भागलपुर आने पर शरत् को दुर्गाचरण एम० ई० स्कूल की छात्रवृत्ति क्लास में भर्ती कर दिया गया। नाना स्कूल के मंत्री थे, इसलिए बालक की शिक्षा-दीक्षा कहां तक हुई है, इसकी किसी ने खोज-खबर नहीं ली। अब तक उसने केवल 'बोधोदय' ही पढ़ा था। यहां उसे पढ़ना पड़ा 'सीता वनबास', 'चारु पाठ', 'सद्भाव-सद्गुरु' और 'प्रकाण्ड व्याकरण' । यह केवल पढ़ जाना ही नहीं था, बल्कि स्वयं पण्डितजी के सामने खड़े होकर प्रतिदिन परीक्षा देना था। इसलिए यह बात निस्संकोच कही जा सकती है कि बालक शरत् का साहित्य से प्रथम परिचय आंसुओं के माध्यम से हुआ। उस समय वह सोच भी नही सकता था कि मनुष्य को दुख पहुंचाने के अलावा भी साहित्य का कोई उद्देश्य हो सकता है, लेकिन शीघ्र ही वह यह अवश्य ससमझ गया कि वह क्लास में बहुत पीछे है। यह बात वह सह नहीं सकता था, इसलिए उसने परिश्रमपूर्वक पढ़ना आरम्भ कर दिया। और देखते-देखते बहुतों को पीछे छोड़कर अच्छे बच्चों में गिना जाने लगा।
नाना लोग कई भाई थे और संयुक्त परिवार में एक साथ रहते थे। इसलिए मामाओं और मौसियों की संख्या काफी थी। उनमें छोटे नाना अघोरनाथ का बेटा मणीन्द्र उसका सहपाठी था। उन दोनों को घर पढ़ाने के लिए नाना ने अक्षय पण्डित को नियुक्त कर दिया था। वे मानो यमराज के सहोदर थे। मानते थे कि विद्या का निवास गुरु के डंडे में है। इसलिए बीच-बीच में सिंह गर्जना के साथ-साथ रूदन की करुण ध्वनि भी सुनाई देती रहती थी।
इस विद्याध्ययन के समय शरारत कम नहीं चलती थी। शरत् यहां भी अग्रणी था। उस दिन तेल के दिये के चारों और बैठकर सब बच्चे पढ़ रहे थे। और बरामदे में निवाड़ के पलंग पर लेटे हुए नाना सुन रहे थे। सहसा ये बोल उठे, "क्यों, पुराना पाठ याद कर रहे हो? आ नया पाठ नहीं पढ़ा क्या?"
"नहीं!"
"क्यों?"
"पण्डितजी नहीं आए। उन्हें बुखार आ गया है।"
बस नाना ने घर के सेवक मुशाई को पुकारा, "मुशाई, लालटेन जलाओ ! पण्डितजी को बुखार आ गया है। देखने जाना है।"
स्कूल के मंत्री ही नहीं, समाज के नेता भी थे। मनुष्य के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, इसमें वे आदर्श माने जाते थे। उनके जाते ही शरत् ने घोषणा की, "कैट इज़ आउट, लेट माउस प्ले।"
और तुरन्त ही समवेत गान का यह स्वर वहां गूंज उठा : डांस लिटिल बेबी, डांस अप हाई, नेवर माइण्ड बेबी, मदर इज़ नाई । क्रो एण्ड के पार, केपार एण्ड क्रो, देअर लिटिल बेबी, देअर यू गो । अप-टू दी सीलिंग, अप टू दी ग्राउंड, बैकवर्ड एण्ड फार्वर्ड, राउण्ड एण्ड राउण्ड । डांस लिटिल बेबी, एण्ड मदर विल सिंग, मैरिली-मैरिली, डिंग डिंग डिंग |
एक उत्साही बालक ने इस अन्तिम पंक्ति का तुरन्त हिन्दी अनुवाद भी प्रस्तुत कर दिया, "खुशी से, खुशी से, ताक धिनाधिन । "
एक दिन न जाने कहा से एक चमगादड़ बच्चों के सिर पर आकर मंडरान लगा । छोटा मामा देवी सोया पड़ा था क्योंकि नाना भी सो गए थे। तब बाकी बच्चों का पढ़ना कैसे होता? चमगादड़ को देखकर मणि और शरत् के हाथ खुजलाने लगे। लाठियां लेकर वे उसे पकड़ने दौड़े। फिर जो युद्ध मचा, उसमें चमगादड़ तो जंगले में से होकर निकल गया, लेकिन लाठी दीवे में जा लगी। चादर पर तेल फैलाता हुआ वह बुझकर गिर पड़ा। यह देखकर मणि और शरत् दोनों चुपचाप वहां से पलायन कर गए। नाना की आंख खुल गई। देखा घोर अंधकार फैला है।
पुकार उठे, मुशाई, मुशाई!"
