शरतचन्द्र के जीवन का स्वर्णयुग जैसे अब आ गया था। देखते-देखते उनकी रचनाएं बंगाल पर छा गई। एक के बाद एक श्रीकान्त" ! (प्रथम पर्व), 'देवदास' 2', 'निष्कृति" 3, चरित्रहीन' और 'काशीनाथ' पुस्तक रूप में प्रकाशित होते चले गए । 'एकादश वैरागी', 'श्रीकान्त' (द्वितीय पर्व), 'गृहदाह', स्वामी', 'दत्ता', 'आमार आशय' का लिखना और पत्रों में प्रकाशित होना भी चलता रहा। अपनी-अपनी रुचि और दृष्टि से पाठकों और आलोचकों ने प्रत्येक रचना की सराहना की है।
लिखते समय वे बहुत चिन्तन करते थे। उनकी पाण्डुलिपियां इस बात का प्रमाण हैं। बीच-बीच में उन्हें शुद्ध ही नहीं करते थे, इधर-उधर दूसरी भाषाओं में लिखते भी जाते थे। 'श्रीकान्त' की पाण्डुलिपियां में एक स्थान पर उन्होंने हिन्दी और फ्रेंच में कुछ लिखा हुआ है। 'देवदास' के संबंध में चर्चा चलने पर एक बार उन्होंने कहा भी था, " 'देवदास' के सृजन में मेरे हृदय का योग है और 'श्रीकान्त' में मस्तिष्क का । "
शरत् यौवन कल में जितने स्वतन्त्र मन के थे प्रौढ़ होते-होते उतने ही आचारवादी हो गए। शायद उन्हें लगा कि देवदास की आत्मघाती भावुकता को इतना निष्छल और महान् बनाकर आदर्श रूप में प्रतिष्ठित नहीं करना चाहिए । इसीलिए तब उन्हें वह इतना प्रिय नहीं रहा, लेकिन इसमें सन्देह नहीं कि जिस समय वे 'देवदास' लिख रहे थे, उस समय में सचमुच प्रेम स्रई वेदना से व्याकुल थे। निस्सन्देह वह वेदना अपरिपक्व किशोर हृदय की है। और उनकी प्रेमिका भी शायद कोई हाड़-मांस की नारी नहीं है या अगर वह है तो फिर उस तक पहुंचने का उनके पास कोई मार्ग नहीं है। यौवन में प्रवेश करते समय जैसा होता है वैसा ही उनके साथ हुआ। परन्तु प्रेम के क्षेत्र मे वे सफल नहीं हो सके और वही असफल प्रेम नाना सामाजिक आघातों के बीच 'देवदास' में प्रस्तुत हुआ । इसीलिए उसका उच्छ्वास और उसका तीव्र दर्द मन को आलोड़ित कर देता है । वियोग की सार्थकता की दृष्टि से भी मनीषियों ने उसकी व्याख्या करने का प्रयत्न किया है। सुप्रसिद्ध गांधीवादी चिन्तक जैनेन्द्र कुमार ने देवदास को अमित संयमी सिद्ध करते हुए लिखा...... "मन का वह अडिग ब्रह्मचर्य जोन के विद्रूप विद्रोह पर भी विशुद्ध बना रहा सो क्या स्वीकृत वियोग की शक्ति के बल पर ही नहीं? मैं तो कहता हूं कि वियोग को देवदास और भी पूरी तरह स्वीकार कर सकता तो उसके जैसा योगी पुरुष उपन्यास साहित्य में दूसरा पाना कदाचित् ही सम्भव रह जाता। उस कोटि तक नहीं पहुंचा इसलिए क्या हम आसानी से अपनी आंखों को धोखा दे लेंगे? जिस अंश तक वियोग उसे प्रसाद ही बना और उसमें देवदास ऊंचा उठा । देवदास पार्वती की अलख जगाए रहा, लेकिन जब विवाहित पार्वती रात्रि के एकान्त में सम्पूर्ण भाव से उसके प्रति अपना आत्मार्पण निवेदन कर उठी तब निविड़ अधमाचार से घिरे देवदास ने क्या किया? क्या पार्वती को लिया? नहीं, लिया नहीं । मूर्ति की भांति उसे अपने से दूर ही रखा। मूर्ति की भक्ति उसने अपने लिए चाही । मूर्ति पाने की स्पर्धा नहीं की।"
प्रेम की यह प्रगाढता ही मन को छूती है, असफलता सफलता नहीं। और यह भी कि सच्चा प्रेम मिलाता ही नहीं दूर भी करता है।
