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अध्याय 5: स्वाधीनता का रक्तकमल

26 अगस्त 2023

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चर्खे में उनका विश्वास हो या न हो, प्रारम्भ में असहयोग में उनका पूर्ण विश्वास था । देशबन्धू के निवासस्थान पर एक दिन उन्होंने गांधीजी से कहा था, "महात्माजी, आपने असहयोग रूपी एक अभेद्य अस्त्र का आविष्कार किया है। अगर जनता सरकार से सहयोग न करे तो वह एक दिन में ही समाप्त हो जाए। तब हम एक वर्ष में नही चौबीस घण्टे में स्वराज्य ले सकते हैं।"

इस कार्यक्रम में सचमुच उनका बड़ा उत्साह था। विलायती कपड़ों, वस्तुओं और किताबों के बहिष्कार के वे पूर्ण पक्षपाती थे। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने जब 'सर' की उपाधि लौटा दी थी, तो वे बहुत प्रसन्न हुए थे। लेकिन जब कांग्रेस के आहान पर सर प्रफुल्लचन्द्र राय ने ऐसा नहीं किया तो वे बहुत दुखी हुए। बोले, "चांद में भी कलंक है। उन्हें 'सर' का खिताब लौटा देना चाहिए। उनके समान इतने बड़े देशभक्त ने उपाधि का त्याग नहीं किया, यह व्यथा मेरे मन से किसी भी तरह दूर नहीं होती। "

उनकी व्यथा इसलिए और भी अधिक थी कि वे आचार्य राय को बहुत प्यार करते थे। विलायती वस्त्रों के साथ विलायती खिताबों के बहिष्कार से स्वाधीनता निकट आएगी यह उनक दृढ़ विश्वास था। जो विदेशी खिताब पाकर धन्य होते है, वे बहुत छोटे हैं। और जो उनका सम्मान करते है, वे भी देश के शत्रु हैं।

असहयोग के दिनों में देशबन्धु के सामने एक विकट समस्या उत्पन्न हो गई थी। पुरुष जैसे इस संग्राम में कूद पड़े थे, वैस ही नारियां भी उसमें भाग लेने को आतुर थीं। उन्हीं को लेकर देशबन्धु चिन्तित थे। विशेषकर उनकी व्यवस्था के प्रश्न को लेकर। अन्त में उन्होंने शरतचन्द्र से कहा, "यह भार आपको सौंपता हूं। इनके लिए आपको स्वतन्त्र व्यवस्था करनी होगी। "

स्त्रियां बहुत नहीं थीं। शरत्चन्द्र ने उनके लिए भवानीपुर में नारी कर्म मंदिर' की स्थापना की और उसकी परिचालना का भार सौंपा देशबन्धु की बहन उर्मिला देवी को। बाद में यह संख्या कुछ और बढ़ी, लेकिन शरत्चन्द्र संख्या में विश्वास नहीं करते थे । वे कहा करते थे, "चुग-युग से जो घर से बाहर नहीं निकलीं, रसोई और प्रसूतिघर के अतिरिक्त जिनका और कोई कर्मक्षेत्र नहीं रहा, उनमें से स्वाधीनता के सहस्रों सैनिक कहां से आएंगे? लेकिन कमल कीचड़ से ही फूटता है। एक दिन देश के अन्तःपुर से ही वह फूटेगा । "

यह पहला अवसर था जब गांधीजी के आहान पर भारत की नारी सामूहिक रूप में पुरुष के कन्धे से कन्धा मिलाकर रणभूमि में उतरी थी। दोनों साथ-साथ रहेंगे तो क्या अप्रीतिकर घटनाएं न घटेंगी? यह आशंका अनेक व्यक्तियों को परेशान कर रही थी। शरत् बाबू ने इस अवसर पर स्पष्ट शब्दों में कहा, "मशाल के दीप्त प्रकाश से अंधकार नष्ट

है, यही बात सब लोग जानते है। लेकिन उससे उठने वाली किंचित् बदबू की ओर क्या किसी का ध्यान जाता है? जल-प्लावन से धरती उर्वर हो उठती है। यदि उस जल के साथ कुछ मैला भी आ जाए तो परेशान होने की क्या बात है?"

शिवपुर इंस्टीट्यूट में भाषण देते हुए उन्होंने स्पष्ट कहा, "जिस चेष्टा में, जिस आयोजन में देश की नारियां सम्मिलित नहीं हैं, उनकी सहानुभूति नही है, उस सत्य की उपलब्धि करने का कोई ज्ञान, कोई शिक्षा, कोई साहस आज तक जिनको हमने नहीं दिया, उनको केवल घर के घेरे के भीतर बिठाकर, केवल चरखा कातने के लिए बाध्य करके ही कोई बड़ी वस्तु नहीं प्राप्त की जा सकेगी। औरतों को हमने जो केवल औरत बनाकर ही रखा है मनुष्य नहीं बनने दिया उसका प्रायश्चित्त स्वराज्य के पहले देश को करना ही चाहिए। अत्यन्त स्वार्थ की खातिर जिस देश ने अब तक केवल उसके सतीत्व को ही बड़ा करके देखा है, उसके मनुष्यत्व का कोई खयाल नही किया, उसे उसका देना पहले चुका देना ही होगा।"

जिस समय ये मुटठी-भर नारियां पिकेटिंग करती हुई गिरफ्तार हुई थीं, तो जैसे दावानल भड़क उठा था । सहस्रों व्यक्ति वालंटियर बनने और गिरफ्तार होने के लिए दौड़े पड़े थे।

आन्दोलन का एक प्रमुख अंग था सरकारी स्कूलों और कालेजों का बहिष्कार । कांग्रेस ने छात्रों के अभिभावकों से अनुरोध किया कि वे अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों और कालेजों से निकाल लें। इस प्रार्थना का अच्छा प्रभाव हुआ। देखते-देखते असंख्य छात्र स्कूलों और कालेजों से बाहर आ गये। देशबन्धु दास ने वेलिंग्टन स्क्वायर की 'फरवीज़ मेंशन' की विशाल अट्टालिका में 'गौड़ीय सर्व विद्या आयतन' के नाम से राष्ट्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना की और इसके परिचालन के लिए यहीं पर एक राष्ट्रीय विद्यालय 'कलकत्ता विद्या मन्दिर' भी स्थापित किया गया। 2 महात्मा गांधी ने इसका उद्घाटन किया। उसके प्रिंसिपल बने सुभाषचन्द्र बोस, और शरतचन्द्र हुए बंगला भाषा के मुख्य प्राध्यापक । पहले के परिचित सभी कामों से अपने को अलग कर वे अब नयी पाठशाला के काम में व्यस्त हो गये। इस समय उनके सामने देश की मुक्ति का आन्दोलन ही सबसे ऊपर था। लेकिन वे जितना उत्साह स्कूल और कालेज के इस बहिष्कार आन्दोलन में ले रहे थे, सुप्रसिद्ध शिक्षा शास्त्री सर आशुतोष मुखोपाध्याय और विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर उसका उतना ही विरोध कर रहे थे। देशबन्धू दास ने सर आशुतोष का विरोध करते हुए कहा, "शिक्षा इंतज़ार कर सकती है, लेकिन स्वराज्य नहीं कर सकता।"

शरतचन्द्र की भी यही धारणा थी इसलिये कविगुरु के प्रति अनन्य श्रद्धा और भक्ति रहते हुए भी वे चुप न रह सके। योरोप से लौटने पर जब कविगुरु ने 'शिक्षा क मिलन' नाम का अपना निबन्ध – पहले आश्रम वासियों के सामने फिर जातीय शिक्षा परिषद, यूनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट में पढ़ा तो दुखी मन से शरत् बाबू ने अपने मन के विश्वास को ही सही माना। जीवन में पहली बार कविगुरु से उनका संघर्ष हुआ । यद्यपि इस निबन्ध में कविगुरु ने स्पष्ट शब्दों में महात्माजी का विरोध नहीं किया था, पर उनका आशय यही था कि गांधीजी जो पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान की निन्दा करते है, आधुनिक भारत के पक्ष में वह सदुपदेश नहीं कहा जा सकता। इस मान्यता का खण्डन करते हुए उन्होंने 'शिक्षा का विरोध' नाम से अपना लम्बा निबन्ध गौड़ीय सर्व विद्या आयतन में पढ़ा। उसके अन्त में उन्होंने जो कुछ कहा, वही उनकी विचारधारा का मूलमंत्र है-