"बाती कैयूं बुत्त गया?"
दियासलाई जलाकर मुशाई ने देखा कि वंहा न तो मणि है और न शरत् । केवल देवी गहरी नींद में सोया है। बोला, "मणि और शरत् तो खाना खाने गए है। देवी ने बत्ती गिरा दी है । "
इस अपराध की कोई क्षमा नहीं थी । केदारनाथ ने देवी का कान पकड़कर उठाया और मुशाई से कहा, "इसे ले जाकर अस्तबल में बन्द कर दो।"
अगले दिन मामा को प्रसन्न करने के लिए गहरी रिश्वत देनी पड़ी। लेकिन देवी पर मां सरस्वती की कम कृपा थी । शरत् के बड़े मामा ठाकुरदास सभी बच्चों की शिक्षा की देख- भाल करते थे। वे गांगुली परिवार की कट्टरता और कठोरता के सच्चे प्रतिनिधि थे। उस दिन क्या हुआ, मोतीलाल बच्चों को लेकर गंगा के किनारे घूम रहे थे कि अचानक ठाकुरदा निकले। उनकी दृष्टि में. यह अक्षम्य अपराध था। उन्होंने बच्चों को तुरन्त परीक्षा के लिए प्रस्तुत होने का आदेश दिया। किसी तरह मणि और शरत् तो मुक्ति पा गए, लेकिन देवी ने जगन्नाथ शब्द का संधि-विच्छेद किया, 'जगड़-नाथ' ।
इस अपराध का दण्ड पीठ पर चाबुक खाना ही नहीं था, अस्तबल में बन्द होना भी था। परन्तु शरत् पर इन बातों का कोई असर नहीं होता था। यहां तक कि स्कूल में भी दुष्टता करने से वह नहीं चुकता था। अक्सर वहां की घड़ी समय से आगे चलने लगती । उसको ठीक करके चलाने का भार वैसे अक्षय पण्डित पर था। लेकिन दो घंटे खूब जमकर काम करने के बाद तमाखू खाने की इच्छा हो आना स्वाभाविक था। तब वे स्कूल के सेवक जगुआ की पानशाला में जा उपस्थित होते। इसी समय शरत् की प्रेरणा से दूसरे छात्र उस घड़ी को दस मिनट आगे कर देते। कई दिन तक जब उनकी चोरी नहीं पकड़ी गई तो साहस और बढ़ गया। वे घड़ी को आधा घंटा आगे करन लगे। इसके बाद कभी- कभी वह एक घंटा भी आगे हो जाती थी। उस दिन तीन का समय होने पर उसमें चार बजे थे। अभिभावकों के मन में सन्देह होने लगा, लेकिन पण्डितजी ने उत्तर दिया, मै स्वयं घड़ी की देखभाल करता हूं।"
उत्तर उन्होंने दे दिया, लेकिन शंका उनके भी मन में थी। इसलिए उन्होंने चुपचाप इस रहस्य क पता लगाने का प्रयत्न किया। एक दिन पानशाला से असमय में ही लौट आए, क्या देखते हैं कि बच्चे एक-दूसरे के कंधे पर चढ़कर घड़ी को आगे कर रहे है। बस वे गरज उठे। और सब लड़के तो निमिष मात्र में वहां से भाग गए, लेकिन शरत् भले लड़के का अभिनय करता हुआ बैठा रहा । पण्डितजी यह कभी नहीं जान सके कि इस सारे नाटक का निदेशक वही है। उसने कहा, पण्डितजी, आपके पैर छूकर कहता हूं मुझे कुछ नहीं मालूम। मैं तो मन लगाकर सवाल निकाल रहा था । "
उस समय की उसकी मुख-भंगी देखकर कौन अविश्वास कर सक्ता था? अपने असीम साहस और समझ-बूझ के कारण जिस प्रकार वह घर में मामा लोगों के दल का दलपति बन गया था, उसी प्रकार स्कूल के विद्यार्थियों के नेतृत्व का भार भी अनायास ही उसके कंधों पर आ गया।
उसके शौक भी बहुत थे, जैसे पशु-पक्षी पालना और उपवन लगाना । लेकिन उनमें सबसे प्रमुख था तितली-उद्योग । नाना रूप-रंग की अनेक तितलियों को उसने काठ के बक्स में रखा था। बड़े यत्न से वह उनकी देख-भाल करता था । उनकी रुचि के अनुसार भोजन की व्यवस्था होती थी। उनके युद्ध का प्रदर्शन भी होता था। उसी प्रदर्शन के कारण उसके सभी साथी उसकी सहायता करके अपने को धन्य मानते थे । उनमें न केवल परिवार के या दूसरे बड़े घरों के बालक थे बल्कि घर के नौकरों के बच्चे भी थे। उनके साथ किसी प्रकार का भेद-भाव नही किया जाता था। ये बच्चे भी उसे प्रसन्न करके अपने को कृतार्थ अनुभव करते थे।
