' यमुना' कार्यालय में जो साहित्यिक बैठकें हुआ करती थीं, उन्हीं में उसका उस युग के अनेक साहित्यिकों से परिचय हुआ उनमें एक थे हेमेन्द्रकुमार राय वे यमुना के सम्पादक फणीन्द्रनाथ पाल की सहायता करते थे। एक दिन संध्याके समय जब वह रचनाओं का निर्वाचन कर रहे थे, तो शरत्चन्द्र ने वहां प्रवेश किया। पहले कोई प्रत्यक्ष परिचय नहीं था। हेमेन्द्र ने दृष्टि उठाकर देखा । नितान्त साधारण चेहरे, साधारण दुबली-पतली रुग्ण देह और काले रंग का एक व्यक्ति चट्टी पहने और एक बदसूरत देसी कुत्ते के बच्चे को साथ लिए उसके सामने खड़ा है। सिर पर बड़े हुए सूखे बाल हैं। दाढ़ी छोटी और पतली है। कपड़े अधमैले हैं। उपेक्षा से उसने पूछा, "किसे चाहते हो?"
"फणि बाबू को।"
"वह अभी नहीं आए।
"तब मैं कुछ देर बैठ सकता हूं?"
हेमेन्द्र ने सोचा कोई दफ्तरी है, कुर्सी तो साहित्यकार के लिए है। इसलिए बिना कुछ कहे उन्होंने एक बेंच की ओर इशारा कर दिया। फिर अपना काम करने लगे। काफी देर हो गई! शरत् कुत्ते के बच्चे के साथ खेलता रहा। एक बार वह कुत्ता हेमेन्द्र बाबू के पास जा पहुंचा और उनकी धोती पकड़ने लगा। वह विरक्त हो उठे। बोले, "छी-छी, कार्यालय में यह देसी कुत्ता...."
तभी सहसा फणि बाबू ने वहां प्रवेश किया और शरत् को देखकर व्यस्त हो उठे। बोले, यह क्या शरत् बाबू? वहां बेंच पर क्यों बैठे हैं?"
शरत् ने उंगली से हेमेन्द्र की ओर इशार किया और मन्द मन्द मुस्कराते हुए कहा, "उन्होंने मुझे यहीं बैठने का हुक्म दिया है।"
फणि बाबू बोले, "नाना, यहां कुर्सी पर बैठिए यह क्या हेमेन्द्र बाबू, आप शरत् बाबू को पहचान नहीं सके?"
हेमेन्द्र ने अप्रतिभ होकर कहा, "क्षमा कीजिए, कैसे पहचानूंगा? मैंने तो इन्हें कभी देखा ही नहीं सोचा था कोई दफ्तरी होगा।"
यह सुनकर शरत् खिलखिलाकर हंस पड़ा। लेकिन इसके बाद उन दोनों में गहरी मैत्री हो गई। साहित्यिक बैठकों में दोनों साथ-साथ आते-जाते थे। शरत् कहानियां कहते-कहते एक दो बार अफीम की बड़ी सी गोली मुंह में डाल लेता था। भयातुर होकर एक दिन हेमेन्द्र ने कहा, "यह क्या करते हैं आप?"