. पश्चिम की सभ्यता का मूलमंत्र है 'स्टैण्डर्ड आफ लिविंग को (जीवनस्तर) बड़ा बनाना।. ...उनकी समाजनीति की चाहे जैसे व्याख्या क्यों न की जाए, उसका लक्ष्य है। धनी होना। उनकी सामाजिक व्यवस्था, उनकी सभ्यता और धनविज्ञान के साथ जिनका साधारण परिचय भी है, वे इस बात को अस्वीकार नहीं करेंगे। इस धनी होने का अर्थ केवल संग्रह करना ही नहीं है, साथ ही साथ पड़ोसी को भी धनहीन कर देना इसका दूसरा उद्देश्य है। नही तो केवल धनी होने का कोई अर्थ ही नहीं रहता । अतएव कोई एक महादेश यदि केवल धनी होना चाहे, तो अन्यान्य देशों त्नो ठीक इसी परिणाम में गरीब बनाए बिना नहीं रह सकता।... ..यही उसकी सारी सभ्यता की नींव है। इसी नींव के ऊपर उसका विराट राजमहल आकाश को छू रहा है। इसी के लिए उसकी सारी शिक्षा, सारी साधना लगी हुई है। आज क्या हमारे कहने से हमारे ऋषियों के वचनों से, वह अपनी सारी सभ्यता के केन्द्र को हिला देगा? हमारे संसर्ग में उसके बहुत-से युग बीत गए, किन्तु हमारी सभ्यता की आंच तक उसने कभी अपने शरीर पर नहीं लगने दी।.. ...किन्तु आज खामखां अगर वह भारत की आधिभौतिक सत्य वस्तुओं के बदले भारत के आध्यात्मिक तत्त्व पदार्थ की खोज कर रहा हो तो हम खुशी मनाएं या होशियार हों, यह सोचने की बात है।

"योरोप और भारत की शिक्षा में असल में विरोध इसी जगह पर है। हमारा ऋषि वाक्य चाहे कितना अच्छा हो, उसे वे ग्रहण नहीं करेंगे। वह उनकी सभ्यता का विरोधी है। और अपनी शिक्षा भी वे हमें नहीं देंगे।......... और दें भी तो उसमें जितनी भिक्षा है, वह न लेना ही अच्छा। बाकी अंश यदि हमारी सभ्यता के अनुकूल न हों तो वह केवल व्यर्थ ही नहीं, कूड़ा है। उनकी तरह अगर हम पराये मुंह का अन्न छीनकर खाने को ही चूड़ान्त सभ्यता न मानें, तो उनका वह मारण मंत्र चाहे जितना सत्य हो उसके प्रति निर्लोभ रहना ही भला ।

"और एक बात कहकर इस प्रबंध को समाप्त करूंगा कि विद्या और विद्यालय एक ही चीज़ नहीं है। शिक्षा और शिक्षा प्रणाली ये दोनों अलग-अलग चीजें हैं। किसी एक का त्याग ही दूसरे का वर्जन नहीं है। ऐसा भी हो सकता है कि विद्यालय छोड़ना ही विद्या-लाभ का बड़ा मार्ग हो। आपात दृष्टि से बात उलटी मालूम पड़ने पर भी उसका सत्य होना असम्भव नहीं है। तेल जल मैं नहीं मिलता, ये दोनों पदार्थ एकदम उलटी प्रकृति के है । तो भी तेल का दीपक जलाते समय जो आदमी उसमें पानी डालता है सो केवल तेल को पूरा-पूरा जला देने के लिए। जो लोग इस तत्व को नहीं जानते, उनमें थोड़ा-सा धैर्य रहना अच्छा है।"

इस निबन्ध में शरत् बाबू ने कविगुरु पर एक रोचक चोट भी की, लिखा, "बंगला साहित्य में गोरा' नाम का एक अत्यन्त प्रसिद्ध उपन्यास है, कवि यदि उसे एक बार पढ़कर देखें तो देखेंगे उसके अत्यन्त स्वदेशभक्त ग्रन्थकार ने गोरा के मुंह से कहलवाया है, 'निन्दा पाप है, मिथ्या निन्दा और भी पाप है और अपने देश की मिथ्या निन्दा के बराबर पाप तो संसार में थोड़े ही हैं।" 

स्वयं महात्माजी भी कविगुरु को कुछ ऐसा ही उत्तर दे चुके थे-

"आज अगर लोग अंग्रेज़ी पढ़ते है तो व्यापारी बुद्धि से और कहे जाने वाले राजनीतिक फायदे के लिए ही पढ़ते है। हमारे विद्यार्थी ऐसा मानने लगे है कि अंग्रेज़ी के बिना उन्हें सरकारी नौकरी हर्गिज़ नहीं मिल सकती। लड़कियों को तो इसीलिए अंग्रेज़ी पढ़ाई जाती है कि उनको अच्छा वर मिल जाएगा। मैं इसकी कई मिसालें जानता हूं जिनमें स्त्रियां इसलिए अंग्रेज़ी पढ़ना चाहती हैं कि अंग्रेज़ों के साथ अंग्रेज़ी बोलना आ जाए। मैंने ऐसे कितने ही पति देखे हैं कि जिनकी स्त्री उनके साथ या उनके दोस्तों के साथ अंग्रेज़ी में न बोल सके तो उन्हें दुख होता है। मैं ऐसे कुटुम्बों को भी जानता हूं जिनमें अंग्रेजी भाषा को अपनी ज़बान बना लिया जाता है। सैकड़ों नौजवान ऐसा समझसे है कि अंग्रेज़ी जाने बिना हिन्दुस्तान को स्वराज्य मिलना नामुमकिन सा है। इसी बुराई ने समाज में इतना घर कर लिया है, मानो शिक्षा का अर्थ अंग्रेज़ी भाषा के ज्ञान के सिवाय और कुछ है ही नहीं। मेरे विचार में तो यह सब हमारी गुलामी और गिरावट की साफ निशानी है। आज जिस तरह देसी भाषाओं की उपेक्षा की जाती है, और जिस तरह उनके विद्वानों और लेखकों को रोटी के भी लाले पड़े हुए हैं, वह मुझसे देखा नहीं जाता। मां-बाप अपने बच्चों को और पति अपनी स्त्री को अपनी भाषा छोड़कर अंग्रेज़ी में पत्र लिखे तो वह मुझसे कैसे बर्दाश्त हो सकता है?

"कवि सम्राट के बराबर ही मैं भी बदल की स्वतन्त्रता पर मुग्ध हूं। मुझे भी खुली हवा पर श्रद्धा है। मैं नहीं चाहता कि मेरा घर सब तरह खड़ी हुई दिवारों से घिरा रहे और उसके दरवाज़े और खिड़कियां बन्द कर दी जाएं। मैं भी यही चाहता हूं कि मेरे घर के आसपास देश-विदेश की संस्कृति की हवा बहती रहे, पर मैं यह नहीं चाहता कि उस हवा से ज़मीन पर से मेरे पैर उखड़ जाएं और मैं औंधे मुंह गिर पडूं। मैं दूसरे के घर में अतिथि, भिखारी या गुलाम की हैसियत से रहने के लिए तैयार नहीं हूं। झूठे घमण्ड के वश होकर या कही जाने वाली सामाजिक प्रतिष्ठा पाने के लिए मैं अपने देश की बहनों पर अंग्रेज़ी का नाहक बोझ डालने से इनकार करता हूं। मैं चाहता हूं कि हमारे देश के जवान लड़के-लड़कियों को साहित्य में रस हो तो वे भले ही दुनिया की दूसरी भाषा की तरह अंग्रेज़ी भी जी भरकर पढ़ें। रत्नकमल 