अपने उपवन में उसने अनेक प्रकार के फूल गाछ और लता-गुल्म लगाए थे। ऋतु के अनुसार जूही, बेला, चन्द्रमल्लिका और गेंदा आदि के फूल खिलते और दलपति सहित सभी बच्चे गद्गद हो उठते । इस उपवन के बीच में गडढा खोदकर एक तलैया का निर्माण भी उसने किया था। उस पर टूटे शीशे का आवरण था। साधारणतया वह उस पर मिट्टी लीप देता, परन्तु कोई विशिष्ट व्यक्ति देखने आता तो मिट्टी हटाकर उसे चक्ति कर देता।
लेकिन ये सब कार्य उसे लुक-छिपकर करने पड़ते थे, क्योंकि नाना लोग इन्हें पसन्द नहीं करते थे। उनकी मान्यता थी कि बच्चों को केवल पढ़ने का ही अधिकार है। प्यार, आदर और खेल से उनका जीवन नष्ट हो जाता है। सवेरे स्कूल जाने से पहले घर के बरामदे में उन्हें चिल्ला-चिल्लाकर पढ़ना चाहिए। और संध्या को स्कूल से लौटकर रात के भोजन तक चण्डी - मण्डप में दीवे के चारो ओर बैठकर पाठ का अभ्यास करना चाहिए । यही गुरुजनों की प्रीति पाने का गुर था। जो नियम तोड़ता था उसे आयु के अनुसार दण्ड दिया जाता था। कोई नहीं जानता था कि जाने कब किसको घंटों तक एक पैर पर खड़े होकर आंसू बहाने पड़ें। इस अनुशासन के बीच खेलने का अवकाश पाना बड़ा कठिन था, परन्तु आखों में धूल झोंकने की कला में शरत् निष्णात था।
छात्रवृत्ति —की परीक्षा पास करने के बाद, जब वह अंग्रेजी स्कूल में भर्ती हुआ, तब भी उसकी प्रतिभा में ज़रा भी कमी नहीं हुई। गागुंली परिवार में पतंग उड़ाना वैसे ही वर्जि था जैसे शास्त्र में समुद्र-यात्रा । परन्तु शरत् था कि पतंग, उड़ाना, लट्टू घूमाना, गोली और गुल्ली-डंडा जैसे निषिद्ध खेल उसे बड़े प्रिय थे। नीले आकाश में नृत्य करती हुई उसकी पतंग को देखकर दल के दूसरे सदस्यों के हृदय नाच उठते । उसका मांझा विश्वजयी था। वह ऐसा पेंच मारता कि विरोधी के पतंग कटकर धरती पर आ गिरती । शून्य में लट्टू घुमाकर उसे हथेली पर ऐसे लपक लेता कि साथी मुग्ध हो रहते ।
बाग से फल चुरा लाने की कला में भी वह कम कुशल नहीं था। मालिक लोग सन्देह करते, पेड़ पर लगे अमरूदो की गिनती भी वे रखते, लेकिन वे डाल-डाल तो शरत् पात- पात। उसकी तीक्ष्ण बुद्धि के सामने मालिकों के सब उपाय व्यर्थ हो जाते । यदि कभी पकड़ा भी जाता तो वीरों की तरह दण्ड ग्रहण करता । कथाशिल्पी शरत्चन्द्र के सभी प्रसिद्ध पात्र देवदास, श्रीकान्त, दुर्दान्तराम और सव्यसाची इस कला में निष्णात है। पता नहीं, दुर्दान्तराम की तरह उसकी कोई नरायनी भाभी थी या नहीं पर निश्चय ही चोरी की शिकयत आने पर उसकी माँ ने उस कलमुंहे को एक पैर पर खड़ा होने की सज़ा दी होगी और उसने विरोध प्रकट करते हुए भी उसे स्वीकर कर लिया होगा।
