शरत् जब पांच वर्ष का हुआ तो उसे बाकायदा प्यारी (बन्दोपाध्याय) पण्डित की पाठशाला में भर्ती कर दिया गया, लेकिन वह शब्दश: शरारती था। प्रतिदिन कोई न कोई काण्ड करके ही लौटता। जैसे-जैसे वह बड़ा होता गया उसकी शरारतें भी बढ़ती गई। उस दिन चटाई पर बैठे-बैठे उसने देखा कि पण्डित जी चिलम में तमाखू सजाकर कहीं चले गए हैं। बस वह उठा और चिलम में से तमाखू हटाकर उसके स्थान पर ईंट के छोटे-छोटे टुकड़े रख दिए। पण्डितजी ने लौटकर चिलम में आग रखी और हुक्के पर रखकर गुड़गुड़ाने लगे, लेकिन धुआ तो बाहर आ ही नहीं रहा। कई बार कोशिश की, पर व्यर्थ। तब चिलम को उलट-पलटकर देखा तो पाया कि तमाखू के स्थान पर ईंट के टुकड़े रखे हुए हैं। समझ गए यह किसी विद्यार्थी का ही काम है। क्रुद्ध होकर उन्होंने पूछा, "सच बताओ, ये ईट के टुकड़े चिलम में किसने रखे है?"
कई क्षण तक कोई कुछ नहीं बोला, लेकिन जब पण्डित जी क्रोध से बार-बार चीत्कार करने लगे तो, डर के मारे एक लड़के ने शरत् का नाम ले दिया । सुनकर पण्डितजी ने बेंत हाथ में उठाई और मारने के लिए उसकी ओर लूपके। शरत् ने यह देखा तो तुरन्त छलांग लगा दी। जाते समय उस लड़के को धक्का देना नहीं भूला जिसने उसका नाम लिया था। वह गिर पड़ा। पण्डितजी उसको उठाने लगे और उसी बीच में शरत् यह जा और वह जा ।
क्रोध से कांपते हुए पण्डितजी शरत् के घर पहुंचे। उसकी कहानी सुनकर मां के क्रोध का भी ठिकाना न रहा। घर लौटने पर उसने शरत् को खूब पीटा। बीच-बीच में अपने कपाल पर भी हाथ मारकर कहती, "क्या करेगा यह लड़का ? कैसे चलेगा इसका काम?... "लेकिन सास ने उसे समझाया, "बहू तू इसे मत मार! एक दिन इसकी मति लौट आयेगी। और यह बहुत बड़ा आदमी होगा। मैं वह दिन देखने के लिए नहीं रहूंगी, लेकिन तू देख लेना, मेरी बात झूठ नहीं होगी।"
पण्डितजी भी जब कभी उनके पास शिकायत लेकर पहुंचते तब उनसे भी वह बड़े शान्त भाव से यही कहतीं, "पण्डित जी, न्याड़ा थोड़ा दुष्ट तो है पर बड़ा होकर यह भलामानस ही बनेगा । "
पण्डितजी स्वयं कई बार उसकी शरारतों को अनदेखा कर जाते। एक तो वह पढ़ने में तेज था, दूसरे उनके बेटे काशीनाथ का परम मित्र भी था। काशीनाथ उसी स्कूल में पढ़ता था और उसी स्कूल में पढ़ती थी उसके एक मित्र कई बहन। न जाने कैसे शरत् की उससे मित्रता हुई। वे अक्सर दोनों एक साथ घूमते हुए दिखाई देते। जितना एक-दूसरे को चाहते उतना ही झगड़ा भी करते । नदी या तालाब पर मछली पकड़ना, नाव लेकर नदी में सैर करना, बाग से फल चुराना, पतंग का सरंजाम तैयार करना, वन जंगल में घूमना, इन सब प्रकार के बाल-सुलभ कामों में वह बालिका शरत् की संगिनी थी। असली नाम उसका क्या था किसी को पता नहीं परन्तु सुभीते के लिए लोग उसे धीरू के नाम से जानते हैं।
