चर्खे में उनका विश्वास हो या न हो, प्रारम्भ में असहयोग में उनका पूर्ण विश्वास था । देशबन्धू के निवासस्थान पर एक दिन उन्होंने गांधीजी से कहा था, "महात्माजी, आपने असहयोग रूपी एक अभेद्य अस्त्र का आविष्कार किया है। अगर जनता सरकार से सहयोग न करे तो वह एक दिन में ही समाप्त हो जाए। तब हम एक वर्ष में नही चौबीस घण्टे में स्वराज्य ले सकते हैं।"
इस कार्यक्रम में सचमुच उनका बड़ा उत्साह था। विलायती कपड़ों, वस्तुओं और किताबों के बहिष्कार के वे पूर्ण पक्षपाती थे। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने जब 'सर' की उपाधि लौटा दी थी, तो वे बहुत प्रसन्न हुए थे। लेकिन जब कांग्रेस के आहान पर सर प्रफुल्लचन्द्र राय ने ऐसा नहीं किया तो वे बहुत दुखी हुए। बोले, "चांद में भी कलंक है। उन्हें 'सर' का खिताब लौटा देना चाहिए। उनके समान इतने बड़े देशभक्त ने उपाधि का त्याग नहीं किया, यह व्यथा मेरे मन से किसी भी तरह दूर नहीं होती। "
उनकी व्यथा इसलिए और भी अधिक थी कि वे आचार्य राय को बहुत प्यार करते थे। विलायती वस्त्रों के साथ विलायती खिताबों के बहिष्कार से स्वाधीनता निकट आएगी यह उनक दृढ़ विश्वास था। जो विदेशी खिताब पाकर धन्य होते है, वे बहुत छोटे हैं। और जो उनका सम्मान करते है, वे भी देश के शत्रु हैं।
असहयोग के दिनों में देशबन्धु के सामने एक विकट समस्या उत्पन्न हो गई थी। पुरुष जैसे इस संग्राम में कूद पड़े थे, वैस ही नारियां भी उसमें भाग लेने को आतुर थीं। उन्हीं को लेकर देशबन्धु चिन्तित थे। विशेषकर उनकी व्यवस्था के प्रश्न को लेकर। अन्त में उन्होंने शरतचन्द्र से कहा, "यह भार आपको सौंपता हूं। इनके लिए आपको स्वतन्त्र व्यवस्था करनी होगी। "
स्त्रियां बहुत नहीं थीं। शरत्चन्द्र ने उनके लिए भवानीपुर में नारी कर्म मंदिर' की स्थापना की और उसकी परिचालना का भार सौंपा देशबन्धु की बहन उर्मिला देवी को। बाद में यह संख्या कुछ और बढ़ी, लेकिन शरत्चन्द्र संख्या में विश्वास नहीं करते थे । वे कहा करते थे, "चुग-युग से जो घर से बाहर नहीं निकलीं, रसोई और प्रसूतिघर के अतिरिक्त जिनका और कोई कर्मक्षेत्र नहीं रहा, उनमें से स्वाधीनता के सहस्रों सैनिक कहां से आएंगे? लेकिन कमल कीचड़ से ही फूटता है। एक दिन देश के अन्तःपुर से ही वह फूटेगा । "
यह पहला अवसर था जब गांधीजी के आहान पर भारत की नारी सामूहिक रूप में पुरुष के कन्धे से कन्धा मिलाकर रणभूमि में उतरी थी। दोनों साथ-साथ रहेंगे तो क्या अप्रीतिकर घटनाएं न घटेंगी? यह आशंका अनेक व्यक्तियों को परेशान कर रही थी। शरत् बाबू ने इस अवसर पर स्पष्ट शब्दों में कहा, "मशाल के दीप्त प्रकाश से अंधकार नष्ट
है, यही बात सब लोग जानते है। लेकिन उससे उठने वाली किंचित् बदबू की ओर क्या किसी का ध्यान जाता है? जल-प्लावन से धरती उर्वर हो उठती है। यदि उस जल के साथ कुछ मैला भी आ जाए तो परेशान होने की क्या बात है?"