'निष्कृति' की प्रशंसा स्वयं गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने की है, लेकिन जो तूफान चरित्रहीन' को लेकर उठा वह सचमुच अद्भुत था। वह यमुना' में पूरा नहीं छप सका था। पुस्तक रूप में छपने में भी बड़ी देर लगी। वे बहुत धीरे-धीरे सामग्री भेजते थे। सुधीरचन्द्र सरकार ने पूरी पाण्डुलिपि पाए बिना ही मुद्रण प्रारम्भ कर दिया था। उन्हें विश्वास था कि 'चरित्रहीन' के कारण जो हलचल मच चुकी है, वह उसकी बिक्री में बहुत सहायक होगी, लेकिन महीनों पर महीने बीतने लगे, शरत् सामग्री नहीं भेज सके। सरकार उन्हें बार-बार पत्र लिखते और उत्तर में शरत् कहते "देरी के कारण जो क्षति होती है, उसे क्या मैं नहीं जानता? पर प्राय: सारा ही लिखना फिर से होता है। ऐसा करने से यदि दो-एक महीने की देर हो जाती है तो अच्छा है। फिर भी छपना बन्द न हो, इसलिए अगली डाक से कुछ भेजूंगा। हो सकता है कुछ अधिक हो। और एक बात है, फिर से लिखने के कारण अक्सर डर लगा रहता है कि पीछे जो एक बार कह आया है हो सकता है फिर वही कह दूं। जि छप गया है वह सभी मुझे नहीं मिला। यह सब यदि रजिस्ट्री करके भेज दो तो मेरा चौथाई परिश्रम कम हो जाएगा। जल्दी करने पर तो सब कुछ पन्द्रह दिन में हो सकता है, पर वह क्या ठीक होगा? फिर भी चाहे जितनी भी देर हो, माघ के अन्त तक आई समाप्त हो जाएगी।'
तीन महीने बाद फिर लिखा "मन इतना विमर्ष है कि किसी काम में हाथ लगाने की इच्छा नहीं होती। लगाने पर वह अच्छा नहीं होता । केवल जो पहले की लिखी हुई है, अर्थात् आधी, तिहाई, चौथाई, इस तरह की मेरी बहुत-सी रचनाएं है, उन्हीं को किसी तरह जोड़-तोड़ कर पूरा कर देता हूं। 'चरित्रहीन' के लिए ऐसा करना नहीं चाहा । इसीलिए इतने दिनों तक दो-दो अध्याय करके भेज रहा था। न हो तो इस बार मेरे पास बैठकर सब ठीक कर लेना। मैं आयुर्वेद चिकित्सा के लिए कलकत्ता आ रहा हूं। एक साल रहूंगा। 11 अप्रैल को रवाना हो रहा हूं।
इसके बाद भी 'चरित्रहीन' का प्रकाशन होने में एक वर्ष लग गया। बर्मा जाने से बहुत पहले ही उसका लिखा जाना आरम्भ हो चुका था। लगभग पन्द्रह वर्ष तक वे उसे निरन्तर लिखते रहे। लेकिन एक दिन घर में आग लग जाने पर वह पाण्डुलिपि भस्म हो गई। उसके बाद पति से उसे उन्होंने फिर लिखना शुरू किया। उसमें भी पांच-छ: वर्ष लगे।
उसके प्रकाशित होते ही बंगाल में जैसे हाहाकार मच उठा । 'उपासना' पत्रिका ने उसकी तीव्र आलोचना करते हुए उन पर ऐसा आक्रमण किया मानो धर्म और समाज सम्पूर्ण रूप से नष्ट-भ्रष्ट करने की चेष्टा की जा रही हो । 'चरित्रहीन में जिस नारी चरित्र की सृष्टि हुई है, उसकी समाज में कभी कमी नहीं रही और फिर शरत्चन्द्र ने तो सभी चरित्रहीनों के चरित्र की धर्मप्राण हिन्दू की तरह रक्षा की है, लेकिन समाज में वे ही धर्मप्राण व्यक्ति उनके विरुद्ध हो उठे। एक दिन घर के बरामदे में बैठे वे घुम्रपान कर रहे थे कि तीन- चार युवक 'चरित्रहीन की एक प्रति लेकर वहां आए। शरत् बाबू ने गुड़गुड़ी मुंह से हटाकर पूछा, "कहिए, कैसे आना हुआ?"