फिर मैं उनसे आशा रखूंगा कि वे अपने अंग्रेज़ी पढ़ने के लाभ डाक्टर बोस, राय और कविसम्राट की तरह हिन्दुस्तान को और दुनिया को दें। लेकिन मुझसे यह नहीं बर्दाश्त होगा कि हिन्दुस्तान का एक भी आदमी मातृभाषा को भूल जाए, उसकी हंसी उड़ाए या उससे शर्माए या उसे यह भी लगे कि वह अपने अच्छे से अच्छे विचार अपनी भाषा में नहीं रख सकता। "कविसम्राट धीरज रखेंगे तो वे देखेंगे कि हिन्दुस्तान आज ऐसी कोई बात नहीं कर रहा है, जिससे उसे विदेशों में अपने देश- भाइयों के लिए अफसोस करना पड़े या नीचा देखना पड़े। उन्हें मैं नम्रता के साथ चेतावनी देता हूं कि वे ऐसा न मानें कि इस आन्दोलन के सिलसिले में जो थोड़ी-सी अफसोस करने लायक घटनाएं हो गई हैं वे ही इस आन्दोलन का सच्चा स्वरूप हैं। डायर और ओडायर पर से अंग्रेजों की कीमत आंकना जितना गलत है, उतना ही गलत लन्दन में बताई गई विद्यार्थियों की कुछ नासमझा या मालेगांव की ज्यादतियों से असहयोग की कीमत लगाना भी है । " 

कवि अब भी चुप नहीं रहे। 'सत्य का आहान' नामक एक और निबन्ध उन्होंने यूनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट 2में पढ़ा, जिसमें उन्होंने स्पष्ट रूप से और पूरी तरह असहयोग और चर्खे को अस्वीकार कर दिया। इस बात से स्पष्ट हो जाता है कि शरत् और कवि के चिन्तन में वास्तविक विरोध कहां था । शरत् मानते थे कि स्वाधीनता मिलने पर सब कुछ मिल सकता है। 'पथेर दाबी का सव्यसाची यही तो कहता है, "भारती, मैं नहीं चाहता देश का कल्याण, देश की समृद्धि। मैं चाहता हूं देश की स्वाधीनता ।" इसके विपरीत कवि का मत था कि मनुष्य के मन में मुक्ति होने पर स्वाधीनता आप ही प्राप्त हो जाएगी।

लेकिन केवल स्कूल और कालेजों के बहिष्कार ही की बात नहीं थी, असहयोग आन्दोलन के दूसरे कार्यक्रम भी बड़े उत्साह के साथ नगर-नगर और गांव-गांव में मनाए जा रहे थे। विदेशी वस्त्रों की होली में मानो दासता का परिधान भस्म हो रहा था। वकील दबादब वकालत छोड़ रहे थे। राष्ट्रीय पंचायतें स्थापित हो रही थी । शरत् बाबू भी अपनी साहित्य-साधना को छोड़कर देशबन्धु के पास चले जाते थे। उनके पत्र में प्रकाशित होने वाली सामग्री के चयन और सम्पादन में ही योग नहीं देते थे, उसका निर्माण तक करते थे। लेकिन सुभाषचन्द्र बोस के एक पत्र से जो उन्होंने शरत् बाबू के पड़ोसी श्री भोलानाथ राय को लिखा था, यह स्पष्ट है कि भाषण देना उनके लिए सरल काम न था, "मैंने बहुतों को आशा दिलाई है कि शरत् बाबू फिर भाषण देंगे। यदि एक दिन फिर सभा नहीं होती तो मेरी बात नहीं रहेगी, मान भी नहीं रहेगा । "

इस तरह दिन, सप्ताह और मास बीतते जा रहे थे। समूचा देश एक नई चेतना से मुखर हो उठा था। हिन्दु-मुसलमान सब जैसे एक प्राण दो देह हो रहे थे। 'वन्दें मातरम्' और 'अल्ला हो अकबर' का सम्मिलित स्वरघोष भारत के भाग्याकाश में गूंज रहा था। मानव का वह उच्छवास-रखते, वह उद्दाम कर्म-शक्ति, वह मृत्युंजय आशावाद, वह स्नेह - दीप्ति फिर कभी नहीं देखी गई। महात्माजी का एक वर्ष में स्वराज्य का नारा जैसे जीवन का संजीवन- मंत्र बन गया। 'तिलक स्वराज्य फण्ड' के लिए 9 करोड़ रुपये की अपील पर जनता ने उन पर धन की सचमुच वर्षा की। बंगाल कैसे पीछे रहता। स्त्रियों ने अपने आभूषण तक उतारकर उनकी झोली में डाल दिए ।

उधर सरकार की चिन्ता की कोई सीमा न थी । दमनचक्र की गति तीव्र से तीव्रतर होने लगी। वैसी ही तीव्रता आने लगी जनता के उत्साह में युवराज वर्ष के अन्त में भारत आनेवाले थे। अखिल भारतीय कांग्रेस कार्य समिति ने निश्चय किया कि उनके आने पर किसी प्रकार का स्वागत न किया जाए। देश ने उसकी आज्ञा का पालन किया, किन्तु ईसाई और पारसी विरोध कर रहे थे। इसलिए बम्बई में भयंकर दंगा हो गया। महात्माजी बहुत दुखी हुए। कार्य समिति ने बंगाल को इस शर्त पर सविनय अवज्ञा आन्दोलन की अनुमति दी कि कथन और व्यवहार दोनों ही दृष्टियों से अहिंसा का पालन किया जाएगा।

बंगाल में आन्दोलन के संचालक देशबन्धु दास थे। बाज़ारों में खादी बेचने के लिए जो स्वयंसेवक गए, उनमें उनके पुत्र भी थे। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उसके बाद उनकी पत्नी वासन्ती देवी और बहन उर्मिला देवी ने नेतृत्व संभाला। युवराज उसी समय कलकत्ता पधारे। उस दिन हड़ताल का अनुरोध करने के कारण वासन्ती देवी को भी गिरफ्तार कर लिया गया। बंगाल में जैसे उत्साह का तूफान जाग उठा । शरत्चन्द्र की उत्तेजना का कोई पार नहीं था। 'भारतवर्ष के सम्पादक जलधर सेन उन्हें प्यार करते थे। बार-बार निराश होकर भी उनके पास लेख मांगने के लिए आना उन्होंने नहीं छोड़ा था। उस दिन भी आए। बोले, 'शरत्, बहुत दिनों से तुमने कुछ नहीं लिखा। अब फिर शुरू करो। '

शरत् तब हुक्का पी रहे थे। नली कं। परे हटाकर कहा, "लिखूं? किसके लिए लिखूं ? क्या लिखूं ? क्यों लिखूं क्या होगा लिखकर ? वासन्ती देवी अपने एकमात्र बेटे के साथ कलकत्ता के राजपथ पर सबके सामने सार्जेण्ट द्वारा गिरफ्तार कर ली गईं। फिर भी बंगाली उस दिन लाट साहब के घर जाकर खाना खा आए । अब भी लोग विलायती कपड़े पहनते हैं, अब भी उसी सरकार की नौकरी करते है, अब भी कोर्ट-कचहरी में वकील- बैरिस्टर घिस घिस करते हैं। हम लोग दास हैं, भाड़े के टट्टू है और ज़रखरीद गुलाम हैं। हमारे लिए लज्जा की बात है।"

घटनाएं बड़ी तेज़ी से घट रही थीं। बंगाल के गवर्नर लार्ड रोनाल्डशे ने देशबन्धु को समझौते की बातचीत के लिए आमन्त्रित किया, किन्तु उसका कुछ परिणाम नहीं निकला। देशबन्धू को गिरफ्तार कर लिया गया। दूसरे और बहुत-से नेता भी गिरफ्तार हो गए। शरत् अभी बाहर ही थे। शचिनन्दन चट्टोपाध्याय ने लिखा है "जब गिरफ्तारियों का प्रकोप तीव्र हो रहा था तो एक दिन उन्होंने हेमन्तकुमार सरकार से पूछा था, 'हेमन्त, क्या जेलखाने में अफीम खाने देते हैं?'

' 'जी नहीं।' 

''तम्बाकू खाने देते हैं?"

''जी, वह भी नहीं ।'

" तब तो मेरा जेल जाना नहीं होगा।'

देशबन्धु उस दिन तक गिरफ्तार नहीं हुए थे। यह वार्तालाप सुनकर हंस पड़े। पूछा, 'क्यों नहीं होगा।'

'शरत बाबू बोले, 'जाम पड़ता है जेलखाना भद्र लोगों के रहने के लिए नही है। वहां मेरे लिए ठीक नहीं होगा। गवर्नमेण्ट यदि गोली चलाए तो उसके सामने खड़ा रह सकता हूं, लेकिन भेड़ों के गिरोह में बैठे-बैठे दिन-रात कड़ियां गिनते-गिनते महीनों पर महीने काट ना मुझसे नहीं होगा।' 

वास्तव में प्रचलित अर्थों में शरत् बाबू जननेता नहीं थे। वे मित्र और परामर्शदाता थे। उस समय तक केवल कांग्रेस वालंटियर बोर्ड ही गैरकानूनी घोषित की गई थी, कांग्रेस नहीं। शरत् वालटियर कोर के सदस्य नहीं थे, इसलिए उनके गिरफ्तार होने का प्रश्न ही नहीं था। वे बराबर कांग्रेस का कार्य करते रहे।

अब तक शरत् बाबू दाढ़ी रखते थे, लेकिन एक दिन अचानक जब वे सर्वेट के कार्यालय में पहुंचे तो उनके दाढ़ी - विहीन मुख को देखकर सम्पादक श्रीश्यामसुन्दर चक्रवर्ती चकित हो उठे। बोले, "आइए, आइए, यह आपकी दाढ़ी क्या हुई?"

