जिस समय शरत्चन्द्र लोकप्रियता की चरम सीमा पर थे, उसी समय उनके जीवन में एक और क्रांति का उदय हुआ । समूचा देश एक नयी करवट ले रहा था । राजनीतिक क्षितिज पर तेजी के साथ नयी परिस्थितियां पैदा हो रही थीं। ब्रिटिश क्राउन के प्रति वफादारी की प्रतिज्ञा लेनेवाली कांग्रेस ने केंचुल उतार फेंकी थी क्योंकि प्रथम महायुद्ध के समाप्त हो जाने पर भारत के हार्दिक सहयोग के बदले में उसी क्राउन ने उसे रौलेट एक्ट प्रदान किया था। दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के विरुद्ध संघर्ष करनेवाले महात्मा गांधी ने घोषणा की, चीद रौलेट कमीशन की सिफारिश को बिल का रूप दिया गया तो मैं सत्याग्रह आरम्भ कर दूंगा ।'
उन्होंने देश का दौरा क्मिा । उस समय उनके कार्यक्रग का जैसा अभूतपूर्व स्वागत हुआ वैसा शायद फिर कभी नहीं हो सका। सभी ने बड़े उत्साह के साथ उस आन्दोलन में भाग लिया। अप्रैल, 1919 में पंजाब में ऐसी अमानुषिक घटनाएं घटीं कि सारा देश कांप उठा। 13 अप्रैल को बैसाखी के दिन अमृतसर के जलियांवाला बाग में एक सभा आयोजित की गई थी। बीस हजार स्त्री-पुरुष अपने नेता का भाषण सुन रहे थे कि एक बड़ी सेना लेकर जनरल डायर ने उन्हें घेर लिया। गोली चलाने से पूर्व उसने लोगों को तितर-बितर होने के लिए केवल दो मिनट का समय दिया। जाने के लिए मार्ग था केवल एक संकरा - सा दरवाजा। भागना चाहने पर भी वे भाग नहीं सकते थे। सैकड़ों व्यक्ति उसी क्षण मारे गए। हजारों घायल हुए। उनकी सहायता करने के सारे प्रयत्न विफल कर दिए गए।
इस घटना ने देश के आत्माभिमान पर चोट की। विषधर भुजंग की भांति वह तड़पकर पागल हो उठा। बड़े-बड़े सरकारपरस्त भी उस दिन विद्रोही हो गए। रवीन्द्रनाथ ठाकुर इतने विचलित हुए कि उन्होंने सर' की उपाधि लौटा दी । शरत्चन्द्र इस बात से बहुत प्रसन्न हुए। पंजाव के इंगलिश दैनिक ट्रिमन' के सम्पादक श्री अमल होम को एक पत्र में उन्होंने लिखा -. 'भारती' के अड्डे पर उस दिन सुना कि तुम भी खूग् विपत्ति में पड़े। अंग्रेजों की हिंसक मूर्ति बहुत पास से अच्छी तरह देखी। यह कम लाभ नहीं है। हमारा मोह काटने के लिए यह आवश्यक था। हमें यह समझ लेना है कि वे कितने निछर और पशु हो सकते हैं। यह बात इतिहास के पन्नों से एक दिन हमने समझी थी। इस बार प्रत्यक्ष अनुभव किया। एक और लाभ हुआ कि देश की वेदना के बीच में हमने रवीन्द्रनाथ को नये रूप में पाया। इस बार अकेले उन्होंने ही हमारे आत्माभिमान की रक्षा। सी०आर० दास ने एक दिन मुझसे कहा था कि रवि बाबू ने जब नाइटहुड स्वीकार किया था तब वे गेय है । अब उनसे मिलने पर पूछूंगा कि क्या आज हमारी झती दस हाथ फूल गई है या नहीं?"
देशबन्यू चितरंजनदास स्वयं मन-प्राण से इस आन्दोलन में कूद पड़े थे। राष्ट्रीय कांग्रेस के अमृतसर अधिवेशन में उन्होंने सक्रिय भाग लिया। शरत् बाबू क्त देशबत्यु के साथ अत्यन्त स्नेह था, इसलिए वे भी बड़ी तेजी के साथ उस ओर खिंच आये। जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड के प्रतिरोध में हावड़ा में जो विशाल सभा हुई, उसमें उन्होंने प्रत्यक्ष भाग लिया और इस प्रकार देशबन्यू दास के साथ उनका जो सम्पर्क था उसे निरा साहित्यिक ही नहीं रहने दिया।
शरत्चन्द्र का राजनीतिक झुकाव सदा गरम दल की ओर रहा। लोकमान्य के प्रति उनकी सच्ची श्रद्धा थी। हरिलह्मी' में मंझली बहू शरमाते हुए, हंसते हुए कहती है, गतइलक महाराज की तस्वीर देख-देखकर बनने की कोशिश की थी जीजी, पर कुछ बनी नहीं। यह कहते हुए उसने उंगली उठाकर सामने की दीवार पर टंगे हुए भारत के कौस्तुभ लोकमान्य तिलक का चित्र दिखा दिया। उन्हीं तिलक का जब 31 जुलाई की आधी रात के बाद देहावसान हो गया तब व्याकुलमन शरतचन्द्र ने लिखा, तिलक केवल हमोर भाई ही नहीं थे, बन्यू ही नहीं थे, नेता ही नही थे, वे हम बाईस करोड़ के मलिन ललाट के, शुभ्र गौरवमय तिलक थे। वही तिलक आज मिट गया है। हम अनाथ हो गए हैं।"
बंगाल प्रारम्भ में गांधीजी के साथ पूरी तरह सहमत नहीं था। देशबन्ध असहयोग कार्यक्रम के विरुद्ध थे, लेकिन फिर भी कलकत्ता में होने वाले कांग्रेस के विशेष अधिवेशन में, जिसके सभापति पंजाब केसरी लाला लाजपतराय थे, गांधीजी का प्रस्ताव पास हो गया । उस समय वातावरण ही ऐसा था। भारत सरकार ने हण्टर कमेटी की रिपोर्ट के बहुसंख्यक पक्ष की बात ग्रहण कर ली थी। वह अधिकारियों की काली करतूतों पर अंधकार का पर्दा डालना चाहती थी।