शरत् ने उत्तर दिया, "अफीम खाता हूं। यदि तुम भी सुन्दर लिखना चाहते हो तो मेरी तरह अफीम खाओ।"
हेमेन्द्र ने कहा, "माफ कीजिए महाशय । इस तरह की यदि एक भी गोली खा लूंगा तो फिर सुन्दर लिखने का समय ही नहीं मिलेगा। खबर पाकर यमदूत दौड़े आयेंगे।"
लेकिन शरत् को इस बात की चिन्ता नहीं थी । कभी-कभी वह दस-बारह घण्टे तक बिना थके कहानी कहता रहता था। रात को दो-तीन बजे घर लौटता था। वह एक बदनाम गली में रहता था। अक्सर हेमेन्द्र उसके साथ आते। उस समय रास्ता चलते-चलते शरत् अपने जीवन की विचित्र कहानी सुनाता रहता । हेमेन्द अचरज से उसकी ओर देखते और सोचते कि कितना सरलप्राण है यह व्यक्ति, कुछ भी तो नहीं छिपाता । शरत् ने कहा, "हेमेन्द्र, ऐसा कोई नशा नहीं जो मैंने नहीं किया हो। ऐसी कोई बुरी जगह नहीं जहां मैं न गया हूं। आज यही सब सोचकर कभी-कभी अवाक् हो जाता हूं कि इतना करने पर भी मैंने अपने से हार नहीं मानी। मेरे मन के भीतर का मनुष्य हमेशा ही निर्मुक्त रहा।"
लेकिन साधारण मनुष्य क्या इतने गहरे पैठकर किसी के अन्तर में झांक पाता है? रंगून की तरह कलकत्ता में भी उसके चारों ओर अपवादों का जाल उठता चला गया। लोगों ने उसे चरित्रहीन, वेश्यागामी और शराबी सभी कुछ कहा। एक रात को क्या हुआ, वर्षा के कारण कलकत्ता के सारे रास्ते नदी की तरह जल से भर गए। उस दिन बैठक न हो सकी। नौ बजते-बजते सारे रास्ते जनहीन हो गए। शरत् और हेमेन्द्र जब घर लौटे तो सड़क पर धुटने-धुटने तक जल था। संयोग की बात कि एक स्त्री उनके आगे-आगे जा रही थी। शर धीरे-धीरे चल रहा था। जल में ज़ोर से चला ही नहीं जा सकता। इन लोगों ने उस स्त्री की ओर देखा तक नही, फिर भी दूसरे दिन दफ्तर में पहुंचते ही पता लगा कि सब जगह यह अफवाह फैली हुई है कि कल रात शरत् और हेमेन्द्र एक वेश्या के पीछे धूम रहे थे।
हेमेन्द्र ने सुना तो बात को हंसी में उड़ा दिया, लेकिन शरत् अत्यन्त क्रुद्ध हो उठा। बोला, "छि:- छि:, ऐसे हतभागे व्यक्ति भी हैं। हमारे नाम के साथ बेकार इतना बड़ा अपवाद लगा दिया। मैं बूढ़ा मनुष्य और हेमेन्द्र अभी बच्चा, कुछ तो सोचना था।"
उस समय उसके मुख की भावभंगी देखकर ऐसा लगता था कि अगर अपवाद फैलानेवाला व्यक्ति सामने होता तो उसका अंग-भंग हो जाने की काफी संभावना थी। जो व्यक्ति वेश्यालयों में जाकर रहता हो वह इस अपवाद से इतना परेशान हो, क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है? इस घटना के वर्णन में अतिरंजना हो सकती है पर यह भी सच है कि अनजाने ही सदाचारी बनने की कामना धीरे-धीरे उसके वैरागी मन को घेरती आ रही थी । वह दुस्साहसी था, विद्रोही नहीं । इसीलिए यह विरोधाभास है।
दूसरे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति जिनसे उसका परिचय हुआ वह थे 'भारतवर्ष' के सम्पादक स्वनामधन्य रायबहादुर जलधर सेन । वह सवयं ही एक मित्र के साथ उससे मिलने 'यमुना' के कार्यालय में आए। फणीन्द्र ने शरत् से उनका परिचय कराने की दृष्टि से कुछ कहना चाहा ही था कि वह बोल उठा, "दादा के साथ मेरा परिचय बहुत पुराना है।"
जलधर सेन चकित होकर बोले, "मुझे तो कुछ याद नहीं आता।"
शरत् ने कहा, "आपको यह तो याद होगा कि कई वर्ष पहले आप 'कुन्तलीन पुरस्कार प्रतियोगिता' के निर्णायक थे और उसमें 'मन्दिर नाम की एक गल्प ने प्रथम पारितोषिक पाया था।"
जलधर सेन बोले, "हां हां, था। उसमें लगभग 150 कहानियां आई थीं। 'मन्दिर' उसमें मुझे सबसे अच्छी लगी थी। मैंने उस पर लिखा था, यदि यह लेखक लिखता रहे तो भविष्य में यशस्वी होगा, लेकिन उस गल्प के लेखक तो भागलपुर के श्रीमान सुरेन्द्रनाथ गंगोपाध्याय थे।"
हंसकर शरत् ने कहा, "वह कहानी मैंने ही लिखी थी। लेकिन अपना नाम देने में संकोच हुआ। इसलिए मामा सुरेन्द्रनाथ का नाम दिया था। इसलिए आपके साथ मेरा परिचय पुराना हुआ न?"