अतिशय क्रुद्ध एक युवक बोला, "यह 'चरित्रहीन' आपकी ही रचना है?"
हां।"
इस प्रकार की पुस्तकें लिखने पर आप इस मोहल्ले में नहीं रह सकते। यह भले लोगो के रहने का मोहल्ला है।.
दूसरे युवक ने और नी तीव्रता से कहा, "सावित्री ओर किरणमयी को छोड़कर क्या समाज में और अच्छे चरित्र नहीं देखे थे?.
शरत्चन्द्र मन ही मन मुस्कराए। कहा, "पहले आप बैठिए तो। "
अब तीसरा युवक बोला, "आपकी इस पुस्तक का क्या परिणाम होना चाहिए दिखाने हम आए है।..
और उन युवकों ने शरत् बाबू के सामने ही 'चरित्रहीन' की प्रति को फाड़ा और जला दिया। दुखी मन वे बैठे देखते रहे। उन्होंने क्रुद्ध युवकों को समझाने की चेष्टा की। बताया, "सावित्री मेस की दासी नहीं है। मेस की सब कुछ है। सबको उसने स्नेह देकर अपनाया है। सतीश भी उसका हो गया है। कितनी बार उसने कितने प्रकार से उसे अपनी बनाना चाहा है, परन्तु सावित्री ने उसे दूर ही रखा। वह उससे कितना प्रेम करती थी, फिर भी उसने उसको पाने की चेष्टा नहीं की। सरोजिनी के साथ विवाह कराके उसे सांसारिक बना दिया।
सहसा एक युवक बोल उठा, "अच्छा, किरणमयी के बारे में क्या कहते हो?.
शरत् ने उत्तर दिया, "देखो, किरणमयी के चरित्र द्वारा मैंने नारी जीवन की व्यर्थता को दिखाना चाहा है। किरणमयी और हारान बार का बाबू गृहस्थ जीवन बड़ा ही करुण है। स्वामी का प्यार उसने नही पाया। घर में स्वामी है, सास है। एक दार्शनिक है जो पत्नी को पढ़ाकर सुखी है। दूसरी घोर स्वार्थी है। पुत्र वधू से खूब काम लेती है। किरणमयी दोनों विरुद्ध-प्रकृति के स्त्री-पुरुष के प्रेमहीन मेल को हिन्दु समाज - विधि का नियम मानकर स्वीकार नहीं करती। वहीं से किरणमयी के जीवन की ट्रेजेडी आरम्भ होती है।.
लेकिन वे युवक तो समझने के लिए नहीं आए थे। उन्होंने मान लिया था कि यह पुस्तक समाज के लिए वर्जनीय है। वे साहित्यिक शरत्चन्द्र से घृणा ही कर सकते थे। उनके चले जाने के बाद वे देर तक राख ढेरी की और देखते रहे। मन ही मन उन्होंने कहा, 'बेचारे युवक! नहीं जानते कि वे क्या कर गए । 'चरित्रहीन' की यह भस्म उसे उन स्थानों क भी पहुंचा देगी, जहां वह शायद पहले नहीं पहुंच पाया था।'
इस घटना की सत्यता के बारे में सन्देह प्रकट किया गया है। न हो सत्य, परन्तु उस व्यक्ति की शक्ति के बारे में तो सन्देह नही हो सकता, जिसके बारे में यह कथा गढ़ी गई है। और न ही सन्देह हो सकता है, उस वातावरण के बारे में जिसकी इसमें सृष्टि हुई है। हर किंवदन्ती एक से दूसरे मुंह जाते-जाते कल्पना की न जाने कितनी रंगीनियां अपने में समेटती रहती है पर इतना तो स्पष्ट है कि घर-गोष्ठी में, सभा-समाज में 'चरित्रहीन' को लेकर जो वाद-विवाद शुरू हुआ, जो गण्डगोल मचा उसकी तुलना नहीं थी। किसी व्यक्ति ने व्यंग्य करते हुए हुए लिखा, "सावित्री के समान नारी मिलती तो हम भी मेस में रहते।" शरत् ने उसे उत्तर दिया, "सतीश होने की जरूरत है। उसके बिना सावित्री का हृदय नहीं जीता जा सकता।... बच्चू यह न समझ सके कि सावित्री दासी श्रेणी की स्त्री नहीं है। पुराणों में आता है कि विपद पड़ने पर लक्ष्मी को भी एक ब्राह्मण के घर दासी बनना पड़ था। अर्जुन जिस समय उत्तरा को नृत्य-गान सिखाते थे उस समय की उनकी कथा सुनकर यह नहीं कहा जा सकता कि ऐसा शिखण्डी मिलने पर सब नारियां नाच-गान सीखने के लिए उन्मत्त हो उठेंगी। जैसा सभी सम्प्रदायों में होता है, वेश्या जाति में भी ऊंची-नीची श्रेणियां होती हैं........."