वह खिलाड़ी था, विद्रोही भी उसे कह सकते हैं, पर बदमाश वह किसी भी दृष्टि से नहीं था। भले ही तत्कालीन मापदण्ड के अनुसार उसे यह उपाधि मिली हो । पिता की तरह उसमें भी प्रचुर मात्रा में सौंदर्य-बोध था। पढ़ने के कमरे को खूब सजाकर रखता। चौकी और उस पर एक सुन्दर-सी तिपाई, एक बन्द डेस्क, और उसमें पुस्तकें, कापियां कलम- दवात इत्यादि-इत्यादि। उसकी पुस्तकें झक-झक करती थीं। कापियां वह स्वयं करीने से काटकर ऐसे तैयार करता था कि देखते ही बनता था।
स्वभाव से भी वह अपरिग्रही था । दिन-भर में वह जितनी गोलियां और लट्टू जीतता, संध्या को वह उन सबको छोटे बच्चों में बांट देता। देने में उसे मानो आनन्द आता था, लेकिन यह देने के अभिमान का आनन्द नहीं था, यह था भार-मुक्ति का आनन्द । नींद और आहार पर भी उसे अधिकर था। बचपन से ही वह स्वल्पाहारी था। बड़े होने पर कथाशिल्पी शरत्चन्द्र की 'बड़ी बहू' सबसे अधिक इसीलिए तो परेशान रहती थी।
अंग्रेजी स्कूल में पढ़ते समय उसे अपने शरीर का बड़ा ध्यान रहता था। नाना के घर के उत्तर की ओर गंगा के ठीक ऊपर एक बहुत बड़ा और बदनाम घर था। कभी वहां एक बहुत बड़ा परिवार रहता था। परन्तु संयोग से एक के बाद एक, कई मृत्यु हो जाने पर ये लोग उसे छोड़कर चले गए। उसके बाद बहुत दिनों तक वह भूतावास बना रहा। अभिभावकों से छुपाककर इसी महल के आँगन में शरत् ने कुश्ती लड़ने का अखाड़ा तैयार किया । गोला फेंकने के लिए गंगा के गर्भ से बड़े-बड़े गोल पत्थर आ गए, लेकिन 'पैरेलल बार' की व्यवस्था नहीं हो सकी। पैसे का अभाव जो था । बहुत सोच-विचार कर शरत् ने आदेश दिया, "बांस की बार तैयार की जाए ।"
बस संध्या के झुटपुटे में चार-पांच लड़के बांस काटने निकल पड़े। झाड़-झंखाड़ों में रगड़-रगड़कर हाथ-पांव लहूलुहान हो गए। पर दलपति की आज्ञा है कि उसी रात को 'पैरेलल बार' तैयार हो जानी चाहिए और वह हुई। अगले दिन दोपहर तब सब लड़के उत्फुल्ल होकर उस पर झूलने लगे। लेकिन शोर मचाना वहां एकदम मना था। घर के लोग जान न लें, इसलिए लौटते समय ये सब प्राण-रक्षा का मंत्र पढ़ते हुए लौटते थे, लेकिन एक दिन क्या हुआ कि गिर जाने के कारण एक बालक को चोट आ गई। उसके बाद जो कुछ हुआ उसकी कल्पना कर लेना कष्ट साध्य नही है ।
उसका विस्वास था कि तैरने से शरीर बनता है। गंगा घर के समीप ही थी, लेकिन कभी-कभी रूठकर दूर चली जाती थी। उस वर्ष ऐसा ही हुआ। बीच में छोटे-छोटे ताल बन गए और उनमें लाल-लाल जल भर गया। शरत् उस लाल जल में स्नान करने का लोभ कैसे संवरण कर सकता था ! मणि मामा को साथ लेकर एक दिन वह उसमें कूद ही तो पड़ा, लेकिन उसका दुर्भाग्य, उस दिन छोटे नाना अघोरनाथ असमय ही घर लौट आए। उन्होंने मणि को नहीं देखा तो पूछा, "मणि कहा है?"
उस क्षण अधोरनाथ ने जो हुंकार किया उसे सुनकर सब डर गए। उनका यह डर अकारण नहीं था, जैसे ही दोनों बालक नहाकर खुशी-खुशी घर लौटे, वैसे ही छोटे नाना सिंह के समान गर्जन करते हुए मणि पर टूट पड़े। घर की नारियों के बार-बार बचाने पर भी उसकी जो दुर्गति हुई उसके ठीक होते-होते पांच-सात दिन लग गए। लेकिन शरत् उस क्षण के बाद वहां नहीं देखा गया। तीसरे दिन जब नाना फिर घोड़े पर सवार होकर काम पर चले गए तभी वह दिखाई दिया। मामा लोगों ने अचरज से पूछा, तू कहां चला गया था रे?" शरत् ने उत्तर दिया, "मै गोदाम में था । "
"क्या खाता था?"
