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अध्याय 22: गुरु और शिष्य

27 अगस्त 2023

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शरतचन्द्र 60 वर्ष के भी नहीं हुए थे, लेकिन स्वास्थ्य उनका बहुत खराब हो चुका था। हर पत्र में वे इसी बात की शिकायत करते दिखाई देते हैं, “म सरें दर्द रहता है। खून का दबाव ठीक नहीं है। लिखना पढ़ना बहुत कठिनता से होता है । इत्यादि......"

दो-ढाई वर्ष पूर्व जब उनके बहनोई की मृत्यु हुई थी तो उन्होंने अपने खाते में लिखा था, “मूखूज्जे मोशाई की मृत्यु हो गई।

“10 अग्रहायण, 1340, रविवार, रात्रि साढ़े तीन बजे । एक वर्ष से वे एकांत मन से मृत्यु को पुकार रहे थे। आज उनकी प्रार्थना मंजूर हुई। क्या जाने मेरी प्रार्थना कब स्वीकार्य होगी?"

उन्हें खूनी बवासीर का पुराना रोग था। कमज़ोरी बढ़ जाना स्वाभाविक ही था। एक दिन अचानक जेठ के महीने में कहीं से लौटते हुए लू लग गई। दर्द और बढ़ गया। अखबार पढ़ना तक मुश्किल हो गया। एक पत्र में उन्होनें लिखा 2" लिखना पढ़ना सब बन्द है । अखबार तक। इस जीवन के लिए लिखना पढ़ना समाप्त हो गया तो शिकायत नहीं करूंगा। जितनी सामर्थ्य और शक्ति थी, किया है। उससे अधिक न कर सकूं तो क्षुब्ध क्यों होऊं ? अन्तर में मैं सदा वैरागी हूं, आगे भी वैसा ही रह सकूंगा।”

लगता है कि आनेवाली मृत्यु का बोध हो चला था। कलकत्ता से एक मित्र को उन्होंने लिखा, “इस बीच मैं गांव गया था। गांव के मिट्टी के घर ओर रूपनारायण नद, इन दोनों का मोह तोड़कर मैं कहीं रह नहीं पाता। फिर यह भी सत्य है कि इनकी माया का फंदा काटकर जाने के अधिक दिन बाकी नहीं हैं। कई पुराने मित्र पहले ही चले गए हैं। उनको मैं नित्य स्मरण करता हूं। अभी अभी अध्यापक विपिन गुप्त की श्राद्ध सभा में जाने का निमंत्रण मिला। शिवपुर में कितने दिनों तक हम शाम को वाद-विवाद करते रहे। पुराने ज़माने के मित्रों में एक तुम ही हो । आशा करता हूं कि कम से कम तूमसे पहले जा सकूं। इस संसार में अब एक दिन भी दिल नहीं लगता । हमेशा पीछे ही की बातें सोचता हूं। सामने की तरफ एक बार भी आंख नहीं जाती। पर जाने दो इन बातों को। तुम्हार चिंता दुखी करने से कोई फायदा नही ।"

चित्त दुखी करने से कोई फायदा नही।”

निराशा का स्वर उनके पत्रों गे सदा प्रमुख रहा है, लेकिन इधर विशेष रूप से सघन हो उठा था। साहित्य के क्षेत्र में उनका योगदान अब बहुत कम हो गया था। 'भारतवर्ष' के सम्पादक रामबहादुर जलधर सेन भी कई बार हारकर लौट जाते थे। फिर भी 'विप्रदास' उन्होंने पूरा कर ही डाला। लेकिन 'शेष परिचय' के केवान 15 परिच्छेद ही वे लिख सके।

इस उपन्यास को प्रारम्भ करते समय उन्होंने हरिदास बाबू को विश्वास दिलाया था कि इसे वे नियमित रूप से लिखेंगे। पर यह वचन वे पूरा नहीं कर सके। लिखने का मन फिर लौटकर नहीं आया। यद्यपि मृत्युशय्या पर उन्होंने कई बार कहा था, 'शेष परिचय' को समाप्त करने का समय दो। मुझे छोड़कर उसे और कोई पूरा न कर सकेगा।”

लेकिन उनकी प्रार्थना स्वीकृत नहीं हुई । उसको पूरा करने का भार पड़ा राधारानी देवी पर। मामा सुरेन्द्रनाथ और कवयित्री राधारानी के साथ अनेक बार इसको लेकर चर्चा हुई थी। इसका आधार भागलपुर की एक सत्य घटना थी। इसकी नायिका सविता पति में पूर्ण रूप से अनुरक्त है, फिर भी एक दिन एक दूर के नातेदार के साथ वह क्षण-भर में पति और पुत्री की मर्यादा की चिन्ता न करके घोर कलंक को सहज भाव मे स्वीकार करके चली जाती है। जिस व्यक्ति के साथ वह जाती है उसको रंचमात्र भी वह प्यार नहीं करती। कभी किया भी नहीं, न पहले न बाद में। फिर भी पदस्खलन क्यों हुआ? 'शेष परिचय' की यही समस्या है। शरत् बाबू समस्या उठाने में विश्वास करते थे, समाधान देन मे नहीं। इस अधूरे उपन्यास में समस्या सामने आ जाती है लेकिन ठीक मे समझ में नहीं आती। एक स्थान पर सविता कहती है, “वह एकाएक सम्पूर्ण अकारण निरर्थकता में हो जाता है।” इस कथन में मचाई है, लेकिन उपन्यास पूरा नहीं हुआ इसलिए इस समाधान को शरत् बाबू का अन्तिम निर्णय नहीं माना जा सकता।

'अंतगागी कल' के केवल चार परिच्छेद ही लिखे जा सके। राजनाति में जो गतिरोध पैदा हो गया था शर उससे ऊब उठे थें। इस उपन्यास में उसी ऊब का आश्गस है। समाज कल्याण की आर अधिक रुचि दिखाई देती है।

इसी समय दो ऐसे उपन्यास प्रकशित इरए जिनके लेखक एक से अधिक व्यक्ति थे। इस प्रकार के एक वारोयारी उपन्यास 'रसचक्र' के उन्होंने लगभग दस पृष्ठ लिखे। उनकी इच्छा चाड्रिकती' नाना से उपन्यास लिखने की थी, लेकिन अब वे कोई लम्बा काम करने की स्थिति में नहीं थे। इसलिए इस बारोयारी पन्नगस के रूप में पूरा करने का निश्चय किया गया। सोलह वर्ष पूर्व यह अंश श्री केदारनाथ बन्दोपाधगय द्वारा सम्पादित 'प्रवास ज्योति' काशी में प्रकाशित हुआ था। बाद में वहीं गई १ उत्तरा मे पारोयगि उपन्यास के रूप में छपा। 6‘रसचक्र' साहित्यिक संस्था के तत्त्वावधान में प्रकाशित होने के कारण नाम भ यही हुआ। इसी प्रकार एक और बारोयारी उपन्यास था 'भालोमन्द'। इसके पहले नौ पृष्ठ शरत् बात ने लिखे। उनके जीवन की यह अन्तिम रचना थी। यह श्रीअविनाश घोषाल द्वारा सम्पादित तातायन' की शारदीया संख्या में प्रकाशित हुई थी। ऐसा एक और उपन्यास भारत में सोलह वर्ष पूर्व छपा था। शरत् बाबू ने इसके अन्तिम अंश लिखे थे।

