छोटी रचनाओं के साथ-साथ 'चरित्रहीन' का सृजन बराबर चल रहा था और उसके प्रकाशन को 'लेकर काफी हलचल मच गई थी। 'यमुना के संपादक फणीन्द्रनाथ चिन्तित थे कि 'चरित्रहीन' कहीं 'भारतवर्ष' में प्रकाशित न होने लगे। प्रमथनाथ बराबर आग्रह कर रहे थे, “यमुना' के सम्पादक फणि बाबू कौन है, मैं नहीं जानता, लेकिन उनका तुम्हारे ऊपर इतना ज़ोर है कि हमारे इतने दिन के प्रणय के बीच में व्यवधान स्वरूप हो उठे हैं, यह देखकर मन ही मन ईर्ष्या होती है...... फिर भी नई यमुना के प्रेम में पुरानों को एकदम भूल जाना उचित नहीं है .... 'चरित्रहीन' निश्चय ही चाहिए....
इधर प्रमथ का ऐसा आग्रह था तो उधर 'साहित्य' के सम्पादक रजिस्ट्री द्वारा चिट्ठियों पर चिट्ठियां भेज रहे थे। 'यमुना' ने तो 'चरित्रहीन' का विज्ञापन ही शुरू कर दिया था। ऐसी स्थिति में शरत् बड़ी परेशानी में पड़ गया। उसने प्रमथ को लिखा-
“वैशाख की 'यमुना' में यह विज्ञापन गया है कि 'चरित्रहीन' श्रावण से प्रकाशित करेंगे। इस हालत में मेरे कहने के लिए क्या बचा है, नहीं जानता। क्यों तुमने मुझसे बिना पूछे हरिदास बाबू से यह प्रस्ताव कर दिया, यह मैं समझता हूं। तुम जानते हो कि असाध्य न हाने पर मैं तुमको सब कुछ दे सकता हूं। अब यह संकट किस तरह दूर होगा, यह निश्चय करना कठिन हो गया है। तुम मेरे कारण लज्जित होगे और बुरी स्थिति में पड़ोगे इससे मैं द्विविधा में पड़ गया हूं। यमुना' में छापना उचित है या नहीं, यह प्रश्न ही नहीं उठता, तुम्हारे मान-सम्मान का प्रश्न ही असली बात है। जितना लिखा है उतना 'चरित्रहीन' पढ़ने के लिए
की बात सोचता हूं। तुम यदि सचमुच ही समझते हो कि यह तुम्हारे पत्र में छपने योग्य है, तो मैं तुम्हें छापने के लिए कह सकता हूं। लेकिन यदि ऐसा नहीं है और केवल मेरे भले के लिए ही तुम उसे छापने की चेष्टा करोगे तो यह नहीं होगा । निरपेक्ष सत्य ही मैं साहित्य के क्षेत्र में चाहता हूं। यदि इसमें कहीं भी कोई भी परिवर्तन चाहेगा तो वह नहीं हो सकेगा। केवल नाम देखकर ही तुम उसे 'चरित्रहीन' मत समझ बैठना। मैं नीतिशास्त्र का विद्यार्थी हूं, सच्चा विद्यार्थी हूं। पढ़कर लौटा देना और निस्संकोच राय देना । मेरा जो गम्भीर उद्देश्य है उसको मन में रखना। यह 'बटतले' की किताब नहीं है।"
और उसने पाण्डुलिपि प्रमथनाथ को भेज दी, उन्होंने तुरन्त पहुंच नहीं दी तो वह उतावला हो उठा और पत्र पर पत्र लिखने लगा ।
“प्रमथ, 'चरित्रहीन' मिला कि नहीं, यह खबर भी नहीं दी। उसे पढ़ा कि नहीं, कैसा लगा? यदि तुम्हारा निरपेक्ष मत यही है कि यह अच्छा नहीं होगा तो जिससे अच्छा हो वैसी कोशिश करूंगा। मैंने तुम्हें पहले ही लिखा था कि यह चरित्रहीन है, षट्चक्र भेद नहीं है। केवल नीतिशास्त्र है और मनोविज्ञान है, धर्म नही...."