"वही जो तुम खाते थे।" "कौन देता था?"
"छोटी नानी!"
जिस समय छोटे नाना मणि को मार रहे थे, उस समय छोटी नानी के परामर्श से शरत् घर में जा छिपा था।
लेकिन उसे खेलने का जितना शौक था उतना ही पढ़ने का भी था। वह केवल स्कूल की ही पुस्तकें नहीं पढ़ता था, पिता के संग्रहालय में जो भी पुस्तकें उसके हाथ लग जातीं छिपकर उन्हें पढ़ डालता। वहीं से एक दिन उसके हाथ एक ऐसी पुस्तक लगी जिसमें दुनिया भर के विषयों की चर्चा थी। नाम था 'संसार कोश' । विपद पड़ने पर गुरुजनों के दण्ड से कैसे मुक्ति पाई जाती है इसका भी एक मंत्र उसमें लिखा था। अपने सभी साथियों को उसने यह मंत्र सिखा दिया। मंत्र था, "ओम्, ह्रूं धूं धूं, रक्ष रक्ष स्वाहा । "
केवल गुरुजनों के दण्ड से मुक्ति पाने का ही नहीं, सापों को बस में करने का मंत्र भी उसे उसी में मिला था। शरत् उसकी परीक्षा करने को आतुर हो उठा। कुछ दिन पहले उसे सांप ने काट लिया था। बड़ी कठिनता से उसके प्राण बच सके थे। इसलिए वह जनमेजय की तरह नागयज्ञ करने को और भी उत्सुक था। कोश में लिखा था कि एक हाथ लम्बी की जड़ किसी भी विषाक्त सांप के फण के पास रख देने पर पल-भर ही में वह सांप सिर नीचा कर निर्जीव हो जाएगा।
बड़े उत्साह के साथ उसने बेल की जड़ ढूंढ निकाली। सांपों की कोई भी कमी नहीं थी। लेकिन उस दिन शायद उन्हें इस मंत्र का पता लग गया था। इसलिए बहुत खोज करने पर भी कोई सांप नही दिखाई दिया। अन्त में अमरुद के एक पेड़ के नीचे मलबे में एक गोखरू सांप के बच्चे का पता लगा । खुशी से भरकर शरत् अपने दलसहित वहां जा पहुंचा और उसे बाहर निकलने को छेड़ने लगा। बालको के इस अत्याचार से क्षुब्ध होकर सांप के उस बच्चे ने अपना फण उठा लिया। शरत् इसी क्षण की राह देख रहा था, तुरन्त आगे बढ़कर बेल की जड़ उसके सामने कर दी। विश्वास था कि अभी वह सांप सिर नीचा करके सबसे क्षमा-प्रार्थना करेगा, लेकिन निस्तेज होना तो दूर वह बच्चा बार-बार उस जड़ को डसने लगा। यह देखकर बालक भयातुर हो उठे। तब मणि मामा कहीं से लाठी लेकर आए और उन्होंने सनातन रीति से उस बाल सर्प का संहार कर डाला। ऐसा लगता है, तब तक शरत् की भेंट 'विलासी' के 'मुत्युंजय' से नहीं हुई थी। जड़ दिखाने से पूर्व एक काम और भी तो करना होता है, "जिस सांप को जड़ी दिखाकर भगाना हो पहले उसका मुंह गरम लोहे की सींक से कई बार दाग दो, फिर उसे चाहे जड़ी दिखाई जाए, चाहे कोई मामूली-सी सींक, उसे भागकर जान बचाने की हो सूझेगी।" 'श्रीकान्त' और 'विलासी' आदि अपनी रचनाओं में कथाशिल्पी शरत्चन्द्र ने इस विद्या की अच्छी चर्चा की है।
इन शरारतों के बीच कभी-कभी यह भी देखा जाता कि दलपति गैरहाज़िर है। पुकार उठती, "कहां गए शरत् दा?"
"यही तो थे ।" "कहां थे?"
कुछ पता न लगता परन्तु जब खोज खोजकर सब थक जाते तो न जाने कहां से आकर वह स्वयं हाज़िर हो जाता। बच्चे उसे घेर लेते और पूछते, कहां चले गए थे?". "त्पोवन!"
