इन दुस्साहसिक कार्यों और साहित्य-सृजन के बीच प्रवेशिका परीक्षा का परिणाम - कभी का निकल चुका था और सब बाधाओं के बावजूद वह द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया था। अब उसे कालेज में प्रवेश करना था। परन्तु सदा की तरह फीस देने का प्रश्न फिर बाधा बनकर आ उपस्थित हुआ। जो व्यक्ति प्रवेशिका परीक्षा की फीस नहीं दे सकता था वह कालेज का खर्च कैसे चलाएगा, लेकिन मां की कामना थी कि उसका बेटा बड़ा आदमी बने। इसलिए उसने किस-किसके आगे हाथ नहीं जोड़े। अन्त में छोटी नानी कुसुमकामिनी शरत् की रक्षा की। पति से परामर्श करके उसने उसे घर के छोटे बच्चों का ट्यूटर नियुक्त कर दिया। बदले में उसको कालेज की फीस और पुस्तकों का खर्च चलाने लायक पैसे मिल जाते। मामाओं को पढ़ाने के बाद वह स्वयं पढ़ता था। आधी रात बीत जाती। सवेरे उठना उसे कभी प्रिय नहीं था।
उस दिन कलेज के प्रथम वर्ष में विज्ञान की परीक्षा होने वाली थी। पहली रात को उसने अपने सब विद्यार्थियों को बुलाया और कहा, “कल मेरी परीक्षा है। मैं पढ़ना चाहता हूं। आज रात तुम मुझे परेशान मत करना। जो कुछ भी पूछना हो कल सवेरे आकर पूछना।”
विद्यार्थी चले गए और वह मोटी-मोटी विज्ञान की पुस्तकें लेकर पढ़ने बैठ गया। दरवाज़े और खिड़कियां सब बन्द कर लीं। दूसरे दिन सवेरे विद्यार्थियों का दल नियत समय पर आ पहुंचा। देखा अभी तक लैम्प जल रहा है और शरत् दत्तचित्त होकर पढ़ने में लगा है । उनके आने की आहट पाकर वह चौंका और नाराज़ होकर बोला, “कितना मना किया था कि आज रात मुझे परेशान मत करना, कल मेरी परीक्षा है, मैं नहीं पढ़ा सकूंगा, लेकिन तुमने नहीं सुना !”
विद्यार्थी विस्मित-चकित एक-दूसरे की ओर देखने लगे। किसी तरह एक मामा ने साहस करके कहा, “वह तो कल रात की बात थी। अब तो सबेरा हो चुका है।”
शरत् ने सहसा उठकर खिड़की खोली तो सुबह की सुनहरी धूप कमरे में फैल गई। पढने की ऐसी धुन थी, तभी तो विज्ञान के प्रश्नपत्र के उत्तर देखकर स्वयं अध्यापक महोदय चक्ति रह गए थे। उन्हें विश्वास ही नहीं आ रहा था कि शरत् ने ये उत्तर लिखे हैं। सोचा, कि अवश्य ही इसने पुस्तक से नकल की है।
उन्होंने शरत् को बुलाया और फिर से नया प्रश्नपत्र बनाकर देते हुए कहा, “इन प्रश्नों के उत्तर दो!"
इस बार ज़बानी ही उन प्रश्नों के उत्तर देकर उसने अध्यापक महाशय को चकित कर दिया। उसकी स्मरणशक्ति सचमुच असाधारण थी। परन्तु धीरे-धीरे राजू से उसका सम्पर्क बढ़ता जा रहा था। देखते-देखते वही मुख्य हो गया और शेष गतिविधियां पृष्ठभूमि में चली गई। मछली-चोरी और ज़रूरतमन्दों की सहायता में वह अधिक रुचि लेने लगा। गाना- बजाना सीखने का शौक इतना प्रबल हो उठा कि यात्रा थियेटर करते-करते बहुत रात बीत जाती थी। उसके बाद अर्द्धनिशा में पढ़ने का प्रयत्न करता था। यह सब देखकर मां बहुत दु:खी हुई, परन्तु कोई परिणाम नहीं निकला। अच्छे विद्यार्थी के रूप में उसने जो ख्याति अर्जित कर ली थी वह धीरे- धीरे कम होने लगी।
ठीक इसी समय उसकी मां 2 की मृत्यु हो गई । घोर दरिद्रता में इस सरलप्राणा सती मां ने अपने स्वप्नदर्शी निठल्ले पति के परिवार की कैसे प्राणरक्षा की इसे शब्दों में व्यक्त करना असंभव है। एक सम्पन्न और भरे पूरे परिवार की कन्या होकर भी उन्होंने वधू के रूप में कभी सुख नहीं पाया। बल्कि उनका सारे का सारा जीवन परिवार का पेट पालने के प्रयत्न में ही खप गया। एक भाग्यवादी हिन्दू पतिव्रता की तरह एक-एक करके उन्होंने सभी गहने बेच दिए और बार-बार अपने पिता तथा चाचाओं से भीख मांगी। इसलिए कि उनका बड़ा बेटा शरत् किसी योग्य बन सके। न जाने कितनी बार उन्होंने असीम स्नेह से भरकर कहा होगा, “शरत्, मेरे बच्चे! मैं जानती हूं, अपनी सारी शरारतों के बावजूद तू एक अच्छा लड़का है। तू मन लगाकर पढ़ता रह, मैं तेरी सहायता करूंगी।" लेकिन जीवन के अंतिम दिनों में उनकी यह आशा भौ क्षीण होने लगी थी। वह असमय ही वृद्धा हो गई थीं। आखिर चारों ओर से दुःख और चिन्ताओं से घिरकर उन्होंने प्राणों का विसर्जन कर दिया।
