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अध्याय 6: निष्कम्प दीपशिखा

26 अगस्त 2023

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उस दिन जलधर दादा मिलने आए थे। देखा शरत्चन्द्र मनोयोगपूर्वक कुछ लिख रहे हैं। मुख पर प्रसन्नता है, आखें दीप्त हैं, कलम तीव्र गति से चल रही है। पास ही रखी हुई गुड़गुड़ी की ओर उनका ध्यान नहीं है। चिलम की आग ठंडी पड़ गई है। यह देखकर उन्हें बड़ा आनन्द हुआ। आह्याद से भरकर, हाथ की लाठी से उन्होंने मेज़ पर चोट की और शरत्चन्द्र को चक्ति करते हुए बोल उठे, "खूब, खूब, इतने दिन बाद तुमने कलम पकड़ी है शरत्! तुम लिख रहे हो!"

मुख उठाकर शरत्चन्द्र बोले, "हां दादा, लिख रहा हूं।"

दादा खुश होकर पास की कुर्सी पर बैठ गए। पूछा, "यह तुमने क्या आरम्भ किया है?"

शरत्चन्द्र के मन में बड़े भाई के समान इस मित्र के लिए बड़ा कष्ट हुआ। म्लान हंसी हंसकर बोले, "कहानी, उपन्यास नहीं लिख रहा हूं दादा, देशबन्धु जेल से छूट आए हैं। - उसका सार्वजनिक अभिनन्दन हो रहा है। उसी के लिए अभिनन्दन पत्र लिख रहा हूं।

देशबन्धु जेल से सविनय अवज्ञा आन्दोलन को नया रूप देने की परिकल्पना लेकर आए थे। उन्होंने कौंसिलों में प्रवेश करने का प्रस्ताव पेश किया। असहयोग के युग में यह प्रस्ताव सबको चकित कर देने वाला था, लेकिन शरत्चन्द्र ने देशबन्धु का साथ नहीं छोड़ा। वे परिषदों को खत्म कर देना चाहते थे, लेकिन अन्दर जाकर। उन्होंने कहा, "ये सुधरी हुई परिषदें नौकरशाही के चेहरे पर एक नकाब हैं। हमारा यह कर्तव्य है कि हम इसे उतार फेंकें। इन परिषदों को खत्म कर देना ही हमारा सबसे प्रभावशाली बहिष्कार होगा। यह तभी सम्भव हो सकता है जब परिषदों में हमारा बहुमत हो । यदि हम चुनाव लड़ें तो उनके परिणामों से पता चल जाएगा कि हम तथ्यों के आधार पर आगे बढ़े हैं, कल्पनाओं के सहारे नहीं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि बहुमत हमारे पक्ष में रहेगा।"

बंगाल में इन प्रस्तावों का तीव्र विरोध हुआ । इतना कि शरत् बाबू को कांग्रेस कमेटी के सभापति पद से इस्तीफा देना पड़ा 2 कांग्रेस दो दलों में बंट गई-परिवर्तनवादी और अपरिवर्तनवादी । गया अधिवेशन में 2 जिसके सभापति स्वयं देशबन्धु थे, यह प्रश्न बड़े उग्र रूप से सामने आया। शरत्चन्द्र उस समय अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य थे। अस्वस्थ हो जाने के कारण वे बीच में ही क्लकत्ता लौट आए थे लेकिन उन्होंने कौंसिल- प्रवेश के कार्यक्रम का पूर्ण समर्थन किया। कहा, "असहयोग आन्दोलन को सहसा स्थगित कर देने से जो घोर निराशा छा गई है, उससे मुक्त होने का एकमात्र उपाय यही है।"

चारों ओर के विरोध और अप्रिय आलोचना तथा अशिष्ट आक्रमण के बीच वे निरन्तर देशबन्धु को उत्साहित करते रहे कि जिस सत्य की उपलब्धि उन्होंने की है, उसका वे निरन्तर प्रचार करते रहें।

अपने अध्यक्षीय भाषण में देशबन्धु ने स्पष्ट और निस्संकोच भाव से परिषदों में प्रवेश का प्रस्ताव उपस्थित किया, लेकिन वह पारित न हो सका। तब उन्होंने तुरन्त अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया और पंडित मोतीलाल नेहरू के सहयोग से स्वराज्य पार्टी की नींव डाली। 4 उन्होंने घोषणा की कि एक दिन देश मेरा कार्यक्रम स्वीकार करेगा।........

उन्होंने सारे देश का तूफानी दौरा किया। इस दौरे में प्रचार का जो स्तर था उसके संबंध में मतभेद की गुंजायश है और यह भी निश्चित है कि राजनीतिक उत्तेजना में मानव की क्षति होती है, लेकिन इसमें भी कोई सन्देह नहीं कि शीघ्र ही किसी न किसी रूप में देश उनके कार्यक्रम को स्वीकार कर लिया। कुछ दिन बाद बम्बई में कार्यसमिति और महासमिति की बैठकें हुई। सर्वसम्मति से देशबन्धु महासमिति के अध्यक्ष चुने गए। श्री पुरुषोत्तमदास टण्डन द्वारा प्रस्तावित तथा श्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा अनुमोदित यह प्रस्ताव उस समिति में पास हुआ कि सब कांग्रेसियों को अपने मतभेद भुलाकर संयुक्त मोर्चा बनाना चाहिए। कांग्रेस यह निर्देश देती है कि गया में स्वीकार किए गए प्रस्ताव के सिलसिले में अब और किसी तरह का प्रचार न किया जाए।

यह उस अप्रिय संघर्ष के अन्त का आरम्भ था जो कांग्रेस के भीतर विषाक्त वातावरण पैदा कर रहा था। देशबन्धु का सबसे भयंकर विरोध स्वयं उनके प्रान्त में था। बम्बई में महासमिति की बैठक से दो सप्ताह पूर्व ही बारीसाल नगर में बंगीय प्रादेशिक कमेटी की बैठकें हुई थीं। शचिनन्दन ने लिखा है- "देशबन्धु सदल बल वहां पहुंचे थे। शरत् बायू भी साथ थे। वे सब लोग साधारण सदस्यों के साथ बैठे। किसी ने देशबन्धु से मंच पर बैठने तक का अनुरोध नहीं किया। श्री श्यामसुन्दर चक्रवर्ती सभापति थे। देशबन्धु सभापति के एक रूलिंग के संबंध में बोलने के लिए उठे । श्याम बाबू ने दूसरी ओर मुंह फिराकर कहा, मैं उस आदमी' की बात नहीं सुनूंगा?"

देशबन्धु की आखें अभिमान से जल उठीं। वे बोले, "श्याम बाबू, मैंने बहुत दिन तक बैरिस्टरी की है। हाईकोर्ट के किसी जज ने मुझसे यह कहने का साहस नहीं किया कि वह बात नहीं सुनेगा और आज आप ये शब्द कहते हैं?"