शिवपुर इंस्टीट्यूट में भाषण देते हुए उन्होंने स्पष्ट कहा, "जिस चेष्टा में, जिस आयोजन में देश की नारियां सम्मिलित नहीं हैं, उनकी सहानुभूति नही है, उस सत्य की उपलब्धि करने का कोई ज्ञान, कोई शिक्षा, कोई साहस आज तक जिनको हमने नहीं दिया, उनको केवल घर के घेरे के भीतर बिठाकर, केवल चरखा कातने के लिए बाध्य करके ही कोई बड़ी वस्तु नहीं प्राप्त की जा सकेगी। औरतों को हमने जो केवल औरत बनाकर ही रखा है मनुष्य नहीं बनने दिया उसका प्रायश्चित्त स्वराज्य के पहले देश को करना ही चाहिए। अत्यन्त स्वार्थ की खातिर जिस देश ने अब तक केवल उसके सतीत्व को ही बड़ा करके देखा है, उसके मनुष्यत्व का कोई खयाल नही किया, उसे उसका देना पहले चुका देना ही होगा।"
जिस समय ये मुटठी-भर नारियां पिकेटिंग करती हुई गिरफ्तार हुई थीं, तो जैसे दावानल भड़क उठा था । सहस्रों व्यक्ति वालंटियर बनने और गिरफ्तार होने के लिए दौड़े पड़े थे।
आन्दोलन का एक प्रमुख अंग था सरकारी स्कूलों और कालेजों का बहिष्कार । कांग्रेस ने छात्रों के अभिभावकों से अनुरोध किया कि वे अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों और कालेजों से निकाल लें। इस प्रार्थना का अच्छा प्रभाव हुआ। देखते-देखते असंख्य छात्र स्कूलों और कालेजों से बाहर आ गये। देशबन्धु दास ने वेलिंग्टन स्क्वायर की 'फरवीज़ मेंशन' की विशाल अट्टालिका में 'गौड़ीय सर्व विद्या आयतन' के नाम से राष्ट्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना की और इसके परिचालन के लिए यहीं पर एक राष्ट्रीय विद्यालय 'कलकत्ता विद्या मन्दिर' भी स्थापित किया गया। 2 महात्मा गांधी ने इसका उद्घाटन किया। उसके प्रिंसिपल बने सुभाषचन्द्र बोस, और शरतचन्द्र हुए बंगला भाषा के मुख्य प्राध्यापक । पहले के परिचित सभी कामों से अपने को अलग कर वे अब नयी पाठशाला के काम में व्यस्त हो गये। इस समय उनके सामने देश की मुक्ति का आन्दोलन ही सबसे ऊपर था। लेकिन वे जितना उत्साह स्कूल और कालेज के इस बहिष्कार आन्दोलन में ले रहे थे, सुप्रसिद्ध शिक्षा शास्त्री सर आशुतोष मुखोपाध्याय और विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर उसका उतना ही विरोध कर रहे थे। देशबन्धू दास ने सर आशुतोष का विरोध करते हुए कहा, "शिक्षा इंतज़ार कर सकती है, लेकिन स्वराज्य नहीं कर सकता।"
शरतचन्द्र की भी यही धारणा थी इसलिये कविगुरु के प्रति अनन्य श्रद्धा और भक्ति रहते हुए भी वे चुप न रह सके। योरोप से लौटने पर जब कविगुरु ने 'शिक्षा क मिलन' नाम का अपना निबन्ध – पहले आश्रम वासियों के सामने फिर जातीय शिक्षा परिषद, यूनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट में पढ़ा तो दुखी मन से शरत् बाबू ने अपने मन के विश्वास को ही सही माना। जीवन में पहली बार कविगुरु से उनका संघर्ष हुआ । यद्यपि इस निबन्ध में कविगुरु ने स्पष्ट शब्दों में महात्माजी का विरोध नहीं किया था, पर उनका आशय यही था कि गांधीजी जो पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान की निन्दा करते है, आधुनिक भारत के पक्ष में वह सदुपदेश नहीं कहा जा सकता। इस मान्यता का खण्डन करते हुए उन्होंने 'शिक्षा का विरोध' नाम से अपना लम्बा निबन्ध गौड़ीय सर्व विद्या आयतन में पढ़ा। उसके अन्त में उन्होंने जो कुछ कहा, वही उनकी विचारधारा का मूलमंत्र है-