उनके साहित्यिक जीवन का अन्तिम पर्व भी समाप्त हो रहा था। उन्होंने स्वयं ही कहा था कि मेरे साहित्यिक जीवन के चार पर्व हैं। प्रथम पर्व में मैंने बडी दीदी' और 'देवदास' आदि लिखे। वह युग था यौवन के उच्छ्वास और भीषण भावुकता का ।

दूसरे पव में असंयत भीषण भावुकता संयत सम्बेदन में बदल जाती है। पारकता', रामेर सुमति', 'चरित्रहीन', 'श्रीकान्त' आदि उनकी रचनाएं जीवन की अनुभूति से परिव्याप्त हैं। तीसरे पर्व में कला प्रौढ़ हो चुकी है। 'दत्ता' ओर गृहदाह' जैसी कृतियां इसी युग की देन हैं।

अन्तिम पर्व में मानो वे नवयुग की चुनौती स्वीकार करते हैं। उनमें शक्ति है। विचार भी उनक पास हैं, पर इस काल की रचनाओं में अनुभूति की सहजता नहीं है । है विचारों की सायासता, जो कला को पीछे धकेलकर प्रमुख हो उठी है। 'पथेर दाबी' और 'शेष प्रश्न' इसी पर्व की रचनाएं हैं।

शरतचन्द्र बच्चों को बहुत प्यार करते थे। लेकिन अभी तक उन्होंने उनके लिए कुछ नहीं लिखा था। यह आश्चर्यजनक बात है कि इस अन्तिम पर्व में उन्होंने बच्चों के लिए भी कुछ कहानियां लिखीं। उनमें प्रसिद्ध हैं: लालू-1 लालू-2 कलकत्ता के नख दा, पचास वर्ष पहले के एक दिन की कहानी, छेलेधरा और लालू-31 'कलकत्ता के नल दा' 'श्रीकान्त' के प्रथम पर्व के प्रथम परिच्छेद से उद्धृत की गई है। इन कहानियां का जो संग्रह प्रकाशित हुआ, उसकी भूमिका में उन्होंने कहा है:

इससे पहले तुम्हारे लिए कभी नहीं लिखा है। जो तुम लोगों के प्रिय लेखक हैं, उनसे सुना है कि तुम्हें खुश करना बहुत मुस्किल है। फिर भी सम्पादकों ने कुछ कहानियां लिखने का अनुरोध किया है। यह मानो कुम्हार से कुन्हाड़ी बनाने के लिए कहना था। इसी विपत्ति में पड़ा था कि बचपन के एक साथी की याद आ गश्। सोचा, आज उसी की दो-एक बातें कह दूं। सुनकर खुशी होगी। अच्छा ही है।” 

इस भूमिका में शरत्चन्द्र ने अपने जिस बाल्यबन्धु का उल्लेख किया है कहानियों में उसका नाम है लालू। हिन्दी में 'लालू' शब्द का अर्थ होता है 'प्रिय'। उन्होंने लिखा, “यह नाम उसे किसने दिया पता नहीं। किन्तु मनुष्य के साथ नाम की इससे अच्छी संगति कभी नहीं हुई। वह सभी का प्रिय था।"

यह लालू 'श्रीकान्त' का इन्द्रनाथ है और है शरत्चन्द्र के बचपन का प्रिय साथी राजेन्द्रनाथ। लालू' शीर्षकवाली इन तीनों कहानियों में राजेन्द्रनाथ की ही कहानी है। ये कहानियां लिखकर मानो उन्होंने बचपन के अपने प्रिय सखा और गुरु का ऋणशोध करने की चेष्टा की है।

इन दिनों पैसे की बहुत तंगी थी और चिकित्सा बिना पैसे के कैसे होती! इसलिए इन कहानियों के प्रकाशन का अधिकार उन्होंने एक हज़ार रुपये में सुधीरचन्द्र सरकार को दे दिया था। जीवनसंध्या में बचपन की याद हो आना बहुत स्वाभाविक है। परन्तु बचपन की अपनी एक दूसरी रचना को उन्होंने अपने जीते जी प्रकाशित नहीं होने दिया । वह थी 'शुभदा'। इसकी रचना उन्होंने बाईस वर्ष की आयु में की थी। 2 इस संबंध में चाल्यस्मृति' प्रबन्ध में उन्होंने लिखा, “बचपन में लिखी हुई मेरी कई पुस्तकें अनेक कारणों से इधर-उधर हो गई। सबके नाम भी मुझे याद नहीं हैं। केवल दो पुस्तकों के नष्ट हो जाने का विवरण जानता हूं। एक का नाम था 'अभिमान' काफी मोटी पुस्तक थी। अनेक मित्रों के पास होती हुई अन्त में वह बचपन के साथी केदार सिंह के पास पहुंच गई। बहुत दिन तक वह बहुत प्रकार की बातें कहते रहे, लेकिन पुस्तक फिर वापिस नहीं मिली।.. .. दूसरी पुस्तक का नाम था श्।भदा'। प्रथम पर्व में लिखी गई मेरी पुस्तकों में वह अन्तिम थी, अर्थात् चडी दीदी', चन्द्रनाथ', रेवदास' आदि के बाद। "

शरत् बाबू ने 'अभिमान' के खो जाने का तो कारण दिया है, लेकिन 'शुभदा' कैसे और कहां खो गई इसका कोई विवरण नहीं दिया। कुछ लोगों ने इसके खो जाने की बात पर विश्वास कर भी लिया था, लेकिन यह सत्य नहीं है। 'शुभदा' की पाण्डुलिपि हमेशा उनके पास रही। एक बार उन्होंने रामकृष्ण को यह आदेश दिया था कि वह उसे जला दे, लकिन उसने ऐसा नहीं किया। उनसे झूठमूठ क्क दिया और पुस्तक को छिपाकर रख दिया। इसका कारण था। उसने शरत्चन्द्र से पूछा था, “आप इसे क्यों जला देना चाहते हैं?"