इस प्रस्ताव में सरकार पर प्रतिज्ञा भंग का आरोप लगाते हुए कहा गया था, ३स कांग्रेस क्तई राय है कि जब तक भूलों का सुधार न हो जाए और स्वराज्य की स्थापना न हो जाए, भारतवासियों के लिए इसके सिवाय और कोई मार्ग नहीं है कि वे गांधीजी द्वारा संचालित क्रमिक अहिंसात्मक असहयोग की नीति को स्वीकार करें और अपनाएं। और क्योंकि शुरुआत उन लोगों को ही करनी चाहिए, जिन्होंने अब तक लोकमत को बनाया है। और उसका प्रतिनिधित्व किया है, और चूंकि सरकार अपनी शक्ति का संगठन लोगों को दी गई उपाधियों व सम्मान से, अपने द्वारा नियंत्रित स्कूलों से, अदालतों और कौंसिलों से करती है और चूंकि आन्दोलन को चलाने में यह वांछनीय है कि कम से कम खतरा रहे और वध्वि उद्देश्य की सिद्धि के लिए आवत्यक कम से कम त्याग का आहान किया जाए, यह कांग्रेस सरगर्मी के साथ सलाह देती है...... ।'
इस सलाह के अनुसार सरकारी उपाधियों, अदालतों, स्कूल-कालेजों, कौंसिलों, सरकारी दरबारों का त्याग तथा विदेशी माल का बहिष्कार आवशक था और आवश्यक था स्वदेशी वस्त्रों तथा चर्खे को स्वीकार करना।
इस प्रस्ताव पर बंगाल के श्री विपिनचन्द्र पाल ने एक संशोधन पेश किया, जिसका समर्थन किया देशबत्यु चितरंजनदास ने। इसके अनुसार ब्रिटेन के प्रधानमंत्री को भारत के एक शिष्टमण्डल से मिलने के लिए कहा गया था। लेकिन यह स्वीकृत नहीं हो सका । असहयोग के प्रस्ताव का परिणाम यह हुआ कि आनेवाले चुनाव में वोटरों ने वोट देने से ही इनकार कर दिया। सरकार को यह स्वीकार करना पड़ा कि कौंसिल का यह बहिष्कार निश्चय ही आनेवाले अनेक वर्षों के इतिहास पर जर्बदस्त प्रभाव डालेगा। लेकिन अभी भी असहयोग के इस कार्यक्रम पर अन्तिम रूप से विचार होना शेष था।
तीन महीने बाद दिसम्बर में नागपुर में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन हुआ। देशबत्यु नहीं चाहते थे कि असहयोग का प्रस्ताव पास हो। इस अधिवेशन में ये अपने खर्चे पर दो सौ पचास प्रतिनिधियों का दल लेकर आए लेकिन यहां भी गांधीजी के व्यक्तित्व की ही विजय हुई। यहां तक कि जो अब तक विरुद्ध थे, उन्हीं देशबत्यु ने स्वयं इस प्रस्ताव को पेश किया और लाला लाजपतराय ने इसका समर्थन किया। इस प्रस्ताव में देश से अनुरोध किया गया कि राष्ट्रीय आन्दोलन में अधिक से अधिक त्याग करे। इस बात पर विशेष जोर दिया गया कि सब सार्वजनिक संस्थाएं सरकार से असहयोग करने में अपना सारा ध्यान लगा दें और जनता में परस्पर पूर्ण सहयोग स्थापित करें।
देशबत्थू दास ने घोषणा की कि वे अपनी वक्तलत छोड़ देंगे। वे चोटी के वकील थे। उनकी आय और उनके ऐश्वर्य की कोई सीमा न थी। उनकी इस घोषणा ने देश को आलोड़ित कर दिया। देखते-देखते उनका घर एक राजनीतिक संस्थान, परामर्श, संगठन और प्रचार का केन्द्र बन गया। शरत् बाबू उन दिनों बाजे शिवपुर में रहते थे। उन्होंने सखूर्ण हृदय से असहयोग आन्दोलन का समर्थन किया। वे न केवल हावड़ा जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष चुने गए बल्कि बंगाल प्रादेशिक और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य भी निर्वाचित हुए। इस प्रकार इस आन्दोलन के परिचालन का उत्तरदायित्व उन पर भी आ गया। इस उत्तरदायित्व को उन्होंने मुक्त मन से स्वीकार किया । प्रायः प्रतिदिन सवेरे वे शिवपुर से कलकत्ता आते और देशबन्यू तथा दूसरे कार्यक्तीओं के साथ आन्दोलन के संचालन के संबंध में परामर्श करते। इन कार्यकर्ताओं में प्रमुख थे डा० यतीन्द्र मोहन दासगुप्त, सुभाषचन्द्र बोस, हेमन्तकुमार सरकार और निर्मलचन्द्र चन्द्र चन्द्र महोदय से उनकी विशेष घनिष्ठता थी। दोनों वाक्पटु, सरलप्राण तथा तम्बाकू और रवीन्द्रनाथ ठाकुर के परम भक्त थे।
शरच्चन्द्र परामर्श देने में विशेष पटु थे। किसी जटिल समस्या को लेकर जब सब उलझे रहते तब वे चाय और चुरुट सेवन में मन देते। और जब दूसरे लोग परेशान हो उस्तें तो वे सहज भाव से समस्या का समाधान प्रस्तुत करके सबको चकित कर देते। घर लौटते- लौटते बहुत रात बीत जाती थी। थके शरीर टैक्सी में बैठकर जब वे लौटते, तब उनके विरोधी कहते, अरे देखो, शरत् बाबू कैसे शराब में धुत होकर लौटे हैं।.
