किसी कारण स्कूल की आधी छुट्टी हो गई थी। घर लौटकर गांगुलियो के नवासे शरत् ने अपने मामा सुरेन्द्र से कहा, "चलो पुराने बाग में घूम आएं। "
उस समय खूब गर्मी पड़ रही थी, फूल-फल का कहीं पता नहीं था। लेकिन घनी छाया के नीचे निस्तब्धता में समय काटना बहुत अच्छा लगता था। वह अब यहां से चला जाएगा, इस बात से शरत् का मन बहुत भारी था। लेकिन कहता वह किसी से नहीं था। चुपचाप सुरेन्द्र के साथ घर से निकल पड़ा। नाते में मामा और आयु में छोटा होने पर भी दोनों में धीरे-धीरे मित्रता के बंधन गहराते आ रहे थे।
बाग में पहुंचकर पेड़ों के पास घूमते-घूमते वह मानो मन ही मन उनसे विदा लेने लगा। शायद वह सोच रहा था कि अब वापस आना हो या न हो। फिर जैसा कि उसका स्वभाव था, सहसा कूदकर वह एक पेड़ की डाल पर बैठ गया और बातें करने लगा। इन बातों का कोई अन्त नहीं था। कोई सूत्र भी नहीं था । विदा के दुख को छिपाने के लिए ही मानो वह कुछ न कुछ कहते रहना चाहता था। बोला; "तू दुखी न हो, हम फिर मिलेंगे और बीच-बीच तो मैं आता ही रहूंगा।"
"आओगे?"
"क्यों नहीं आऊंगा, भागलपुर क्या मुझे कम अच्छा लगता है? घाट के टूटे स्तूप पर स गंगा में कूदने में कितना मज़ा आता है ! उस पार वह जो झाऊ का वन है, उसे क्या भूल सकूंगा! वह मुझे पुकारेगा और मैं चला आऊंगा।"
फिर दीर्घ निःश्वास लेकर बोला. "ओह, कितनी प्यारी जगह है यह भागलपुर, देख ना मै, अवश्य आऊंगा।"
दो क्षण तक दोनों में से कोई नहीं बोला। फिर सहसा शरत् ने कहा, "पेड़ पर चढ़ना बड़ा ज़रूरी है, मान लो किसी वन में जा रहे है, हठात् संध्या का अंधकार फैल गया, चारों ओर से हिंसक पशुओं की आवाजें उठने लगीं, तब यदि पेड़ पर चढ़ना न आया तो महा विपद..."
सुरेन्द्र ने पूछा, "अगर गिर पड़े तो....".
शरत् ने कहा, "गिरेगा क्यों रे !"
वह और ऊपर चढ़ गया। एक कपड़े से कमर को पेड़ की एक मोटी शाखा से बांधा और लेट गया। बोला, "इस तरह सोकर रात काटी जा सकती है। "
नाना के घर रहते शरत् को लगभग तीन वर्ष हो गए थे। इससे पहले भी वह मां के साथ कई बार आ चुका था। सबसे पहली बार उसकी मां जब उसको लेकर आई थी, तो नाना-नानियों ने उस पर धन और अलंकारों की वर्षा की थी। नाना केदारनाथ ने कमर में सोने की तगड़ी पहनाकर उसे गोद में उठाया था । उस परिवार में इस पीढ़ी का पहला लड़का था वह!
लेकिन तीन वर्ष पहले का यह आना कुछ और ही तरह का था। उसके पिता मोतीलाल यायावर प्रकृति के स्वप्नदर्शी व्यक्ति थे। जीविका का कोई भी धंधा उन्हें कभी बांधकर नहीं रख सका। चारों ओर से लांछित होकर वह बार-बार काम-काज की तलाश करते थे। नौकरी मिल भी जाती थी तो उनके शिल्पी मन और दासता के बन्धन में कोई सामंजस्य न हो पाता। कुछ दिन उसमें मन लगाते, परन्तु फिर एक दिन अचानक बड़े साहब से झगड़ कर उसे छोड़ बैठते और पढने में व्यस्त हो जाते या कविता करने लगते। कहानी, उपन्यास, नाटक सभी कुछ लिखने का शौक था। चित्रकला में भी रुचि थी।
सौन्दर्य-बोध भी कम नहीं था । सुन्दर कलम में नया निब लगाकर बढ़िया कागज़ पर मोती जैसे अक्षरों में रचना आरम्भ करते, परन्तु आरम्भ जितना महत्वपूर्ण होता, अन्त होता उतना ही महत्त्वहीन । अन्त की अनिवार्यता मानो उन्होंने कभी स्वीकार ही नहीं की। बीच में
छोड़कर नई रचना आरम्भ कर देते। शायद उनका आदर्श बहुत ऊंचा होता था या शायद अन्त तक पहुंचने की क्षमता ही उनमें नहीं थी। वह कभी कोई रचना पूरी नहीं कर सके। एक बार बच्चों के लिए उन्होंने भारतवर्ष का एक विशाल मानचित्र तैयार करना आरम्भ किया, परन्तु तभी मन में एक प्रश्न जाग आया, क्या इस मानचित्र में हिमाचल की गरिमा का ठीक-ठीक अंकन हो सकेगा? नहीं हो सकेगा । बस, फिर किसी भी तरह वह काम आगे नहीं बढ़ सका।
इस तरह मोतीलाल की सारी कला - साधना व्यर्थता में ही सफल हुई। परिवार का भरण-पोषण उनके लिए असम्भव हो गया। यह देखकर शरत् की मां भुवन मोहिनी ने पहले तो पति को बहुत-कुछ कहा-सुना, फिर अपने पिता केदारनाथ से याचना की एक दिन सबको लेकर भागलपुर चली आई। मोतीलाल एक बार फिर घर-जंवाई होकर रहने लगे ।