शरत् बाबू ने उत्तर दिया, . आजकल इस आन्दोलन में जिस अपराध के लिए एक हिन्दू को छ: महीने की सज़ा दी जाती है, उसी अपराध के लिए एक मुसलमान को दुगनी सज़ा दी जाती है। इसलिए मैं हिन्दू बन गया हूं।"

सुनकर सब अट्टहास कर उठे, पर उनकी इस विनोदप्रियता से यह स्पष्ट हो जाता है कि जेल यात्रा उनके उपचेतन में जमकर बैठ गई थी।

युवराज के आने से पूर्व एक बार फिर समझौते की बात चली। देशबन्धु दास तब अलीपुर जेल में थे। पण्डित मदनमोहन मालवीय के नेतृत्व में एक शिष्टमण्डल वायसराय से मिला। उसके बाद अलीपुर जेल में देशबन्धू से टेलीफोन पर बातें हुईं। अहमदाबाद में गांधीजी से राय ली गई, लेकिन कैदियों के छुटकारे और पिकेटिंग के अधिकार पर समझौता नहीं हो सका।

युवराज कलकत्ता' आये, परन्तु यह महानगरी श्मशान की तरह नीरवता का आवरण बैठी रही। कसाइयों तक की दुकानें बन्द थी । देशबन्धू स्वयं हड़ताल का संचालन कर रहे थे और मामा उपेन्द्रनाथ को साथ लिए शरत्चन्द्र नंगे पैर हावड़ा पुल के पास अपार जनता के बीच नियन्त्रण करते धूम रहै थं । इतनी परिपूर्ण हड़ताल फिर किसी दिन नहीं हुई। इस सफलता सं योरोपियन क्षुब्ध हो उठे। सरकार का दमन भी तीव्र हो उठा और उसी के साथ तीव्र हो उठा असहयोग आन्दोलन ।

ऐस वातावरण में राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन अहमदाबाद में हुआ। देशबन्धु दास उसके सभापति चुने गये थे, परन्तु वे तो जेल में थे। इसलिए हकीम अजमल खां स्थानापन्न सभापति निर्वाचित हुए। देशबन्धू का भाषण पढ़ा भारतकोकिला श्रीमती सरोजिनी नायडू ने। उसमें देशबन्धु ने भारतीय राष्ट्र संघ का व्यापक रूप से सिंहावलोकन करते हुए कहा, "पेश्तर इसके कि हमारी संस्कृति पश्चिमी सभ्यता को आत्मसात करने को तैयार हो, उसे पहले अपने-आप को पहचान लेना होगा।.

गवर्नमेण्ट आफ इण्डिया एक्ट पर विचार करते हुए उन्होंने घोषणा की, "इस कानून को सरकर के साथ सहयोग करने की बुनियाद पर स्वीकार करने की सिफारिश मैं आपसे नहीं कर सकता। मैं इज़्ज़त खोकर शान्ति खरीदना नहीं चाहता। जब तक इस कानून का यह प्राक्कथन कायम है और जब तक हमारे इस अधिकार को, कि अपने घर का इंतजाम, अपने स्वतन्त्र व्यक्तित्व का विकस और अपने भाग्य का निर्णय आप करें, तस्लीम नहीं कर लिया जाता, मैं सुलह की किसी शर्त पर विचार करने के लिए तैयार नहीं हूं।"

आन्दोलन के समाप्त होने का कोई प्रश्न नहीं था। देश के कोने-कोने में अहिंसक विप्लव की आग सुलग रही थी, परन्तु ठीक इसी समय एक दुर्घटना घटी। तीव्र गति से घूमता हुआ कालचक्र जैसे सहसा रुक गया।

गोरखपुर ज़िले के चौरीचौरा ग्राम में कांग्रेस का एक जुलूस निकाला गया था। इस अवसर पर अचानक दंगा हो गया। उसके बाद भीड़ ने इक्कीस सिपाहियों और एक थानेदार को थाने में बन्द करके आग लगा दी। किसी को बाहर नहीं निकलने दिया। वे सबके सब जलकर मर गए।

इससे पहले बम्बई और मद्रास में भी इसी प्रकार के दंगे हो चुके थे। उनमें लगभग 53 व्यक्ति मरे थे और 400 घायल हुए थे। इन दंगों के कारण गांधी जी बहुत विचलित 'टुए। बारदोली में कार्य समिति की एक बैठक हुई और उसमें यह निश्चय किया गया कि सामूहिक सत्याग्रह आरम्भ करने का विचार छोड़ दिया जाए। कांग्रेस जनों से अनुरोध किया गया कि वे गिरफ्तार होने और सजा पाने के लिए ही कोई काम न करे। एक रचनात्मक कर्यक्रम तैयार किया गया। उसके अनुसार कांग्रेस के लिए एक करोड़ सदस्य भर्ती करना, चर्खे का प्रचार करना, राष्ट्रीय विद्यालय खोलना, मादक द्रव्य निषेध का प्रचार करना, और पंचायत संगठित करना और कराना ही मुख्य कार्य रह गया था।

गांधीजी रचनात्मक कार्य के द्वारा फिर से अहिंसक वातावरण पैदा करना चाहते थे, लेकिन जो बड़े-बड़े नेता जेल के भीतर बन्द थे, उन्होंने अनुभव किया कि गांधीजी ने आन्दोलन को बिलकुल ठंडा कर दिया है। पं० मोतीलाल नेहरू और लाला लाजपत राय ने जेल के भीतर से लम्बे-लम्बे पत्र लिखे। उन्होंने कहा कि एक स्थान के पाप के कारण सारे देश को दण्डदेने का गांधीजी को कोई अधिकार नहीं है । देशबन्धु दास भी यही मानते थे और यही विचार था शरत्चन्द्र का। शचिनन्दन ने लिखा है, उन्हें महात्माजी के इस निर्णय बहुत वेदना हुई। उन्होंने कहा, 'महात्माजी ने भयानक भूल की है। इस अवस्था में आन्दोलन को स्थगित करने का अर्थ है आन्दोलन कई अपमृत्यु । जन-आन्दोलन एकदम ही नष्ट हो गया। 

यह फिर पुनर्जीवित नही होगा। सोचा था, इस आन्दोलन से स्वराज्य निश्चय ही मिलेगा, पर महात्माजी ने उसे आरम्भ ही नहीं किया।.. . कुछ कांस्टेबिल उत्तेजित जनता के हाथ जल मरे। उससे क्या हुआ? इससे ही क्या भारतवर्ष का आन्दोलन बन्द कर देना होगा? इतनें विराट देश की मुक्ति के संग्राम में क्या रक्तपात नहीं होगा? होगा ही तो । चारों ओर रक्त की गंगा बहेगी। उसी रक्त प्रवाह के बीच में स्वाधीनता का रक्तकमल

प्रस्फुटित होगा। इससे कैसा क्षोभ, कैसा दुख, कैसा अनुताप?.. नान वायलेंस अत्यन्त पवित्र विचार हैं, लेकिन स्वतन्त्रता की प्राप्ति उसमें कहीं अधिक, उससे शतगुना पवित्र है । "