इन चार-पांच वर्षों मे जहां उन्हें असंख्य भक्त मिले थे यहां विरोधियों की संख्या भी काफी बढ़ गई थी। समय-समय छींटा कसने से वे नहीं चूकते थे। उनका सबसे बड़ा अस्त्र था उनके चरित्र पर आक्रमण करना, विशेषकर उन्हें शराबी प्रमाणित करना । बहुत दिनों बाद' 2 देशदन्यू दास ने घर में स्थापित करने के लिए उन्हें राधाकृष्ण की एक मूर्ति दी। यह भी सुना गया कि शरत् बाबू ने उनके घर में श्वेत प्रस्तर की राधाकृष्ण की एक मूर्ति देखकर उसकी बड़ी प्रशंसा की थी । तब देशबत्यु ने वही मूर्ति उन्हें दे दी थी। मूर्ति काफी भारी थी। उसे लेकर वे आधी रात को लौटे। लौटने में सदा ही देर हो जाती थी। उस दिन साथ में शैलेश विशी थे। उन्हीं की सहायता से उन्होंने उस मूर्ति को टैक्सी में रखा। उन्हीं की सहायता से उतारा। बोझ के कारण उनके पैर लड़खड़ा रहे थे। राह चलते किन्हीं सज्जन ने उन्हें इसी अवस्था में देखा । मूर्ति को वे नहीं देख सके। उन्होंने सवेरे सहज भाव से प्रचार कर दिया, रात शरत् बाबू शराब में धुत होकर लौटे थे। उन्हें पकड़कर टैक्सी से उतारा गया। उनसे चला भी नहीं जाता था ।'
कृतिकार का जीवन उसका अपना होता है। उस पर आक्षेप करने से क्या लाभ? उसका मूल्य तो उसकी कृति से झकना चाहिए। परन्तु मनुष्य तो स्वभाव से छिद्रान्वेषी है। ढूंढ्ने पर दोष न भी मिले तो वह कल्पना कर सक्ता है, परन्तु जैसा कि उनका स्वभाव था, इस प्रकार के लांछनों क्त वे कभी प्रतिवाद नहीं करते थे मौन रहकर उस ख्याति को फैलने देते थे। न जाने कैसी-कैसी गप्पें उनके बोरे में प्रचलित थीं। जो उनके निकट थे वे मित्र तक यह मानने लगे थे कि असहयोग आन्दोलन में भाग लेने के पहले तक वे खूब शराब पीते थे। गिलास में डालकर पीते थे, बोतल से मुंह लगाकर पीते थे, दूध-भात खाने की तरह शेम्पेन में भात मिलाकर खाते थे, मार्बल की गोली जितनी अफीम डालकर पीते थे, कांच या पत्थर के बड़े बर्तन में डालकर नली से पी जाते थे.........
जिस व्यक्ति के बारे में ऐसी कल्पनाएं की जा सकती हैं वह कैसा विलक्षण रहा होगा! लेकिन आश्चर्य यह है कि कभी किसी ने उन्हें ऐसा करते देखा नहीं था, केवल सुना ही था। इस बात के प्रमाण हैं कि वे शराब पीते थे, किशोरावस्था से पीते थे, लेकिन जैसा कि उनके बारे में प्रचलित हो गया था वैसे पियक्कड़ वे कभी नहीं थे। कलकत्ता लौटने से पहले उन्होंने शराब पीना बिलकुल छोड़ दिया था। हिन्दी के ख्यातनामा साहित्यकार श्री इलाचन्द्र जोशी एक बार उनसे मिलने के लिए गए थे। बातों ही बातों में उन्होंने पूछा था, “क्या आपने जीवन में कभी शराब का अनुभव किया है?.”
"कई बार।"
“क्या कभी आप उस हद तक शराब में डूबे है, जिस हद तक आपका देवदास डूबा रहता था?"
वे मुसकराए और बोले, “जीवन में मैंने छोटी-मोटी भूलें बहुत-सी की हैं, परंतु अपनी मूर्खता को मैं उस सीमा तक कभी नहीं खींच ले गया। शराब को मैंने कभी नशे के रूप में ग्रहण नही किया। बराबर दवा के रूप में ही ग्रहण किया है। किसी शारीरिक रोग की दवा के रूप में नहीं, बल्कि अपने स्वभाव की एक कमी की पूर्ति के लिए। मैं स्वभाव से अन्तर्मुखी हूं और बुद्धि से सामाजिक जीवन को पूर्णतया अपनाने पर भी व्यावहारिक रूप से समाज और समूह से भागना चाहता हूं। समाज के बीच में बड़े असन्तोष का अनुभव करने लगता हूं। इसलिए कभी-कभी दवा की मात्रा में थोड़ी-सी मदिरा पी लेता हूं और तब मैं समाज में सामाजिक प्राणियों की तरह ही रहने लगता हूं और उसके साथ सहज भाव से हेलमेल बढ़ा सकने में समर्थ होता हूं। इधर तो मैंने दो-तीन महीने से एक बूंद भी नहीं पी है ।"
“क्या कभी ऐसा भी अवसर आया है कि आप अपनी किसी रचना, कहानी या उपन्यास को जल्दी पूरा करना चाहते हों, पर लिखने की प्रेरणा न मिल रही हो और उस हालत में आप शराब पीकर कृत्रिम उपाय से प्रेरणा प्राप्त करके लिखने बैठे हों?"