शरत्चन्द्र भी उठकर खड़े हो गए। वे कहने लगे, "श्याम बाबू आपने देशबन्धु को 'उस आदमी' कहकर पुकारा? 'महानुभाव शब्द का प्रयोग तक न कर सके?"

श्याम बाबू उत्तेजित होकर बोले, “मैं तुम्हारा मुंह नहीं देखना चाहता।”

शरतचन्द्र यह अपमान नहीं सह सकते थे। राजनीति में आदमी को जैसी मोटी खाल वाला होना चाहिए, वैसे वे नहीं थे। क्रोध से उबलते हुए उन्होंने सभा का त्याग कर दिया। जब सब लोग निवास-स्थान पर लौटे तो पाया कि वे उत्तेजित होकर बरामदे में इधर से उधर घूम रहे हैं। उन्होंने अलीपुर बम केस के सुप्रसिद्ध अभियुक्त उपेन्द्रनाथ गंगोपाध्याय के पास आकर कहा, “उपीन, तुम तो भाइ बम पार्टी के नेता थे, क्या मुझे एक बम तैयार करके दे सकते हो?"

उपेन्द्र दा ने पूछा, पम, बम क्या करेंगे आप?”

“श्यामू चकोती के सिर पर फेंक मारूंगा। उसने मुझसे कहा कि मैं तुम्हारा मुंह नहीं देख सकता। ओरे बाबा, बारेन्दी ब्राह्मण ब्राह्मणों में बारेन्दों और रोगों में...।”

और भी बहुत अ न कहने योग्य उन्होंने कहा । ऐसा कि दूसरे लोग हंस ही सकते थे इसलिए सबके सम्मिलित अट्टहास से वह कमरा गूंज - गूंज उठा। शरत्चन्द्र और भी कुद्ध होकर बोले, हंसते हैं, मेरा इस तरह अपमान किया गया फिर भी आपको हंसी आती है ! राजनीति में किसी भले आदमी का इस तरह अपमान किया जाता है! मैं अब और इसमें नहीं ठहर सकता। काफी देख किया अब और नहीं।”

देशबन्धु स्नेह के साथ एक हाथ अपने हाथ में लेकर बोले, "ऐसा ही कीजिए। आप इसे छोड़ दीजिए। आप साहित्यिक हैं, शिल्पी हैं। आपकी अनुभूति अत्यन्त नाजुक है। इतनी व्यथा और इतना अपमान आप नहीं सह सकेंगे। आप कांग्रेस और राजनीति को एकदम छोड़ दीजिए।”

शरत् एक कुर्सी पर जा बैठे। हुक्का तैयार था। दो-तीन कश खीचकर बोले, “किन्तु कैसे छोडूं?" सहसा उनका कण्ठ वेदना से अभिभूत हो उठा। आंखें भर आईं। अन्तस्तल से एक दीर्घ निःश्वास निकला, “आपकी इस असहाय अवस्था में जब चारों ओर से बाधाएं घिरती आ रहीं हैं, तब उनके बीच में आपका विसर्जन करके भागकर अपनी आत्मरक्षा कैसे करूं? मेरी व्यथा अत्यन्त साधारण है, लेकिन आप तो दुखों के दावानल में फंसे हुए हैं। नहीं, आपको छोड़कर नहीं भाग सकता।”

और वे बड़ी तेजी से हुक्के के कस खींचने लगे।

इस अवसर पर बंगीय साहित्य परिषद् की स्थानीय शाखा ने उनका सम्मान किया। उस सभा में देशबन्धु दास, सुभाषचन्द्र बोस व किरणशंकर राय आदि भी उपस्थित थे। अभिनन्दन का उत्तर देते हुए भी वे देश को नहीं भूले। उन्होंने कहा, “आज इस देश में जिसे महान् साहित्य कहते हैं, उसका सृजन नहीं हो सकता क्योंकि हम राजनैतिक, सामाजिक किसी भी दृष्टि से मुक्त नहीं है। जिस दिन वह मुक्ति मिलेगी उसी दिन आनन्द के भीतर से उस साहित्य की सृष्टि होगी।”

देश की स्वतंत्रता के प्रति उनकी अनुरक्ति वास्तविक थी। तभी तो वे मन-वचन-कर्म से इस संग्राम में योग देने के लिए देशबन्धु के पीछे खड़े थे।

इतने विषाक्त वातावरण और इतने संधर्ष के बावजूद देशबन्धु ने बम्बई में समिति के सदस्यों को अपने दृष्टिकोण से सहमत कर लिया। इसके पश्चात् मौलाना आज़ाद के सभापतित्व में कांग्रेस का एक विशेष और कई दृष्टियों से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अधिवेशन दिल्ली में हुआ । - दिलीपकुमार राय और सुभाषचन्द्र बोस के साथ शरत्चन्द्र भी इसमें भाग लेने के लिए पहुंचे। इस अधिवेशन में कांग्रेस के दोनों दलों में अन्तिम रूप से समझौता हो गया और अगले निर्वाचनों में खड़े होने तथा अपनी राय देने के अधिकार का उपयोग करने की स्वतन्त्रता सबको दे दी गई। कौंसिल प्रवेश के विरुद्ध सब प्रचार बन्द कर दिया गया। देशबन्धु विधान मण्डलों में आकर नये सुधारों को निरर्थक सिद्ध करना चाहते थे। उन्होंने कहा, "मेरा कहना तो यह है कि या तो मैं वहां उन सुधारों को नष्ट करने के लिए जाऊं, जो हमारा खून चूस रहे हैं, या फिर बिलकुल भी न जाऊं। मुझे इस बात से अत्यन्त प्रसन्नता है। कि इस समझौते के प्रस्ताव में अहिंसात्मक असहयोग के सिद्धान्तों पर जोर दिया गया है। अगर परिषद् में हमारा अल्पमत होगा तो मैं उन सीटों को रिक्त रखूंगा। वे असहयोग के प्रकाशित दीपों का काम करेगी।"

इसके तुरन्त बाद ही बंगाल कौंसिल के चुनाव आ पहुंचे। देशबन्धु ने शरत्चन्द्र से कहा, “आप हावड़ा से खड़े होइए।”

होऊं ?”

शरत्चन्द्र हंस पड़े। बोले, “आप मजाक करते है। मैं कौंसिल के चुनाव में खड़ा

"क्यों न खड़े हो ?"

"ना, ना, उससे क्या? मैं साधारण लेखक हूं। मैं क्या चुनाव में खड़े होने योग्य हूं? लोग क्या कहेंगे?"

देशबन्धु विस्मित होकर बोले, “आप क्या कहते हैं शरत् बाबू?”