धीरू को एक शौक था, करौंदों की ऋतु आयी तो वह उनकी माला तैयार करती और शरत् को भेंट कर देती। शायद माल्यार्पण का अर्थ वह तब तक नहीं जानती थी। लेकिन समय के देवता ने एक न एक दिन यह रहस्य उन दोनों को समझा ही दिया होगा। वैसे उन दोनों का संबंध कम रहस्यमय नहीं था। गर्मी के दिनों में एक दिन क्या हुआ शरत् 'देवदास' की तरह पाठशाला के कमरे में एक कोने में एक फटी हुई चटाई के ऊपर बैठा था । स्लेट हाथ में लिए वह कभी आखें खोलता, कभी मूंदता, कभी पैर फैलाकर जमुहाई लेता। अन्त
वह बहुत ही चिन्ताशील हो उठा। उसने निश्चय किया कि ऐसा समय गुड्डी उड़ाते हुए घूमने-फिरने के लिए होता है। बस क्षण-भर में एक युक्ति उसे सूझ गई। पाठशाला में उ समय जल-पान की छुट्टी थी। बालक नाना प्रकार के खेल खेलते हुए शोर-गुल कर रहे थे। वह शरारती था, इसलिए उसे छुट्टी नहीं मिली थी। एक बार पाठशाला से निकलता तो लौटकर नहीं आता। कक्षा के प्रमुख छात्र भोलू की देखरेख में उसे पढ़ने की आज्ञा थी।
उसने देखा कि पण्डितजी सो रहे हें और भोलू टूटी हुई बेंच पर ऐसे बैठा है जैसे पण्डितजी हो। वह चुपचाप स्लेट लेकर उसके पास पहुंचा। बोला, "यह सवाल समझ में नहीं आ रहा है। "
भोलू ने गम्भीर होकर कहा, "लाओ जरा स्लेट, देखूं तो।"
जिस समय भोलू ज़ोर-ज़ोर से बोलकर सवाल निकालने की चेष्टा कर रहा था, उसी समय एक घटना घट गई। सहसा भोलू बेंच के पास जो चूने का ढेर लगा हुआ था उसमें जा गिरा और शरत् का फिर कही पता न लगा। धीरू यह देखकर जोर-जोर से तालियां बजा- बजाकर हंसने लगी। उसी समय पण्डितजी जाग उठे। भोलू का रूप तब देखते ही बनता था। सिर से पैर तक चूने में रंगकर भूत की तरह दिखाई देता था । और रोना उसका किसी तरह भी बन्द नहीं हो रहा था। पण्डित जी को स्थिति समझते देर नहीं लगी। बोले, "तो वह शरता हरामजादा तुझे धक्का देकर भाग गया है?"
भोलू ने किसी तरह कहा, "आं, आं!"
उसके बाद शरत् की जो खोज मची वह किसी छोटी-मोटी सेना के आक्रमण से कम नहीं थी। लड़के नाना प्रकार की बातें करते उसे ढूंढ रहे थे, लेकिन कोई उसकी पकड़ नहीं सका। जिस किसी ने उसके पास पहुंचने की चेष्टा की उसी पर उसने ईंट फेंक मारी।
धीरू सब कुछ देख रही थी। वह यह भी जानती थी कि शरत् इस समय कहां गया होगा थोड़ी देर बाद उसने अपने आंचल में मूड़ी बांधी और ज़मींदार के आम के बाग में प्रवेश किया। वहीं एक बांस का भिढा था। पास पहुंचकर उसने देखा, शरत वहां बैठा हुआ हुक्का पी रहा है। उसे देखते ही बोला, "लाओ, क्या लाई हो?"
और यह कहते-कहते उसके आंचल में से मूड़ी खोलकर खाने लगा। वह खाता रहा और धीरू पण्डितजी की बात सुनाती रही। अचानक वह बोला, "पानी लाई हो?" धीरू ने कहा, "पानी तो नहीं लाई?"
शरत् बिगड़कर बोला, "तो अब जाकर लाओ।"
धीरू को यह अच्छा नहीं लगा। कहा, "अब मैं नहीं जा सकती। तुम चलकर पी आओ।"
"मैं यहां से नहीं जा सक्ता । तुम्हीं जाकर ले आओ।"
धीरू नहीं उठी। शरत् ने गुस्सा होकर कहा, जाओ, मैं कह रहा हूं ।"
धीरू अब भी चुप रही। तब शरत् ने उसकी पीठ पर एक घूंसा मारा। कहा, "जाएगी कि नहीं?"
धीरू रो पड़ी। एकदम उठते हुए बोली, "मैं अभी जाकर तुम्हारी मां से सब कुछ कह दूंगी। यह भी कहूंगी कि तुम हुक्का पी रहे हो।"
"कह दे, जा मर!"