शरत् बाबू ने उत्तर दिया था, "इसे जला ही देना होगा। मेरी यह पुस्तक निकली तो एक व्यक्ति मृणापरस्त हो जायेंगे।"

रामकृष्ण इस रहस्य को नहीं जान सका, लेकिन इतना अवश्य समझ गया कि पुस्तक जलाने योग्य नहीं है। शरत् बाबू ने एक दिन अचानक ही कुछ खोजते हुए पाण्डुलिपि को देख भी लिय था, लेकिन न जाने क्या सोचकर वे फिर उसे नष्ट नहीं कर सके।

उनकी इस पुस्तक के संबंध में उनके कई मित्र भी जानते थे और अक्सर वे उनको इस संबंध में परेशान करते रहते थे। विशेषकर अविनाशचन्द्र घोषाल उसको पढ़ने के लिए बहुत उत्युक थे। अनेक बार आग्रह करने पर शरत् बाबू वह पाण्डुलिपि अविनाश बाबू को पढ़ने के लिए देने को सहमत हो गये, लेकिन जब निश्चित समय पर वे उनके पास पहुंचे तो बड़े उदास होकर शरत् बाबू ने कहा, “अविनाश, सब स्म समाप्त हो गया।”

उस समय उनकी भाव-भंगी से ऐसा लगता था जैसे वे किसी को अपने पुत्र की मृत्यु का समाचार दे रहे हैं। वे अन्दर गये और एक टिन में भरी हुई कागज़ों की राख लाकर अविनाश बाबू को दिखाई। कहा, वृम अविश्वास करोगे, इसलिए मैंने इसे रख छोड़ा है। "

आखिर इस सबके पीछे क्या रहस्य था? क्या सचमुच, जैसा कि उन्होंने रामकृष्ण से कहा था, उसके प्रकाशित होने से किसी व्यक्ति के कृपापात्र होने की सम्भावना थी? या किसी और कारणवश वे उसे प्रकाशित् नहीं होने देना चाहते थे। उसमें उन्होंने गरीबी का मार्मिक चित्रण किया है। वह चित्रण मात्र कल्पना कई सृष्टि नहीं है। भले ही उसमें प्रौढ़ कलाकार की परिपक्व दृष्टि न हो, पर उनके प्रारम्भिक जीवन की सहज अनुभूति निश्चय ही है। उस अनुभूति का आधार है परिवार का दैनन्दिन कष्ट भोग । शरत्-साहित्य की सभी विशेषताओं के बीज उसमें हैं। मूक नारी को स्वर देना और पतिता (कात्यायिनी ) के अन्तर में छिपे मनुष्य को खोज लेना, सभी कुछ उसमें है। उसके पात्रों में उनके माता-पिता को खोजने की चेष्टा भी की जा सकती है। चरम दारिद्रय के साथ-साथ पिता खई अकर्मण्यता और मां की वेदना का चित्रण करना भी वे नहीं भूले, लेकिन जिस प्रकार श्रीकान्त शरत् नहीं है, उसी प्रकार 'शुभदा के हारान बाबू भी मोतीलाल नहीं हो सकते। न स्वयं शुभदा भुवनमोहिनी हो सक्ती है। इसलिए इस पुस्तक को प्रकाशित न होने देने के पीछे यही एकमात्र प्रबल कारण नहीं हो सक्ता ।

लेकिन फिर वह व्यक्ति कौन है। जिसके घृणापात्र होने की सम्भावना उन्हें दिखाई देती थी? उस व्यक्ति का नाम अब प्रकट हो चुका है, वह है निरुपमा देवी । इस नाम को लेकर शरत्चन्द्र के जीवन में नाना प्रकार के अपवाद जुड़ गए है। लेकिन यह सत्य है कि निरुपमा देवी ने अपने प्रारम्भिक साहित्यिक जीवन में शरत् बाबू की सभी रचनाएं पड़ी थीं, उनमें 'शुभदा' भी थी। उनकी प्रारम्भिक कृति 'अन्नपूर्णा का मन्दिर' पर 'शुभदा' क्त प्रभाव दिखाई देता है, इस बात को निरुपमा देवी ने स्वयं स्वीकर किया है . “दीदी', 'अन्नपूर्णा का मन्दिर' आदि के प्रकाशित होने पर एवं शरतचन्द्र के उदय होने पर अनेक बार अनेक युवक नाना स्थानों से यह जानने के लिए मेरे पास आते रहे हैं कि मैंने शरत्चन्द्र से कितना ग्रहण किया है? कौन-कौन सी पुस्तक मैंने उनकी सहायता से लिखी है? उनके साथ मेरा किस रूप में कितना संबंध है, इस बारे में भी वे बहुत कुछ कहते रहते है। इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। वे हमारे प्रारम्भिक जीवन की साहित्यिक साधना के उत्साहदाता गुरु हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं। इसमें भी कोई सन्देह नहीं कि साहित्यसम्राट बंकिमचन्द्र एवं कविसम्राट रवीन्द्रनाथ ठाकुर की रचना का पाठ बचपन से मज्जा में समाया होने पर भी अपने शरत् दा के लेखों की प्रेरणा मुझ पर विशेष प्रभाव डाल सकी है। अनेक स्थानों से इस संबंध में अनेक बातें सुनी गई हैं। उनमें मैं केवल 'अन्नपूर्णा क्त मन्दिर' का ही उल्लेख करना चाहती हूं। 'दीदी' के कई साल बाद उसकी रचना हुई। मुझे यह स्वीकार करना पड़ेगा कि उसे लिखते समय अपरोक्ष रूप से शरत् दा अई तुमदा क्यई भाषा उसमें आ गई है। यह बात खूब सत्य है। जिस प्रकार कविता लिखते समय जो असाधारण प्रतिभाशाली नहीं हैं वे रवीन्द्रनाथ के प्रभाव से मुक्ति नहीं पा सकते, उसी प्रकार कहानी के क्षेत्र में मुझ पर शरत् दा का प्रभाव रहा है। जिन्होंने उस दिन अर्द्धलिखित 'शुभदा' पड़ी थी, वे जानते हैं कि शरत् दादा खई ललना-अलना के साथ सती-सावित्री का कितना अन्तर है । शरत् दा की शिष्या स्थानीय होकर भी उनकी प्रतिभा का अनुसरण और अनुकरण कुछ भी करने की क्षमता मुझमें नहीं है। यह मेरी रचनाओं से प्रमाणित हो जाता है। "

इस पर टिप्पणी करते हुए शरत्चन्द्र ने लिखा, चौन कितना ऋणी है, यह मुझसे भी पूछा गया है। कोई किसी का ऋणी नही है। बचपन में सभा हुई, एक-दूसरे को उत्साहित किया, प्रशंसा की, इसमें त्रण कैसा? अच्छा लगा, अच्छा कहा, पुरा लगा, फिर लिखने को कहा। कभी संशोधन नहीं किया। इतने दिन बाद यह इसलिए लिख रहा हूं कि लिपिबद्ध रहे।”

शरत् बाबू कुछ भी कहें पर निरुपमादेबी के इस वक्तव्य के आधार पर यह कल्पना करना असंगत नहीं होगा कि वे जिन कारणों से 'शुभदा' तें प्रकाशित नहीं होने देना चाहते थे, उनमें एक कारण निरुपमा देवी भी थीं। शायद बाद में उन्होंने यह भी सोचा होगा कि किसी समय उसमें यथेष्ट परिवर्तन करने के बाद छापना उचित होगा। इसलिए उन्होंने दुबारा पाण्डुलिपि मिल जाने पर उसे नष्ट नही किया ।