सत्याग्रह बन्द हो जाने के बाद सचमुच जैसे उमड़ते-उमंगते उत्साह पर छींटा पड़ गया। सरकार इसी क्षण की राह देख रही थी। उसने गांधीजी को गिरफ्तार कर लिया 12 और राजद्रोह के अपराध में छ: वर्ष के लिए कारागार में बन्द कर दिया। चालीस करोड़ नर- नारियों का वह नेता, जिसने भारतवर्ष के कोने-कोने में अग्नि प्रज्वलित कर दी थी, अपने ही हाथों से उसे शान्त करके यरवदा जेल के द्वार पर जा खड़ा हुआ। फाटक खुले और दृढ़ कदम रखता हुआ वह क्षीणकाय महामानव, उसके भीतर चला गया। द्वार बन्द हो गया और सविनय आन्दोलन के प्रथम अंक पर यवनिका गिर गई। शरत्चन्द्र सत्याग्रह के स्थगित हो जाने के कारण बहुत दुखी थे, परन्तु जब सरकार ने महात्माजी को जेल में बन्द कर दिया तो उन्होंने एक लेख लिखा, जिसका शीर्षक था 'महात्माजी'। इस लेख से स्पष्ट है। कि जो व्यक्ति कुछ दिन पूर्व गांधीजी से असंतुष्ट था वही अब उनके अन्तरतम तक पहुंचकर सत्य को खोज लेता है और पूरी श्रद्धा के साथ प्रकट कर देता है। इन शब्दों में जैसे उनकी सारी वेदना पूंजीभूत हो गयी है।

जो अनन्य भाव से सत्यनिष्ठ है, जो मन-वाणी काया से हिंसा को छोड़े हुए है, स्वार्थ के नाम से जिसका कहीं भी कुछ भी नहीं है, आर्तों के लिए, पीड़ितों के लिए जो संन्यासी है इस अभागे देश में ऐसा कानून भी है, जिसके अपराध में इस आदमी को भी आज जेल जाना पड़ा।" 

68
रचनाएँ
आवारा मसीहा
5.0
मूल हिंदी में प्रकाशन के समय से 'आवारा मसीहा' तथा उसके लेखक विष्णु प्रभाकर न केवल अनेक पुरस्कारों तथा सम्मानों से विभूषित किए जा चुके हैं, अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद प्रकाशित हो चुका है और हो रहा है। 'सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार' तथा ' पाब्लो नेरुदा सम्मान' के अतिरिक्त बंग साहित्य सम्मेलन तथा कलकत्ता की शरत समिति द्वारा प्रदत्त 'शरत मेडल', उ. प्र. हिंदी संस्थान, महाराष्ट्र तथा हरियाणा की साहित्य अकादमियों और अन्य संस्थाओं द्वारा उन्हें हार्दिक सम्मान प्राप्त हुए हैं। अंग्रेजी, बांग्ला, मलयालम, पंजाबी, सिन्धी , और उर्दू में इसके अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं तथा तेलुगु, गुजराती आदि भाषाओं में प्रकाशित हो रहे हैं। शरतचंद्र भारत के सर्वप्रिय उपन्यासकार थे जिनका साहित्य भाषा की सभी सीमाएं लांघकर सच्चे मायनों में अखिल भारतीय हो गया। उन्हें बंगाल में जितनी ख्याति और लोकप्रियता मिली, उतनी ही हिंदी में तथा गुजराती, मलयालम तथा अन्य भाषाओं में भी मिली। उनकी रचनाएं तथा रचनाओं के पात्र देश-भर की जनता के मानो जीवन के अंग बन गए। इन रचनाओं तथा पात्रों की विशिष्टता के कारण लेखक के अपने जीवन में भी पाठक की अपार रुचि उत्पन्न हुई परंतु अब तक कोई भी ऐसी सर्वांगसंपूर्ण कृति नहीं आई थी जो इस विषय पर सही और अधिकृत प्रकाश डाल सके। इस पुस्तक में शरत के जीवन से संबंधित अंतरंग और दुर्लभ चित्रों के सोलह पृष्ठ भी हैं जिनसे इसकी उपयोगिता और भी बढ़ गई है। बांग्ला में यद्यपि शरत के जीवन पर, उसके विभिन्न पक्षों पर बीसियों छोटी-बड़ी कृतियां प्रकाशित हुईं, परंतु ऐसी समग्र रचना कोई भी प्रकाशित नहीं हुई थी। यह गौरव पहली बार हिंदी में लिखी इस कृति को प्राप्त हुआ है।
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भूमिका

21 अगस्त 2023
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संस्करण सन् 1999 की ‘आवारा मसीहा’ का प्रथम संस्करण मार्च 1974 में प्रकाशित हुआ था । पच्चीस वर्ष बीत गए हैं इस बात को । इन वर्षों में इसके अनेक संस्करण हो चुके हैं। जब पहला संस्करण हुआ तो मैं मन ही म

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भूमिका : पहले संस्करण की

21 अगस्त 2023
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कभी सोचा भी न था एक दिन मुझे अपराजेय कथाशिल्पी शरत्चन्द्र की जीवनी लिखनी पड़ेगी। यह मेरा विषय नहीं था। लेकिन अचानक एक ऐसे क्षेत्र से यह प्रस्ताव मेरे पास आया कि स्वीकार करने को बाध्य होना पड़ा। हिन्दी

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तीसरे संस्करण की भूमिका

21 अगस्त 2023
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लगभग साढ़े तीन वर्ष में 'आवारा मसीहा' के दो संस्करण समाप्त हो गए - यह तथ्य शरद बाबू के प्रति हिन्दी भाषाभाषी जनता की आस्था का ही परिचायक है, विशेष रूप से इसलिए कि आज के महंगाई के युग में पैंतालीस या,

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" प्रथम पर्व : दिशाहारा " अध्याय 1 : विदा का दर्द

21 अगस्त 2023
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किसी कारण स्कूल की आधी छुट्टी हो गई थी। घर लौटकर गांगुलियो के नवासे शरत् ने अपने मामा सुरेन्द्र से कहा, "चलो पुराने बाग में घूम आएं। " उस समय खूब गर्मी पड़ रही थी, फूल-फल का कहीं पता नहीं था। लेकिन घ

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अध्याय 2: भागलपुर में कठोर अनुशासन

21 अगस्त 2023
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भागलपुर आने पर शरत् को दुर्गाचरण एम० ई० स्कूल की छात्रवृत्ति क्लास में भर्ती कर दिया गया। नाना स्कूल के मंत्री थे, इसलिए बालक की शिक्षा-दीक्षा कहां तक हुई है, इसकी किसी ने खोज-खबर नहीं ली। अब तक उसने

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अध्याय 3: राजू उर्फ इन्दरनाथ से परिचय

21 अगस्त 2023
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नाना के इस परिवार में शरत् के लिए अधिक दिन रहना सम्भव नहीं हो सका। उसके पिता न केवल स्वप्नदर्शी थे, बल्कि उनमें कई और दोष थे। वे हुक्का पीते थे, और बड़े होकर बच्चों के साथ बराबरी का व्यवहार करते थे।

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अध्याय 4: वंश का गौरव

22 अगस्त 2023
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मोतीलाल चट्टोपाध्याय चौबीस परगना जिले में कांचड़ापाड़ा के पास मामूदपुर के रहनेवाले थे। उनके पिता बैकुंठनाथ चट्टोपाध्याय सम्भ्रान्त राढ़ी ब्राह्मण परिवार के एक स्वाधीनचेता और निर्भीक व्यक्ति थे। और वह

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अध्याय 5: होनहार बिरवान .......

22 अगस्त 2023
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शरत् जब पांच वर्ष का हुआ तो उसे बाकायदा प्यारी (बन्दोपाध्याय) पण्डित की पाठशाला में भर्ती कर दिया गया, लेकिन वह शब्दश: शरारती था। प्रतिदिन कोई न कोई काण्ड करके ही लौटता। जैसे-जैसे वह बड़ा होता गया उस

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अध्याय 6: रोबिनहुड

22 अगस्त 2023
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तीन वर्ष नाना के घर में भागलपुर रहने के बाद अब उसे फिर देवानन्दपुर लौटना पड़ा। बार-बार स्थान-परिवर्तन के कारण पढ़ने-लिखने में बड़ा व्याघात होता था। आवारगी भी बढ़ती थी, लेकिन अनुभव भी कम नहीं होते थे।

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अध्याय 7: अच्छे विद्यार्थी से कथा - विद्या - विशारद तक

22 अगस्त 2023
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शरत् जब भागलपुर लौटा तो उसके पुराने संगी-साथी प्रवेशिका परीक्षा पास कर चुके थे। 2 और उसके लिए स्कूल में प्रवेश पाना भी कठिन था। देवानन्दपुर के स्कूल से ट्रांसफर सर्टिफिकेट लाने के लिए उसके पास पैसे न

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अध्याय 8: एक प्रेमप्लावित आत्मा