उस दिन फिर शरत् को मां के हाथों मार खानी पड़ी। धीरू फिर पिटी, लेकिन दोनों की मित्रता में इससे कोई अन्तर नहीं पड़ा। वह निरन्तर प्रगाढ़ ही होती गई। बहुत दिन बाद शैशव की इस संगिनी को आधार बनाकर शरत् ने अपने कई उपन्यासों की नायिकाओं का सृजन किया। 'देवदास' की पारो, 'बड़ी दीदी' की माधवी और 'श्रीकान्त' की राजलक्ष्मी, ये सब धीरू ही का तो विकसित और विराट् रूप है। विशेषकर देवदास में तो जैसे उसने अपने बचपन को ही मूर्त रूप दिया है।
दिन पर दिन बीतते चले जाते थे, इन दोनों बालक-बालिका के आमोद की सीमा नहीं थी। दिन भर धूप में घूमते-फिरते, संध्या को घर लौटकर मार खाते। रात को निश्चिन्त - निरुद्वेग सो जाते। दूसरे दिन सवेरा होते ही फिर भाग जाते और फिर संध्या को तिरस्कार- प्रहार सहन करते। तीसरे दिन, चौथे दिन, बार-बार यही कहानी दोहराई जाती। इनका और कोई संगी-साथी नहीं था और न उसकी कोई जरूरत ही थी। गांव-भर में उपद्रव करते फिरने के लिए दोनों ही यथेष्ट थे।
बीच-बीच में मछली का शिकार और नाव खेकर दिन काटने के साथ-साथ शरत् यात्रा दल में जाकर शागिर्दी भी करता था। अपने मधुर कण्ठ के कारण वह उनके लिए बहुत उपयोगी था। लेकिन जब उससे भी उसका जी ऊब जाता तो अंगौछा कंधे पर रखकर निकल पड़ता। यह निकल पडना विश्वकवि के काव्य की निरुद्देश्य यात्रा नहीं थी । जरा दूसरे ढंग की थी। वह भी जब खत्म हो जाती तो फिर एक दिन चोट खाए हुए अपने चरणों को तथा निर्जीव देह को लेकर घर वापस लौट आता । वहां आवभगत की बारी जब समाप्त हो जाती तो फिर पाठशाला में जाना आरम्भ कर दिया जाता। वहां फिर एक बार आवभगत होती और उसके बाद 'बोधोदय' तथा पद्यपाठ' में दिल लगाने का क्रम चलता। फिर एक दिन सब किया-कराया भूल जाता । दुष्ट सरस्वती कन्धे पर सवार हो जाती । फिर शागिर्दी शुरू होती। फिर घर से नौ दो ग्यारह हो जाता।
उस दिन सरस्वती नदी के घाट पर पहुंचा ता सामने डोंगी पड़ी हुई थी। बम उसमें जा बैठा और उसे खेता हुआ पहुंच गया तीन-चार मील दूर कृष्णपुर गांव में। वहां रघुनाथ बाबा का प्रसिद्ध अखाड़ा था। वहीं जाकर कीर्तन में हाज़िर हो गया। रात हो गई, फिर लौटना नहीं हो सका। अगले दिन पता लगाते-लगाते मोतीलाल स्वयं उसे लेने के लिए वहां पहुंचे। लेकिन यह एक दिन की अनायाम यात्रा नहीं थी । किसी बड़ी यात्रा का आरम्भ था। कभी अकेले, कभी मित्रों के साथ उसका वहां जाना जारी रहा।
इन्हीं दिनों गांव में सिद्धेश्वर भट्टाचार्य ने एक नया बंगला स्कूल खोला। शायद वहां मन लगाकर पढ़ सके, इस खयाल से उसे वहां दाखिल किया गया, लेकिन उसके कार्यक्रम में कोई अन्तर नहीं पड़ा। साल भर यूं ही निकल गया। तभी अचानक मोतीलाल को 'डेहरी आन सोन' में एक नौकरी मिल गई। पिता के साथ कुछ दिन वह भी वहां रहा। लेकिन वह सारा समय खेलकूद में ही बीता। वहां एक नहर थी, उसके किनारे पक्की खिरनियां बटोरता या फंदा डालकर गिरगिट पकड़ता या फिर घाट पर जाकर बैठ जाता और कल्पनाओं के आल-जाल में डूब जाता। सभी प्रकार की शरारतों के बीच में अन्तर्मुखी होने का उसका स्वभाव निरन्तर प्रगति करता जा रहा था। अपने इस अल्पकालिक डेहरी - प्रवास को वह कभी नहीं भूल सका। 'गृहदाह' में उसने इस नगण्य स्थान को भी अमर कर दिया। देवानन्दपुर लौटने पर उसे एक और शौक लग गया। शौक तो पहले भी था पर अब वह सनक की सीमा तक जा पहुंचा था। सरस्वती नदी छोटी-सी उथली नदी है । पाट भी बहुत चौड़ा नहीं है। पानी कमर से ऊपर नहीं जाता। अक्सर उसमें सिवार भरी रहती। बीच- बीच में जहां खुला था वहीं छोटी-छोटी मछलियां खेला करती थीं। बंसी में आटे की गोली लगाकर वह उसे पानी में डाल देता और बैठा रहता। एक दिन उसने देखा कि मोहल्ले का नयन बागदी दादी के पास आया है और कह रहा है, "मांजी, मुझे पांच रुपये दो। मैं तुम्हारे पोते को दूध पिलाकर अदा कर दूंगा। एक अच्छी-सी गाय लाना चाहता हूं। बसन्तपुर में मेरा एक रिश्ते का भाई है। उसने कहला भेजा है।"
