मन्दिर की दो महिलाओं और श्रीयुत डा० प्रफुल्लचन्द्र राय महाशय को लेकर घोर आंधी- पानी के बीच आता ज़िले की ओर हम गये... 1. हमारे आने-जाने का खर्च हुआ पचास रुपया.....पुलिस का भी इतना ही खर्च हुआ होगा । उन्नतिशील स्थान है। बहुत-से धनी लोग रहते हैं। फिर भी स्थानीय करघे और चरखे की उन्नति के लिए चन्दा किया गया तो वायदा हुआ तीन रुपये पांच आने का । इसके बाद आचार्य राय ने बड़े परिश्रम से यह आविष्कार किया कि वहां के दो वकील विलायती कपड़ा नहीं खरीदते । और एक आदमी ने उनकी वक्तृता पर मुग्ध होकर उसी दिन प्रतिज्ञा की कि भविष्य में अब वह भी विलायती कपड़ा नहीं खरीदेगा। ...... प्रफुल्लचन्द्र ने प्रफुल्ल होकर मेरे कान में चुपके से कहा, हां, यह जिला उन्नतिशील है और ज़रा लगे रहिये.........”
उस दिन भी वे निरुत्तर हो गये थे आज भी बंगाल के प्रति देशबन्धु का यह प्रेम देखकर वे निरुत्तर हो गये। उन दोनों के संबंधों में एक विशेषता थी। देशबन्धु के साथ अनेक व्यक्ति थे, परन्तु वे सब उनके शिष्य थे। श्रद्धा-भक्ति रखते थे। मित्र और सखा का सौहार्द मिलता था उन्हें केवल शरत्चन्द्र से। जब वे आघात पर आधात पाकर व्याकुल हो उठते, तब मन-प्राण को उत्फुल्ल करने वाले शरत्चन्द्र ही थे। आर्थिक सहायता करने में भी वे कभी पीछे नहीं रहे। मोटी रकम का चेक चुपचाप देशबन्धु के हाथ में थमा आते।
तारकेश्वर के तत्कलीन महन्त सतीश गिरि के विरुद्ध महावीर दल के स्वामी सच्चिदानन्द और स्वामी विश्वानन्द ने सत्याग्रह आन्दोलन किया था । वे दोनों सुधारवादी थे। परन्तु महन्त की शक्ति भी कम नहीं थी । इसीलिए वे दोनों स्वामी देशबन्धु की शरण में आए। एक दिन क्या हुआ कि स्वयं इन दोनों स्वामियों में किसी बात को लेकर काफी विरोध पैदा हो गया। देशबन्धु ने बड़े-बड़े समझौते कराए थे, परन्तु उन दोनों स्वामियों में समझौता करा सकने में वे सफल नहीं हो सके। उस दिन वे दोनों स्वामी चीख-चीखकर अपनी बात कह रहे थे। संयोग से शरत्चन्द्र भी वहां उपस्थित थे। देशबन्धु की व्यथा का कोई अन्त नहीं था। बोले, "शरत् बाबू, अब निश्चय ही प्राण गए।"
शरत् बाबू ने उत्तर दिया, "वह तो जायेंगे ही।"
सुनकर देशबन्धु चकित हो उठे। शरत् बाबू बोले, "मोशाय, दो स्त्रियों को लेकर गृहस्थी चलाने में मनुष्य के प्राण संकट में पड़ जाते हैं। आप तो दो स्वामियों को लेकर घर- गृहस्थी करने चले है। आपके प्राण नहीं जाएंगे तो किसके जाएंगे?"