शरत्चन्द्र ने उत्तर दिया, “ठीक कहता हूं। देश के लिए मैंने क्या किया है? जेल नहीं गया, वकालत-बैरिस्टरी नहीं छोड़ी। किसी प्रकार का देश निकाला या त्याग स्वीकार नहीं किया। आप मुझको प्यार करते हैं, यह मेरा और आपका व्यक्तिगत मामला है। आप स्वयं कवि और साहित्यिक हैं। साहित्यिक के रूप में ही आप मुझे प्यार करते है । मित्रता के नाते मैं आपका प्रियजन हो सकता हूं, किन्तु देश की जनता कैसे मुझे प्रियजन माने। मैं अपनी साधारण साहित्य-साधना को राजनीति का मूलधन बनाना नही चाहता। विशेषकर कौंसिल का काम, अंग्रेजी भाषण सुनना और देना, इन दोनों से ही मुझे अरुचि है। आप मुझे मुक्ति दीजिए। ऐसे किसी को खड़ा कीजिए, जिसे जनता मुक्त मन से स्वीकार करे। यूं ही आपकी विपत्तियों का कोई अन्त नही है। राय देने वालों के ऊपर अपनी रुचि लादकर अपनी बाधाओं को और अधिक न बढ़ाइए।”

शिल्पी शरत्चन्द्र ही ऐसा कह सकते थे। उस समय वे अपनी ख्याति के शिखर पर थे। जन-जन की जिहा पर उनका नाम था। शायद वे आसानी से कौंसिल के सदस्य और हावड़ा म्युनिसिपल कमेटी के चेयरमैन हो सकते थे, लेकिन उनका चिरसंगी आलस्य और शिल्पी का बैरागी मन क्या उन्हें कुछ करने देता, इसलिए उन्होंने ठीक ही अपनी साहित्य-साधना को राजनीति का मूलधन नहीं होने दिया।

जब कलकत्ता नगर निगम का पुनर्गठन हुआ तो देशबन्धु ने अधिकांश सीटें निर्विरोध ही प्राप्त कर लीं। वे कलकत्ता के प्रथम मेयर बने, लेकिन शरत्चन्द्र उसी तरह पीछे खड़े रहे। हां, जब दास बाबू ने 'फारवर्ड' दैनिक पत्र का प्रारम्भ किया तब उन्होंने शेयर बेचने में उनकी यथोचित सहायता की। चन्दा इकट्ठा करने में तनिक भी रुचि नहीं थी, परन्तु जब देशबन्धु ने ग्राम संगठन के लिए तीन लाख रुपये की अपील निकाली तब वे उनके साथ दर-दर भीख मांगते फिरे।

उस दिन रात हो आई थी। पानी बरस रहा था। उस समय देशबन्धु दास, सुभाषचन्द्र बोस और शरत्चन्द्र सियालदह के पास एक बड़े आदमी की बैठक में कुछ रुपये पाने की आशा में बैठे हुए थे। सहसा शरत् झुंझलाकर बोले, "गरज़ क्या एक आपकी ही है? देश के आदमी सहायता करने में अगर इतने विमुख हो उठे हैं, तो रहने दीजिए।”

देशबन्धु के मन पर चोट लगी। कहा, "यह ठीक नहीं है शरत् बाबू दोष हम लोगों का ही है। हम लोग काम करना नहीं जानते। अपनी बात समझाकर नहीं कह सकते। बंगाली भावुक हैं, कृपण नहीं। एक दिन जब वे समझेंगे तब अपना सर्वस्व लाकर हमारे हाथ में सौंप देंगे।"

आचार्य प्रफुल्लचन्द्र राय भी ऐसे ही आशावादी थे। उन्हीं के शब्दों में, "नारी कर्म मन्दिर की दो महिलाओं और श्रीयुत डा० प्रफुल्लचन्द्र राय महाशय को लेकर घोर आंधी- पानी के बीच आता ज़िले की ओर हम गये... 1. हमारे आने-जाने का खर्च हुआ पचास रुपया.....पुलिस का भी इतना ही खर्च हुआ होगा । उन्नतिशील स्थान है। बहुत-से धनी लोग रहते हैं। फिर भी स्थानीय करघे और चरखे की उन्नति के लिए चन्दा किया गया तो वायदा हुआ तीन रुपये पांच आने का । इसके बाद आचार्य राय ने बड़े परिश्रम से यह आविष्कार किया कि वहां के दो वकील विलायती कपड़ा नहीं खरीदते । और एक आदमी ने उनकी वक्तृता पर मुग्ध होकर उसी दिन प्रतिज्ञा की कि भविष्य में अब वह भी विलायती कपड़ा नहीं खरीदेगा। ...... प्रफुल्लचन्द्र ने प्रफुल्ल होकर मेरे कान में चुपके से कहा, हां, यह जिला उन्नतिशील है और ज़रा लगे रहिये.........”

उस दिन भी वे निरुत्तर हो गये थे आज भी बंगाल के प्रति देशबन्धु का यह प्रेम देखकर वे निरुत्तर हो गये। उन दोनों के संबंधों में एक विशेषता थी। देशबन्धु के साथ अनेक व्यक्ति थे, परन्तु वे सब उनके शिष्य थे। श्रद्धा-भक्ति रखते थे। मित्र और सखा का सौहार्द मिलता था उन्हें केवल शरत्चन्द्र से। जब वे आघात पर आधात पाकर व्याकुल हो उठते, तब मन-प्राण को उत्फुल्ल करने वाले शरत्चन्द्र ही थे। आर्थिक सहायता करने में भी वे कभी पीछे नहीं रहे। मोटी रकम का चेक चुपचाप देशबन्धु के हाथ में थमा आते।

तारकेश्वर के तत्कलीन महन्त सतीश गिरि के विरुद्ध महावीर दल के स्वामी सच्चिदानन्द और स्वामी विश्वानन्द ने सत्याग्रह आन्दोलन किया था । वे दोनों सुधारवादी थे। परन्तु महन्त की शक्ति भी कम नहीं थी । इसीलिए वे दोनों स्वामी देशबन्धु की शरण में आए। एक दिन क्या हुआ कि स्वयं इन दोनों स्वामियों में किसी बात को लेकर काफी विरोध पैदा हो गया। देशबन्धु ने बड़े-बड़े समझौते कराए थे, परन्तु उन दोनों स्वामियों में समझौता करा सकने में वे सफल नहीं हो सके। उस दिन वे दोनों स्वामी चीख-चीखकर अपनी बात कह रहे थे। संयोग से शरत्चन्द्र भी वहां उपस्थित थे। देशबन्धु की व्यथा का कोई अन्त नहीं था। बोले, "शरत् बाबू, अब निश्चय ही प्राण गए।"

शरत् बाबू ने उत्तर दिया, "वह तो जायेंगे ही।"

सुनकर देशबन्धु चकित हो उठे। शरत् बाबू बोले, "मोशाय, दो स्त्रियों को लेकर गृहस्थी चलाने में मनुष्य के प्राण संकट में पड़ जाते हैं। आप तो दो स्वामियों को लेकर घर- गृहस्थी करने चले है। आपके प्राण नहीं जाएंगे तो किसके जाएंगे?"