दादी ने उसे पांच रुपये दे दिए और वह प्रणाम करके चला गया। तभी शरत् के मन में सहसा एक विचार कौंध आया । सुन रखा था कि बसन्तपुर में छीप बनाने के लिए अच्छा बांस मिलता है। बस वह चुपचाप नयन बागदी के पीछे-पीछे चल पड़ा। एक मील चलने के बाद नयन ने उसे देखा। वह बहुत नाराज़ हुआ, लालच भी दिया। लेकिन शरत् पर कोई असर नहीं हुआ। तब ज़बर्दस्ती पकड़कर वह उसे दादी के पास ले आया। बोला, "रास्ता ठीक नहीं है। खतरा है। अगर समय से न लौट सका तो आप ही बताइए गऊ को संभालूंगा या इसको।"
दादी खतरे की बात जानती थी। उसने शरत् से कहा, "तू नहीं जाएगा। और अगर चोरी से गया तो मैं पण्डितजी से कह दूंगी।"
नयन चला गया। शरद् भी पोखर में नहाने का बहाना करके शरीर में तेल मलता हुआ, अंगौछा कंधे पर डालकर, घर से निकल पड़ा। नदी के किनारे-किनारे वन-जंगल और आम- कटहल के बागों के भीतर होकर दो-ढाई मील तक दौड़ता हुआ चला गया। जिस जगह पर गांव का कच्चा रास्ता ग्राण्ड ट्रंक रोड की पक्की सड़क से जाकर मिलता है वहीं जाकर खड़ा हो गया। कुछ देर बाद नयन भी आ पहुंचा। शरत् कों वहां देखकर वह हतप्रभ रह गया, पर अब लौटना सम्भव नहीं था। हंसकर बोला, "अच्छा देवता, चलो ! जो भाग्य में होगा देखा जाएगा।"
वसन्तपुर पहुंचकर नयन की बुआ ने उसकी खूब खातिर की । उसे गाय मिली और बालक शरत् को मिली बांस की कमचियां । रुपये भी बुआ ने लौटा दिए । लौटते समय दिन डूब चला था। दो कोस भी नहीं चले होंगे कि चांद निकल आया। रास्ते के दोनों ओर बड़े- बड़े पीपल और बरगद के पेड़ है जो ऊपर जाकर आपस में ऐसे मिल गए थे कि राह में घना अंधेरा छा गया था। जब वे कच्ची राह पर पहुंचे तो झाड़-झंखाडों वाला वह जंगल और भ घना हो आया। इसी जंगल में तो लूटेरे आदमी को मारकर गाड़ देते थे और पुलिस उधर मुंह भी नहीं करती थी। गांव का आदमी भी रिपोर्ट करने नही जाता था क्योंकि उन्हें शिक्षा मिली थी कि पुलिस के पास जाना आफत बुलाना है। बाघ के सामने पड़कर भी दैव-संयोग सें कभी प्राण बच सकते हैं लेकिन पुलिस के पल्ले पड़कर नहीं । यही पहुंचकर सहसा उन्हें कुछ दूर पर चीख सुनाई दी। साथ ही लाठियों के बरसने का शब्द हुआ। उसके बाद सन्नाटा छा गया। नयन बोला, "बेचारा खत्म हो गया। अब हमें ज़रा होशियार होकर चलना चाहिए।"
बालक शरत् भय से कांपने लगा। सांस लेना भी मुश्किल हो गया। धुंध के मारे कुछ दिखाई भी नहीं देता था सहसा फिर किसी के भागने की आवाज़ सुनाई दी। नयन चीख उठा, "खबरदार, कहे देता हूं बामन का लड़का मेरे साथ है। अगर पाबड़ा मारा तो तुममें से एक को भी जीता नहीं छोडूंगा।"
कहीं से कोई जवाव नहीं मिला। कुछ आगे बढ़कर उन लोगों ने उस आदमी को देखा जिसकी चीख सुनाई दी थी । बिचारा कोई भिखारी था । एकतारा बजाकर भीख मांगता था। नयन से नहीं रहा गया। क्रुद्ध होकर बोला। "अरे नरक के कीड़ो, तुमने बेकार ही एक वैष्णव भिखारी के प्राण ले लिए। जी चाहता है तुम लोगों को भी इसी प्रकार मार डालूं।"
इस बार पेड़ की आड़ से किसी ने जवाब दिया, "धर्म-कर्म की बातें रहने दे। जान बचाना चाहता है तो भाग जा!"