यह गम्भीर तर्क सुनकर सभी उपस्थित व्यक्ति अट्टहास कर उठे। दोनों स्वामियों ने भी मुक्त काट से उसमें अपना योग दिया। सम्भवत: इसी करण बाद में दोनों में समझौता भी हो गया।
शरत् बाबू की परिहास वृत्ति सचमुच बड़ी मुखर थी । बहुधा कठिन समय में वही वृत्ति वातावरण को बदल देती थी। उन दिनों अधिकांश व्यक्ति मोटा खद्दर पहनते थे। अनिलवरण राय तो मोटे खद्दर का केवल एक गमछा ही धारण करते थे, लेकिन इसके विपरीत सुभाषचन्द्र के बड़े भाई शरत्चन्द्र बोस अत्यन्त महीन खद्दर की धोती, कुर्ता और चादर का प्रयोग करते थे। वैसे भी वे विशालकाय व्यक्ति थे। धोती टखने तक आती । पंजाबी कुरता भी खूब लम्बा और ऊपर से चादर । एक दिन किसी ने विनोद में पूछ लिया, "शरत् बाबू, आपका यह महीन खद्दर कहां तैयार होता है।"
शरत् बाबू ने समझा कि वे बन्धु उनके बारीक खद्दर पहनने पर आक्षेप कर रहे हैं। उग्र होकर बोले, "भागलपुर में।.
लगा, जैसे कोई अप्रिय घटना होने वाली है कि तभी साहित्यिक शरत्चन्द्र बोले उठे, "अजी, हमारे यहां सब प्रकार के नमूने हैं। वैचित्र्य होना ही अच्छा है। अनिलवरण राय खद्दर की मदर टिंचर है और शरत्चन्द्र बोस टू हण्ड्रेड डाइल्युशन ।"
होम्योपैथिक दवाओं के सिद्धान्त के इस उदाहरण से वातावरण बिलकुल ही बदल गया। सब लोग अट्टहास कर उठे और शरत्चन्द्र बोस भी उस व्यंग्य की चोट को भूलकर हंसने लगे।
लेकिन कभी-कभी यह व्यंग्य बड़ा कठोर हो उठता था। दिल्ली कांग्रेस के अधिवेशन के अवसर पर शरत्चन्द्र अन्य मित्रों के साथ दर्शनीय स्थान भी देखने गए थे। एक दिन वे लोग कुतुबमीनार के पास एक विकराल बावड़ी देखने गए। तुरन्त तीन मंज़िल से उसमें कूदने वाला एक युवक पण्डा उनके पास आकर हाज़िर हो गया। सुभाषचन्द्र ने उनमे एक रुपया दिया। वह तुरन्त नीचे कूद पड़ा। बाप रे, कैसा लोमहर्षक दृश्य था। ज़रा-से कुंए जितना घेरा, कृपण के धन जैसी रोशनी, जरा इधर-उधर हुए तो हहु-पिसली गई, पर वह पण्डा तो फिर आकर रुपया मांगने लगा। बोला, "एक रुपया और दीजिए फिर कूदूंगा।.
सुभाषचन्द्र, किरणशंकर राय, दिलीपकुमार राय सभी ने मना कर दिया, परन्तु शरत् बाबू ने तुरन्त एक रुपया निकालकर उसके हाथ पर रख दिया। बोले, "कूदो।"
चकित होकर सुभाषचन्द्र बोस ने कहा, "क्यों, अभी तो देख चुके हैं।"
शरत् बाबू हंसकर बोले, "कौन जाने इस बार इधर-उधर हो जाने से चोट लगे या डूब जाए। तब एक दुस्साहसी पण्डा तो कम होगा।.
यहां से वे अपने छोटे भाई प्रभासचन्द्र (स्वामी वेदानन्द) के पास वृन्दावन गये। साथ में कई मित्र थे। एक दिन सभी राधाकुण्ड देखने गये। उन्हें देखकर कई पण्डे साथ आगे और पैसे मांगने लगे। किसी की समझ में नही आया कि क्या दें। लेकिन शरत् बाबू ने तुरन्त दो रुपये निकाले और उनके बीच में फेंक दिये। सभी चकित थे— दो रुपये ! शरत् बाबू बोले, "देखा नहीं, उन रुपयों पर वे सब कैसे झपटे थे! मैंने सदा के लिए उनमें झगड़ा करा दिया है। ये रुपये किसके हैं, वे कभी फैसला नहीं कर पायेंगे।"
क्रूर हास्य की ये घटनाएं क्या स्पष्ट नहीं करतीं कि इन तमाशों से उन्हें कितनी घृणा थी?