यह गम्भीर तर्क सुनकर सभी उपस्थित व्यक्ति अट्टहास कर उठे। दोनों स्वामियों ने भी मुक्त काट से उसमें अपना योग दिया। सम्भवत: इसी करण बाद में दोनों में समझौता भी हो गया।

शरत् बाबू की परिहास वृत्ति सचमुच बड़ी मुखर थी । बहुधा कठिन समय में वही वृत्ति वातावरण को बदल देती थी। उन दिनों अधिकांश व्यक्ति मोटा खद्दर पहनते थे। अनिलवरण राय तो मोटे खद्दर का केवल एक गमछा ही धारण करते थे, लेकिन इसके विपरीत सुभाषचन्द्र के बड़े भाई शरत्चन्द्र बोस अत्यन्त महीन खद्दर की धोती, कुर्ता और चादर का प्रयोग करते थे। वैसे भी वे विशालकाय व्यक्ति थे। धोती टखने तक आती । पंजाबी कुरता भी खूब लम्बा और ऊपर से चादर । एक दिन किसी ने विनोद में पूछ लिया, "शरत् बाबू, आपका यह महीन खद्दर कहां तैयार होता है।"

शरत् बाबू ने समझा कि वे बन्धु उनके बारीक खद्दर पहनने पर आक्षेप कर रहे हैं। उग्र होकर बोले, "भागलपुर में।.

लगा, जैसे कोई अप्रिय घटना होने वाली है कि तभी साहित्यिक शरत्चन्द्र बोले उठे, "अजी, हमारे यहां सब प्रकार के नमूने हैं। वैचित्र्य होना ही अच्छा है। अनिलवरण राय खद्दर की मदर टिंचर है और शरत्चन्द्र बोस टू हण्ड्रेड डाइल्युशन ।"

होम्योपैथिक दवाओं के सिद्धान्त के इस उदाहरण से वातावरण बिलकुल ही बदल गया। सब लोग अट्टहास कर उठे और शरत्चन्द्र बोस भी उस व्यंग्य की चोट को भूलकर हंसने लगे।

लेकिन कभी-कभी यह व्यंग्य बड़ा कठोर हो उठता था। दिल्ली कांग्रेस के अधिवेशन के अवसर पर शरत्चन्द्र अन्य मित्रों के साथ दर्शनीय स्थान भी देखने गए थे। एक दिन वे लोग कुतुबमीनार के पास एक विकराल बावड़ी देखने गए। तुरन्त तीन मंज़िल से उसमें कूदने वाला एक युवक पण्डा उनके पास आकर हाज़िर हो गया। सुभाषचन्द्र ने उनमे एक रुपया दिया। वह तुरन्त नीचे कूद पड़ा। बाप रे, कैसा लोमहर्षक दृश्य था। ज़रा-से कुंए जितना घेरा, कृपण के धन जैसी रोशनी, जरा इधर-उधर हुए तो हहु-पिसली गई, पर वह पण्डा तो फिर आकर रुपया मांगने लगा। बोला, "एक रुपया और दीजिए फिर कूदूंगा।.

सुभाषचन्द्र, किरणशंकर राय, दिलीपकुमार राय सभी ने मना कर दिया, परन्तु शरत् बाबू ने तुरन्त एक रुपया निकालकर उसके हाथ पर रख दिया। बोले, "कूदो।"

चकित होकर सुभाषचन्द्र बोस ने कहा, "क्यों, अभी तो देख चुके हैं।"

शरत् बाबू हंसकर बोले, "कौन जाने इस बार इधर-उधर हो जाने से चोट लगे या डूब जाए। तब एक दुस्साहसी पण्डा तो कम होगा।.

यहां से वे अपने छोटे भाई प्रभासचन्द्र (स्वामी वेदानन्द) के पास वृन्दावन गये। साथ में कई मित्र थे। एक दिन सभी राधाकुण्ड देखने गये। उन्हें देखकर कई पण्डे साथ आगे और पैसे मांगने लगे। किसी की समझ में नही आया कि क्या दें। लेकिन शरत् बाबू ने तुरन्त दो रुपये निकाले और उनके बीच में फेंक दिये। सभी चकित थे— दो रुपये ! शरत् बाबू बोले, "देखा नहीं, उन रुपयों पर वे सब कैसे झपटे थे! मैंने सदा के लिए उनमें झगड़ा करा दिया है। ये रुपये किसके हैं, वे कभी फैसला नहीं कर पायेंगे।"

क्रूर हास्य की ये घटनाएं क्या स्पष्ट नहीं करतीं कि इन तमाशों से उन्हें कितनी घृणा थी?

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रचनाएँ
आवारा मसीहा
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मूल हिंदी में प्रकाशन के समय से 'आवारा मसीहा' तथा उसके लेखक विष्णु प्रभाकर न केवल अनेक पुरस्कारों तथा सम्मानों से विभूषित किए जा चुके हैं, अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद प्रकाशित हो चुका है और हो रहा है। 'सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार' तथा ' पाब्लो नेरुदा सम्मान' के अतिरिक्त बंग साहित्य सम्मेलन तथा कलकत्ता की शरत समिति द्वारा प्रदत्त 'शरत मेडल', उ. प्र. हिंदी संस्थान, महाराष्ट्र तथा हरियाणा की साहित्य अकादमियों और अन्य संस्थाओं द्वारा उन्हें हार्दिक सम्मान प्राप्त हुए हैं। अंग्रेजी, बांग्ला, मलयालम, पंजाबी, सिन्धी , और उर्दू में इसके अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं तथा तेलुगु, गुजराती आदि भाषाओं में प्रकाशित हो रहे हैं। शरतचंद्र भारत के सर्वप्रिय उपन्यासकार थे जिनका साहित्य भाषा की सभी सीमाएं लांघकर सच्चे मायनों में अखिल भारतीय हो गया। उन्हें बंगाल में जितनी ख्याति और लोकप्रियता मिली, उतनी ही हिंदी में तथा गुजराती, मलयालम तथा अन्य भाषाओं में भी मिली। उनकी रचनाएं तथा रचनाओं के पात्र देश-भर की जनता के मानो जीवन के अंग बन गए। इन रचनाओं तथा पात्रों की विशिष्टता के कारण लेखक के अपने जीवन में भी पाठक की अपार रुचि उत्पन्न हुई परंतु अब तक कोई भी ऐसी सर्वांगसंपूर्ण कृति नहीं आई थी जो इस विषय पर सही और अधिकृत प्रकाश डाल सके। इस पुस्तक में शरत के जीवन से संबंधित अंतरंग और दुर्लभ चित्रों के सोलह पृष्ठ भी हैं जिनसे इसकी उपयोगिता और भी बढ़ गई है। बांग्ला में यद्यपि शरत के जीवन पर, उसके विभिन्न पक्षों पर बीसियों छोटी-बड़ी कृतियां प्रकाशित हुईं, परंतु ऐसी समग्र रचना कोई भी प्रकाशित नहीं हुई थी। यह गौरव पहली बार हिंदी में लिखी इस कृति को प्राप्त हुआ है।
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भूमिका