. पश्चिम की सभ्यता का मूलमंत्र है 'स्टैण्डर्ड आफ लिविंग को (जीवनस्तर) बड़ा बनाना।. ...उनकी समाजनीति की चाहे जैसे व्याख्या क्यों न की जाए, उसका लक्ष्य है। धनी होना। उनकी सामाजिक व्यवस्था, उनकी सभ्यता और धनविज्ञान के साथ जिनका साधारण परिचय भी है, वे इस बात को अस्वीकार नहीं करेंगे। इस धनी होने का अर्थ केवल संग्रह करना ही नहीं है, साथ ही साथ पड़ोसी को भी धनहीन कर देना इसका दूसरा उद्देश्य है। नही तो केवल धनी होने का कोई अर्थ ही नहीं रहता । अतएव कोई एक महादेश यदि केवल धनी होना चाहे, तो अन्यान्य देशों त्नो ठीक इसी परिणाम में गरीब बनाए बिना नहीं रह सकता।... ..यही उसकी सारी सभ्यता की नींव है। इसी नींव के ऊपर उसका विराट राजमहल आकाश को छू रहा है। इसी के लिए उसकी सारी शिक्षा, सारी साधना लगी हुई है। आज क्या हमारे कहने से हमारे ऋषियों के वचनों से, वह अपनी सारी सभ्यता के केन्द्र को हिला देगा? हमारे संसर्ग में उसके बहुत-से युग बीत गए, किन्तु हमारी सभ्यता की आंच तक उसने कभी अपने शरीर पर नहीं लगने दी।.. ...किन्तु आज खामखां अगर वह भारत की आधिभौतिक सत्य वस्तुओं के बदले भारत के आध्यात्मिक तत्त्व पदार्थ की खोज कर रहा हो तो हम खुशी मनाएं या होशियार हों, यह सोचने की बात है।
"योरोप और भारत की शिक्षा में असल में विरोध इसी जगह पर है। हमारा ऋषि वाक्य चाहे कितना अच्छा हो, उसे वे ग्रहण नहीं करेंगे। वह उनकी सभ्यता का विरोधी है। और अपनी शिक्षा भी वे हमें नहीं देंगे।......... और दें भी तो उसमें जितनी भिक्षा है, वह न लेना ही अच्छा। बाकी अंश यदि हमारी सभ्यता के अनुकूल न हों तो वह केवल व्यर्थ ही नहीं, कूड़ा है। उनकी तरह अगर हम पराये मुंह का अन्न छीनकर खाने को ही चूड़ान्त सभ्यता न मानें, तो उनका वह मारण मंत्र चाहे जितना सत्य हो उसके प्रति निर्लोभ रहना ही भला ।
"और एक बात कहकर इस प्रबंध को समाप्त करूंगा कि विद्या और विद्यालय एक ही चीज़ नहीं है। शिक्षा और शिक्षा प्रणाली ये दोनों अलग-अलग चीजें हैं। किसी एक का त्याग ही दूसरे का वर्जन नहीं है। ऐसा भी हो सकता है कि विद्यालय छोड़ना ही विद्या-लाभ का बड़ा मार्ग हो। आपात दृष्टि से बात उलटी मालूम पड़ने पर भी उसका सत्य होना असम्भव नहीं है। तेल जल मैं नहीं मिलता, ये दोनों पदार्थ एकदम उलटी प्रकृति के है । तो भी तेल का दीपक जलाते समय जो आदमी उसमें पानी डालता है सो केवल तेल को पूरा-पूरा जला देने के लिए। जो लोग इस तत्व को नहीं जानते, उनमें थोड़ा-सा धैर्य रहना अच्छा है।"
इस निबन्ध में शरत् बाबू ने कविगुरु पर एक रोचक चोट भी की, लिखा, "बंगला साहित्य में गोरा' नाम का एक अत्यन्त प्रसिद्ध उपन्यास है, कवि यदि उसे एक बार पढ़कर देखें तो देखेंगे उसके अत्यन्त स्वदेशभक्त ग्रन्थकार ने गोरा के मुंह से कहलवाया है, 'निन्दा पाप है, मिथ्या निन्दा और भी पाप है और अपने देश की मिथ्या निन्दा के बराबर पाप तो संसार में थोड़े ही हैं।"