शरतचन्द्र के जीवन में निरुपमा देवी का क्या स्थान था, इसका राई रत्ती विवरण न मिलने पर भी यह सत्य है कि वे उन्हें कभी भूल नहीं पाए। माना जाता रहा है कि बर्मा जाने के बाद वे अंधकार में रहे, लेकिन वह अंधकार यदि सचमुच में था भी तो 'बड़ी दीदी' के प्रकाशन के समय समाप्त हो चुका था। उसके बाद किसी न किसी स्म में, आधे-अधूरे मय से ही सही, उनका संबंध बचपन के मित्रों से जुड़ गया था। चडी दीदी के प्रकाशित होने के एक वर्ष बाद 12 पुरानी बातें याद करते ह्म उन्होंने विभूतिभूषण को लिखा, चूड़ी की खबर भी मिलती है। मन ही मन कितना आशीर्वाद देता हूं क्तिना गौरव अनुभव करता हूं यह मैं ही जानता हूं। वह जो कुछ लिखती है, उसका थोड़ा-सा अंश मन ही मन याद करके नदी किनारे जेटी के अन्दर बैठकर हजम करता हूं और कामना करता हूं कि जीवित रहा तो एक अच्छी वस्तु का स्वाद ग्रहण कर सकूंगा। न जाने छी (निरुपमा) का खाता कितना मोटा हो गया है! एक बार पढ़ने की इच्छा होती है। क्या उसकी कटी-फटी रफ कापी नहीं है? चुपचाप चोरी करके यदि एक बार उसे मुझे भेज सकी तो मैं तीन-चार दिन के भीतर ही पढ़कर रजिस्ट्री द्वारा लौड़ा दूंगा। यदि वह बहुत ढूंढ़े तो क्क देना एक व्यक्ति पढ़ने के लिए गया है, बेचारा भलामानस है। यह जानकर शायद वह बहुत परेशान नहीं होगी।”

इसी पत्र में उन्होंने अपनी एक प्रणय कहानी की चर्चा की है। उस कहानी का कोई आधार नहीं है। ऐसी बातें प्रचारित करना उनका स्वभाव बन गया था। ऐसा भी हो सक्ता है। कि वह कहानी निरुपमा देवी के कानों तक पहुंचाने के लिए लिखी गई हो। शायद वे उन्हें बताना चाहते ही कि तुम्हारे कारण ही मेरी यह दशा हो गई है।

शायद ऐसा नहीं भी हो सकता, लेकिन इसमें कोई सन्देह नहीं कि समय-समय पर लिखे गये अपने पत्रों में उन्होंने बारचार निरुपमा देवी तई साधिकार और मेहपूरित चर्चा ई है। अपनी एक शिष्या लीलारानी गंगोपाध्याय के उन्होंने लिखा, द्ह मेरी सच्ची शिष्या और सहोदरा से अधिक है। उसका नाम है निरुपमा। आज के साहित्य जगत् में शायद आपसे अपरिचित न हो। 'दीदी', 'अन्नपूर्णा क्त मन्दिर' और बिधि लिपि आदि उसी की रचनाएं हैं। पर यही लड़की एक दिन जय 16 साल क्तई उप्र में अकस्मात् विधवा होकर सन्त रह गई तो मैंने उसे बार-बार यही बात समझाई कि विधवा होना ही नारी जीवन की चरम हानि और सधवा होना ही सार्थक्ता है, इन दोनों में कोई भी सत्य नहीं है। तब से उसे समग्र चित्त से साहित्य में नियोजित कर दिया। उसकी सभी रचनाओं क्त संशोधन करता- और हाथ पकड़कर लिखना सिखाता था । इसीलिए आज वह आदमी बनी है, खेल नारी होकर नहीं। यह मेरे लिए बड़े गर्व की वस्तु है ।” 

"तुम्हारी बिन्दी और लेख लिखने का ढंग तथा भंगिमा देखकर मुझे बारम्बार बूढ़ी (निरुपमा) तई याद आती है। तुम लोगों क्तई लिखावट तक मानो एक है...। तुम्हारी कापी पढ़ने का अवकाश मिला। पढ़ते-पढ़ते कैसा लगा, जानती हो ! एक कीमती चीज़ों की दुकान में बेसिलसिले बिखरी पड़ी चीज़ों को देखकर, उन चीजों अई कीमत जो जानता है, उसे जैसा कष्ट होता है ठीक बैसा ही। ठीक उसी हालत में एत्रू दिन बूड़ी (निरुपमा) की रचनाए भी मिली थी। तुम्हारे पास बहुत कीमती माल-मसाला मौजूद है पर वह बहुत ही विशृंखल है। मेरा पेशा भी यही है, इससे बारम्बार यही लगता है कि उसकी तरह तुप्यें भी यदि हाथ पकड़कर सिखा सकता तो इससे पहले मैंने तुम्हें जो आशीर्वाद दिया था उसकी डालियों को फूल-फलों से भर उठने में अधिक देर नहीं लगती और 'दीदी' की कोटि की एक और पुस्तक लोगों की नज़र में आने में बहुत विलम्ब न होता । " 

..बूड़ी से मुझे बड़ी आशा थी, लेकिन वह 'दीदी' के अलावा और कुछ नहीं लिख सकी। क्यों, जानती हो ? वार व्रत, जप-तप इत्यादि के पचड़े की आग में उसके अन्दर जो मधुर था वह उम्र के साथ ही सूख गया। अवश्य अतिरेक के कारण ही ऐसा हुआ। नहीं तो हमारे घरों की कौन स्त्री है, जो इन बातों को थोड़ा-बहुत न करती हो?" 

उस दिन विभूतिभूषण मिलने आए। भागलपुर की बातों का कोई अन्त नहीं था । सहसा शरत बाबू ने पूछा, " अच्छा पुंटु, बूड़ी क्या अभी भी पूजा-पाठ में लगी रहती है?” विभूति ने उत्तर दिया, “क्या करे शरत् दा, ब्राह्मण विधवा ? बच्चे नहीं हैं। मेरे बच्चों ओर ठाकुर देवता का लेकर ही दिन काट देती है। भूले रहना तो होगा ही।”

शरत् बाबू ने कहा, “नहीं, नहीं, मैं यह नहीं कहता। मैं नास्तिक नहीं हूँ लेकिन उसमें साहित्य को बहुत कुछ देने की क्षमता थी। अब ऐसा लगता है कि ठाकुर देवता के डर से वह सच नहीं बोल पाती। उसमें अन्तदृष्टि है। मनुष्य को असली रूप में देखने की क्षमता है। लेकिन साहस भी तो होना चाहिए। "

फर्णान्द्रनाथ को भी बार-बार लिखा था, “निरुपमा को अपने दल में खींचने की चेष्टा करना। यह सचमुच ही अच्छा लिखती है और बाज़ार में नाम भी है। अधिकांश में उसकी रचनाएं मुझसे अच्छी होती हैं ऐसी मेरी धारणा है।" 

“अब बूड़ी को चिट्ठी लिख दी है कि 'यमुना' की विशेष सहायता करनी होगी। तह मेरा हुक्म किसी भी तरह नहीं टाल सकती, यह भरोसा है।" 

स्वयं निरुपमा देवी को लिखा उनका जो एक पत्र 19 मिलता है, उससे भी इन बातों की पुष्टि होती है। उन्होंने लिखता था, “धर्म-कर्म में व्यस्त रहने के कारण तुम साहित्य की लीक तक नहीं खोज पाओगी। इसलिए सोचता हूं कि इस प्रकार बाध्य करके सब से प्रतिमास कुछ न कुछ लिखवा लूंगा.....मेरी बात सुनने में कड़वी लग सकती है किन्तु वास्तव में मैं तुम्हारा हित चाहने वाला हूं, इसमें तुम्हें सन्देह नहीं होना चाहिए। इसके अतिरिक्त तुम्हें मनुष्य बनाया है, मन ही मन इस पर गव करता हूं। किन्तु बात ठीक नही है, यह नहीं जानता, ऐसा नहीं फिर भी बड़प्पन दिखाने का लोभ छोड़ नहीं सकता। सख्त सुस्त कह बैठता हूं......”