21 अगस्त 2023
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संस्करण सन् 1999 की ‘आवारा मसीहा’ का प्रथम संस्करण मार्च 1974 में प्रकाशित हुआ था । पच्चीस वर्ष बीत गए हैं इस बात को । इन वर्षों में इसके अनेक संस्करण हो चुके हैं। जब पहला संस्करण हुआ तो मैं मन ही म

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भूमिका : पहले संस्करण की

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कभी सोचा भी न था एक दिन मुझे अपराजेय कथाशिल्पी शरत्चन्द्र की जीवनी लिखनी पड़ेगी। यह मेरा विषय नहीं था। लेकिन अचानक एक ऐसे क्षेत्र से यह प्रस्ताव मेरे पास आया कि स्वीकार करने को बाध्य होना पड़ा। हिन्दी

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तीसरे संस्करण की भूमिका

21 अगस्त 2023
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लगभग साढ़े तीन वर्ष में 'आवारा मसीहा' के दो संस्करण समाप्त हो गए - यह तथ्य शरद बाबू के प्रति हिन्दी भाषाभाषी जनता की आस्था का ही परिचायक है, विशेष रूप से इसलिए कि आज के महंगाई के युग में पैंतालीस या,

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" प्रथम पर्व : दिशाहारा " अध्याय 1 : विदा का दर्द

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किसी कारण स्कूल की आधी छुट्टी हो गई थी। घर लौटकर गांगुलियो के नवासे शरत् ने अपने मामा सुरेन्द्र से कहा, "चलो पुराने बाग में घूम आएं। " उस समय खूब गर्मी पड़ रही थी, फूल-फल का कहीं पता नहीं था। लेकिन घ

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अध्याय 2: भागलपुर में कठोर अनुशासन

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भागलपुर आने पर शरत् को दुर्गाचरण एम० ई० स्कूल की छात्रवृत्ति क्लास में भर्ती कर दिया गया। नाना स्कूल के मंत्री थे, इसलिए बालक की शिक्षा-दीक्षा कहां तक हुई है, इसकी किसी ने खोज-खबर नहीं ली। अब तक उसने

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अध्याय 3: राजू उर्फ इन्दरनाथ से परिचय

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अध्याय 4: वंश का गौरव

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मोतीलाल चट्टोपाध्याय चौबीस परगना जिले में कांचड़ापाड़ा के पास मामूदपुर के रहनेवाले थे। उनके पिता बैकुंठनाथ चट्टोपाध्याय सम्भ्रान्त राढ़ी ब्राह्मण परिवार के एक स्वाधीनचेता और निर्भीक व्यक्ति थे। और वह

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अध्याय 8: एक प्रेमप्लावित आत्मा

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अध्याय 10: नाना परिवार का विद्रोह

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शरत जब दूसरी बार भागलपुर लौटा तो यह दलबन्दी चरम सीमा पर थी। कट्टरपन्थी लोगों के विरोध में जो दल सामने आया उसके नेता थे राजा शिवचन्द्र बन्दोपाध्याय बहादुर । दरिद्र घर में जन्म लेकर भी उन्होंने तीक्ष्ण

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इसी समय सहसा एक दिन - पता लगा कि राजू कहीं चला गया है। फिर वह कभी नहीं लौटा। बहुत वर्ष बाद श्रीकान्त के रचियता ने लिखा, “जानता नहीं कि वह आज जीवित है या नहीं। क्योंकि वर्षों पहले एक दिन वह बड़े सुबह

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अध्याय 13: सृजिन का युग

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इधर शरत् इन प्रवृत्तियों को लेकर व्यस्त था, उधर पिता की यायावर वृत्ति सीमा का उल्लंघन करती जा रही थी। घर में तीन और बच्चे थे। उनके पेट के लिए अन्न और शरीर के लिए वस्त्र की जरूरत थी, परन्तु इस सबके लि

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अध्याय 14: 'आलो' और ' छाया'

22 अगस्त 2023
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इसी समय निरुपमा की अंतरंग सखी, सुप्रसिद्ध भूदेव मुखर्जी की पोती, अनुपमा के रिश्ते का भाई सौरीन्द्रनाथ मुखोपाध्याय भागलपुर पढ़ने के लिए आया। वह विभूति का सहपाठी था। दोनों में खूब स्नेह था। अक्सर आना-ज

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अध्याय 15 : प्रेम के अपार भूक

22 अगस्त 2023
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एक समय होता है जब मनुष्य की आशाएं, आकांक्षाएं और अभीप्साएं मूर्त रूप लेना शुरू करती हैं। यदि बाधाएं मार्ग रोकती हैं तो अभिव्यक्ति के लिए वह कोई और मार्ग ढूंढ लेता है। ऐसी ही स्थिति में शरत् का जीवन च

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अध्याय 16: निरूद्देश्य यात्रा

22 अगस्त 2023
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गृहस्थी से शरत् का कभी लगाव नहीं रहा। जब नौकरी करता था तब भी नहीं, अब छोड़ दी तो अब भी नहीं। संसार के इस कुत्सित रूप से मुंह मोड़कर वह काल्पनिक संसार में जीना चाहता था। इस दुर्दान्त निर्धनता में भी उ

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अध्याय 17: जीवनमन्थन से निकला विष

24 अगस्त 2023
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घूमते-घूमते श्रीकान्त की तरह एक दिन उसने पाया कि आम के बाग में धुंआ निकल रहा है, तुरन्त वहां पहुंचा। देखा अच्छा-खासा सन्यासी का आश्रम है। प्रकाण्ड धूनी जल रही हे। लोटे में चाय का पानी चढ़ा हुआ है। एक

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अध्याय 18: बंधुहीन, लक्ष्यहीन प्रवास की ओर

24 अगस्त 2023
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इस जीवन का अन्त न जाने कहा जाकर होता कि अचानक भागलपुर से एक तार आया। लिखा था—तुम्हारे पिता की मुत्यु हो गई है। जल्दी आओ। जिस समय उसने भागलपुर छोड़ा था घर की हालत अच्छी नहीं थी। उसके आने के बाद स्थित

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" द्वितीय पर्व : दिशा की खोज" अध्याय 1: एक और स्वप्रभंग