स्वयं महात्माजी भी कविगुरु को कुछ ऐसा ही उत्तर दे चुके थे-
"आज अगर लोग अंग्रेज़ी पढ़ते है तो व्यापारी बुद्धि से और कहे जाने वाले राजनीतिक फायदे के लिए ही पढ़ते है। हमारे विद्यार्थी ऐसा मानने लगे है कि अंग्रेज़ी के बिना उन्हें सरकारी नौकरी हर्गिज़ नहीं मिल सकती। लड़कियों को तो इसीलिए अंग्रेज़ी पढ़ाई जाती है कि उनको अच्छा वर मिल जाएगा। मैं इसकी कई मिसालें जानता हूं जिनमें स्त्रियां इसलिए अंग्रेज़ी पढ़ना चाहती हैं कि अंग्रेज़ों के साथ अंग्रेज़ी बोलना आ जाए। मैंने ऐसे कितने ही पति देखे हैं कि जिनकी स्त्री उनके साथ या उनके दोस्तों के साथ अंग्रेज़ी में न बोल सके तो उन्हें दुख होता है। मैं ऐसे कुटुम्बों को भी जानता हूं जिनमें अंग्रेजी भाषा को अपनी ज़बान बना लिया जाता है। सैकड़ों नौजवान ऐसा समझसे है कि अंग्रेज़ी जाने बिना हिन्दुस्तान को स्वराज्य मिलना नामुमकिन सा है। इसी बुराई ने समाज में इतना घर कर लिया है, मानो शिक्षा का अर्थ अंग्रेज़ी भाषा के ज्ञान के सिवाय और कुछ है ही नहीं। मेरे विचार में तो यह सब हमारी गुलामी और गिरावट की साफ निशानी है। आज जिस तरह देसी भाषाओं की उपेक्षा की जाती है, और जिस तरह उनके विद्वानों और लेखकों को रोटी के भी लाले पड़े हुए हैं, वह मुझसे देखा नहीं जाता। मां-बाप अपने बच्चों को और पति अपनी स्त्री को अपनी भाषा छोड़कर अंग्रेज़ी में पत्र लिखे तो वह मुझसे कैसे बर्दाश्त हो सकता है?
"कवि सम्राट के बराबर ही मैं भी बदल की स्वतन्त्रता पर मुग्ध हूं। मुझे भी खुली हवा पर श्रद्धा है। मैं नहीं चाहता कि मेरा घर सब तरह खड़ी हुई दिवारों से घिरा रहे और उसके दरवाज़े और खिड़कियां बन्द कर दी जाएं। मैं भी यही चाहता हूं कि मेरे घर के आसपास देश-विदेश की संस्कृति की हवा बहती रहे, पर मैं यह नहीं चाहता कि उस हवा से ज़मीन पर से मेरे पैर उखड़ जाएं और मैं औंधे मुंह गिर पडूं। मैं दूसरे के घर में अतिथि, भिखारी या गुलाम की हैसियत से रहने के लिए तैयार नहीं हूं। झूठे घमण्ड के वश होकर या कही जाने वाली सामाजिक प्रतिष्ठा पाने के लिए मैं अपने देश की बहनों पर अंग्रेज़ी का नाहक बोझ डालने से इनकार करता हूं। मैं चाहता हूं कि हमारे देश के जवान लड़के-लड़कियों को साहित्य में रस हो तो वे भले ही दुनिया की दूसरी भाषा की तरह अंग्रेज़ी भी जी भरकर पढ़ें। रत्नकमल
फिर मैं उनसे आशा रखूंगा कि वे अपने अंग्रेज़ी पढ़ने के लाभ डाक्टर बोस, राय और कविसम्राट की तरह हिन्दुस्तान को और दुनिया को दें। लेकिन मुझसे यह नहीं बर्दाश्त होगा कि हिन्दुस्तान का एक भी आदमी मातृभाषा को भूल जाए, उसकी हंसी उड़ाए या उससे शर्माए या उसे यह भी लगे कि वह अपने अच्छे से अच्छे विचार अपनी भाषा में नहीं रख सकता। "कविसम्राट धीरज रखेंगे तो वे देखेंगे कि हिन्दुस्तान आज ऐसी कोई बात नहीं कर रहा है, जिससे उसे विदेशों में अपने देश- भाइयों के लिए अफसोस करना पड़े या नीचा देखना पड़े। उन्हें मैं नम्रता के साथ चेतावनी देता हूं कि वे ऐसा न मानें कि इस आन्दोलन के सिलसिले में जो थोड़ी-सी अफसोस करने लायक घटनाएं हो गई हैं वे ही इस आन्दोलन का सच्चा स्वरूप हैं। डायर और ओडायर पर से अंग्रेजों की कीमत आंकना जितना गलत है, उतना ही गलत लन्दन में बताई गई विद्यार्थियों की कुछ नासमझा या मालेगांव की ज्यादतियों से असहयोग की कीमत लगाना भी है । "