जो उनके परम मित्र थे, उनमें से भी कई 'चरित्ररानि' को लेकर प्रसन्न नहीं थे। कुमदिनीकान्त कर ने विक्षुब्ध होकर कहा, "आप ये दृश्य साहित्य में क्यों ले आए?" शरत् ने उत्तर दिया, "मैंने नया तो कुछ लिखा नही | दुनिया में यह सब पहले से ही है।"
"दुनिया में तो और भी बहुत कुछ है, किन्तु उस सबकी क्या चर्चा की जाती है? क्या उसको इस प्रकार चित्रित किया जाता है? मनुष्य को उपहार दिया जाता है। क्यों आपने यह सर्वनाश किया? भविष्य में आने वाले इससे क्या सीखेंगे?”
इस आरोप-प्रत्यारोप का कोई अन्त नहीं था, लेकिन उन सबके लिए शरत् का उत्तर बहुत संक्षिप्त था, "मैंने "चरित्रहीन' लिखा है, चरित्रवान की कहानी नहीं।"
व्यक्तिगत आक्रमण भी कम नहीं किए गए। यहां तक कि एक बार किसी शरत् चटर्जी के रुपये चुरा लेने की खबर अखबार में छपी तो उनके विरोधियों ने प्रचारित कर दिया कि रुपये चुरानेवाला शरत् और उपन्यास लिखनेवाला शरत् दोनों एक ही हैं।
जहां एक ओर उसके विरुद्ध इतना तीव्र आन्दोलन उठ खड़ा हुआ था, वहीं दूसरी ओर बहुत-से व्यक्तियों ने उसकी आत्मा तक पहुंचने का प्रयत्न भी किया। बहुत दिन बाद एक धर्मप्राण व्यक्ति ने एक Ä गोष्ठी में उनसे कहा. "आप मुंह से चाहे जो कहें, आपकी रचनाओं को पढ़कर मुझे लगता है कि सनातन धन्य की मर्यादा को आप ठेस पहुंचाना नहीं चाहते। जब देखता हूं कि 'चरित्रहीन' उपन्यास की उस लड़की ने स्टीमर पर एक बालक के साथ एक बिछौने पर रहते हुए भी अपने शील को नष्ट नहीं होने दिया तो तब क्या हम लोग कहेंगे कि आप सनातन धर्म को नहीं मानते?
शरत् बाबू ने उत्तर दिया, “आप मेरे उद्देश्य को ठीक नहीं समझ सके। आपने जो कहा है, उस तरह मैं कुछ नहीं करता। यदि किरणमयी अपना शील नष्ट कर भी डालती तो इसमें भी मेरी कोई हानि नहीं थी । किन्तु यह पात्र एकदम असत्य हो जाता। इस प्रकार की पढ़ी- लिखी सुशिक्षिता स्त्री और जिस लड़के के साथ वह सिर्फ रख जिद्द की वजह से भाग गई है उसे एक नाबालिग शिशु ही कहा जा सकता है, जिसे वह किसी प्रकार भी अपने बराबर नहीं मानती, उस लड़के द्वारा भी यदि वह अपने शील को नष्ट होने देती तो वह चरित्र ही नष्ट हो जाता।”
किरणमयी के चरित्र की व्याख्या मानव मन के रहस्य के ज्ञाता एक कलाकार की व्याख्या है, समाज-सुधारक या धर्मभीरु व्यक्ति की नहीं। किरणमयी के इसी चरित्र-अंकन पर मुग्ध हो उठे थे प्रमथ चौधरी । लिखा था, "इस प्रकार की छवि कोई साधारण लेखक अंकित नहीं कर सकता।"
इस पुस्तक को लेकर लोग कितने व्यस्त रहते थे। अभिभावक लोग अपने पुत्र और पुत्रियों को बार-बार मना करते थे कि उस 'चरित्रहीन' की रचनाओं को मत पढ़ो, लेकिन जिसका जितना निषेध होता है उसी को पढ़ने के लिए सब लालायित रहते हैं। एक दिन अपनी कक्षा के एक विद्यार्थी के हाथ में 'चरित्रहीन' देखकर रक प्राध्यापक अत्यन्त क्रुद्ध हो उठे। कहा, "अहा यह चरित्रहीन है ! तुम्हें इसे नही पढ़ना चाहिए। "
विद्यार्थी ने उत्तर दिया, "सर, इसके लेखक तो बहुत प्रसिद्ध हैं।"
प्राध्यापक ने कहा, "होंगे, लेकिन यह पुस्तक भ्रष्ट है।"
विद्यार्थी फिर बोला, "सर, आप कैसे कह सकते हैं यह पुस्तक भ्रष्ट है? क्या आपने इसे पढ़ा है?"