24 अगस्त 2023
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श्रीकान्त की तरह जिस समय एक लोहे का छोटा-सा ट्रंक और एक पतला-सा बिस्तर लेकर शरत् जहाज़ पर पहुंचा तो पाया कि चारों ओर मनुष्य ही मनुष्य बिखरे पड़े हैं। बड़ी-बड़ी गठरियां लिए स्त्री बच्चों के हाथ पकड़े व

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अध्याय 2: सभ्य समाज से जोड़ने वाला गुण

24 अगस्त 2023
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वहां से हटकर वह कई व्यक्तियों के पास रहा। कई स्थानों पर घूमा। कई प्रकार के अनुभव प्राप्त किये। जैसे एक बार फिर वह दिशाहारा हो उठा हो । आज रंगून में दिखाई देता तो कल पेगू या उत्तरी बर्मा भाग जाता। पौं

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अध्याय 3: खोज और खोज

24 अगस्त 2023
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वह अपने को निरीश्वरवादी कहकर प्रचारित करता था, लेकिन सारे व्यसनों और दुर्गुणों के बावजूद उसका मन वैरागी का मन था। वह बहुत पढ़ता था । समाज विज्ञान, यौन विज्ञान, भौतिक विज्ञान, दर्शन, कुछ भी तो नहीं छू

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अध्याय 4: वह अल्पकालिक दाम्पत्य जीवन

24 अगस्त 2023
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एक दिन क्या हुआ, सदा की तरह वह रात को देर से लौटा और दरवाज़ा खोलने के लिए धक्का दिया तो पाया कि भीतर से बन्द है । उसे आश्चर्य हुआ, अन्दर कौन हो सकता है । कोई चोर तो नहीं आ गया। उसने फिर ज़ोर से धक्का

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अध्याय 5: चित्रांगन

24 अगस्त 2023
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शरत् ने बहुमुखी प्रतिभा के धनी रवीन्द्रनाथ के समान न केवल साहित्य में बल्कि संगीत और चित्रकला में भी रुचि ली थी । यद्यपि इन क्षेत्रों में उसकी कोई उपलब्धि नहीं है, पर इस बात के प्रमाण अवश्य उपलब्ध है

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अध्याय 6: इतनी सुंदर रचना किसने की ?

24 अगस्त 2023
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रंगून जाने से पहले शरत् अपनी सब रचनाएं अपने मित्रों के पास छोड़ गया था। उनमें उसकी एक लम्बी कहानी 'बड़ी दीदी' थी। वह सुरेन्द्रनाथ के पास थी। जाते समय वह कह गया था, “छपने की आवश्यकता नहीं। लेकिन छापना

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अध्याय 7: प्रेरणा के स्रोत

24 अगस्त 2023
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एक ओर अंतरंग मित्रों के साथ यह साहित्य - चर्चा चलती थी तो दूसरी और सर्वहारा वर्ग के जीवन में गहरे पैठकर वह व्यक्तिगत अभिज्ञता प्राप्त कर रहा था। इन्ही में से उसने अपने अनेक पात्रों को खोजा था। जब वह

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अध्याय 8: मोक्षदा से हिरण्मयी

24 अगस्त 2023
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शांति की मृत्यु के बाद शरत् ने फिर विवाह करने का विचार नहीं किया। आयु काफी हो चुकी थी । यौवन आपदाओं-विपदाओं के चक्रव्यूह में फंसकर प्रायः नष्ट हो गया था। दिन-भर दफ्तर में काम करता था, घर लौटकर चित्र

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अध्याय 9: गृहदाद

24 अगस्त 2023
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'चरित्रहीन' प्रायः समाप्ति पर था। 'नारी का इतिहास प्रबन्ध भी पूरा हो चुका था। पहली बार उसके मन में एक विचार उठा- क्यों न इन्हें प्रकाशित किया जाए। भागलपुर के मित्रों की पुस्तकें भी तो छप रही हैं। उनस

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अध्याय 10: हाँ , अब फिर लिखूंगा

24 अगस्त 2023
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गृहदाह के बाद वह कलकत्ता आया । साथ में पत्नी थी और था उसका प्यारा कुत्ता। अब वह कुत्ता लिए कलकत्ता की सड़कों पर प्रकट रूप में घूमता था । छोटी दाढ़ी, सिर पर अस्त-व्यस्त बाल, मोटी धोती, पैरों में चट्टी

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अध्याय 11: रामेर सुमित शरतेर सुमित

24 अगस्त 2023
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रंगून लौटकर शरत् ने एक कहानी लिखनी शुरू की। लेकिन योगेन्द्रनाथ सरकार को छोड़कर और कोई इस रहस्य को नहीं जान सका । जितनी लिख लेता प्रतिदिन दफ्तर जाकर वह उसे उन्हें सुनाता और वह सब काम छोड़कर उसे सुनते।

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अध्याय 12: सृजन का आवेग

24 अगस्त 2023
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‘रामेर सुमति' के बाद उसने 'पथ निर्देश' लिखना शुरू किया। पहले की तरह प्रतिदिन जितना लिखता जाता उतना ही दफ्तर में जाकर योगेन्द्रनाथ को पढ़ने के लिए दे देता। यह काम प्राय: दा ठाकुर की चाय की दुकान पर हो

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अध्याय 13: चरितहीन क्रिएटिंग अलामिर्ग सेंसेशन

25 अगस्त 2023
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छोटी रचनाओं के साथ-साथ 'चरित्रहीन' का सृजन बराबर चल रहा था और उसके प्रकाशन को 'लेकर काफी हलचल मच गई थी। 'यमुना के संपादक फणीन्द्रनाथ चिन्तित थे कि 'चरित्रहीन' कहीं 'भारतवर्ष' में प्रकाशित न होने लगे।

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अध्याय 14: ' भारतवर्ष' में ' दिराज बहू '

25 अगस्त 2023
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द्विजेन्द्रलाल राय शरत् के बड़े प्रशंसक थे। और वह भी अपनी हर रचना के बारे में उनकी राय को अन्तिम मानता था, लेकिन उन दिनों वे काव्य में व्यभिचार के विरुद्ध आन्दोलन कर रहे थे। इसलिए 'चरित्रहीन' को स्वी

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अध्याय 15 : विजयी राजकुमार

25 अगस्त 2023
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अगले वर्ष जब वह छः महीने की छुट्टी लेकर कलकत्ता आया तो वह आना ऐसा ही था जैसे किसी विजयी राजकुमार का लौटना उसके प्रशंसक और निन्दक दोनों की कोई सीमा नहीं थी। लेकिन इस बार भी वह किसी मित्र के पास नहीं ठ

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अध्याय 16: नये- नये परिचय

25 अगस्त 2023
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' यमुना' कार्यालय में जो साहित्यिक बैठकें हुआ करती थीं, उन्हीं में उसका उस युग के अनेक साहित्यिकों से परिचय हुआ उनमें एक थे हेमेन्द्रकुमार राय वे यमुना के सम्पादक फणीन्द्रनाथ पाल की सहायता करते थे। ए