कवि अब भी चुप नहीं रहे। 'सत्य का आहान' नामक एक और निबन्ध उन्होंने यूनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट 2में पढ़ा, जिसमें उन्होंने स्पष्ट रूप से और पूरी तरह असहयोग और चर्खे को अस्वीकार कर दिया। इस बात से स्पष्ट हो जाता है कि शरत् और कवि के चिन्तन में वास्तविक विरोध कहां था । शरत् मानते थे कि स्वाधीनता मिलने पर सब कुछ मिल सकता है। 'पथेर दाबी का सव्यसाची यही तो कहता है, "भारती, मैं नहीं चाहता देश का कल्याण, देश की समृद्धि। मैं चाहता हूं देश की स्वाधीनता ।" इसके विपरीत कवि का मत था कि मनुष्य के मन में मुक्ति होने पर स्वाधीनता आप ही प्राप्त हो जाएगी।
लेकिन केवल स्कूल और कालेजों के बहिष्कार ही की बात नहीं थी, असहयोग आन्दोलन के दूसरे कार्यक्रम भी बड़े उत्साह के साथ नगर-नगर और गांव-गांव में मनाए जा रहे थे। विदेशी वस्त्रों की होली में मानो दासता का परिधान भस्म हो रहा था। वकील दबादब वकालत छोड़ रहे थे। राष्ट्रीय पंचायतें स्थापित हो रही थी । शरत् बाबू भी अपनी साहित्य-साधना को छोड़कर देशबन्धु के पास चले जाते थे। उनके पत्र में प्रकाशित होने वाली सामग्री के चयन और सम्पादन में ही योग नहीं देते थे, उसका निर्माण तक करते थे। लेकिन सुभाषचन्द्र बोस के एक पत्र से जो उन्होंने शरत् बाबू के पड़ोसी श्री भोलानाथ राय को लिखा था, यह स्पष्ट है कि भाषण देना उनके लिए सरल काम न था, "मैंने बहुतों को आशा दिलाई है कि शरत् बाबू फिर भाषण देंगे। यदि एक दिन फिर सभा नहीं होती तो मेरी बात नहीं रहेगी, मान भी नहीं रहेगा । "
इस तरह दिन, सप्ताह और मास बीतते जा रहे थे। समूचा देश एक नई चेतना से मुखर हो उठा था। हिन्दु-मुसलमान सब जैसे एक प्राण दो देह हो रहे थे। 'वन्दें मातरम्' और 'अल्ला हो अकबर' का सम्मिलित स्वरघोष भारत के भाग्याकाश में गूंज रहा था। मानव का वह उच्छवास-रखते, वह उद्दाम कर्म-शक्ति, वह मृत्युंजय आशावाद, वह स्नेह - दीप्ति फिर कभी नहीं देखी गई। महात्माजी का एक वर्ष में स्वराज्य का नारा जैसे जीवन का संजीवन- मंत्र बन गया। 'तिलक स्वराज्य फण्ड' के लिए 9 करोड़ रुपये की अपील पर जनता ने उन पर धन की सचमुच वर्षा की। बंगाल कैसे पीछे रहता। स्त्रियों ने अपने आभूषण तक उतारकर उनकी झोली में डाल दिए ।
उधर सरकार की चिन्ता की कोई सीमा न थी । दमनचक्र की गति तीव्र से तीव्रतर होने लगी। वैसी ही तीव्रता आने लगी जनता के उत्साह में युवराज वर्ष के अन्त में भारत आनेवाले थे। अखिल भारतीय कांग्रेस कार्य समिति ने निश्चय किया कि उनके आने पर किसी प्रकार का स्वागत न किया जाए। देश ने उसकी आज्ञा का पालन किया, किन्तु ईसाई और पारसी विरोध कर रहे थे। इसलिए बम्बई में भयंकर दंगा हो गया। महात्माजी बहुत दुखी हुए। कार्य समिति ने बंगाल को इस शर्त पर सविनय अवज्ञा आन्दोलन की अनुमति दी कि कथन और व्यवहार दोनों ही दृष्टियों से अहिंसा का पालन किया जाएगा।