प्राध्यापक ने कहा, "हां, हां, पढ़ा है, तभी तो कहता हूं। मेरा लड़का तकिये के नीचे रखकर इसे पढ़ता था। कल मैंने इसे देखा तो फिर सारी पढ़कर ही उठा। मैं जानना चाहता था कि इसमें हे क्या?"
विद्यार्थी बोला, "तब तो सर, मैं भी पढ़कर देख लूं । भ्रष्ट होगी तो फिर नहीं पढूंगा।
लेकिन एक दिन अचानक एक ऐसी नारी से शरत् बाबू की भेंट हो गई, जिसने ‘चरित्रहीन’ पढकर उन्हें अपना गुरु और त्राता स्वीकार किया था। वह सब काशी आए हुए थे। एक दिन वहां के प्रवासी बंगालियों ने उनके सम्मान में सभा का आयोजन किया। माला-चन्दन, धूप- धूनी, किसी भी वस्तु की कमी नहीं रही। सच्चा आन्तरिक स्वागत था । लौटते समय बहुत से लोगों ने उन्हें घेर लिया। उनमें दो नारियां भी थीं। दोनों विधवाएं थीं। एक प्रौढ़ा थी, दूसरी युवती । अवसर पाकर वह युवती उनके पास आई। उन्हें प्रणाम किया और ऐसे देखने लगी जैसे बहुत दिनों से परिचित हो । मधुर स्वर में बोली, “आपने मुझे बचाया है, आप गुरु हैं। मैं आपकी विशेष रूप से कृतज्ञ हूं।”
अवाक् शरत् बोले, “मैंने तुम्हें बचाया है? कब, कहां? मैंने तो कभी तुम्हें पहले देखा भी नहीं।”
युवती का रंग जैसा गोरा था वैसी ही उसकी मुखश्री थी। उसने शरत् बाबू को अपनी कहानी कह सुनाई। बोली, "मेरे पिता बंगाल के बाहर किसी कालेज में अध्यापक हैं। सदा पिता के पास ही रहती आई हूं। जब मेरी उम्र दो साल की थी तभी मेरी मां मर गई थी। तब से पिता ने ही मुझे पाल-पोस कर बड़ा किया है। विवाह १७ वर्ष की आयु में हुआ लेकिन इसी काशी में केवल तीन दिन के बुखार में मेरे पति की मृत्यु हो गई । मैं पिता के पास लौट गई। भुला रखने के लिए उन्होंने मुझे फिर से पढ़ाना आरम्भ कर दिया।
“उनका एक छात्र था। हमारे ही घर में रहता था। पिता उससे बहुत स्नेह करते थे। क्लास में किस दिन कौन-सा लेक्चर होगा, इसका हिसाब-किताब उसी के पास था। सारी जरूरत की किताबें और नोट्स की कापियां भी वही ठीक रखता था। मैं उससे गणित और साहित्य पढ़ती थी।
“और इसी तरह डेढ़ वर्ष बीत गया। इस मिलने-जुलने के कारण हम दोनों में काफी परिवर्तन हो गया था। वह लड़का इस बात को समझता था । उसने एक दिन पिताजी से कहा, 'मैं अब नहीं पढ़ा सकूंगा।'
“पिताजी सब कुछ समझ गए। मुझपर उन्हें क्रोध भी आया। और इसीलिए मुझे उन्होंने बराह नगर, कलकत्ता भेज दिया। मगर मेरा दिल वहीं अटका रहा। कुछ ही दिन बीतें होंगे कि न जाने कैसे हम दोनों में चिट्ठी-पत्री आरम्भ हो गई। और फिर वह लड़का भी एक दिन कलकत्ता आ पहुंचा। अब हम दोनों नियमित रूप से मिलने लगे । अन्त में एक दिन वह भी आया जब हमने निश्चय किया कि कुछ भी क्यों ने हो, हम लोग कहीं भाग चलें और सदा के लिए एक हो जाएं।
"वह दिन भी निश्चित हो गया । यह तय हो गया कि उस रात मैं जागती रहूंगी। दो बजे वह गाड़ी लेकर आएगा। नीचे जिस कमरे में मैं सोती हूं उसकी खिड़की पर एक दस्तक देगा और मैं सदा के लिए घर से निकल जाऊंगी।."