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अध्याय 17: ' देहाती समाज ' और आवारा श्रीकांत

25 अगस्त 2023
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अचानक तार आ जाने के कारण शरत् को छुट्टी समाप्त होने से पहले ही और अकेले ही रंगून लौट जाना पड़ा। ऐसा लगता है कि आते ही उसने अपनी प्रसिद्ध रचना पल्ली समाज' पर काम करना शरू कर दिया था, लेकिन गृहिणी के न

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अध्याय 18: दिशा की खोज समाप्त

25 अगस्त 2023
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वह अब भी रंगून में नौकरी कर रहा था, लेकिन उसका मन वहां नहीं था । दफ्तर के बंधे-बंधाए नियमो के साथ स्वाधीन मनोवृत्ति का कोई मेल नही बैठता था। कलकत्ता से हरिदास चट्टोपाध्याय उसे बराबर नौकरी छोड़ देने क

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" तृतीय पर्व: दिशान्त " अध्याय 1: ' वह' से ' वे '

25 अगस्त 2023
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जिस समय शरत् ने कलकत्ता छोडकर रंगून की राह ली थी, उस समय वह तिरस्कृत, उपेक्षित और असहाय था। लेकिन अब जब वह तेरह वर्ष बाद कलकत्ता लौटा तो ख्यातनामा कथाशिल्पी के रूप में प्रसिद्ध हो चुका था। वह अब 'वह'

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अध्याय 2: सृजन का स्वर्ण युग

25 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र के जीवन का स्वर्णयुग जैसे अब आ गया था। देखते-देखते उनकी रचनाएं बंगाल पर छा गई। एक के बाद एक श्रीकान्त" ! (प्रथम पर्व), 'देवदास' 2', 'निष्कृति" 3, चरित्रहीन' और 'काशीनाथ' पुस्तक रूप में प्रक

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अध्याय 3: आवारा श्रीकांत का ऐश्वर्य

25 अगस्त 2023
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'चरित्रहीन' के प्रकाशन के अगले वर्ष उनकी तीन और श्रेष्ठ रचनाएं पाठकों के हाथों में थीं-स्वामी(गल्पसंग्रह - एकादश वैरागी सहित) - दत्ता 2 और श्रीकान्त ( द्वितीय पर्वों 31 उनकी रचनाओं ने जनता को ही इस प

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अध्याय 4: देश के मुक्ति का व्रत

25 अगस्त 2023
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जिस समय शरत्चन्द्र लोकप्रियता की चरम सीमा पर थे, उसी समय उनके जीवन में एक और क्रांति का उदय हुआ । समूचा देश एक नयी करवट ले रहा था । राजनीतिक क्षितिज पर तेजी के साथ नयी परिस्थितियां पैदा हो रही थीं। ब

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अध्याय 5: स्वाधीनता का रक्तकमल

26 अगस्त 2023
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चर्खे में उनका विश्वास हो या न हो, प्रारम्भ में असहयोग में उनका पूर्ण विश्वास था । देशबन्धू के निवासस्थान पर एक दिन उन्होंने गांधीजी से कहा था, "महात्माजी, आपने असहयोग रूपी एक अभेद्य अस्त्र का आविष्क

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अध्याय 6: निष्कम्प दीपशिखा

26 अगस्त 2023
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उस दिन जलधर दादा मिलने आए थे। देखा शरत्चन्द्र मनोयोगपूर्वक कुछ लिख रहे हैं। मुख पर प्रसन्नता है, आखें दीप्त हैं, कलम तीव्र गति से चल रही है। पास ही रखी हुई गुड़गुड़ी की ओर उनका ध्यान नहीं है। चिलम की

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अध्याय 7: समाने समाने होय प्रणयेर विनिमय

26 अगस्त 2023
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शरत्चन्द्र इस समय आकण्ठ राजनीति में डूबे हुए थे। साहित्य और परिवार की ओर उनका ध्यान नहीं था। उनकी पत्नी और उनके सभी मित्र इस बात से बहुत दुखी थे। क्या हुआ उस शरतचन्द्र का जो साहित्य का साधक था, जो अड

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अध्याय 8: राजनीतिज्ञ अभिज्ञता का साहित्य

26 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र कभी नियमित होकर नहीं लिख सके। उनसे लिखाया जाता था। पत्र- पत्रिकाओं के सम्पादक घर पर आकर बार-बार धरना देते थे। बार-बार आग्रह करने के लिए आते थे। भारतवर्ष' के सम्पादक रायबहादुर जलधर सेन आते,

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अध्याय 9: लिखने का दर्द

26 अगस्त 2023
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अपनी रचनाओं के कारण शरत् बाबू विद्यार्थियों में विशेष रूप से लोकप्रिय थे। लेकिन विश्वविद्यालय और कालेजों से उनका संबंध अभी भी घनिष्ठ नहीं हुआ था। उस दिन अचानक प्रेजिडेन्सी कालेज की बंगला साहित्य सभा

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अध्याय 10: समिष्ट के बीच

26 अगस्त 2023
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किसी पत्रिका का सम्पादन करने की चाह किसी न किसी रूप में उनके अन्तर में बराबर बनी रही। बचपन में भी यह खेल वे खेल चुके थे, परन्तु इस क्षेत्र में यमुना से अधिक सफलता उन्हें कभी नहीं मिली। अपने मित्र निर

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अध्याय 11: आवारा जीवन की ललक

26 अगस्त 2023
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राजनीतिक क्षेत्र में इस समय अपेक्षाकृत शान्ति थी । सविनय अवज्ञा आन्दोलन जैसा उत्साह अब शेष नहीं रहा था। लेकिन गांव का संगठन करने और चन्दा इकट्ठा करने में अभी भी वे रुचि ले रहे थे। देशबन्धु का यश ओर प

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अध्याय 12: ' हमने ही तोह उन्हें समाप्त कर दिया '

26 अगस्त 2023
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देशबन्धु की मृत्यु के बाद शरत् बाबू का मन राजनीति में उतना नहीं रह गया था। काम वे बराबर करते रहे, पर मन उनका बार-बार साहित्य के क्षेत्र में लौटने को आतुर हो उठता था। यद्यपि वहां भी लिखने की गति पहले

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अध्याय 13: पथेर दाबी

26 अगस्त 2023
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जिस समय वे 'पथेर दाबी ' लिख रहे थे, उसी समय उनका मकान बनकर तैयार हो गया था । वे वहीं जाकर रहने लगे थे। वहां जाने से पहले लगभग एक वर्ष तक वे शिवपुर टाम डिपो के पास कालीकुमार मुकर्जी लेने में भी रहे थे

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अध्याय 14: रूप नारायण का विस्तार