अपनी दूसरी शिष्या सुपरिचित कवयित्री राधारानी को लिखे पत्रों में उन्होंने अपने एक गार्जियन की चर्चा की है और चर्चा की है एक गुप्त वेदना की। उन्होंने लिखा, प्पेरे समान आलसी मनुष्य संसार में दूसरा नहीं है । अत्यन्त बाध्य न होने पर मैं कभी भी कोई काम नहीं कर सकता। फिर भी इतनी पुस्तकें कैसे लिख डालीं, इसी का इतिहास बताता हूं। मेरी एक गार्जियन थी, उसका परिचय जानने की इच्छा मत करो। केवल इतना ही जान लो कि उसके समान सख्त तकाज़ा करनेवाली पूथ्वी पर शायद ही कोई हो। वही मेरी रचनाओं की सबसे कठोर समालोचक भी थी। उसके तीक्षा तिरस्कार के कारण न तो मैं आलस्य कर सक्ता था और न मैं अपनी रचनाओं में मिलावट करके घिस्सा पट्टी दे सकता था। एक भी लाइन उसकी आखों से बचती नहीं थी, लेकिन अब वह सब कुछ छोड़कर धर्म-कर्म में व्यस्त है। गीता-उपनिषद् छोड़कर और किसी से उसका वास्ता नहीं है। कभी कुछ खोज खबर नहीं लेती और मैं भी उसकी ताड़ना से मुक्ति पाकर बच गया हूं। बीच- बीच में बाहर के धक्के खाकर स्वाभाविक जड़ता यदि कुछ देर के लिए टूट जाती है तब भी मन में यह होता है, बहुत कुछ लिख लिया, और किसलिए?

... लिखने के लिए कितना अलिखित रह गया, परलोक में वाणी का देवता यदि इस गलती के लिए कैफियत तलब करेगा तो एक व्यक्ति की ओर इशारा कर सकूंगा। यही सांत्वना मुझे है ।"

अपनी गुप्त वेदना की चर्चा उन्होंने लीलारानी गंगोपाध्याय से भी की है, “मेरे मानसिक परिवर्तन के संबंध में बहुत दिन से तुम एक प्रश्न पूछ रही हो और मैं मौन हूं। किन्तु मेरे समान जब तुम्हारी उम्र होगी तब शायद तुम समझ सकोगी कि इस संसार में मनुष्य की ऐसी बात भी होती है जिसे वह किसी के सामने नहीं कह सकता। कहे जाने पर कल्याण की अपेक्षा अकल्याण ही अधिक होता है। इसलिए इस मौन की सज़ा बहुत कठिन है। भीष्म एक दिन स्तब्ध होकर तीरों की वर्षा सह सके थे, यह बात हमेशा-हमेशा के लिए महाभारत में लिख दी गई है, लेकिन कितनी अलिखित महाभारतों में इस प्रकार की कितनी शरशष्याएं हमेशा चुपचाप रचित होती रहती हैं, उनके संबंध में कहीं एक लाइन भी नहीं लिखी गई। संसार में ऐसा ही होता है। तुम्हारे दादा की बहुत उम्र हो गई। उसका यह उपदेश कभी भुलाना नहीं कि पृथ्वी पर कौतूहल की वस्तुओं का मूल्य ज्ञान-विज्ञान के हिसाब से जितना बड़ा हो उसे दमन करने का पुण्य भी कम नहीं है। जिस वेदना का कोई प्रतिकार नहीं उसकी नालिश करने पर नीचे की कीचड़ ही ज़ोर करके ऊपर आ सकती है। उसे यदि बचाया जा सके तो अच्छा है।”

शरतचन्द्र के नारी चरित्रों में जहां उनके बचपन की साथिन का चित्र उभरता है, वहां, विशेषकर विधवाओं के चरित्र में क्या निरुपमा देवी का चरित्र नहीं दिखाई देता ? 'श्रीकान्त ' की राजलक्ष्मी क्या निरुपमा देवी की तरह ही जप-तप-वार व्रत में नही लगी रहती ? कट्टर हिन्दू संस्कारों के कारण ही विधवा राजलक्ष्मी श्रीकान्त का वरण नहीं कर सकी। रमेश भी रमा को इसी कारण नहीं प्राप्त कर सका। क्या इसके पीछे शरतचन्द्र की अपनी अनुभूति नहीं थी? विधवा होने के कारण ही तो वे निरुपमा देवी को नहीं पा सके थे। कारण और भी खोजे जा सकते हैं। जैसे, दोनों परिवारों में आर्थिक विषमता, उपजातीय विभिन्नता तथा शरतचन्द्र की चरित्र - सम्बन्धी धारणा । लेकिन ये सब गौण हैं। मुख्य है विधवा-विवाह । लीलारानी को उन्होंने लिखा था, “मेरी सब पुस्तकें तुमने पड़ी हैं या नहीं? पढ़ने पर तुम्हें यह बात दिखाई देगी कि बहुत से महान और सुन्दर जीवन केवल इसीलिए, कि समाज को विधवा विवाह मान्य नहीं है, हमेशा के लिए व्यर्थ और निष्फल हो गये।”

क्या यह अपने जीवन को निष्फलता की ओर इशारा नहीं है? क्या वे बार-बार अपने पत्रों और अपनी रचनाओं में इस निज्जता की बात दोहराते नहीं रहे हैं? स्पष्ट न कहकर भी परोक्ष रूप से उन्होंने अपनी वेदना की चर्चा की है। अपने मित्र हरिदास शास्त्री से भी संभवत: उन्होंने अपने कैर्शार्य के इसी असफल प्रेम की बात कही थी। कहा था, “नारी जाति के सम्बन्ध में मैं कभी उकृंखल नहीं था और अब भी नहीं हूं। मैंने खूब नशा किया है, बुरी जगहों पर भी गया हूं लेकिन अगर तुम पता लगाओगे तो वे सब मेरे प्रति श्रद्धा रखती थीं। कुछ मुझे 'दादा ठाकुर' कहती थीं, कुछ 'बाबा ठाकुर' कहकर पुकारती थीं। क्योंकि अत्यन्त बेहोश होने पर भी मैंने कभी उनके शरीर के प्रति लालच नहीं किया। उसका कारण यह नहीं था कि मैं संयमी था, साधु या नीतिज्ञ था। उसका कारण तो यही था कि ऐसा करना मेरी चिर दिन की रुचि के विरुद्ध था। जिसको मैं प्यार नहीं कर सकता था उसका उपभोग करने की लालसा मेरे शरीर में कभी नहीं जागी और कोई बात नहीं।.