“कभी नहीं। पी लेने के बाद मुझे लिखने की प्रेरणा कभी नहीं मिलती। उस हालत में केवल मैं अनुभव करता हूं और जब कोई महत्त्वपूर्ण भाव या विचार उस हालत में मेरे मन में उठने लगता है तब पास में कागज-कलम होने पर उसे नोट अवश्य कर लेता हूं।”
फिर भी अफवाहों का कोई अन्त नहीं था। यहां तक प्रचलित हो गया था कि वे गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के सामने भी पीते हैं और वेश्या के साथ गाते-बजाते हैं। एक अनोखी अफवाह यह थी कि उनके पास पंचरली' है, अर्थात्, चांदी की एक गुड़गुड़ी, उस पर चांदी की एक चिलम, चिलम में चार खाने । एक में गांजा, दूसरे में भांग, तीसरे में अफीम, चौथे में तम्बाकू और स्वयं गुड़गुड़ी में शराब भरी रहती है।
ऐसी सब अफवाहों का स्रोत स्वयं उनके अपने पास ही था। खूब शराब पीने की बात भी स्वयं उन्होंने ही अनेक बार अनेक व्यक्तियों से बड़ी गम्भीरता (? ) के साथ कही है या उनके मित्रों ने उनके मुंह से कहलवाई है। उनकी मौज की कल्पनाओं का कोई अन्त नहीं था। बहुत पहले रंगून से अपने एक मित्र को लिखा था, मैंने 'देवदास' माताल होकर बोतल पर बोतल पीकर लिखा है ।
लेकिन इससे भी बहुत पहले एक और पत्र में उन्होंने लिखा था, “छ: महीने से शराब नहीं पी है। शरीर कुछ स्वस्थ लगता है। जान पड़ता है, यदि नहीं पीऊंगा तो जल्दी ही ठीक हो जाऊंगा।”
रंगून में उन्होंने किस प्रकार शराब छोड़ी, इसकी चर्चा करते हुए उन्होंने अपने मित्र हरिदास शास्त्री से एक दिन कहा था, “श्रीरामपुर से जो लड़की मुझसे मिलने आई थी, वह कैसी अद्भुत थी, जानते हो?"
हरिदास बोले, "नहीं तो। "
शरत् ने कहा, “वह लड़की मेरे पास आई और बोली, चहुत दिनों से आपसे मिलने की इच्छा थी, लेकिन मेरे आत्मीयजनों ने मुझसे कहा कि तुम भले घर की लड़की हो, भला तुम शरत् से मिलोगी! कैसा साहस है तुम्हारा?" यह सब बताकर उसने पूछा, आ आप सचमुच ऐसे हैं कि आपसे कोई युवती मिल भी नहीं सकती?' मैं हंस पड़ा, उत्तर दिया, 'अगर दस वर्ष पहले के शरत् के संबंध में ऐसा कहा जाता तो मैं कुछ न कहता, क्योंकि तब मैं खूब नशा करता था। दिन-रात नशे में चूर रस्सा था, लेकिन तब भी मैं कह सकता हूं कि मैंने कभी किसी नारी का अपमान नहीं किया। और प्रद तो मैं तुम्हारा बड़ा भाई हूं। निडर होकर तुम मेरे पास आ सकती हो।”
शास्त्रीजी ने पूछा, शराब पीते थे?"
शरत बोले, फा भाई, पीता था किन्तु एक दिन षेड़ दी।"
कैसे छोड़ दी ?"
“अच्छा बताता हूं। एक और चटर्जी थे, एक बर्मी बत्यु थे। हम तीनों एक साथ शराब पीते थे। अचानक वे बर्मी बत्यु बीमार हो गए। डाक्टर ने उन्हें शराब पीने से मना कर दिया। छुट्टी लेकर वे अपना इलाज भी कराने लगे। एक दिन क्या हुआ कि लगभग रात के ग्यारह बजे दूसरे चटर्जी मेरे घर आकर मुझे पुकारने लगे। पूछने पर उन्होंने बताया कि दुकानें बन्द हो गई हैं और उन्हें प्यास लगी है, कुछ शराव चाहिए। लेकिन मेरे पास जितनी थी उससे उनकी प्यास नहीं बुझी। बोले, 'चलो उन बर्मी यन्यू के घर चले।'
राजी नहीं हुआ। लेकिन वह क्यों मानने लगे थे? मुझे उनके साथ जाना ही पड़ा । रात का एक बज चुका था। बहुत आवाज देने पर बन्यू की पत्नी खिड़की से झांकी। बोलीं, भेरे स्वामी बीमार हैं, कृपा करके आप लोग चले जाएं।'
"लेकिन तब तक हमारी पुकार सुनकर वह बत्यु भी जाग पड़े थे। उन्होंने अपनी पत्नी से अनुरोध किया, दरवाजा खोल दो हमारे घर में एक बोतल है। उसकी हमें क्या जरूरत है? मैं तो अब शराब पीता ही नहीं हूं।'
भैं होश में था। उस समय भी मैंने वापस लौट चलने का अनुरोध किया, लेकिन चटर्जी नहीं माने। अन्दर जाकर हम लोग एक छोटी-सी मेज के पास बैठ गए। बर्मी बन्तु की पत्नी भी पहरा देने के लिए वहीं बैठी हुई थीं। परन्तु दिन-भर के परिश्रम से थकी होने के कारण वे शीघ्र ही ऊंघने लगीं। यह देखकर चटर्जी ने बर्मी बत्थू से भी शराब पीने का इशारा किया, लेकिन पत्नी की ओर देखकर उन्होंने इनकार कर दिया। फिर धीरे धीरे पत्नी को सचमुच नींद आ गई। चटर्जी ने फिर अनुरोध किया। बर्मी बन्यू इस बार मना नहीं कर सके। एक बार दो बार, और तीसरी बार पीते समय पात्र उनके हाथ से गिर पड़ा। 'आ-आ ऐसा भयानक शब्द करते हुए वे खुद भी गिर पड़े। यह शब्द सुनकर उनके स्त्री-पुत्र सब जाग पड़े। और तब उन बत्यु की छाती पर लोट-लोटकर उन्होंने जो चीत्कार किया, उसे सुनकर हमारा नशा न जाने कहा चला गया। रात भर थाना पुलिस हुआ और फिर अगले दिन बत्यु का अन्तिम संस्कार किया। वहां से लौटकर प्रतिज्ञा की कि अब शरार नहीं पियूंगा। चटर्जी ने भी प्रतिज्ञा की, लेकिन वे उसकी रक्षा न कर सके। तो हरिदास, एक भला आदमी स्त्री- पुत्र को लेकर सुख से सो रहा था। रात के एक बजे दो आदमी उसके घर में घुसे और उसे मार डाला। ऐसा भयानक कर्म होने पर भी शराबी को ज्ञान नहीं होगा तो कब होगा ?"