बंगाल में आन्दोलन के संचालक देशबन्धु दास थे। बाज़ारों में खादी बेचने के लिए जो स्वयंसेवक गए, उनमें उनके पुत्र भी थे। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उसके बाद उनकी पत्नी वासन्ती देवी और बहन उर्मिला देवी ने नेतृत्व संभाला। युवराज उसी समय कलकत्ता पधारे। उस दिन हड़ताल का अनुरोध करने के कारण वासन्ती देवी को भी गिरफ्तार कर लिया गया। बंगाल में जैसे उत्साह का तूफान जाग उठा । शरत्चन्द्र की उत्तेजना का कोई पार नहीं था। 'भारतवर्ष के सम्पादक जलधर सेन उन्हें प्यार करते थे। बार-बार निराश होकर भी उनके पास लेख मांगने के लिए आना उन्होंने नहीं छोड़ा था। उस दिन भी आए। बोले, 'शरत्, बहुत दिनों से तुमने कुछ नहीं लिखा। अब फिर शुरू करो। '
शरत् तब हुक्का पी रहे थे। नली कं। परे हटाकर कहा, "लिखूं? किसके लिए लिखूं ? क्या लिखूं ? क्यों लिखूं क्या होगा लिखकर ? वासन्ती देवी अपने एकमात्र बेटे के साथ कलकत्ता के राजपथ पर सबके सामने सार्जेण्ट द्वारा गिरफ्तार कर ली गईं। फिर भी बंगाली उस दिन लाट साहब के घर जाकर खाना खा आए । अब भी लोग विलायती कपड़े पहनते हैं, अब भी उसी सरकार की नौकरी करते है, अब भी कोर्ट-कचहरी में वकील- बैरिस्टर घिस घिस करते हैं। हम लोग दास हैं, भाड़े के टट्टू है और ज़रखरीद गुलाम हैं। हमारे लिए लज्जा की बात है।"
घटनाएं बड़ी तेज़ी से घट रही थीं। बंगाल के गवर्नर लार्ड रोनाल्डशे ने देशबन्धु को समझौते की बातचीत के लिए आमन्त्रित किया, किन्तु उसका कुछ परिणाम नहीं निकला। देशबन्धू को गिरफ्तार कर लिया गया। दूसरे और बहुत-से नेता भी गिरफ्तार हो गए। शरत् अभी बाहर ही थे। शचिनन्दन चट्टोपाध्याय ने लिखा है "जब गिरफ्तारियों का प्रकोप तीव्र हो रहा था तो एक दिन उन्होंने हेमन्तकुमार सरकार से पूछा था, 'हेमन्त, क्या जेलखाने में अफीम खाने देते हैं?'
' 'जी नहीं।'
''तम्बाकू खाने देते हैं?"
''जी, वह भी नहीं ।'
" तब तो मेरा जेल जाना नहीं होगा।'
देशबन्धु उस दिन तक गिरफ्तार नहीं हुए थे। यह वार्तालाप सुनकर हंस पड़े। पूछा, 'क्यों नहीं होगा।'
'शरत बाबू बोले, 'जाम पड़ता है जेलखाना भद्र लोगों के रहने के लिए नही है। वहां मेरे लिए ठीक नहीं होगा। गवर्नमेण्ट यदि गोली चलाए तो उसके सामने खड़ा रह सकता हूं, लेकिन भेड़ों के गिरोह में बैठे-बैठे दिन-रात कड़ियां गिनते-गिनते महीनों पर महीने काट ना मुझसे नहीं होगा।'
वास्तव में प्रचलित अर्थों में शरत् बाबू जननेता नहीं थे। वे मित्र और परामर्शदाता थे। उस समय तक केवल कांग्रेस वालंटियर बोर्ड ही गैरकानूनी घोषित की गई थी, कांग्रेस नहीं। शरत् वालटियर कोर के सदस्य नहीं थे, इसलिए उनके गिरफ्तार होने का प्रश्न ही नहीं था। वे बराबर कांग्रेस का कार्य करते रहे।
अब तक शरत् बाबू दाढ़ी रखते थे, लेकिन एक दिन अचानक जब वे सर्वेट के कार्यालय में पहुंचे तो उनके दाढ़ी - विहीन मुख को देखकर सम्पादक श्रीश्यामसुन्दर चक्रवर्ती चकित हो उठे। बोले, "आइए, आइए, यह आपकी दाढ़ी क्या हुई?"