एक क्षण के लिए वह लड़की रुकी। फिर बोली, "उस दिन की बात मैं आसानी से नहीं भूलूंगी। वह सारा समय एक विचित्र बेचैनी, चिन्ता और उत्तेजना के बीच कट गया। अभी तो रात-भर जागना था। शाम को मैंने अपने ममेरे भाई से कहा, 'मुझे लाइब्रेरी से एक अच्छा-सा उपन्यास ला दो।'
"सोचा था, पढ़कर जागती रहूंगी। इसीलिए मोटा-सा उपन्यास लाने को कहा और वह एक उपन्यास ले आया। अच्छा-खासा मोटा उपन्यास था। नाम था 'चरित्रहीन' | पढ़ते ही मेरा कलेजा धड़कने लगा । सोचा, यह प्रकृति का कैसा परिहास है? क्या मैं 'चरित्रहीन' होने तो नहीं जा रही?
“खाना-पीना होने के बाद सभी सोने चले गए। मैंने किताब हाथ में लेकर कमरे की अर्गला बंद कर ली। पढ़ने लगी। जब किताब खत्म हुई तब रात के दो बज रहे थे। तब तक मैंने अपना कर्तव्य निश्चित कर लिया था । 'चरित्रहीन' की किरणमयी ने मुझे उबार लिया। ठीक समय पर खिड़की पर दस्तक पड़ी। समझ गई कि वह आ गया है। खिड़की पर आकर मैंने उससे विनती की, 'मुझे क्षमा करो, मैं नहीं जा सकी।'
'उस समय के उसके निराश मुख की वह छवि मैं कभी नहीं भूल सकूंगी। लगा जैसे मैंने उसक पैरों के तले से धरती हटा ली है। किसी तरह उसने कहा, 'सारा इंतजाम हो गया' है । रत्न का टिकट भी खरीद लिया है। "
“मैंने हाथ जोड़कर कहा, मुझसे अन्याय हुआ। मुझे क्षमा कर दो। मैं नहीं जा सकुगी।'
“विकल- विवश वह थोडी देर तक वहां खड़ा रहा। फिर दीर्घ निःश्वास खीचकर वहां से चला गया। उसके बाद उसका क्या हुआ, मैं नहीं जानती। मैं भी अपनी इस नानी के साथ काशी चली आई। यहां आए आज साल भर हो गया है। आज भी सोचती हूं, आपकी उ किरणमयी ने मुझे बचा लिया। आपका 'चरित्रहीन' पढ़कर आपको देखने की बडी इच्छा थी, लेकिन बाबा विश्वनाथ इतनी जल्दी यह इच्छा पूरी कर देंगे, यह नहीं सोचा था। उस दिन आपका 'चरित्रहीन' न पड़ती तो आज कहां जाती? क्या दशा होती मेरी ? सोच भी नहीं सकती। आपने मेरी रक्षा की। चिरकृतडा हूं।”
शरतचन्द्र का मन उस दिन सचमुच ही गदर ? हो उठा। कितनी गाली-गलौज सुननी पडी थी, उन्हे उसके लिए ! उनके ऊपर से निन्दा, विद्रोह और आक्रमण का एक तूफान-सा बह चला था। लेकिन उस लड़की की कहानी सुनकर उन्हें कितनी सांत्वना मिली ! कम से कम एक लड़की की रक्षा तो वह कर ही सके ।
इस प्रकार नाना खातों से होकर नाना प्रकार की कहानियां उस उपन्यास के संबंध में प्रचलित हो गई थीं। हो सकता है, उनमें से कुछ बिलकुल सही न हो, परन्तु इतना अवश्य सही है कि तूफान आया था और वह कम शक्तिशाली नहीं था।
जिस समय ‘चरित्रहीन' की कल्पना उसके मस्तिष्क में आई तब वे देवानन्दपुर में रहते थे। उस समय सुरबाला के समान एक नारी से उनका सम्पर्क हुआ था। उसे ग समझने के कारण ही वे पुरी भाग गए थे। फिर मार्ग में जिस नारी से उनकी भेंट हुई, उसके आधार पर उन्होंने सावित्री के चरित्र का निर्माण किया । वह चरित्र वास्तविक हे। कल्पना ने केवल इतना ही किया है कि उसे मेस की दासी बना दिया और सतीश के साथ जोड़ दिया।