22 अगस्त 2023
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इन दुस्साहसिक कार्यों और साहित्य-सृजन के बीच प्रवेशिका परीक्षा का परिणाम - कभी का निकल चुका था और सब बाधाओं के बावजूद वह द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया था। अब उसे कालेज में प्रवेश करना था। परन्तु

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अध्याय 9: वह युग

22 अगस्त 2023
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जिस समय शरत्चन्द का जन्म हुआ क वह चहुंमुखी जागृति और प्रगति का का था। सन् 1857 के स्वाधीनता संग्राम की असफलता और सरकार के तीव्र दमन के कारण कुछ दिन शिथिलता अवश्य दिखाई दी थी, परन्तु वह तूफान से पूर्व

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अध्याय 10: नाना परिवार का विद्रोह

22 अगस्त 2023
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शरत जब दूसरी बार भागलपुर लौटा तो यह दलबन्दी चरम सीमा पर थी। कट्टरपन्थी लोगों के विरोध में जो दल सामने आया उसके नेता थे राजा शिवचन्द्र बन्दोपाध्याय बहादुर । दरिद्र घर में जन्म लेकर भी उन्होंने तीक्ष्ण

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अध्याय 11: ' शरत को घर में मत आने दो'

22 अगस्त 2023
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उस वर्ष वह परीक्षा में भी नहीं बैठ सका था। जो विद्यार्थी टेस्ट परीक्षा में उत्तीर्ण होते थे उन्हीं को अनुमति दी जाती थी। इसी परीक्षा के अवसर पर एक अप्रीतिकर घटना घट गई। जैसाकि उसके साथ सदा होता था, इ

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अध्याय 12: राजू उर्फ इन्द्रनाथ की याद

22 अगस्त 2023
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इसी समय सहसा एक दिन - पता लगा कि राजू कहीं चला गया है। फिर वह कभी नहीं लौटा। बहुत वर्ष बाद श्रीकान्त के रचियता ने लिखा, “जानता नहीं कि वह आज जीवित है या नहीं। क्योंकि वर्षों पहले एक दिन वह बड़े सुबह

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अध्याय 13: सृजिन का युग

22 अगस्त 2023
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इधर शरत् इन प्रवृत्तियों को लेकर व्यस्त था, उधर पिता की यायावर वृत्ति सीमा का उल्लंघन करती जा रही थी। घर में तीन और बच्चे थे। उनके पेट के लिए अन्न और शरीर के लिए वस्त्र की जरूरत थी, परन्तु इस सबके लि

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अध्याय 14: 'आलो' और ' छाया'

22 अगस्त 2023
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इसी समय निरुपमा की अंतरंग सखी, सुप्रसिद्ध भूदेव मुखर्जी की पोती, अनुपमा के रिश्ते का भाई सौरीन्द्रनाथ मुखोपाध्याय भागलपुर पढ़ने के लिए आया। वह विभूति का सहपाठी था। दोनों में खूब स्नेह था। अक्सर आना-ज

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अध्याय 15 : प्रेम के अपार भूक

22 अगस्त 2023
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एक समय होता है जब मनुष्य की आशाएं, आकांक्षाएं और अभीप्साएं मूर्त रूप लेना शुरू करती हैं। यदि बाधाएं मार्ग रोकती हैं तो अभिव्यक्ति के लिए वह कोई और मार्ग ढूंढ लेता है। ऐसी ही स्थिति में शरत् का जीवन च

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अध्याय 16: निरूद्देश्य यात्रा

22 अगस्त 2023
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गृहस्थी से शरत् का कभी लगाव नहीं रहा। जब नौकरी करता था तब भी नहीं, अब छोड़ दी तो अब भी नहीं। संसार के इस कुत्सित रूप से मुंह मोड़कर वह काल्पनिक संसार में जीना चाहता था। इस दुर्दान्त निर्धनता में भी उ

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अध्याय 17: जीवनमन्थन से निकला विष

24 अगस्त 2023
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घूमते-घूमते श्रीकान्त की तरह एक दिन उसने पाया कि आम के बाग में धुंआ निकल रहा है, तुरन्त वहां पहुंचा। देखा अच्छा-खासा सन्यासी का आश्रम है। प्रकाण्ड धूनी जल रही हे। लोटे में चाय का पानी चढ़ा हुआ है। एक

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अध्याय 18: बंधुहीन, लक्ष्यहीन प्रवास की ओर

24 अगस्त 2023
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इस जीवन का अन्त न जाने कहा जाकर होता कि अचानक भागलपुर से एक तार आया। लिखा था—तुम्हारे पिता की मुत्यु हो गई है। जल्दी आओ। जिस समय उसने भागलपुर छोड़ा था घर की हालत अच्छी नहीं थी। उसके आने के बाद स्थित

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" द्वितीय पर्व : दिशा की खोज" अध्याय 1: एक और स्वप्रभंग

24 अगस्त 2023
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श्रीकान्त की तरह जिस समय एक लोहे का छोटा-सा ट्रंक और एक पतला-सा बिस्तर लेकर शरत् जहाज़ पर पहुंचा तो पाया कि चारों ओर मनुष्य ही मनुष्य बिखरे पड़े हैं। बड़ी-बड़ी गठरियां लिए स्त्री बच्चों के हाथ पकड़े व

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अध्याय 2: सभ्य समाज से जोड़ने वाला गुण

24 अगस्त 2023
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वहां से हटकर वह कई व्यक्तियों के पास रहा। कई स्थानों पर घूमा। कई प्रकार के अनुभव प्राप्त किये। जैसे एक बार फिर वह दिशाहारा हो उठा हो । आज रंगून में दिखाई देता तो कल पेगू या उत्तरी बर्मा भाग जाता। पौं

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अध्याय 3: खोज और खोज

24 अगस्त 2023
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वह अपने को निरीश्वरवादी कहकर प्रचारित करता था, लेकिन सारे व्यसनों और दुर्गुणों के बावजूद उसका मन वैरागी का मन था। वह बहुत पढ़ता था । समाज विज्ञान, यौन विज्ञान, भौतिक विज्ञान, दर्शन, कुछ भी तो नहीं छू

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अध्याय 4: वह अल्पकालिक दाम्पत्य जीवन

24 अगस्त 2023
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एक दिन क्या हुआ, सदा की तरह वह रात को देर से लौटा और दरवाज़ा खोलने के लिए धक्का दिया तो पाया कि भीतर से बन्द है । उसे आश्चर्य हुआ, अन्दर कौन हो सकता है । कोई चोर तो नहीं आ गया। उसने फिर ज़ोर से धक्का

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अध्याय 5: चित्रांगन

24 अगस्त 2023
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शरत् ने बहुमुखी प्रतिभा के धनी रवीन्द्रनाथ के समान न केवल साहित्य में बल्कि संगीत और चित्रकला में भी रुचि ली थी । यद्यपि इन क्षेत्रों में उसकी कोई उपलब्धि नहीं है, पर इस बात के प्रमाण अवश्य उपलब्ध है

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अध्याय 6: इतनी सुंदर रचना किसने की ?

24 अगस्त 2023
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रंगून जाने से पहले शरत् अपनी सब रचनाएं अपने मित्रों के पास छोड़ गया था। उनमें उसकी एक लम्बी कहानी 'बड़ी दीदी' थी। वह सुरेन्द्रनाथ के पास थी। जाते समय वह कह गया था, “छपने की आवश्यकता नहीं। लेकिन छापना

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अध्याय 7: प्रेरणा के स्रोत

24 अगस्त 2023
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एक ओर अंतरंग मित्रों के साथ यह साहित्य - चर्चा चलती थी तो दूसरी और सर्वहारा वर्ग के जीवन में गहरे पैठकर वह व्यक्तिगत अभिज्ञता प्राप्त कर रहा था। इन्ही में से उसने अपने अनेक पात्रों को खोजा था। जब वह

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अध्याय 8: मोक्षदा से हिरण्मयी

24 अगस्त 2023
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शांति की मृत्यु के बाद शरत् ने फिर विवाह करने का विचार नहीं किया। आयु काफी हो चुकी थी । यौवन आपदाओं-विपदाओं के चक्रव्यूह में फंसकर प्रायः नष्ट हो गया था। दिन-भर दफ्तर में काम करता था, घर लौटकर चित्र