उन्होंने श्री इलाचन्द्र जोशी से जो कुछ क्का वह इस वर्णन से राई-रत्ती मैल नहीं खाता, लेकिन फिर भी अपने-अपने स्थान पर दोनों वक्तव्यों में काफी सत्य है। उनका सारा जीवन विरोधाभासों से पूर्ण रहा है और उसके बीच में से उस सत्य को खोज निकालना भी उतना ही कठिन रहा है। लेकिन उनके ये तथाकथित वक्तव्य सही हों या न हों यह निश्चय ही सही है कि उन्होंने शराब पीना छोड़ने का कई बार प्रयत्न किया और भारत लौटने पर उन्होंने पीने के लिए शराब कभी नहीं पी। केवल कभी-कभी स्नायु तंतुओं को उत्तेजित करने के लिए दवा के रूप में वे एकाध पेग ले लेते थे ताकि अन्तर के हीन भाव को पराजित करके समाज में एक स्वस्थ सामाजिक प्राणी की तरह रह सकें।
कृतिकार अपनी कृतियों में किसी न किसी रूप में अपने को और अपनी भावनाओं को चित्रित करता ही है। उनकी रचनाओं के अनेक पात्र शराबी हैं, लेकिन उनमें केवल देवदास ही ऐसा व्यक्ति है जिसे पीने से सचमुच प्रेम है। वह प्रेम के क्षेत्र में निराश हो चुका है। उस निराशा को भूलने के प्रयत्न में ही वह पीता है। शायद इसी तरह एक दिन शरत् बाबू ने भी पीना शुरू कर दिया था। 'देवदास' लिखते समय उनकी आयु सत्रह वर्ष की थी। प्रेम में पड़ने की इससे अच्छी आयु और नहीं हो सकती। चारों ओर से उपेक्षित, अपमानित होकर शराब की शरण लेना बहुत अच्छा लगता है। देवदास यही करता है, लेकिन बाद की रचनाओं में ऐसा नहीं है। 'चरित्रहीन' का सतीश पीता अवश्य है, पर प्रयत्न उसका बराबर छोड़ने की दिशा में ही चलता है। एक दिन सावित्री के सामने शराब न पीने की कसम खाकर वह मुक्त हो जाता है। 'देना पावना' का शराबी जमींदार जीवानन्द भी एक दिन भरा हुआ शराब का प्याला लौटा देता है और अपनी इच्छा से मदिरा के स्थान पुर चाय पीकर घर से निकलता है। 'पथेर दाबी' का कवि शशि भी नवतारा ओर डाक्टर के कहने पर शराब न पीने की प्रतिज्ञा करता है।
लेकिन शराब को बुरा मानकर भी कवि और गुणी व्यक्तियों को शराब पीने की छूट देने के लिए वह सहमत थे। 'पथेर दाबी' का डाक्टर मानो शरत् के स्वर में कहता है, “इसके सिवा वे ठहरे कवि और गुणी आदमी उन लोगों की जाति ही अलग है। उनकी भलाई- बुराई ठीक हम लोगों से नहीं मिलती। मगर इसके मायने यह नहीं हैं कि दुनिया की भलाई- बुराई के बने हुए कामों में उन्हें माफी दे देते है। उनके गुणों का फल तो हम सब मिलकर भोगते हैं, पर दोषों को वे सदा अकेले ही भोगते हैं।"
शरत् बाबू इसी अलग जाति के थे। वे मन-प्राण से इस आन्दोलन में आए थे। उनका यह आना कई कारणों से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । वे साहित्यकार थे और साहित्यकार प्रायः राजनीति के दलदल से दूर रहता है। परन्तु वे मानते थे कि भारत की स्वतन्त्रता के लिए जो आन्दोलन गांधीजी ने चलाया है वह केवल शुष्क राजनीति ही नहीं है। देश की मुक्ति का व्रत है। जो देश की दासता को सह सकता है वह साहित्यिक नहीं है। उनके साहित्य में देश और मनुष्य का यही प्रेम परिष्कृत हुआ है। उसी देश और मनुष्य के प्रेम के कारण वह असहयोग आन्दोलन से अलग नहीं रह सके। साहित्यिक मित्रों ने उनसे कहा, “आप तो साहित्यिक हैं। आपका काम साहित्य चर्चा है, राजनीति नहीं।”
शरत ने उत्तर दिया, "यह आपकी भूल है। राजनीति में योग देना देशवासियों का कर्त्तव्य है। विशेषकर हमारे देश में यह राजनीतिक आन्दोलन देश की मुक्ति का आन्दोलन है। इस आन्दोलन में साहित्यिकों को सबसे आगे बढ़कर योग देना चाहिए। लोकमत जाग्रत् करने का गुरुभार संसार के सभी देशों में साहित्यिकों के ऊपर रहा है। युग-युग में उन्होंने ही तो मनुष्य के मन में मुक्ति की आकांक्षा जगाई है। यदि आपकी बात मान भी लें, तो वकील, बैरिस्टर, डाक्टर और विद्यार्थी सभी यही तर्क उपस्थित करेंगे। तब राजनीति को कौन संभालेगा?"