26 अगस्त 2023
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गांव में आकर उनका जीवन बिलकुल ही बदल गया। इस बदले हुए जीवन की चर्चा उन्होंने अपने बहुत-से पत्रों में की है, “रूपनारायण के तट पर घर बनाया है, आरामकुर्सी पर पड़ा रहता हूं।" एक और पत्र में उन्होंने लिख

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अध्याय 15: देहाती शरत

26 अगस्त 2023
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गांव में रहने पर भी शहर छूट नहीं गया था। अक्सर आना-जाना होता रहता था। स्वास्थ्य बहुत अच्छा न होने के कारण कभी-कभी तो बहुत दिनों तक वहीं रहना पड़ता था । इसीलिए बड़ी बहू बार-बार शहर में मकान बना लेने क

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अध्याय 16: दायोनिसस शिवानी से वैष्णवी कमललता तक

26 अगस्त 2023
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किशोरावस्था में शरत् बात् ने अनेक नाटकों में अभिनय करके प्रशंसा पाई थी। उस समय जनता को नाटक देखने का बहुत शौक था, लेकिन भले घरों के लड़के मंच पर आयें, यह कोई स्वीकार करना नहीं चाहता था। शरत बाबू थे ज

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अध्याय 17: तुम में नाटक लिखने की शक्ति है

26 अगस्त 2023
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शरत साहित्य की रीढ़, नारी के प्रति उनका दृष्टिकोण है। बार-बार अपने इसी दृष्टिकोण को उन्होंने स्पष्ट किया है। प्रसिद्धि के साथ-साथ उन्हें अनेक सभाओं में जाना पडता था और वहां प्रायः यही प्रश्न उनके साम

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अध्याय 18: नारी चरित्र के परम रहस्यज्ञाता

26 अगस्त 2023
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केवल नारी और विद्यार्थी ही नहीं दूसरे बुद्धिजीवी भी समय-समय पर उनको अपने बीच पाने को आतुर रहते थे। बड़े उत्साह से वे उनका स्वागत सम्मान करते, उन्हें नाना सम्मेलनों का सभापतित्व करने को आग्रहपूर्वक आ

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अध्याय 19: मैं मनुष्य को बहुत बड़ा करके मानता हूँ

26 अगस्त 2023
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चन्दन नगर की गोष्ठी में उन्होंने कहा था, “राजनीति में भाग लिया था, किन्तु अब उससे छुट्टी ले ली है। उस भीड़भाड़ में कुछ न हो सका। बहुत-सा समय भी नष्ट हुआ । इतना समय नष्ट न करने से भी तो चल सकता था । ज

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अध्याय 20: देश के तरुणों से में कहता हूँ

26 अगस्त 2023
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साधारणतया साहित्यकार में कोई न कोई ऐसी विशेषता होती है, जो उसे जनसाधारण से अलग करती है। उसे सनक भी कहा जा सकता है। पशु-पक्षियों के प्रति शरबाबू का प्रेम इसी सनक तक पहुंच गया था। कई वर्ष पूर्व काशी में

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अध्याय 21:  ऋषिकल्प

26 अगस्त 2023
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जब कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर सत्तर वर्ष के हुए तो देश भर में उनकी जन्म जयन्ती मनाई गई। उस दिन यूनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट, कलकत्ता में जो उद्बोधन सभा हुई उसके सभापति थे महामहोपाध्याय श्री हरिप्रसाद शास्त

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अध्याय 22: गुरु और शिष्य

27 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र 60 वर्ष के भी नहीं हुए थे, लेकिन स्वास्थ्य उनका बहुत खराब हो चुका था। हर पत्र में वे इसी बात की शिकायत करते दिखाई देते हैं, “म सरें दर्द रहता है। खून का दबाव ठीक नहीं है। लिखना पढ़ना बहुत क

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अध्याय 23: कैशोर्य का वह असफल प्रेम

27 अगस्त 2023
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शरत् बाबू की रचनाओं के आधार पर लिखे गये दो नाटक इसी युग में प्रकाशित हुए । 'विराजबहू' उपन्यास का नाट्य रूपान्तर इसी नाम से प्रकाशित हुआ। लेकिन दत्ता' का नाट्य रूपान्तर प्रकाशित हुआ 'विजया' के नाम से

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अध्याय 24: श्री अरविन्द का आशीर्वाद

27 अगस्त 2023
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गांव में रहते हुए शरत् बाबू को काफी वर्ष बीत गये थे। उस जीवन का अपना आनन्द था। लेकिन असुविधाएं भी कम नहीं थीं। बार-बार फौजदारी और दीवानी मुकदमों में उलझना पड़ता था। गांव वालों की समस्याएं सुलझाते-सुल

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अध्याय 25: तुब बिहंग ओरे बिहंग भोंर

27 अगस्त 2023
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राजनीति के क्षेत्र में भी अब उनका कोई सक्रिय योग नहीं रह गया था, लेकिन साम्प्रदायिक प्रश्न को लेकर उन्हें कई बार स्पष्ट रूप से अपने विचार प्रकट करने का अवसर मिला। उन्होंने बार-बार नेताओं की आलोचना की

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अध्याय 26: अल्हाह.,अल्हाह.

27 अगस्त 2023
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सर दर्द बहुत परेशान कर रहा था । परीक्षा करने पर डाक्टरों ने बताया कि ‘न्यूरालाजिक' दर्द है । इसके लिए 'अल्ट्रावायलेट रश्मियां दी गई, लेकिन सब व्यर्थ । सोचा, सम्भवत: चश्मे के कारण यह पीड़ा है, परन्तु

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अध्याय 27: मरीज की हवा दो बदल

27 अगस्त 2023
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हिरण्मयी देवी लोगों की दृष्टि में शरत्चन्द्र की पत्नी थीं या मात्र जीवनसंगिनी, इस प्रश्न का उत्तर होने पर भी किसी ने उसे स्वीकार करना नहीं चाहा। लेकिन इसमें तनिक भी संशय नहीं है कि उनके प्रति शरत् बा

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अध्याय 28: साजन के घर जाना होगा

27 अगस्त 2023
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कलकत्ता पहुंचकर भी भुलाने के इन कामों में व्यतिक्रम नहीं हुआ। बचपन जैसे फिर जाग आया था। याद आ रही थी तितलियों की, बाग-बगीचों की और फूलों की । नेवले, कोयल और भेलू की। भेलू का प्रसंग चलने पर उन्होंने म

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अध्याय 29: बेशुमार यादें

27 अगस्त 2023
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इसी बीच में एक दिन शिल्पी मुकुल दे डाक्टर माके को ले आये। उन्होंने परीक्षा करके कहा, "घर में चिकित्सा नहीं ही सकती । अवस्था निराशाजनक है। किसी भी क्षण मृत्यु हो सकती है। इन्हें तुरन्त नर्सिंग होम ले

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