सुरबाला के संबंध में उनके मामा सुरेन्द्रनाथ ने उनके मुंह से कहलवाया है, “यह सुरदाला ही मेरी प्रवृत्ति को दिशा देनेवाली गुरु थी । इस चरित्र के बाहरी रूप का अंकन करने में मुझे जरा भी परिश्रम नहीं करना पड़ा। सती-साध्वी, स्वामी के प्रति जैसी भक्ति, जैसा प्यार, जैसा आकर्षण, वैमा ही उसका अन्त हुआ। चारों ओर धन्य-धन्य गज उठा...... । स्वामी के चरणों में सिर रखकर सुरबाला चली गई, किन्तु किरणमयी का चरित्र मैंने सुरबाला से जो शिक्षा प्राप्त की उसी के अनुसार गढ़ा है। उसमें यदि कोई भूल रह गई है तो वह मेरी ही है। सुरबाला से पूर्ण वैषम्य दिखाने के लिए मुझे ऐसा करने को बाध्य होना पड़ा। मूल बात यह है कि मुझमें नारी जाति के संबंध में जो सजगता देख पाते हो वह सुरबाला के कारण ही है। उनके प्रति मैं सदा श्रद्धानत रहा हूं। यह चरित्र-चित्रण ही मेरी गुरु दक्षिणा है।"
इस सुरबाला के कारण ही वह देवानन्दपुर को इतना प्यार करते थे । 'चरित्रहीन' में उसे अमर करके मानो उन्होंने मातृभूमि का ही ऋण चुकाया।
सुरबाला उनके नाना के परिवार में भी किसी का नाम था । उसी को स्मरण करने लिए उन्होंने इस चरित्र को यह नाम दिया। इसी परिवार में कोई एक किरणशशि भी थी। सम्भवत: वह भी इस उपन्यास के पीछे किसी सीमा तक प्रेरणा रही हो, परन्तु इस बात का कोई प्रमाण आज उपलब्ध नहीं है कि उनका चरित्र भी वैसा ही था। परिचित नामों का प्रयोग करना शरत् बाबू का स्वभाव था।
लेकिन सतीश अवश्य ही बचपन के साथी राजू की प्रतिमूर्ति दिखाई देता है। यहां गाना-बजाना होता था, जहां थियेटर और कन्सर्ट की रिहर्सल होती थी, जहां क्रिकेट- फुटबाल होती थी वहीं सतीश ने इतने दिन बिताए थे। कहां मारपीट करनी होगी, कहां नाटक खेलने के लिए स्टेज खड़ा करना होगा, किसके घर में गमी हुई है और किसका मुर्दा मसान में जलाने के लिए ले जाना होगा, किसपर मुसीबत आ पडी है और किसके लिए रुपये का प्रबन्ध करना होगा, यही सब खोजते रहना और इस कामों में सबसे आगे रहना सतीश का काम था.. .। सतीश जब बांसुरी बजाता था तो पृथ्वी पर सोई चांदनी की नींद उचट जाती थी।"
इन प्रमाणित और अप्रमाणित किंवदन्तियों का अर्थ केवल इतना ही ? कि उनकी रचनाओं का मूल आधार सदा अभिज्ञता रही है। किशोरवस्था में जब ये कलम उठाना सीख रहे थे तब उनके गुरु श्री पांचकौड़ी बन्दोपाध्याय ने उनसे कहा था, कुछ भी लिखों मुझे खुशी है, लेकिन मैं तुम्हें तीन बातें बताता हूं-जो कुछ भी लिखना अनुभव से लिखना, दूसरे किसी को दिखाना - विखाना मत, तीसरे, अपनी कलम से किसी की व्यक्तिगत निन्दा मत करना।"