आखिर प्रमथनाथ का उत्तर आ गया। उन्हें वह बहुत रुचिकर नहीं लगा कि उपन्यास के आरम्भ में ही मेस की दासी को लाकर खड़ा कर दिया जाए। शरत् ने बड़े विश्वास के साथ इसका उत्तर देते हुए लिखा, “जो आदमी मेस की दासी को आरम्भ में ही ला खड़ा करने का साहस करता है वह जान-बूझ कर ही करता है। तुम उसका अन्त न जानकर उसको अर्थात् सावित्री को मेस की दासी करके देखते हो। प्रमथ, हीरे को कांच कहकर भूल करते हो भाई, काउण्ट ताल्स्ताय का 'रेज़रेक्शन' पढ़ा है? उनकी यह सर्वोत्तम पुस्तक एक साधारण वेश्या को लेकर है। हमारे देश में अभी तक उस कला को समझने का समय नहीं आया है...... मैं अनावृत कहकर आर्ट को घृणा नहीं कर सकूंगा। लेकिन जिसमें यह ठीक अर्थों में नैतिक हो ऐसा उपसंहार करूंगा।...... इससे पहले यदि कोई इस विषय में ज़रा भी सतर्क कर देता यानी कहता कि दासी को लेकर शुरू करना ठीक नहीं तो हो सकता है मैं दूसरे रास्ते पर जाने की चेष्टा करता। यह बात किसी ने न कहीं। अब बहुत देर हो गई।
प्रमथ अब भी पाण्डुलिपि लौटाने में देर कर रहे थे और दूसरे पत्रों के आग्रह पर आग्रह आ रहे थे। फणि पाल को डर था कि कहीं शरत् किसी प्रलोभन में न पड़ जाए, लेकिन शरत् ने बार-बार उनको यही विश्वास दिलाया कि 'चरित्रहीन' 'यमुना' में ही छपेगा ।
आखिर द्विजेन्द्रलाल राय ने उसे पढ़ा और कहा, “अत्यन्त अश्लील रचना है, किसी अच्छे पत्र में नहीं छप सकती। भद्र समाज में यह उपन्यास प्रकाशित नहीं किया जा सकता।” प्रकाशक हरिदास चट्टोपाध्याय ने भी उसे अनैतिक और प्रकाशन के अयोग्य बताया। इन सब बातों की चर्चा करते हुए प्रमथनाथ ने उसे लिखा, “इसके प्रकाशित होने पर लोग निन्दा करेंगे। तुम्हें इस तरह का अश्लील उपन्यास नहीं लिखना चाहिए था।”
यह पत्र पढ़कर वह उग्र हो उठा और तुरन्त 'चरित्रहीन' लौटा देने का आग्रह करते हुए उसने लिखा, “अंग विशेष लोगों को खोलकर नहीं दिखाते, यह मैं जानता हूं, किन्तु घायल स्थान भी नहीं दिखाते, यह नहीं जानता। समाज में यदि कोई डाक्टर है जिसका काम घावों की चिकित्सा करना है, वह क्या किसी की सुनता है? जो पक गया है उसको बांधे रखना दूसरों के लिए देखने में अच्छा लग सकता है, लेकिन जिस आदमी के शरीर में घाव है। उसको तो कोई सुविधा नहीं होती, केवल सौन्दर्य-सृष्टि के अतिरिक्त उपन्यास-लेखक का और एक महत्वपूर्ण काम है। वह काम यदि घाव को देखना है तो वैसा करना ही होगा। ऑस्टिन, मेरी कॉरेली एवं सारा ग्रेंड ने समाज के अनेक घावों पर से पर्दा उठाया है। ठीक करने के लिए, केवल लोगों को दिखाकर भयभीत करने या मनोरंजन करने के लिए नहीं ....... तुमने लिखा है कि 'चरित्रहीन' दूसरे के नाम से प्रकाशित करना, इससे सबसे अधिक दुख हुआ । मैं क्या इतना हीन हूं? अच्छा-बुरा जैसा भी है, इसका परिणाम मैं ही भुगतना चाहता हूं। इतना कुरुचिपूर्ण है तब तो निश्चय ही मेरे नाम से प्रकाशित होगा। नाम में क्या है? कौन यह लोभ करे? यह लोभ होता तो भाई चुप रहकर इतने दिन कष्ट न सहता।”
वह अद्भुत रूप से दृढ़ हो उठा था। लेकिन वह यह भी जानता था कि छपने से पूर्व ही जिस पुस्तक की इतनी छीछालेदार हुई है, छपने के बाद निश्चय ही लोग उसकी तीव्र आलोचना करेंगे। उनका उत्तर देने के लिए उसने, 'रिज़रेक्शन' के अलावा रवीन्द्रनाथ आदि साहित्यकारों की पुस्तकों के हवाले खोज लिए थे। वह मानता था कि क्रमशः प्रकाशित होने वाले उपन्यास को लेकर यदि वितण्डावाद उठ खड़ा होता है तो उससे ग्राहक जुटते ही हैं, टूटते नहीं । निन्दा करने पर भी लोग पढ़ने के लिए उत्सुक रहते हैं। नहीं तो फीके रक्तहीन उपन्यास दिन-रात छपते रहते हैं। उन्हें कौन पढ़ता है?
और वह ठीक था। यमुना' में जब 'चरित्रहीन' का पहला अंश प्रकाशित हुआ तो इतना तूफान उठा जितना बहुत कम पुस्तकों को लेकर उठा होगा। फणीन्द्रनाथ पाल ने उसे तार दिया, “चरित्रहीन क्रिएटिंग एलामिंग सेन्सेशन ।”
मन ही मन शरत् इस बात से बहुत प्रसन्न हुआ। बंगाली उपन्यासों के उद्धरण दे-देकर और भी तीव्रता से उसने अपना बचाव करना आरम्भ कर दिया। प्रमथ को लिखा-
...मैं पूछता हूं, उसमें है क्या? एक शरीफ घर की लड़की किसी भी कारण से हो, मेस की नौकरानी का काम करती है...... और एक शरीफ युवक इसके प्रेम में पड़ता है। फिर भी अन्त तक उसकी कोई खास प्रश्रय नहीं मिलता। और रवीन्द्रनाथ की 'चोखेर वाली' में शरीफ घर की विधवा अपने घर में, यहां तक कि रिश्तेदारों में, ही नष्ट हो रही है। फिर भी किसी ने चूं तक नहीं की। बंकिम चन्द्र के 'वसियतनामे की रोहिणी की याद है ? ..... बस मेरे 'चरित्रहीन' में ही सारा दोष है ?... जो कुछ भी हो, मैं यह स्वीकार नहीं करता और ऐसा इसलिए नहीं करता कि मैं नहीं समझता कि 'चरित्रहीन' में एक शब्द भी अनैतिक है। सम्भव है कुछ लोग इसमें कुरुचि देखें, पर लोग जो कह रहे हैं वह इसमें नहीं है। मैंने इसका नाम 'चरित्रहीन' रखा है, इसलिए इसमें कुल कुण्डलिनी चक्र जाग्रत करने की बात होगी, ऐसी आशा तो नहीं की जा सकती। जिसकी इच्छा हो वे पढ़ेगे। जो नाम से घबराते है वे नहीं पढ़ेंगे।”
शरत् ने अब अपने अन्तर के साहित्यकार को पा लिया था।