"हरामजादो, कायरों, भागूंगा मैं, तुम्हारे डर से!"
यह कहकर उसने टेंट में से रुपये निकाले और टनटनाते हुए बोला, "देखों, मेरे पास रुपये है। हिम्मत हो तो पास आओ और ले जाओं । मैं नयन बागदी हूं।"
कोई उत्तर नहीं आया। मोटी-सी गाली देकर वह फिर बोला, "क्यों रे, आओगे या मैं घर जाऊं?"
फिर भी कोई जवाब नहीं आया। राह में दो-तीन पाबड़े पड़े हुए थे। नयन ने उन्हें उठा लिया। कुछ दूर वह चला भी, लेकिन फिर बोला, "ना भइया, आखों से वैष्णव की हत्या देखकर हत्यारों को उसकी सज़ा दिए बिना मुझसे जाया न जाएगा!"
बालक शरत् ने पूछा, "क्या करोगे?"
वह बोला, "क्या मैं एक साले को भी न पकड़ पाऊंगा? तब हम दोनों मिलकर लाठी से पीट-पीटकर उसे मार डालेंगे?"
पीटकर मारने के आनन्द से बालक शरत् बहुत प्रसन्न हुआ। बोला, "नयन दादा, तुम अच्छी तरह उसे पकड़े रहना। मैं अकेले ही उसे पीटकर मार डालूंगा। लेकिन कहीं मेरी छीप टूट गई तो?"
नयन ने हंसकर कहा, छीप की मार से नहीं मारेगा भइया, यह सोंटा लो।"
और एक अच्छा-सा पाबड़ा उसने बालक शरत् को दे दिया। तब तक लुटेरों ने समझ लिया था कि वे लोग चले गए हैं। इसलिए वे भिखारी की तलाशी लेने के लिए आ पहुंचे। नयन पेड़ की आड़ में खड़ा हो गया। उनमें से एक ने उसे देख लिया और चिल्लाकर बोला, "वहां कौन खड़ा है?"
उसकी चिल्लाहट सुनकर सब लोग भाग चले, लेकिन वह पकड़ा गया। नयन ने उसे बांध लिया और बालक के पास ले आया। वह बराबर रो रहा था। मुंह पर उसने कालिख पोत रखी थीं, बीच-बीच में चूने की टिपकी लगी हुई थी। नयन ने उसे सड़क पर लिटाया और कसकर दो-तीन लातें लगाई। फिर शरत् से कहा, अब ताककर पाबड़ा मारो। . "
बालक के हाथ-पैर कांप रहे थे। रुआंसा होकर उसने कहा, "मुझसे यह काम न हो सकेगा।"
नयन ने कहा, "तुमसे न हो सकेगा, अच्छा तो मैं ही इसे खतम करता हूं।"
शरत् ने विनती के स्वर में कहा। ना नयन दादा, मारो नहीं।"
तब तक वह आदमी जिसने शायद दो-तीन दिन से अन्न की शक्ल भी नहीं देखी थी सड़क पर ऐसे लेटा रहा जैसे मर गया हो। नयन ने झुकके उसकी नाक पर हाथ रखा और कहा, "नही, मरा नहीं, बेहोश हो गया है। चलो भइया हम भी घर चलें। "