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अध्याय 9: गृहदाद

24 अगस्त 2023
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'चरित्रहीन' प्रायः समाप्ति पर था। 'नारी का इतिहास प्रबन्ध भी पूरा हो चुका था। पहली बार उसके मन में एक विचार उठा- क्यों न इन्हें प्रकाशित किया जाए। भागलपुर के मित्रों की पुस्तकें भी तो छप रही हैं। उनस

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अध्याय 10: हाँ , अब फिर लिखूंगा

24 अगस्त 2023
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गृहदाह के बाद वह कलकत्ता आया । साथ में पत्नी थी और था उसका प्यारा कुत्ता। अब वह कुत्ता लिए कलकत्ता की सड़कों पर प्रकट रूप में घूमता था । छोटी दाढ़ी, सिर पर अस्त-व्यस्त बाल, मोटी धोती, पैरों में चट्टी

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अध्याय 11: रामेर सुमित शरतेर सुमित

24 अगस्त 2023
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रंगून लौटकर शरत् ने एक कहानी लिखनी शुरू की। लेकिन योगेन्द्रनाथ सरकार को छोड़कर और कोई इस रहस्य को नहीं जान सका । जितनी लिख लेता प्रतिदिन दफ्तर जाकर वह उसे उन्हें सुनाता और वह सब काम छोड़कर उसे सुनते।

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अध्याय 12: सृजन का आवेग

24 अगस्त 2023
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‘रामेर सुमति' के बाद उसने 'पथ निर्देश' लिखना शुरू किया। पहले की तरह प्रतिदिन जितना लिखता जाता उतना ही दफ्तर में जाकर योगेन्द्रनाथ को पढ़ने के लिए दे देता। यह काम प्राय: दा ठाकुर की चाय की दुकान पर हो

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अध्याय 13: चरितहीन क्रिएटिंग अलामिर्ग सेंसेशन

25 अगस्त 2023
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छोटी रचनाओं के साथ-साथ 'चरित्रहीन' का सृजन बराबर चल रहा था और उसके प्रकाशन को 'लेकर काफी हलचल मच गई थी। 'यमुना के संपादक फणीन्द्रनाथ चिन्तित थे कि 'चरित्रहीन' कहीं 'भारतवर्ष' में प्रकाशित न होने लगे।

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अध्याय 14: ' भारतवर्ष' में ' दिराज बहू '

25 अगस्त 2023
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द्विजेन्द्रलाल राय शरत् के बड़े प्रशंसक थे। और वह भी अपनी हर रचना के बारे में उनकी राय को अन्तिम मानता था, लेकिन उन दिनों वे काव्य में व्यभिचार के विरुद्ध आन्दोलन कर रहे थे। इसलिए 'चरित्रहीन' को स्वी

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अध्याय 15 : विजयी राजकुमार

25 अगस्त 2023
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अगले वर्ष जब वह छः महीने की छुट्टी लेकर कलकत्ता आया तो वह आना ऐसा ही था जैसे किसी विजयी राजकुमार का लौटना उसके प्रशंसक और निन्दक दोनों की कोई सीमा नहीं थी। लेकिन इस बार भी वह किसी मित्र के पास नहीं ठ

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अध्याय 16: नये- नये परिचय

25 अगस्त 2023
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' यमुना' कार्यालय में जो साहित्यिक बैठकें हुआ करती थीं, उन्हीं में उसका उस युग के अनेक साहित्यिकों से परिचय हुआ उनमें एक थे हेमेन्द्रकुमार राय वे यमुना के सम्पादक फणीन्द्रनाथ पाल की सहायता करते थे। ए

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अध्याय 17: ' देहाती समाज ' और आवारा श्रीकांत

25 अगस्त 2023
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अचानक तार आ जाने के कारण शरत् को छुट्टी समाप्त होने से पहले ही और अकेले ही रंगून लौट जाना पड़ा। ऐसा लगता है कि आते ही उसने अपनी प्रसिद्ध रचना पल्ली समाज' पर काम करना शरू कर दिया था, लेकिन गृहिणी के न

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अध्याय 18: दिशा की खोज समाप्त

25 अगस्त 2023
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वह अब भी रंगून में नौकरी कर रहा था, लेकिन उसका मन वहां नहीं था । दफ्तर के बंधे-बंधाए नियमो के साथ स्वाधीन मनोवृत्ति का कोई मेल नही बैठता था। कलकत्ता से हरिदास चट्टोपाध्याय उसे बराबर नौकरी छोड़ देने क

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" तृतीय पर्व: दिशान्त " अध्याय 1: ' वह' से ' वे '

25 अगस्त 2023
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जिस समय शरत् ने कलकत्ता छोडकर रंगून की राह ली थी, उस समय वह तिरस्कृत, उपेक्षित और असहाय था। लेकिन अब जब वह तेरह वर्ष बाद कलकत्ता लौटा तो ख्यातनामा कथाशिल्पी के रूप में प्रसिद्ध हो चुका था। वह अब 'वह'

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अध्याय 2: सृजन का स्वर्ण युग

25 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र के जीवन का स्वर्णयुग जैसे अब आ गया था। देखते-देखते उनकी रचनाएं बंगाल पर छा गई। एक के बाद एक श्रीकान्त" ! (प्रथम पर्व), 'देवदास' 2', 'निष्कृति" 3, चरित्रहीन' और 'काशीनाथ' पुस्तक रूप में प्रक

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अध्याय 3: आवारा श्रीकांत का ऐश्वर्य

25 अगस्त 2023
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'चरित्रहीन' के प्रकाशन के अगले वर्ष उनकी तीन और श्रेष्ठ रचनाएं पाठकों के हाथों में थीं-स्वामी(गल्पसंग्रह - एकादश वैरागी सहित) - दत्ता 2 और श्रीकान्त ( द्वितीय पर्वों 31 उनकी रचनाओं ने जनता को ही इस प

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अध्याय 4: देश के मुक्ति का व्रत

25 अगस्त 2023
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जिस समय शरत्चन्द्र लोकप्रियता की चरम सीमा पर थे, उसी समय उनके जीवन में एक और क्रांति का उदय हुआ । समूचा देश एक नयी करवट ले रहा था । राजनीतिक क्षितिज पर तेजी के साथ नयी परिस्थितियां पैदा हो रही थीं। ब

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अध्याय 5: स्वाधीनता का रक्तकमल

26 अगस्त 2023
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चर्खे में उनका विश्वास हो या न हो, प्रारम्भ में असहयोग में उनका पूर्ण विश्वास था । देशबन्धू के निवासस्थान पर एक दिन उन्होंने गांधीजी से कहा था, "महात्माजी, आपने असहयोग रूपी एक अभेद्य अस्त्र का आविष्क

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अध्याय 6: निष्कम्प दीपशिखा

26 अगस्त 2023
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उस दिन जलधर दादा मिलने आए थे। देखा शरत्चन्द्र मनोयोगपूर्वक कुछ लिख रहे हैं। मुख पर प्रसन्नता है, आखें दीप्त हैं, कलम तीव्र गति से चल रही है। पास ही रखी हुई गुड़गुड़ी की ओर उनका ध्यान नहीं है। चिलम की

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अध्याय 7: समाने समाने होय प्रणयेर विनिमय

26 अगस्त 2023
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शरत्चन्द्र इस समय आकण्ठ राजनीति में डूबे हुए थे। साहित्य और परिवार की ओर उनका ध्यान नहीं था। उनकी पत्नी और उनके सभी मित्र इस बात से बहुत दुखी थे। क्या हुआ उस शरतचन्द्र का जो साहित्य का साधक था, जो अड

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अध्याय 8: राजनीतिज्ञ अभिज्ञता का साहित्य

26 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र कभी नियमित होकर नहीं लिख सके। उनसे लिखाया जाता था। पत्र- पत्रिकाओं के सम्पादक घर पर आकर बार-बार धरना देते थे। बार-बार आग्रह करने के लिए आते थे। भारतवर्ष' के सम्पादक रायबहादुर जलधर सेन आते,

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अध्याय 9: लिखने का दर्द

26 अगस्त 2023
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अपनी रचनाओं के कारण शरत् बाबू विद्यार्थियों में विशेष रूप से लोकप्रिय थे। लेकिन विश्वविद्यालय और कालेजों से उनका संबंध अभी भी घनिष्ठ नहीं हुआ था। उस दिन अचानक प्रेजिडेन्सी कालेज की बंगला साहित्य सभा