उनके जीवन में वे क्षण भी आए जब उनका असन्तोष उबल उठा। उन्होंने पति को बुरा- भला भी कहा। लेकिन अधिकर तो वे अपने आत्मभोले निठल्ले पति को एक हिन्दू नारी की तरह प्यार ही करती रहीं । शुभद्रा भी तो यही करती है, “स्वामी का सुख उसने एक दिन भी नहीं पाया। कम से कम उसे याद नहीं। उसी स्वामी को अन्न-व्यंजन खिला देने में उसे कितना आनन्द, कितनी तृप्ति मिलती है, इसकी ठीक-ठीक धारणा वह आप ही नहीं कर पाती। आनन्द से उसकी आखों के कोनों में आंसू भर आते हैं।"
भुवन मोहिनी यही प्रेम-प्लावित आत्मा थी । सारा शरत्साहित्य इसी प्रेम-प्लावित आत्मा के मुक्त प्रवाह से आलोकित है। मां शब्द में जो कोमलता, जो त्याग, जो वात्सल्य और जो महान् दायित्व गर्भित है, उसी को मूर्त करने में उसने अपनी सारी शक्ति खर्च कर दी। लेकिन उसके वात्सल्य में एक विशेषता है, वह अपनी कोख के जाए के लिए ही प्रकट नहीं होता बल्कि नारायणी, विश्वश्वरी, हेमांगिनी, बिन्दो आदि के समान उनके लिए भी अजस्र रूप से झरता है जो सन्तान - स्थानीय होने पर भी अपनी सन्तान नहीं हैं।
भुवनमोहिनी अपने पिता के परिवार में जीवन भर यही करती रही और इसीलिए अपनी सारी शरारतों के बावजूद शरत् का अपनी मां के प्रति असीम प्यार था। प्रवेशिका परीक्षा पास करने के बाद मां ने कहा, “मुझे तारकेश्वर जाना होगा। मैंने तेरे बाल चढ़ाने की मानता मानी थी।”
शरत् ने बड़े चाव से लम्बे-लम्बे बाल रखे थें इन्हें कटवा देने की कल्पना मात्र से वह कांप उठा। कैसी शक्त हो जाएगी उसकी ? बिना बालों के? न-न, वह बाल नहीं कटवा सकेगा। इतना आस्तिक नहीं है वह ।
मां बोली, “न कटवा। मैं कुछ और व्यवस्था कर लूंगी।”
“क्या कर लोगी?”
“नायन को बुलाकर अपने बाल कटवा लूंगी और भेज दूंगी।”
बिना एक शब्द बोले शरत् उसी रात तारकेश्वर के लिए रवाना हो गया।
यदि मोतीलाल को भुवनमोहिनी जैसी संगिनी और सहधर्मिणी न मिली होती तो वे बहुत दिन न जी पाते। सुरेन्द्रनाथ ने लिखा है - दोपहर बीत चुकी है। शरद् ऋतु की धूप और भी मन्द पड़ गई है। धागे के सहारे किसी तरह आंखों पर चश्मा चढ़ाए मोतीलाल पुस्तक पढ़ने में व्यस्त हैं। न जाने कब से यह क्रम चल रहा है। भुवनमोहिनी तब अपने से गुड़गुड़ी तैयार करके ला देती है। मोतीलाल कृतज्ञता से गद्गद होकर पूछते हैं, “तुम्हें कैसे पता लग गया है कि मेरा मन तम्बाकू पीने को कर रहा है?”
भुवनमोहिनी अर्धउन्मीलित नयनों में आदर भरकर पति को देखती हुई कहती है, “कैसे पता लग जाता है यह मैं स्वयं नहीं जानती।”
मोतीलाल उत्साहित होकर बोल उठते, "अजी, एक दीवा तो ला दो।”
भुवनमोहिनी उत्तर देती, “सारा - सारा दिन सिर गड़ाए पढ़ते रहते हो, अब जाओ ज़रा घूम आओ।” और फिर इच्छा न होने पर भी मोतीलाल तब घूमने निकल पड़ते।
घर में शरत् के अतिरिक्त दो छोटे भाई प्रभास और प्रकाश तथा एक छोटी बहन सुशीला उर्फ मुनिया थी। इसी बहन की प्रसूति में मां ने प्राण दिए थे। बड़ी बहन अनला शादी हो चुकी थी। पत्नी के मरने पर छोटे बच्चों को लेकर मोतीलाल सचमुच अपंग हो गए। अनेक कारणों से ससुराल में रहना भी अब संभव नहीं था । कथाशिल्पी ने 'देवदास' में लिखा है, “अपने मामा के यहां रहना उसने बहुत दिनों से छोड़ दिया है। वहां उसका किसी तरह से सुभीता नहीं बैठता।” मोतीलाल अब खंजरपुर मोहल्ले में अलग मकान लेकर रहने लगे। अलग तो वह ससुराल में रहकर भी रहते थे लेकिन अब वह उनसे दूर चले गए।
लेकिन जो अब तक अर्जन की विद्या में शून्य थे वह परिवार का पालन कैसे करते, इसलिए वह विकट समस्या उन्हें हताश कने में ही समर्थ हो सकी।
भुवनमोहिनी की मृत्यु ने मोतीलाल को ही नहीं तोड़ा, शरत् के संसार को भी भंग कर दिया, “मां यदि और कुछ जीती रहती तो मेरा जीवन बहुत सुन्दर हो सकता था। मैं यत्किंचित् जो कुछ लिख-पढ़ सका, वह उन्हीं के आग्रह और चेष्टा का फल था। उनकी अकाल मृत्यु से मेरा संसार भंग हो गया।”