शरतचन्द्र देश की मुक्ति के आन्दोलन में पूर्ण विश्वास रखते थे, परन्तु उसके सारे कार्यक्रम में न तो उनकी पूरी श्रद्धा थी और न वैसी आस्था ही विशेषकर चर्खे में उनका रंचमात्र भी विश्वास नहीं था। फिर भी निरन्तर कातते रहे और खद्दर पहनते रहे। स्थान- स्थान पर चर्खा स्थापित करने में उन्होंने अपनी जेब से बहुत-सा पैसा खर्च किया था। उनकी मान्यता थी कि उनका विश्वास हो या न हो, परन्तु जब कांग्रेस ने खद्दर पहनने का नियम बनाया है तो पहनना ही चाहिए। नहीं तो अनुशासन कैसे रहेगा? इसलिए वे कातते थे, सुन्दर कातते थे। इतना सुन्दर कि एक बार वैज्ञानिक आचार्य प्रफुल्लचन्द्र राय उनके काते हुए सूत का बुना हुआ कपड़ा सिर पर रखकर नाच उठे।
वैज्ञानिक प्रफुल्लचन्द्र साहित्यिक शरतचन्द्र के बड़े प्रशंसक थे। शरत् बाबू भी उनके प्रति कम श्रद्धा नहीं रखते थे। उन दोनों महाप्राण व्यक्तियों का प्रथम मिलन एक असाधारण घटना के रूप में प्रचारित हो गया था। एक दिन किसी सन्दर्भ में राय महोदय ने अपने विद्यार्थियों के सामने शरत् बाबू से मिलने की इच्छा प्रकट की। तुरन्त एक विद्यार्थी शरत बाबू के पास पहुंचा और निवेदन किया कि क्या वे किसी दिन राय महोदय से मिलने के लिए चल सकेंगे?
'शरत् बाबू स्वयं बड़े उत्सुक थे, इसलिए वे उसी क्षण उस विद्यार्थी के साथ चल पड़े।
साइंस कालेज के ऊपर के तल्ले के एक कमरे में राय महोदय रहते थे। दोनों सीधे वहां पहुंचे। उस समय राय महोदय अपनी छोटी खाट पर बैठे काम करने में व्यस्त थे। शरत् बाबू ने देखा, खाट के पास दो कुर्सियां हैं, परन्तु दोनों कागज पत्रों से भरी हैं। बैठने के लिए कहीं भी रंच मात्र स्थान नही है। तब वे खाट पर बैठने के लिए आगे बढ़े कि सहसा राय महोदय उत्तेजित होकर बोल उठे, क्या करते हो, क्या करते हो, खाट पर मत बैठो।.
शरत् खड़े के खड़े रह गए। विद्यार्थी की लज्जा का पार नहीं, शीघ्रता से एक कुर्सी उठा लाया। शरत् बैठ गए। अब राय महोदय ने उनकी ओर देखकर सहज भाव से पूछा, क्या कर रहे हो आजकल
शरत् ने उत्तर दिया, “थोड़ा-बहुत लिखने की चेष्टा करता हूं।"
उत्साहित करते हुए प्रफुल्ल बाबू बोले, सुन्दर करे जाओ। खूब लिखो, लेकिन हां, छपाने की जल्दी मत करना।"
बातचीत से स्पष्ट था कि राय महोदय उन्हें अपना कोई पुराना छात्र समझ रहे हैं। विनीत भाव से उन्होंने कहा, “छापने लायक कुछ नहीं है। बस चेष्टा करता हूं।"
जिस छात्र के साथ शरत् बाबू आए थे वह अब अपने को न रोक सका। प्रफुल्ल बाबू के पास आकर उसने कहा, "जी, ये शरत् बाबू हैं।"
सुनते ही प्रफुल्लचन्द्र राय ने चश्मे के ऊपर से शरत्चन्द्र को एक बार अच्छी तरह देखा । फिर उठकर तुरन्त द्वार पर आए और अपने प्रिय शिष्यों के नाम ले-लेकर पुकारने लगे। क्षण-भर में वहां एक छोटी-सी भीड़ जमा हो गई। उनको लेकर सेनापति की तरह वे आगे-आगे घर में धुसे। शरत् बाबू की ओर उंगली से दिखाकर बोले, “देखते हो उधर कौन बैठा है? ये हैं श्री शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय । उधर देखो उनकी सब पुस्तकें हैं और आज स्वयं भी आए हैं। अच्छी तरह देखो। पैरों की धूल लो।
उसके बाद शरत्चन्द्र के पास आकर बैठ गए और एक अन्तरंग मित्र की तरह बातें करने लगे। बोले, “आपकी पुस्तकें पढकर कितनी बार बातचीत करने की इच्छा हुई है। आज इतने दिन बाद वह पूरी हुई।"
इस बातचीत में अपरिचय के कारण प्रारम्भ में जो भूल हो गई थी, उसके लिए क्षमा- प्रार्थना करने की सुधि भी उन्हें नहीं रही। जहां स्नेह हो वहां क्षमा कोई अर्थ नहीं रखती।