शास्त्रीजी ने पूछा, “और कुछ?”

शरत् बोले, “विश्वकवि का वह गाना तुम्हें याद है?

“कखनो कुपथे यदि अमिते चाहे हे हदी।

अनि ओं मुख स्मरि सरमेते होई सारा ।। "

शास्त्रीजी ने पूछ, “न्दुसका अर्थ?"

"इसका अर्थ भी जानना चाहते हो? अच्छा सुनो, यौवन की प्रथम वेला में मैंने एक लड़की को प्यार किया था। वह प्यार व्यर्थ गया। लेकिन समस्त उच्छृंखलताओं के बीच वह हमेशा के लिए

मेरे सामने आकर खड़ा हो गया। लेकिन जिसका कोई स्वरूप नहीं, उसके बारे में मैं तुम्हें समझा न सकूंगा।”

शास्त्रीजी बोले, “नहीं समझा सकोगे, उसके बाद?”

शरत् बोले, “ब्दुसके बाद उस लड़की का परिचय चाहते हो न, वह नहीं दूंगा। एक और बात तुमसे कहता हूं कि इस सबको लेकर तुम किसी और से चर्चा न करना । यह मेरा आदेश है।"

शरतचन्द्र के मन की व्यथा कैसे भी हो अनेक मार्गों से होकर प्रचारित हुई। बर्मा के उनके मित्र गिरीन्द्रनाथ सरकार ने भी अपनी पुस्तक में कैशौर्य के इस असफल प्रेम की चर्चा की है और सीरीन्द्वमोहन ने भी ।

सुना तो यह भी गया कि शरत्चन्द्र ने निरुपमा देवी को ऐसा कोई पत्र भी लिखा था। कई व्यक्ति इस पत्र के बारे में जानते है। अन्धकार से बाहर आने के बाद एक बार वह बहरामपुर गये थे तो कई दिन तक वहां ठहरे भी थे। उस समय क्या उन दोनों में इस बात को लेकर चर्चा हुई होगी? क्या कभी निरुपमा देवी ने भी अपने मन की व्यथा को प्रकट किया? शरत्चन्द्र के सम्बन्ध में उन्हें कई बार लिखना पड़ा। कई बातों का स्पष्टीकरण भी उन्होंने दिया । 'शुभदा' का प्रभाव उन्होंने मुक्त काट से अपनी पुस्तक पर स्वीकार किया है। यहे स्नेह और आदर के साथ उनके सम्मान में उन्होंने कविताएं लिखी हैं। उनके एक गीत का आरम्भ कितना अर्थबोधक है!

तुमि जे मधुकर कमल बने

हर आन मधु आपन मने।

लेकिन एक बार उन्होंने भी स्पष्ट रूप से इस बात को स्वीकार किया है। वे प्रायः तीर्थयात्रा पर जाती थी। मांदार यात्रा उन्होंने प्रभूपाद श्री हरिदास गोस्वामी के साथ की थी।  मृलू से कुछ दिन पहले वे वृन्दावन जाकर रहने लगी थीं। उस समय कवि नरेन्द्रदेव और श्रीमती राधारानी देवी वहीं जाकर उनसे मिले थे। तब भाववि? होकर निस्ममा देवी ने राधारानी को छाती में भरते हुए कहा था, झूमि आमार शरखार राधू! तूमि आमार शरखार राष्ट्र !. अर्थात् तुम मेरे शरत् दा की राधू हो, तुम मेरे शरत् दा की राधू हो। उसके बाद किसी बातचीत के प्रसंग में यह भी क्का था, “शरद दादा की जो दुर्दशा हुई वह मेरे कारण ही हुई। 

और उन दोनों के संबंधों पर विचार करने पर इसे असत्य स्वीकार करने को मन करता भी नही। उनकी सखी अनुरूपा देवी, जो स्पद सुधिका के रूप में प्रसिद्ध हैं, शरत् बार से इस बात के लिए बड़ी नाराज़ थीं कि वे एक क्लीन षर की विधवा को लेकर अपना बड़प्पन जताने के लिए न जाने क्या-क्या लिखते रहते हैं। आज के सम्मानित पर एक समय के आश्रहीन और आवारा व्यक्ति क्त इस प्रकार चर्चा करना उस धर्मप्राण महिला को बहुत बुरा लगा।.... "वे अपने मित्र अई छोटी बहन का रही कहकर उल्लेख कर सकते है। इसमें कोई विचित्र बात नहीं है, किन्तु इससे यह प्रमाणित नहीं हो जाता कि पचास वर्ष पहले एक अत्यन्त रक्षणशील घर की बाल विष्मा ज्ञरत्चन्द्र जैसे चरित्रके एक अनात्मीय तरुण के साथ अन्तरंग भाव से मिलती-जुलती थी।”

अंतरंग भाव से न सही मिलना-जुलना तो होता ही था। स्वयं निरुपमा देवी ने इस बात को स्वीकार किया है। जय चौदह-पन्द्रह वर्ष की आयु में विधवा होकर वे पिता के घर आकर रहने लगी थीं, तब तक शरत्चन्द उनके परिवार से सूद परिचित हो चुके थे। प्रथम श्राद्ध के अवसर पर अगले वर्ष जद किशोरी निरुपमा पास ही नदी के किनारे पति ने पिण्डदान करने गई, तब विधवा भाभी के अतिरिक्त छोटा भाई विभूति और शरत्-ये तीन व्यक्ति ही उनके साथ थे। शरत् केवल साथ ही नहीं गये थे, उस कर्मकाण्ड में उन्होंने सक्रिय भाग भी लिया था। उस समय न जाने कहां से आकर एक मिरड़ ने निरुपमा को खट लिया था। शायद शहद के आकर्षण से ही वह वहां आ गई थी। तय शरखन्द्व अत्यन्त व्यस्त हो उठे थे। व्याकृत भाव से कभी दही लगाने का अनुरोध करत

१५. सर १९३ ई० यह बात लेटक ने ष्ण्ब बीमती राधारानी देनी के मुख से सुनी बो तो कभी शहद।

इतना ही नहीं, जब श्राद्ध के अन्त में निरुपमा लौट रही थीं, तब वे उनके घर जाकर पहनने के लिए एक किनारी वाली धोती और हाथ का सोने का गहना वहीं ले आये थे। श्राद्ध के समय ये नीजें नहीं पहनी जात उस समय बहुत करुणाजनक दृश्य उपस्थित हो गया था। सभी रो पड़े थे और उन रोने वालों में शरत् भी थे।

इस घटना का वर्णन स्वयं निरुपमा देवी ने ही किया है। अन्त में लिखा है, 'शरत् दादा मित्र उनके मन को अत्यन्त कोमल और पर दुख-कातर बताते थे। उस दिन मुझे भी इस बात का प्रमाण मिल गया।"