जलधर सेन बोले, "यह मेरे लिए कम गौरव की बात नहीं है। मैंने तभी रत्न को पहचान लिया था। "
और यह भेंट शीघ्र ही प्रगाढ़ स्नेह में बदल गई। शरत् के साहित्य-सृजन का सबसे अधिक श्रेय यदि किसी एक व्यक्ति को मिल सकता है तो वह यही जलधर सेन थे। बहुत दिन बाद स्वयं शरत् ने स्वीकार किया - "दादा, यदि मेरी रचनाओं के लिए इतनी मारामारी न करते, गुरु की भांति तकाज़े पर तकाज़े न करते तो मेरे जैसे आलसी की आधी तो क्या चौथाई रचनाएं भी प्रकाशित न हो पातीं।"
इसी समय वह रवीन्द्रनाथ से भी मिला। वह उनका परम भक्त था और रवीन्द्रनाथ भी शरत् की प्रतिभा से परिचित हो चुके थे। अभी-अभी उन्होंने उसकी नयी कृति 'पण्डित मोशाय' पढ़ी थी। ± असित कुमार हाल्दार ने लिखा है, "मुझे याद हैं, 'पण्डित मोशाय' पढ़ने के बाद उन्होंने मुझसे कहा था, मैंने काफी दिनों से इधर-उधर की चीजें पढ़ना छोड़ दिया है, किन्तु इस पुस्तक की लेखनी मुझे मरुभूमि में शाद्वल के समान नज़र आती है।"
बाद में उन्होंने स्वयं ही शरत् से मिलने की इच्छा प्रकट की और कलकत्ता वापस लौटने पर एक दिन जब हम लोगों ने उनके सामने सलज्ज शरत्चन्द्र को उपस्थित किया तो एक अजीब ही दृश्य उपस्थित हो गया था । "
कोई नहीं जानता कि उस प्रथम भेंट में गुरु-शिष्य में क्या बातचीत हुई। कविगुरु के गरिमामय रूप, गौर वर्ण, लम्बी दाढ़ी, ढीले-ढाले वस्त्र और रुपहली वाणी के कारण उसने उन्हें निश्चय ही किसी और लोक का प्राणी समझा होगा। उनके इस रूप को लेकर वह जीवन-भर विस्मित रहा।
उसकी आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी । इसलिए उसने अपनी तीन कहानियां 'रामेर सुमति', 'पथ निर्देश' और सिन्दूर छेले तथा उपन्यास 'विराजबहू' के प्रकाशन का सर्वाधिकार हरिदास चट्टोपाध्याय को बेच दिया था। इन दोनों पुस्तकों के लिए उसे कुल 300 रुपये मिले। लेकिन तत्कालीन दृष्टि से यह सौदा कोई बहुत बुरा नहीं था।
इसी समय फणीन्द्रनाथ के माध्यम से उसने अपनी 'परिणीता', पण्डितजी', चन्द्रनाथ', 'काशीनाथ', 'नारी का मूल्य' और 'चरित्रहीन' के प्रकाशन का अधिकार एम०सी० सरकार एण्ड संस को दे दिया। यह अधिकार केवल एक ही संस्करण के लिए था।
फणीन्द्रनाथ शरत् की रचनाएं स्वयं प्रकाशित करना चाहते थे, पर वे इस स्थिति में नहीं थे और शरत् को रुपयों की आवश्यकता थी, इसलिए उन्होंने सुधीरचन्द्र सरकार से आग्रह किया। सरकार ने शरत् की 200 रुपये अग्रिम दिए। इस आग्रह के पीछे फणीन्द्रनाथ का उद्देश्य यही था कि शरत् किसी भी प्रकार यमुना' से अलग न हो जाए।
इन रचनाओं में से बिन्दो का लल्ला' और अन्य कहानियां 'परिणीता' और 'पण्डितजी' ±का प्रकाशन शरत् के कलकत्ता- प्रवास के दौरान हुआ । 'विराजबहू' का प्रकाशन यहां आने से पूर्व हो चुका था। 'निष्कृति' 'अन्धेरा और प्रकाश', 'मंझली दीदी', 'दर्पचूर्ण' आदि इन नई-पुरानी रचनाओं का प्रकाशन काल भी यही है ।