"यह तपोवन कहां है, हमें भी दिखाओ ।"
उसने किसी को भी तपोवन का पता नहीं बताया, लेकिन सुरेन्द्र मामा से उसकी सबसे अधिक पटती थी। शायद इसलिए कि सुरेन्द्र ने उसकी मां का दूध पिया था। वह अभी छोटा ही था कि उसकी मां के फिर सन्तान होने की सम्भावना दिखाई दी। उधर शरत् का छोटा भाई शैशव में ही चल बसा था। तब उसकी मां ने सुरेन्द्र को अपना दूध पिलाकर पाला था। इसलिए बहुत अनुनय-विनय करने पर एक दिन वह उसको साथ लेकर अपने तपोवन गया। जाने से पूर्व उसने सुरेन्द्र से कहा, "मैं तुझे वहां ले तो चलूंगा, परन्तु तू सूर्य, गंगा और हिमालय को साक्षी करके यह प्रतिज्ञा कर कि किसी और को इस स्थान का पता नहीं बताएगा।"
सुरेन्द्र बोला, "मै सूर्य को साक्षी करके प्रतिज्ञा करता हूं कि किसी और को इस स्थान का पता नहीं बताऊंगा।
मैं गंगा को साक्षी करके प्रतिज्ञा करता हूं कि किसी और को इस स्थान का पता नही बताऊंगा।"
"मैं हिमालय को साक्षी करके प्रतिज्ञा करता हूं कि किसी और को इस स्थान का पता नहीं बताऊंगा।"
"अब चल!"
घोष परिवार के मकान के उत्तर में गंगा के बिलकुल पास ही एक कमरे के नीचे, नीम और करौंदे के पेड़ों ने उस जगह को घेरकर अंधकार से आच्छन्न कर रखा था। नाना लताओं ने उस स्थान को चारों ओर से ऐसे ढक लिया था कि मनुष्य का उसमें प्रवेश करना बड़ा कठिन था। बड़ी सावधानी से एक स्थान की लताओं को हटाकर शरत् उसके भीतर गया। वहां थोडी-सी साफ-सुथरी जगह थी । हरी-हरी लताओं के भीतर से सूर्य की उज्जवल किरणें छन-छनकर आ रही थी और उनके करण स्निग्ध हरित प्रकाश फैल गया था। देखकर आखें जुड़ाने लगीं और मन गद्गद होकर मानो किसी स्वप्नलोक में पहुंच गया। एक बड़ा-सा पत्थर वहां रखा था। उसके ऊपर बैठकर शरत् ने सुरेन्द्र को बुलाया, "आ!"
सुरेन्द्र डरते-डरते पास जा बैठा। नीचे खरस्रोता गंगा बह रही थी। दूर उस पार का दृश्य साफ-साफ दिखाई दे रहा था । मन्द मन्द शीतल पवन की मृदु हिलोरें शरीर को पुलक से भर रही थीं। सुरेन्द्र ने मुग्ध होकर कहा, "यह जगह तो बहुत सुन्दर है।"
शरत् बोला, "हां, इस जगह आकर बैठना मुझे बहुत अच्छा लगता है। न जाने क्या- क्या करता हूं। बड़ी-बड़ी बातें सब यहीं दिमाग में आती हैं। "
सुरेन्द्र ने कहा, "सचमुच ऐसा लगता है कि जैसे तपोवन में आ गया हूं। आज समझा हूं कि इए बार तुमने अंकगणित में सौ में से सौ अंक कैसे पाए थे।"
न जाने कितनी बार वह इस पवित्र मौन - एकान्त में आकर बैठा होगा । दूर से आती बच्चों की शरारतों की आवाजें गंगा की कल-कल ध्वनि में मिलकर एक रहस्यमय वातावरण का निर्माण करती होगीं। प्रकृति का सौन्दर्य जैसे उसके थके तन- मनको सहलाता होगा और तब उसने मन-ही-मन प्रतिज्ञा की होगी, "मैं सूर्य, गंगा और हिमालय को साक्षी करके प्रतिज्ञा करता हूं कि मैं जीवन भर सौन्दर्य की उपासना करूंगा, कि मैं जीवन-भर अन्याय के विरुद्ध लडूगा, कि मैं कभी छोटा काम नहीं करूंगा।" उसने अनुभव किया होगा कि घर में एकान्त नहीं है। ज़रा-सी ध्वनि मस्तिष्क में प्रतिध्वनि पैदा करती है। और उभरते हुए चित्र को धुंधला कर देती है... तभी उसने इस तपोवन को ढूंढ निकाला होगा।