शरत् बाबू ने उत्तर दिया, . आजकल इस आन्दोलन में जिस अपराध के लिए एक हिन्दू को छ: महीने की सज़ा दी जाती है, उसी अपराध के लिए एक मुसलमान को दुगनी सज़ा दी जाती है। इसलिए मैं हिन्दू बन गया हूं।"
सुनकर सब अट्टहास कर उठे, पर उनकी इस विनोदप्रियता से यह स्पष्ट हो जाता है कि जेल यात्रा उनके उपचेतन में जमकर बैठ गई थी।
युवराज के आने से पूर्व एक बार फिर समझौते की बात चली। देशबन्धु दास तब अलीपुर जेल में थे। पण्डित मदनमोहन मालवीय के नेतृत्व में एक शिष्टमण्डल वायसराय से मिला। उसके बाद अलीपुर जेल में देशबन्धू से टेलीफोन पर बातें हुईं। अहमदाबाद में गांधीजी से राय ली गई, लेकिन कैदियों के छुटकारे और पिकेटिंग के अधिकार पर समझौता नहीं हो सका।
युवराज कलकत्ता' आये, परन्तु यह महानगरी श्मशान की तरह नीरवता का आवरण बैठी रही। कसाइयों तक की दुकानें बन्द थी । देशबन्धू स्वयं हड़ताल का संचालन कर रहे थे और मामा उपेन्द्रनाथ को साथ लिए शरत्चन्द्र नंगे पैर हावड़ा पुल के पास अपार जनता के बीच नियन्त्रण करते धूम रहै थं । इतनी परिपूर्ण हड़ताल फिर किसी दिन नहीं हुई। इस सफलता सं योरोपियन क्षुब्ध हो उठे। सरकार का दमन भी तीव्र हो उठा और उसी के साथ तीव्र हो उठा असहयोग आन्दोलन ।
ऐस वातावरण में राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन अहमदाबाद में हुआ। देशबन्धु दास उसके सभापति चुने गये थे, परन्तु वे तो जेल में थे। इसलिए हकीम अजमल खां स्थानापन्न सभापति निर्वाचित हुए। देशबन्धू का भाषण पढ़ा भारतकोकिला श्रीमती सरोजिनी नायडू ने। उसमें देशबन्धु ने भारतीय राष्ट्र संघ का व्यापक रूप से सिंहावलोकन करते हुए कहा, "पेश्तर इसके कि हमारी संस्कृति पश्चिमी सभ्यता को आत्मसात करने को तैयार हो, उसे पहले अपने-आप को पहचान लेना होगा।.
गवर्नमेण्ट आफ इण्डिया एक्ट पर विचार करते हुए उन्होंने घोषणा की, "इस कानून को सरकर के साथ सहयोग करने की बुनियाद पर स्वीकार करने की सिफारिश मैं आपसे नहीं कर सकता। मैं इज़्ज़त खोकर शान्ति खरीदना नहीं चाहता। जब तक इस कानून का यह प्राक्कथन कायम है और जब तक हमारे इस अधिकार को, कि अपने घर का इंतजाम, अपने स्वतन्त्र व्यक्तित्व का विकस और अपने भाग्य का निर्णय आप करें, तस्लीम नहीं कर लिया जाता, मैं सुलह की किसी शर्त पर विचार करने के लिए तैयार नहीं हूं।"
आन्दोलन के समाप्त होने का कोई प्रश्न नहीं था। देश के कोने-कोने में अहिंसक विप्लव की आग सुलग रही थी, परन्तु ठीक इसी समय एक दुर्घटना घटी। तीव्र गति से घूमता हुआ कालचक्र जैसे सहसा रुक गया।
गोरखपुर ज़िले के चौरीचौरा ग्राम में कांग्रेस का एक जुलूस निकाला गया था। इस अवसर पर अचानक दंगा हो गया। उसके बाद भीड़ ने इक्कीस सिपाहियों और एक थानेदार को थाने में बन्द करके आग लगा दी। किसी को बाहर नहीं निकलने दिया। वे सबके सब जलकर मर गए।