क्या अब भी अनुरूपा देवी के इस कथन पर विश्वास किया जा सकता है कि शरत् तब ऐसे-वैसे चरित्र के एक अनात्मीय तरुण मात्र थे ? वास्तव में अनुरूपा देवी अत्यन्त धर्मप्राण महिला थी और धम मन के व्यापार को समझने की दृष्टि नहीं देता। इसके अतिरिक्त एक समय शरत् बाबू ने अनुरूपा देवी के एक उपन्यास की बड़ी कटु आलोचना की थी । सम्भवतः उस कारण भी वे अप्रसन्न थीं। इसलिए उनको दोष देना व्यर्थ है, और इस बात को निस्संकोच स्वीकार किया जा सकता है कि शरत्चन्द्र प्रारम्भ से ही निरुपमा देवी के प्रति अनुरक्त रहे। इसमें विचित्र कुछ भी नहीं है। यह और बात है कि किन्हीं कारणों से वह प्रेम फल-फूल नहीं सका। यह अपूर्णता ही गुप्त वेदना के रूप में उनके मन में सदा के लिए बस गई और उनके सृजन की शक्ति बनी। जब प्रेमी के हृदय पर प्रेमिका के वियोग का वाघात होता है तब या तो प्रेमी पागल हो जाता है या फिर एक महान कलाकार बन जाता है। तृप्ति मनुष्य के पथ को रोकी है। प्रगति का मार्ग अतृप्ति के भीतर से ही होकर आगे बढ़ता है।

राधारानी देवी को लिखे एक और पत्र से जान पड़ता है कि शरतचन्द्र निरुपमा देवी के मन की व्यथा से परिचित थे। उस पत्र में उन्होंने लिखा, हम स्त्रियों को मैं आज भी ठीक- ठीक पहचान नहीं पाया। जीवन में बहुत दुख उठाकर मात्र यही अभिज्ञता संचित कर पाया हूँ। जाने- अनजाने यही बार-बार मेरे साहित्य में ध्वनित हुई है..... और केवल मैं ही नहीं तुम्हें पहचाना पाया, तुम लोग भी अपने को नहीं पहचान पाई या पहचानने से डरती रहीं । यह भी हो सकता है कि तुमने अपने को पहचान लिया हो, लेकिन उस बात को स्वीकार करना नहीं चाहती। यह मात्र मेरा कल्पना- विलास नहीं है वास्तविक अभिज्ञता से उत्पन्न धारणा है। इसलिए इस बात को यूं ही नहीं उड़ाया जा सकता।" और यह पत्र भी उन्होंने राधारानी देवी को ही लिखा था। इसके बाद क्या कुछ कहने को रह जाता है?

.....सच्चे प्रेम की परख त्याग की प्रवृत्ति से होती हैं। जिस प्यार में जितनी अधिक कल्याण बुद्धि, जितनी आत्मोत्सर्ग की प्रवृत्ति होती है, त्याग की प्रवृत्ति अपने आप ही अधिक गम्भीर और दृढ़ होती जाती है। वह प्यार शुद्ध प्यार है।

“प्यार जब हृदय में पैदा हो जाता है तो उसे आधार या आश्रय चाहिए। वह आधार सब कहीं उपयुक्त या सुन्दर नहीं होता। प्यार अपने आप ही अपने हृदय के रस में अपने पात्र की रचना कर लेता है।

रडा प्यार स्वभाव से ही निःस्वार्थ होता है। यह केवल उपलब्धि की वस्तु है, राधू ! हृदय की महत् वृत्तियों की सहायता से उपलब्धि के द्वारा ही उसे छुआ जा सकता है, बुद्धि- विचार ज्ञान - तर्क या युक्ति से नहीं। यह मेरी अपनी धारणा है।

संसार में ऐसा प्रेम है जो सारा जीवन, जिसको प्यार किया, उससे बहुत दूर रहना चाहता है। उसका प्यार ही उसमें दूर जाने की प्रवृत्ति पैदा करता है। पास रहने पर आखों से देखने की आकांक्षा स्वाभाविक है। उस व्याकुल और तीव्र प्रवृत्ति का सम्बरण करने की शक्ति भी वहीं शुद्ध प्रेम पैदा करता है। सच्चा प्रेम प्रेमिका या प्रेमी को स्वस्थ व सुखी देखना चाहता है, सार्थक और ग्लानिहीन देखना चाहता है। यहीं तो उसकी आत्म-परितृप्ति है।

“यदि कोई मिलन प्रेमिका का अगौरव के बीच सिर नीचा करने को विवश करता है, उसे जीवन के कर्त्तव्य से विस्तृत कर देता है, जरा भी सजा, दुख या अनुताप अनुशोचन का कारण बनता है तो वह मिलन कभी भी कल्याणकार नहीं हो सकता। इसलिए वांछनीय नहीं है।

जम्भीर प्रेम को सबसे अधिक मन की शक्ति की आवश्यक्ता है। मिलन और विच्छेद दोनों में ही कठिन संयम एव दृढ़ शक्ति की आवश्यक्ला है......केवल आत्मदान में ही प्रेम की सार्थकता नहीं है, आत्मसम्बरण में भी है।

“मेरे साहित्य में तुम लोगों ने जो पाया है उसे मैं यदि अपने जीवन में न पाता तो क्या यह साहित्य सम्भव होता......तुम्हारे बूढ़े दादा का जीवन एकदम ही झांसेपट्टी के आधार पर नही खड़ा है । कभी यदि सम्भव हुआ तो तुमकी एक कहानी सुनाऊंगा । सुनने में गल्परूपन्यास की तरह अस्वाभाविक लगेगी, किन्तु उससे अधिक वास्तविक सत्य मेरे जीवन में और कुछ नहीं घटा ।.

लेकिन अपने को गोपन रखने की जो प्रवृत्ति उनमें थी उसके कारण वह कहानी सुनाने का अवसर कभी नहीं आया, आ ही नहीं सकता था ।

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रचनाएँ
आवारा मसीहा
5.0
मूल हिंदी में प्रकाशन के समय से 'आवारा मसीहा' तथा उसके लेखक विष्णु प्रभाकर न केवल अनेक पुरस्कारों तथा सम्मानों से विभूषित किए जा चुके हैं, अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद प्रकाशित हो चुका है और हो रहा है। 'सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार' तथा ' पाब्लो नेरुदा सम्मान' के अतिरिक्त बंग साहित्य सम्मेलन तथा कलकत्ता की शरत समिति द्वारा प्रदत्त 'शरत मेडल', उ. प्र. हिंदी संस्थान, महाराष्ट्र तथा हरियाणा की साहित्य अकादमियों और अन्य संस्थाओं द्वारा उन्हें हार्दिक सम्मान प्राप्त हुए हैं। अंग्रेजी, बांग्ला, मलयालम, पंजाबी, सिन्धी , और उर्दू में इसके अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं तथा तेलुगु, गुजराती आदि भाषाओं में प्रकाशित हो रहे हैं। शरतचंद्र भारत के सर्वप्रिय उपन्यासकार थे जिनका साहित्य भाषा की सभी सीमाएं लांघकर सच्चे मायनों में अखिल भारतीय हो गया। उन्हें बंगाल में जितनी ख्याति और लोकप्रियता मिली, उतनी ही हिंदी में तथा गुजराती, मलयालम तथा अन्य भाषाओं में भी मिली। उनकी रचनाएं तथा रचनाओं के पात्र देश-भर की जनता के मानो जीवन के अंग बन गए। इन रचनाओं तथा पात्रों की विशिष्टता के कारण लेखक के अपने जीवन में भी पाठक की अपार रुचि उत्पन्न हुई परंतु अब तक कोई भी ऐसी सर्वांगसंपूर्ण कृति नहीं आई थी जो इस विषय पर सही और अधिकृत प्रकाश डाल सके। इस पुस्तक में शरत के जीवन से संबंधित अंतरंग और दुर्लभ चित्रों के सोलह पृष्ठ भी हैं जिनसे इसकी उपयोगिता और भी बढ़ गई है। बांग्ला में यद्यपि शरत के जीवन पर, उसके विभिन्न पक्षों पर बीसियों छोटी-बड़ी कृतियां प्रकाशित हुईं, परंतु ऐसी समग्र रचना कोई भी प्रकाशित नहीं हुई थी। यह गौरव पहली बार हिंदी में लिखी इस कृति को प्राप्त हुआ है।
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भूमिका