लेकिन उसने अंकगणित में ही शत-प्रतिशत अंक नहीं पाए थे, अंग्रेजी स्कूल के प्रथम वर्ष में उसने परीक्षा में प्रथम स्थान भी पाया था। हुआ यह कि छात्रवृत्ति की परीक्षा पास करने के बाद अंग्रेजी पढ़ने के लिए उसे नीचे की कक्षा में दाखिल होना पड़ा, इसलिए दूसरे विषय उसके लिए सहज हो गए और वह बीच में ही एक वर्ष लांघकर ऊपर की कक्षा में पहुंच गया। इन सब बातों से जहां मित्रों में उसकी प्रतिष्ठा बढ़ी, वहां गुरुजन भी आश्वस्त हो गए।
स्कूल में एक छोटा-सा पुस्तकालय भी था। वहीं से लेकर उसने उस युग के सभी प्रसिद्ध लेखकों की रचनाएं पढ़ डालीं । युगसंधि के उस काल में जब कर्ता लोग चण्डी- मण्डप में बैठकर चौपड़ को लेकर शोर मचाते तब किशोर वय के लोग चोरी-चोरी बंकिम- रवीन्द्र की पुस्तकों के पन्न पलटते। लेकिन शरत् केवल पढ़ता ही नहीं था, उसको समझने और आस-पास के वातावरण का सूक्ष्म अध्ययन करने की सहज प्रतिभा भी उसमें थी। वह हर वस्तु को करीब से देखता था।
उस दिन अवकाशप्राप्त अध्यापक अघोरनाथ अधिकारी स्नान के लिए गंगा घाट की ओर जा रहे थे। कपड़े उठाए पीछे-पीछे चल रहा था शरत् । एक टूटे हुए घर के भीतर से एक स्त्री के धीरे-धीरे रोने का करुण स्वर सुनाई दिया। अधिकारी महोदय ठिठक गए। बोले, "यह कौन रोता है? क्या हुआ इसे?"
शरत् ने उत्तर दिया, "मास्टर मुशाई, इस नारी का स्वामी अन्धा था। लोगों के घरों में काम-काज करके यह उसको खिलाती थी। कल रात इसका वह अन्धा स्वामी मर गया। वह बहुत दुखी है। दुखी लोग बड़े आदमियों की तरह दिखाने के लिए ज़ोर-ज़ोर से नहीं रोते ।
उनका रोना दुख से विदीर्ण प्राणों का क्रन्दन होता है। मास्टर मुशाई, यह सचमुच का रोना है।"
छोटी आयु के बालक से रोने का इतना सूक्ष्म विवेचन सुनकर अघोर बाबू विस्मित हो उठे। वे कलकत्ता रहते थे। लौटकर उन्होंने अपने एक मित्र से इस घटना की चर्चा की। मित्र ने कहा, "जो रुदन के विभिन्न रूपों को पहचानता है, वह साधारण बालक नहीं है। बड़ा होकर वह निश्चय ही मनस्तत्व के व्यापार में प्रसिद्ध होगा।"
लेकिन गांगुली परिवार में उसकी इस सहज प्रतिभा को पहचानने वाला कोई नहीं था । इस घोर आदर्शवादी परिवार में केवल एक ही व्यक्ति ऐसा था जिस पर नवयुग की हवा का कुछ प्रभाव हुआ था। वे थे केदारनाथ के चौथे भाई अमरनाथ । वे शौकीन तबीयत के थे। कबूतर पालते थे। और उस युग में कंघा, शीशा और बुश इत्यादि का प्रयोग करते थे। सिर पर अंग्रेज़ी फैशन के बाल भी रखते थे। घर के बालक उनके इस रूप पर मुग्ध थे। मुग्ध होने का एक और भी कारण था । दफ्तर से लौटकर वे रोज़ उन्हें कुछ न कुछ देते थे। जैसे पीपरमेंट की गोलियां इत्यादि । लेकिन इसी कारण बड़े भाई उनसे अप्रसन्न थे। और इसी कारण, एक दिन चोटी रखकर शेष बाल उन्हें कटा देने पड़े थे।
पढ़ने में भी उनकी रुचि कम नहीं थी । बंकिमचन्द्र के 'बंगदर्शन' का प्रवेश उन्ही के द्वारा गांगुली परिवार में हो सका था। यह 'बंगदर्शन' बंगला साहित्य में नवयुग का सूचक था। गांगुली लोगों के हाली शहर से बंकिमचन्द्र का 'कांठालपाड़ा' दूर नहीं था। उस गांव की एक लड़की इस परिवार में वधू बनकर भी आई थी, लेकिन घर का जोगी जोगना आन गांव का सिद्ध'। बंकिमचन्द्र की यहां तनिक भी प्रतिष्ठा नहीं थी । नवयुग के सन्देशवाहक होने के नाते इस कट्टर परिवार में अगर थी तो थोड़ी-बहुत अप्रतिष्ठा ही थी, लेकिन फिर भी अमरनाथ चोरी-छिपे 'बंगदर्शन' लाते थे। उनसे यह भुवनमोहनी के द्वारा मोतीलाल के पास पहुंचता था और वहां से कुसुमकामिनी की बैठक मे ।