'यमुना' शरत् को पैसे नहीं दे सकती थी, वे मिल सकते थे 'भारतवर्ष से। इसके अतिरिक्त वहां उसके परम मित्र प्रमथनाथ भट्ट थे। नये संपादक जलधर सेन भी उसे बहुत प्यार करते थे। 'भारतवर्ष' का पूरा दल ही उसका प्रशंसक था। फणीन्द्रनाथ सब कुछ समझते थे और डरते भी थे इसीलिए तो उन्होंने शरत् को यमुना' के संपादक के पद पर प्रतिष्ठित कर दिया था। उसमें बाकायदा यह विज्ञप्ति प्रकाशित हुई थी
'यमुना' के पाठक यह सुनकर खुश होंगे कि सुप्रसिद्ध औपन्यासिक और गल्प लेखक श्री शरच्चन्द्र चट्टोपाध्याय महोदय वर्तमान मास से 'यमुना' के सम्पादन में योग देंगे। 'यमुना' के पाठक शरत् बाबू से यथेष्ट परिचित हैं। इसलिए परिचित का फिर से परिचय देना अनावश्यक है।"
लेकिन इसका कोई लाभ नहीं हुआ। उन और प्रयत्नों का भी कोई लाभ नहीं हुआ जो फणीन्द्र ने उसे रोक रखने के लिए किए। बड़े चाव से शरत् के मना करने पर भी उन्होंने 'बड़ी दीदी' पुस्तक के रूप में प्रकाशित की थी । तब शरत् ने लिखा था, 8 "तुम्हारी भेजी 'बड़ी दीदी' मिली। बुरी नहीं है। फिर भी यह बचपन की रचना है, न छापते तो अच्छा होता।
इस रूप में आने वाली यह उसकी पथम रचना थी, लेकिन जैसा चाहते थे, वैसी बिक्री उसकी नहीं हो सकी। आठ आने मूल्य रखकर वर्ष में चार सौ प्रतियां भी नहीं बेच पाए । घर-घर जाते थे, परन्तु शायद उस समय के पाठकों की दृष्टि में वह पुस्तक 'चरित्रहीन' के समान अश्लील मान ली गई थी।
इधर यह स्थिति थी, उधर शरत् के उन मित्रों ने, जो सदा इस बात का प्रयत्न करते रहते थे कि 'यमुना' से उसके संबंध टूट जाएं, उसको बताया कि फणीन्द्र उस पुस्तक से काफी पैसा कमा रहे हैं। शरत् ने इस बात पर विश्वास कर लिया। इस विश्वास का एक कारण था। गुरुदास की दुकान से उसकी दूसरी पुस्तकों की अच्छी बिक्री हो रही थी । एक दिन वह 'यमुना' के कार्यालय में पहुंचा तो फणीन्द्रनाथ वहां पर नहीं थे। उनके एक संबंधी बैठे हुए थे। शरत् ने उनसे कहा, ""बड़ी दीदी' की सब प्रतियां मुझे दे दो। वे मेरी हैं।"
संबंधी ने उत्तर दिया, "पुस्तकें अलमारी में बन्द हैं। चाबी मेरे पास नहीं है। वे आयेंगे तब उनसे कहकर आप पुस्तकें ले जा सकते हैं।"
शरत् बहुत उद्विग्न था। कहा, "मैं और राह नहीं देख सकता । चाबी नहीं है तो मैं कील से ताला खोलकर ले जाऊंगा।"
और उसने कील से अलमारी का ताला खोल डाला। फिर सब प्रतियां कुली के सिर पर रखवाकर ले गया। फणीन्द्रनाथ ने लौटकर जब यह समाचार सुना तो वह बहुत दुखी हुए। उन्होंने उसी संध्या को सौरीन्द्रमोहन से इस घटना की चर्चा की। वे भी बहुत परेशान हुए। उन्होंने शरत् को बुलाकर कहा, "जानते हो, जो कुछ तुमने किया है वह अपराध है, चोरी है। पुस्तक फणीन्द्रनाथ ने अपने खर्चे से छापी है। वह उसकी सम्पत्ति है। अगर वह कचहरी में जाए तो तुम्हें हवालात में बन्द कर दिया जाएगा। तुमने फणि से कहा क्यों नहीं? चाहने पर वह तुम्हें रुपया दे सकता था। इस बात के लिए वह हमेशा तैयार था। तुम तो उसके घर के व्यक्ति की तरह थे। तुम्हारे लिए उसने क्या नहीं किया?"