इससे पहले बम्बई और मद्रास में भी इसी प्रकार के दंगे हो चुके थे। उनमें लगभग 53 व्यक्ति मरे थे और 400 घायल हुए थे। इन दंगों के कारण गांधी जी बहुत विचलित 'टुए। बारदोली में कार्य समिति की एक बैठक हुई और उसमें यह निश्चय किया गया कि सामूहिक सत्याग्रह आरम्भ करने का विचार छोड़ दिया जाए। कांग्रेस जनों से अनुरोध किया गया कि वे गिरफ्तार होने और सजा पाने के लिए ही कोई काम न करे। एक रचनात्मक कर्यक्रम तैयार किया गया। उसके अनुसार कांग्रेस के लिए एक करोड़ सदस्य भर्ती करना, चर्खे का प्रचार करना, राष्ट्रीय विद्यालय खोलना, मादक द्रव्य निषेध का प्रचार करना, और पंचायत संगठित करना और कराना ही मुख्य कार्य रह गया था।
गांधीजी रचनात्मक कार्य के द्वारा फिर से अहिंसक वातावरण पैदा करना चाहते थे, लेकिन जो बड़े-बड़े नेता जेल के भीतर बन्द थे, उन्होंने अनुभव किया कि गांधीजी ने आन्दोलन को बिलकुल ठंडा कर दिया है। पं० मोतीलाल नेहरू और लाला लाजपत राय ने जेल के भीतर से लम्बे-लम्बे पत्र लिखे। उन्होंने कहा कि एक स्थान के पाप के कारण सारे देश को दण्डदेने का गांधीजी को कोई अधिकार नहीं है । देशबन्धु दास भी यही मानते थे और यही विचार था शरत्चन्द्र का। शचिनन्दन ने लिखा है, उन्हें महात्माजी के इस निर्णय बहुत वेदना हुई। उन्होंने कहा, 'महात्माजी ने भयानक भूल की है। इस अवस्था में आन्दोलन को स्थगित करने का अर्थ है आन्दोलन कई अपमृत्यु । जन-आन्दोलन एकदम ही नष्ट हो गया।
यह फिर पुनर्जीवित नही होगा। सोचा था, इस आन्दोलन से स्वराज्य निश्चय ही मिलेगा, पर महात्माजी ने उसे आरम्भ ही नहीं किया।.. . कुछ कांस्टेबिल उत्तेजित जनता के हाथ जल मरे। उससे क्या हुआ? इससे ही क्या भारतवर्ष का आन्दोलन बन्द कर देना होगा? इतनें विराट देश की मुक्ति के संग्राम में क्या रक्तपात नहीं होगा? होगा ही तो । चारों ओर रक्त की गंगा बहेगी। उसी रक्त प्रवाह के बीच में स्वाधीनता का रक्तकमल
प्रस्फुटित होगा। इससे कैसा क्षोभ, कैसा दुख, कैसा अनुताप?.. नान वायलेंस अत्यन्त पवित्र विचार हैं, लेकिन स्वतन्त्रता की प्राप्ति उसमें कहीं अधिक, उससे शतगुना पवित्र है । "
सत्याग्रह बन्द हो जाने के बाद सचमुच जैसे उमड़ते-उमंगते उत्साह पर छींटा पड़ गया। सरकार इसी क्षण की राह देख रही थी। उसने गांधीजी को गिरफ्तार कर लिया 12 और राजद्रोह के अपराध में छ: वर्ष के लिए कारागार में बन्द कर दिया। चालीस करोड़ नर- नारियों का वह नेता, जिसने भारतवर्ष के कोने-कोने में अग्नि प्रज्वलित कर दी थी, अपने ही हाथों से उसे शान्त करके यरवदा जेल के द्वार पर जा खड़ा हुआ। फाटक खुले और दृढ़ कदम रखता हुआ वह क्षीणकाय महामानव, उसके भीतर चला गया। द्वार बन्द हो गया और सविनय आन्दोलन के प्रथम अंक पर यवनिका गिर गई। शरत्चन्द्र सत्याग्रह के स्थगित हो जाने के कारण बहुत दुखी थे, परन्तु जब सरकार ने महात्माजी को जेल में बन्द कर दिया तो उन्होंने एक लेख लिखा, जिसका शीर्षक था 'महात्माजी'। इस लेख से स्पष्ट है। कि जो व्यक्ति कुछ दिन पूर्व गांधीजी से असंतुष्ट था वही अब उनके अन्तरतम तक पहुंचकर सत्य को खोज लेता है और पूरी श्रद्धा के साथ प्रकट कर देता है। इन शब्दों में जैसे उनकी सारी वेदना पूंजीभूत हो गयी है।
जो अनन्य भाव से सत्यनिष्ठ है, जो मन-वाणी काया से हिंसा को छोड़े हुए है, स्वार्थ के नाम से जिसका कहीं भी कुछ भी नहीं है, आर्तों के लिए, पीड़ितों के लिए जो संन्यासी है इस अभागे देश में ऐसा कानून भी है, जिसके अपराध में इस आदमी को भी आज जेल जाना पड़ा।"