वे सब बातें उनमें पहले से ही थीं। गुरु का आदेश पाकर उनके विचार और भी दृढ़ हो गए, लेकिन उनकी इस अभिज्ञता को लेकर ही कुछ लोग उन पर आक्रमण करने से नहीं चूके। एक आलोचक ने लिखा, "हमारे देश में एक प्रसिद्ध औपन्यासिक के हाथ से इन समाज-बहिर्गता नारियों के चित्र बहुत सुन्दर उभरे है। कहा जाता है कि ये इनकी व्यक्तिगत अभिज्ञता के परिचायक है ।
इस आक्रमण का दंश कितना ही तीव्र क्यों न हो मानवीय अध्ययन की दिशा में वह एक अच्छा प्रमाणपत्र है। 'काशीनाथ' के प्रकाशन के साथ शरत् बाबू के एक और उदान रूप की कहानी जुड़ी हुई है। इस पुस्तक का स्वत्वाधिकार उन्होंने अपने प्रिय बंधु प्रमथ भट्टाचार्य को दे दिया था। बीमार होने के बाद प्रमथनाथ स्वास्थ्य लाभ के लिए छत्रपुर चले गए थे। शुरू-शुरू में उनका स्वास्थ्य कुछ सुधरा, लेकिन बाद में वे और भी अस्वस्थ हो उठे। उन्हें भुवाली सेनीटोरियम जाना पड़ा। यहां उनका स्वास्थ्य जरा भी नहीं सुधरा । दिन पर दिन खराब होता चला गया। उस समय वह आर्थिक दृष्टि से भी बहुत विपन्न थे। यही समाचार पाकर शरत् ने 'काशीनाथ' का स्वत्वाधिकार उन्हें दे दिया था। जब इस दान का समाचार प्रमथनाथ को मिला तो उन्होंने हरिदास को लिखा, “कल तुम्हारा पत्र पाकर मैं कैसा हतप्रभ हो उठा, उसे बताना सम्भव नहीं है। जीवन में इस प्रकार सहानुभूति और सहायता पाने का मैं अभ्यस्त नहीं हूं। कोई क्यों और किस योग्यता के लिए मेरी सहायता करेगा? अब देखता हूं अयोग्यता भी एक विशेष गुण है। शरत् के सब काम विचित्र होते हैं। जब से उससे परिचय हुआ है, तभी से यह सब देख रहा हूं। उसका काम उसी के योग्य है। उसकी कोई तुलना नहीं हो सकती। मैं यह अप्रत्याशित-अननुभूत सहानुभूति पाने का किसी भी तरह अधिकारी नहीं हूं। ओह, शरत् का यह काण्ड ! आज संसार मेरे सामने नये रूप में प्रकट हुआ है। शरत् को मैं क्या कहूं? वह देवता है । जन्म-भर परिश्रम करके मैं अपने परिवार के लिए जो न कर पाता, वह तुम लोगों ने कर दिया। तुम सबको कोटि-कोटि नमस्कार। तुम इस समय मुझसे बहुत - बहुत बड़े हो। तुम दाता हो और मैं भिखारी हूं..........
प्रेम करने की क्षमता शरत् बाबू में अद्भुत और असाधारण थी। मित्रों के लिए वह सदा ही कुछ न कुछ करने को आतुर रहते थे। कुछ वर्ष पहले 19 बचपन के साथी विभूतिभूषण के लिए उन्होंने सोने का कलम भेज दिया था। निरुपमा के लिए भी वाटरमेन भेजा था। विभूति ने उतर दिया था, सोने के कलम से कैसे लिखूंगा?”
शरत् ने कहा था, “तुझे इससे ही लिखना है।”
विभूति ने फिर लिखा था, “यह तो गहना है। इससे नहीं लिख सकूंगा। जैसे कलम से तुम लिखते हो वैसा ही एक भेज दो।”
तुरन्त वैसा ही एक और कलम आ गया।
और केवल विभूतिभूषण के लिए ही नहीं सुरेन्द्र मामा, गिरीन्द्र मामा, योगेश मजूमदार, सौरीन्द्रनाथ मुकर्जी आदि सभी बचपन के मित्रों के लिए कलम तैयार थे। मानते थे कि देने के लिए इससे अच्छी वस्तु उनके पास और कुछ नहीं है।