उनके सारे जीवन की तरह यह मिलन भी रोमांचकारी है। महात्मा गांधी से उनकी प्रथम भेंट भी सम्भवत: इतनी ही रोमांचकारी रही होगी। परन्तु उसका कोई विवरण किसी ने नहीं लिखा। बहुत पहले रंगून में उन्होंने महात्माजी को देखा था। उनके स्वागत समारोह की रिपोर्ट भी उन्होंने लिखी थीं। वह रिपोर्ट रंगून गजट में छपी थी, लेकिन भारत में उनकी महात्माजी से जिस भेंट का विवरण उपलब्ध है, वह चर्खे को लेकर ही है। राय महोदय की तरह महात्माजी ने भी उनके कते सूत की प्रशंसा की थी। असहयोग आन्दोलन के समय जब वे कलकत्ता आए थे तो एक दिन 'सर्वेण्ट' का कार्यालय देखने के लिए गए। देशबन्धु दास के घर से और भी कई व्यक्ति उनके साथ थे। श्री श्यामसुन्दर चक्रवर्ती उस समय बंगाल प्रान्तीय कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष थे। वह भी थे, शरत्चन्द्र भी थे। कार्यालय में पहुंचकर महात्माजी ने सबके साथ चर्खा कातने की इच्छा प्रकट की।
चर्खे आए और सब लोग कातने लगे। महात्माजी की दृष्टि, बड़ी तीक्ष्ण थी। तुरन्त ही उन्होंने देख लिया कि शरत् बाबू का सूत बहुत सुन्दर है। इसके विपरीत श्याम बाबू बहुत मोटा कात रहे हैं। परिहास के स्वर में वे बोले, “अरे, देखो तो, बंगाल प्रान्तीय कांग्रेस के प्रधान रस्से जैसा मोटा सूत कात रहे हैं।
सुनकर सब हंस पड़े। शरत्चन्द्र बोले, “मन्दिर के जो जितना पास होता है भगवान से उतना ही दूर होता है।"
महात्माजी ने कहा, “शरत् बाबू आपकी चर्खे में श्रद्धा नहीं है?"
नहीं, रत्ती भर नहीं। "
महात्माजी ने कहा, “लेकिन कातते तो आप चर्खे के अनेक प्रेमियों से अच्छा हैं।
शरत् बोले, मैं चर्खे को नहीं, आपको प्यार करता हूं। मैंने चर्खा कातना इसलिए सीखा
महात्माजी हंस पड़े। बोले, “लेकिन आप इस बात में विश्वास नहीं करते कि कातने से स्वराज्य प्राप्ति में सहायता मिलेगी।"
“शरत्चन्द्र ने हंसते हुए कहा,” जी नहीं, मैं विश्वास नहीं करता। मेरे विचार से स्वराज्य प्राप्ति में सिपाही ही सहायक हो सकते हैं, चर्खे नहीं।
यह बात सुनकर महात्मा जी बड़े जोर से हंस पड़े।
एक बार देशबन्धु चितरंजनदास ने भी यही प्रश्न उनसे पूछा, “क्या आप चर्खे में विश्वास करते हैं?
शरत् बाबू ने उत्तर दिया, आप जिस विश्वास की बात करते हैं, वह विश्वास मैं नहीं करता ।
देशबन्धु ने कहा, क्यों नही करते?"
शरत् बाबू ने उत्तर दिया, “जान पड़ता है बहुत दिनों तक बहुत चर्खा कातने के कारण।"
देशबन्धु क्षण-भर चुप रहकर बोले, इस देश के तीस करोड़ लोगों में अगर पांच करोड़ आदमी सूत कातने लगें तो सात करोड़ रुपये का सूत तैयार हो सकता है।"
शरत् बाबू ने कहा, "हो सकता है। दस लाख आदमी एक घर बनाने में हाथ लगाएं तो डेढ़ सेकेण्ड में घर बनकर तैयार हो सकता है। हो सकता है? आप विश्वास करते हैं?"
देशबन्धु बोले, ये दोनों एक चीज नहीं है, लेकिन मैं आपका मतलब समझ गया। न नौ मन तेल होगा और न राधा नाचेगी। फिर भी मैं विश्वास करता हूं। मेरी बड़ी इच्छा होती है कि चर्खा कातना सीख लूं। किन्तु मुश्किल यह है कि हाथ के किसी भी काम में मेरी गति नहीं है। "
शरत् बाबू ने कहा, “भगवान आपकी रक्षा करें।"
लेकिन विश्वास हो या न हो, चर्खे के लिए कुछ करने में उन्होंने कोई कसर उठा न रखी। छूट गया ऐश्वर्य, छूट गई सिल्क की पोशाक, रह गया बस खद्दर, तेल की बनी पकौड़ी-कचौड़ी, यहां तक कि भुने हुए चने खा खाकर, गांव-गांव चर्खे का प्रचार करते वे घूमे। वे स्वयं कातते थे, घर के दूसरे लोग कातते थे, नौकर तक कातते थे और चकमा देते थे। शरत् पूछते, क्यों रे अमुक, काम क्यों नहीं किया?”