दुर्भाग्य से अमरनाथ बहुत दिन जी नहीं सके। बच्चों को अपार व्यथा में डूबोकर वे छोटी आयु में ही स्वर्गवासी हो गए। उनकी कमी किसी सीमा तक मोतीलाल और कुसुमकामिनी ने पूरी की। कुसुमकामिनी सबसे छोटे नाना अघोरनाथ की पत्नी थी। छात्रवृत्ति परीक्षा पास करके स्वयं उन्होंने ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के हाथों से पारितोषिक पाया था। जैसा कि होता आया है, तब भी स्त्रियों का मुख्य कार्य था, रसोई का जुगाडू करना और घर-गृहस्थी के दूसरे कार्य संभालना । उससे समय बचा तो जीवन को जीवन्त बनाने के लिए कलह करना या सोना । फिर जागने पर परनिन्दा में रस लेना, लेकिन कुसुमकामिनी यह सब नही कर पाती थीं। जिस दिन उनकी रसोई बनाने की बारी नहीं होती थी उस दिन उनकी बैक्क में (या ऊपरी ख्त पर ) एक छोटी-मोटी गोष्ठी होती थी। उसमें वे स्वयं 'बंगदर्शन' के अतिरिक्त 'मृणालिनी, ' वीरांगना', 'बृजांगना', 'मेघनाद वध' और 'नीलदर्पण पढ़कर सुनाती थी। उनका स्वर और पढ़ने की शैली इतनी मर्मस्पर्शी थी कि सभी निस्पन्द हो उठते थे। बालक शरत् आश्चर्य और आदर से भरकर सोचता कि लेखक भी कितना आसाधारण व्यक्ति होता है। संभवत: उसके मन में तब लेखक बनने की बात नहीं उठी थी। पर उसने लेखक को मनुष्य से ऊपर अवश्य माना था। यह उसके उपार्जन करने का युग था, लेखक बनने का नहीं। इस गोष्ठी में उसने साहित्य का पहला पाठ पढ़ा था और फिर बहुत दिन बाद पढ़ी 'बंगदर्शन' में कविगुरु की युगान्तरकारी रचना 'आखं की किरकिरी'। पढ़कर उस किशोर को जो गहरे आनन्द की अनुभूति हुई, उसको न वह किसी को बता सका, न जीवन-भर भूल ही सका। अब तक उसका मन भूत-प्रेतों की कहानियों से ही आतंकित रहा था। इस नये जीवन दर्शन ने उसे प्रकाश और सौन्दर्य के एक नये जादू- भरे संसार में पहुंचा दिया। जैसे पुश्किन की रचना पढ़ने के बाद ताल्सताय पुकार उठे थे, "मैं पुश्किन से बहुत-कुछ सीख सकता हूं। वे मेरे पिता हैं। वे मेरे गुरु हैं। वैसे ही शरत ने कहा होगा, "मै उनसे बहुत कुछ सीख सकता हूं। वे आज से मेरे गुरु हुए।"
और सचमुच शरत् जीवन के अन्तिम क्षण तक उन्हें अपना गुरु ही मानते रहे।
वास्तव में माणि-शरत् की शिक्षा का आदि पर्व कुसुमकामिनी की पाठशाला में ही शुरू हुआ था। पाठ्यपुस्तक का क्रम समाप्त होने पर साहित्य की बारी आती थी। शैशव से लेकर यौवन के प्रारम्भ होने तक इस क्रम में कोई व्यवधान नहीं पड़ा। अपराजेय कथाशिल्पी शरत्चन्द्र के निर्माण में कुसुमकामिनी का जो योगदान है उसे कभी नहीं भुलाया जा सकेगा।
इसी गोष्ठी में अचानक एक दिन क्रांति हो गई। एक नये स्रोत से आकर उस दिन रवीन्द्रनाथ की कविता 'प्रकृतिर प्रतिशोध' का स्वर गूंज उठा। पढ़नेवाले थे उसी परिवार के एक व्यक्ति। वे बाहर रहकर पढ़े थे। इस परिवार में वर्जित संगीत और काव्य में उनकी दिलचस्पी थी। उस कविता को सुनाने के लिए उन बन्धु ने परिवार के सभी नारियों को इकट्ठा किया था। किसने कितना समझा, पता नहीं, लेकिन शरत् की आंखों में आंसू आ गए। उन्हें छिपाने के लिए वह उठकर बाहर चला गया।
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1. सन् 1887 ई०। उस समय छात्रवृत्ति स्कूल होतें थे। जिनमें अन्तिम श्रेणी छठी होती थी। छात्रवृत्ति का अर्थ आज जैसा नही था।