इस प्रकार समझाने पर शरत् ने अनुभव किया कि वह सचमुच गलती कर बैठा है। वह बहुत लज्जित हुआ, लेकिन इसके बाद भी 'यमुना' से उसके संबंध नहीं बन सके। वह अब केवल 'भारतवर्ष' के लिए ही लिखने लगा।
क्या सचमुच ऐसा हुआ था? क्या उसके जीवन के साथ जुड़े अनेक प्रवादों की तरह यह घटना भी एक प्रवाद ही नहीं है? फणीन्द्रनाथ से उसने एक पैसा नहीं लिया और उसकी रचनाओं के कारण 'यमुना' की ग्राहक संख्या 200 से 2000 तक चली गई। जो गरीबों को देखकर पिघल उठता था, पैसे से जिसे कभी मोह नहीं रहा, वह इस प्रकार चोरी से पुस्तक उठा लायेगा, सदसा विश्वास नहीं होता । पैसे से उसे खरीदना सम्भव नहीं था। एक दिन उसने प्रमथ से स्पष्ट कहा था कि पूरा कलकत्ता भी उसे नहीं खरीद सकता, तुम्हारा परिवार तो छोटा-सा ही है।
शरत् को प्रकाश में लाने का सबसे अधिक श्रेय फणीन्द्रनाथ को है, यह बात निसन्देह सत्य है। बड़े गर्व के साथ एक दिन फणीन्द्रनाथ ने कहा था, "शरत् को पहचाना बहुतेरों ने पर स्वीकृति देने का साहस कोई नहीं कर सका। 'साहित्य' के सम्पादक समाजपति ने 'चरित्रहीन' की प्रशंसा की, पर उसे अपने पत्र में छापने का साहस नहीं कर सके। 'नारी का मूल्य' कोई भी नारी के नाम से छापने के लिए तैयार नहीं था। मैंने छापा । मुझे कितनी गालियां मिलीं, पर मैं डरा नहीं। "
तब क्या 'यमुना' से संबंध विच्छेद को लेकर केवल शरत् ही दोषी था? क्या केवल मित्र के प्रेम और पैसे से सुविधा के कारण ही वह 'भारतवर्ष' की ओर खिंचा? निःसन्देह ये प्रबल कारण थे। बर्मा से उसका मन ऊब गया था। बंगाल लौटने पर पैसे की आवश्यकता तो होनी ही थी उसके लिए शरत् को दोष नहीं दिया जा सकता, परंतु इन सब कारणों के अतिरिक्त एक और भी कारण था, और वह कम महत्त्वपूर्ण नहीं था। फणीन्द्रनाथ का स्वभाव बहुत शंकाशील था। बार-बार विश्वास दिलाने पर भी उन्हें चिन्ता लगी रहती थी कि 'भारतवर्ष' के रहते वह उनके छोटे पत्र में नहीं लिख सकेगा । चिन्ता का होना स्वाभाविक था, पर वह सीमा का ...... अतिक्रमण कर गई थी। अगले वर्ष रंगून से लिखे एक पत्र में एक विच्छेद के बारे में शरत् ने जो कुछ कहा वह भी फणीन्द्रनाथ के पक्ष में नहीं है।
"अच्छा 'यमुना' आजकल कैसी चलती है? फणि ने पुस्तक छापी है। वह कहता है, "मैंने आपकी एक कहानी तीस-चालीस बार पढ़कर जबानी याद कर ली हैं। आपकी रचनाएं मेरा आदर्श हैं। इतनी गुरुभक्ति, पर एक प्रति पुस्तक नहीं भेजी ! मैंने उसकी सभी रचनाएं पढ़ी हैं और वे कैसी हैं, यह मुझसे अधिक कौन जानता है? नाना कारणों से मैंने उससे और कोई संबंध नहीं रखा।"
बहुत दिन बाद फणीन्द्रनाथ ने कहा था, "प्रत्येक मिलन का एक उद्देश्य होता है। शरत्- यमुना मिलन का उद्देश्य सिद्ध हो गया। अब यदि मथुरा के राज सिंहासन का आह्व पाकर उसने ब्रजधाम को छोड़ दिया तो मर्मान्तक वेदना पाकर भी ब्रजवासी अभियोग नही करेंगे।"
रूपक सही न हो, उद्देश्य की बात निश्चित रूप से सही है।