जवाब मिलता, “चर्खा कात रहा था।”
शरत् अब क्या कहते। देशोद्धार के काम में जो लगा था, लेकिन इसका यहीं अन्त नहीं था। मामा सुरेन्द्रनाथ भी इस आन्दोलन में कूद पड़े थे। एक दिन अध्यापक का पद छोड़कर वे शरत्चन्द्र के पास आकर रहने लगे। काम करने के साथ-साथ चर्खे को लेकर मामा-भानजे में काफी तर्क-वितर्क चलता रहता था। एक दिन शरत्बाबू ने कहा, मामा, तुम समाज का जो काम कर रहे थे, वह चर्खा आन्दोलन से बहुत बड़ा है। मैं साहित्य-रचना करता हूं वह चर्खे से निश्चय ही बड़ा काम है। यदि मैं सब काम छोड़कर चर्खा चलाता रहूं तो क्या देश का लाभ होगा?”
सुरेन्द्रनाथ ने उत्तर दिया, बहुत हानि होगी।”
तब?”
सुरेन्द्रनाथ ने कहा, लेकिन मैं यदि छुट्टी के दिन चर्खा चलाता हूं तो इसमें क्या अन्याय की बात है? यदि सरकार कहती है कि चर्खा चलाना अन्याय है और जो चर्खा चलाएगा उसे जेल भेज दिया जाएगा तब मैं अवश्य चर्खा चलाऊंगा और जेल जाऊंगा। मेरे देश की दादी- नानी हमेशा से चर्खा चलाती आई हैं। इसमें क्या दोष है?”
शरत् बाबू बोले, 'यदि भारत अपने पहनने के वस्त्र स्वयं तैयार कर लेता है तो इसमें हमारा लाभ है और उनकी हानि। इसलिए वे चर्खा चलाने को अन्याय मानते हैं।'
मामा ने कहा, . और मैं उनकी इस मान्यता को घोर अन्याय मानता हूं। यदि स्कूल में चर्खा नहीं कात सकता तो में अध्यापकी करने को तैयार नहीं हूं। इसीलिए काम छोड़कर चला आया हूं।.
शरत्चन्द्र बोले, चुमने कोई अन्याय नहीं किया।.
लेकिन शायद चर्खे से सुरेन्द्र मामा का काम नहीं चला। एक दिन बोले, 'शरत्, केवल चर्खे से काम नहीं चलेगा। करघा भी बैठाना होगा।.
शरत् तुरन्त तैयार हो गए। भागलपुर में पांच-सात करधे बैठाए गए। पेशगी देकर बंगाल के अच्छे-अच्छे बुनकर आए। लेकिन कुछ दिन बीतते न बीतते, यहां तक कि पेशी के रुपये कटते न कटते उनके घरों से चिदिठयां आने लगीं। किसी का लड़का बीमार है, किसी की बीबी बीमार है। किसी के यहां रुपये की कमी से इलाज नहीं हो पा रहा है। इसलिए और रुपये चाहिए।
रुपये दिए गए, लेकिन चिट्ठी का आना बन्द नहीं हुआ। इस बार चिट्ठी आई कि आदमी की कमी के कारण पका धान खेत में झड़ रहा है, तुरन्त चले आओ।
किसी की चिट्ठी आती कि अमुक ने मुकदमा दायर कर दिया है, पैरवी के लिए आना ही होगा, नहीं तो सब मटियामेट हो जाएगा। ये चिदठियां लेकर बुनकर उनके सामने हाजिर होते। वे मजबूर होकर राह- खर्च और छुट्टी देकर उन्हें घर भेज देते, लेकिन लौटकर कोई नहीं आता। इधर करघाघर में दीमकों का उत्पात बढ़ता ही जाता था । निराश होकर सुरेन्द्र मामा ने कहा, छोड़ो, दूसरों के भरोसे यह काम नहीं चलने का। इससे तो अच्छा है कि दियासलाई का कारखाना खोल दिया जाए। देश का काम भी होगा और आमदनी भी । लेकिन अब बाहर से आदमी नहीं बुलाएंगे। सीखकर स्वयं सब कुछ करेंगे। वफादार लड्डुकों को काम सिखाएंगे।'
भरतचन्द ने उत्तर दिया, चर्चा तो झगडू मिस्त्री ही तैयार कर सकता है, लेकिन दियासलाई की मशीन कितने की आएगी?.
सुरेन्द्र मामा बोले, त्रात सौ रुपये की ।.
शरत् ने पूछा, और कुमिल्ला से स्टीमर पर लाने में कितना खर्च होगा?.
सुरेन्द्र मामा बोले, त्रह नहीं मालूम। फिर भी वह बहुत ज्यादा नहीं होगा । ब्ध रुपये में केमिकल खरीदा जा सकेगा।.
भरतचन्द ने कहा, .अच्छा, मैं तुम्हें एक हजार रुपये दूंगा। वही काम करो।'
और दियासलाई का कारखाना चालू क्मिा गया, लेकिन हिन्दुओं के लड़कों में से कोई भी काम सीखने नहीं आया। बस थोडे-से मुसलमान लड़के मिले। उन्होंने कहा, न्हम काम सीखेंगे, लेकिन मजूरी देनी होगी। .
काफी पका-सुनी के बाद चार आना प्रतिदिन मजूरी तय हुई। काम जोरों से चल निकला, लेकिन अचानक एक दिन बारूद में आग लग गई। किसी का हाथ जला, किसी का पैर जला और किसी का मुंह जला दियासलाई का कारखाना भी समाप्त हो गया। शरत् बाबू वापस लौट गए।