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अध्याय 10: समिष्ट के बीच

26 अगस्त 2023
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किसी पत्रिका का सम्पादन करने की चाह किसी न किसी रूप में उनके अन्तर में बराबर बनी रही। बचपन में भी यह खेल वे खेल चुके थे, परन्तु इस क्षेत्र में यमुना से अधिक सफलता उन्हें कभी नहीं मिली। अपने मित्र निर

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अध्याय 11: आवारा जीवन की ललक

26 अगस्त 2023
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राजनीतिक क्षेत्र में इस समय अपेक्षाकृत शान्ति थी । सविनय अवज्ञा आन्दोलन जैसा उत्साह अब शेष नहीं रहा था। लेकिन गांव का संगठन करने और चन्दा इकट्ठा करने में अभी भी वे रुचि ले रहे थे। देशबन्धु का यश ओर प

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अध्याय 12: ' हमने ही तोह उन्हें समाप्त कर दिया '

26 अगस्त 2023
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देशबन्धु की मृत्यु के बाद शरत् बाबू का मन राजनीति में उतना नहीं रह गया था। काम वे बराबर करते रहे, पर मन उनका बार-बार साहित्य के क्षेत्र में लौटने को आतुर हो उठता था। यद्यपि वहां भी लिखने की गति पहले

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अध्याय 13: पथेर दाबी

26 अगस्त 2023
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जिस समय वे 'पथेर दाबी ' लिख रहे थे, उसी समय उनका मकान बनकर तैयार हो गया था । वे वहीं जाकर रहने लगे थे। वहां जाने से पहले लगभग एक वर्ष तक वे शिवपुर टाम डिपो के पास कालीकुमार मुकर्जी लेने में भी रहे थे

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अध्याय 14: रूप नारायण का विस्तार

26 अगस्त 2023
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गांव में आकर उनका जीवन बिलकुल ही बदल गया। इस बदले हुए जीवन की चर्चा उन्होंने अपने बहुत-से पत्रों में की है, “रूपनारायण के तट पर घर बनाया है, आरामकुर्सी पर पड़ा रहता हूं।" एक और पत्र में उन्होंने लिख

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अध्याय 15: देहाती शरत

26 अगस्त 2023
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गांव में रहने पर भी शहर छूट नहीं गया था। अक्सर आना-जाना होता रहता था। स्वास्थ्य बहुत अच्छा न होने के कारण कभी-कभी तो बहुत दिनों तक वहीं रहना पड़ता था । इसीलिए बड़ी बहू बार-बार शहर में मकान बना लेने क

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अध्याय 16: दायोनिसस शिवानी से वैष्णवी कमललता तक

26 अगस्त 2023
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किशोरावस्था में शरत् बात् ने अनेक नाटकों में अभिनय करके प्रशंसा पाई थी। उस समय जनता को नाटक देखने का बहुत शौक था, लेकिन भले घरों के लड़के मंच पर आयें, यह कोई स्वीकार करना नहीं चाहता था। शरत बाबू थे ज

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अध्याय 17: तुम में नाटक लिखने की शक्ति है

26 अगस्त 2023
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शरत साहित्य की रीढ़, नारी के प्रति उनका दृष्टिकोण है। बार-बार अपने इसी दृष्टिकोण को उन्होंने स्पष्ट किया है। प्रसिद्धि के साथ-साथ उन्हें अनेक सभाओं में जाना पडता था और वहां प्रायः यही प्रश्न उनके साम

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अध्याय 18: नारी चरित्र के परम रहस्यज्ञाता

26 अगस्त 2023
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केवल नारी और विद्यार्थी ही नहीं दूसरे बुद्धिजीवी भी समय-समय पर उनको अपने बीच पाने को आतुर रहते थे। बड़े उत्साह से वे उनका स्वागत सम्मान करते, उन्हें नाना सम्मेलनों का सभापतित्व करने को आग्रहपूर्वक आ

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अध्याय 19: मैं मनुष्य को बहुत बड़ा करके मानता हूँ

26 अगस्त 2023
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चन्दन नगर की गोष्ठी में उन्होंने कहा था, “राजनीति में भाग लिया था, किन्तु अब उससे छुट्टी ले ली है। उस भीड़भाड़ में कुछ न हो सका। बहुत-सा समय भी नष्ट हुआ । इतना समय नष्ट न करने से भी तो चल सकता था । ज

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अध्याय 20: देश के तरुणों से में कहता हूँ

26 अगस्त 2023
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साधारणतया साहित्यकार में कोई न कोई ऐसी विशेषता होती है, जो उसे जनसाधारण से अलग करती है। उसे सनक भी कहा जा सकता है। पशु-पक्षियों के प्रति शरबाबू का प्रेम इसी सनक तक पहुंच गया था। कई वर्ष पूर्व काशी में

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अध्याय 21:  ऋषिकल्प

26 अगस्त 2023
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जब कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर सत्तर वर्ष के हुए तो देश भर में उनकी जन्म जयन्ती मनाई गई। उस दिन यूनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट, कलकत्ता में जो उद्बोधन सभा हुई उसके सभापति थे महामहोपाध्याय श्री हरिप्रसाद शास्त

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अध्याय 22: गुरु और शिष्य

27 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र 60 वर्ष के भी नहीं हुए थे, लेकिन स्वास्थ्य उनका बहुत खराब हो चुका था। हर पत्र में वे इसी बात की शिकायत करते दिखाई देते हैं, “म सरें दर्द रहता है। खून का दबाव ठीक नहीं है। लिखना पढ़ना बहुत क

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अध्याय 23: कैशोर्य का वह असफल प्रेम

27 अगस्त 2023
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शरत् बाबू की रचनाओं के आधार पर लिखे गये दो नाटक इसी युग में प्रकाशित हुए । 'विराजबहू' उपन्यास का नाट्य रूपान्तर इसी नाम से प्रकाशित हुआ। लेकिन दत्ता' का नाट्य रूपान्तर प्रकाशित हुआ 'विजया' के नाम से

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अध्याय 24: श्री अरविन्द का आशीर्वाद

27 अगस्त 2023
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गांव में रहते हुए शरत् बाबू को काफी वर्ष बीत गये थे। उस जीवन का अपना आनन्द था। लेकिन असुविधाएं भी कम नहीं थीं। बार-बार फौजदारी और दीवानी मुकदमों में उलझना पड़ता था। गांव वालों की समस्याएं सुलझाते-सुल

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अध्याय 25: तुब बिहंग ओरे बिहंग भोंर

27 अगस्त 2023
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राजनीति के क्षेत्र में भी अब उनका कोई सक्रिय योग नहीं रह गया था, लेकिन साम्प्रदायिक प्रश्न को लेकर उन्हें कई बार स्पष्ट रूप से अपने विचार प्रकट करने का अवसर मिला। उन्होंने बार-बार नेताओं की आलोचना की

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अध्याय 26: अल्हाह.,अल्हाह.

27 अगस्त 2023
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सर दर्द बहुत परेशान कर रहा था । परीक्षा करने पर डाक्टरों ने बताया कि ‘न्यूरालाजिक' दर्द है । इसके लिए 'अल्ट्रावायलेट रश्मियां दी गई, लेकिन सब व्यर्थ । सोचा, सम्भवत: चश्मे के कारण यह पीड़ा है, परन्तु

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अध्याय 27: मरीज की हवा दो बदल

27 अगस्त 2023
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हिरण्मयी देवी लोगों की दृष्टि में शरत्चन्द्र की पत्नी थीं या मात्र जीवनसंगिनी, इस प्रश्न का उत्तर होने पर भी किसी ने उसे स्वीकार करना नहीं चाहा। लेकिन इसमें तनिक भी संशय नहीं है कि उनके प्रति शरत् बा

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अध्याय 28: साजन के घर जाना होगा

27 अगस्त 2023
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कलकत्ता पहुंचकर भी भुलाने के इन कामों में व्यतिक्रम नहीं हुआ। बचपन जैसे फिर जाग आया था। याद आ रही थी तितलियों की, बाग-बगीचों की और फूलों की । नेवले, कोयल और भेलू की। भेलू का प्रसंग चलने पर उन्होंने म

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अध्याय 29: बेशुमार यादें

27 अगस्त 2023
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इसी बीच में एक दिन शिल्पी मुकुल दे डाक्टर माके को ले आये। उन्होंने परीक्षा करके कहा, "घर में चिकित्सा नहीं ही सकती । अवस्था निराशाजनक है। किसी भी क्षण मृत्यु हो सकती है। इन्हें तुरन्त नर्सिंग होम ले

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