21 अगस्त 2023
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संस्करण सन् 1999 की ‘आवारा मसीहा’ का प्रथम संस्करण मार्च 1974 में प्रकाशित हुआ था । पच्चीस वर्ष बीत गए हैं इस बात को । इन वर्षों में इसके अनेक संस्करण हो चुके हैं। जब पहला संस्करण हुआ तो मैं मन ही म

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भूमिका : पहले संस्करण की

21 अगस्त 2023
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कभी सोचा भी न था एक दिन मुझे अपराजेय कथाशिल्पी शरत्चन्द्र की जीवनी लिखनी पड़ेगी। यह मेरा विषय नहीं था। लेकिन अचानक एक ऐसे क्षेत्र से यह प्रस्ताव मेरे पास आया कि स्वीकार करने को बाध्य होना पड़ा। हिन्दी

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तीसरे संस्करण की भूमिका

21 अगस्त 2023
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लगभग साढ़े तीन वर्ष में 'आवारा मसीहा' के दो संस्करण समाप्त हो गए - यह तथ्य शरद बाबू के प्रति हिन्दी भाषाभाषी जनता की आस्था का ही परिचायक है, विशेष रूप से इसलिए कि आज के महंगाई के युग में पैंतालीस या,

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" प्रथम पर्व : दिशाहारा " अध्याय 1 : विदा का दर्द

21 अगस्त 2023
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किसी कारण स्कूल की आधी छुट्टी हो गई थी। घर लौटकर गांगुलियो के नवासे शरत् ने अपने मामा सुरेन्द्र से कहा, "चलो पुराने बाग में घूम आएं। " उस समय खूब गर्मी पड़ रही थी, फूल-फल का कहीं पता नहीं था। लेकिन घ

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अध्याय 2: भागलपुर में कठोर अनुशासन

21 अगस्त 2023
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भागलपुर आने पर शरत् को दुर्गाचरण एम० ई० स्कूल की छात्रवृत्ति क्लास में भर्ती कर दिया गया। नाना स्कूल के मंत्री थे, इसलिए बालक की शिक्षा-दीक्षा कहां तक हुई है, इसकी किसी ने खोज-खबर नहीं ली। अब तक उसने

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अध्याय 3: राजू उर्फ इन्दरनाथ से परिचय

21 अगस्त 2023
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नाना के इस परिवार में शरत् के लिए अधिक दिन रहना सम्भव नहीं हो सका। उसके पिता न केवल स्वप्नदर्शी थे, बल्कि उनमें कई और दोष थे। वे हुक्का पीते थे, और बड़े होकर बच्चों के साथ बराबरी का व्यवहार करते थे।

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अध्याय 4: वंश का गौरव

22 अगस्त 2023
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मोतीलाल चट्टोपाध्याय चौबीस परगना जिले में कांचड़ापाड़ा के पास मामूदपुर के रहनेवाले थे। उनके पिता बैकुंठनाथ चट्टोपाध्याय सम्भ्रान्त राढ़ी ब्राह्मण परिवार के एक स्वाधीनचेता और निर्भीक व्यक्ति थे। और वह

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अध्याय 5: होनहार बिरवान .......

22 अगस्त 2023
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शरत् जब पांच वर्ष का हुआ तो उसे बाकायदा प्यारी (बन्दोपाध्याय) पण्डित की पाठशाला में भर्ती कर दिया गया, लेकिन वह शब्दश: शरारती था। प्रतिदिन कोई न कोई काण्ड करके ही लौटता। जैसे-जैसे वह बड़ा होता गया उस

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अध्याय 6: रोबिनहुड

22 अगस्त 2023
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तीन वर्ष नाना के घर में भागलपुर रहने के बाद अब उसे फिर देवानन्दपुर लौटना पड़ा। बार-बार स्थान-परिवर्तन के कारण पढ़ने-लिखने में बड़ा व्याघात होता था। आवारगी भी बढ़ती थी, लेकिन अनुभव भी कम नहीं होते थे।

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अध्याय 7: अच्छे विद्यार्थी से कथा - विद्या - विशारद तक

22 अगस्त 2023
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शरत् जब भागलपुर लौटा तो उसके पुराने संगी-साथी प्रवेशिका परीक्षा पास कर चुके थे। 2 और उसके लिए स्कूल में प्रवेश पाना भी कठिन था। देवानन्दपुर के स्कूल से ट्रांसफर सर्टिफिकेट लाने के लिए उसके पास पैसे न

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अध्याय 8: एक प्रेमप्लावित आत्मा

22 अगस्त 2023
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इन दुस्साहसिक कार्यों और साहित्य-सृजन के बीच प्रवेशिका परीक्षा का परिणाम - कभी का निकल चुका था और सब बाधाओं के बावजूद वह द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया था। अब उसे कालेज में प्रवेश करना था। परन्तु

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अध्याय 9: वह युग

22 अगस्त 2023
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जिस समय शरत्चन्द का जन्म हुआ क वह चहुंमुखी जागृति और प्रगति का का था। सन् 1857 के स्वाधीनता संग्राम की असफलता और सरकार के तीव्र दमन के कारण कुछ दिन शिथिलता अवश्य दिखाई दी थी, परन्तु वह तूफान से पूर्व

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अध्याय 10: नाना परिवार का विद्रोह

22 अगस्त 2023
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शरत जब दूसरी बार भागलपुर लौटा तो यह दलबन्दी चरम सीमा पर थी। कट्टरपन्थी लोगों के विरोध में जो दल सामने आया उसके नेता थे राजा शिवचन्द्र बन्दोपाध्याय बहादुर । दरिद्र घर में जन्म लेकर भी उन्होंने तीक्ष्ण

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अध्याय 11: ' शरत को घर में मत आने दो'

22 अगस्त 2023
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उस वर्ष वह परीक्षा में भी नहीं बैठ सका था। जो विद्यार्थी टेस्ट परीक्षा में उत्तीर्ण होते थे उन्हीं को अनुमति दी जाती थी। इसी परीक्षा के अवसर पर एक अप्रीतिकर घटना घट गई। जैसाकि उसके साथ सदा होता था, इ

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अध्याय 12: राजू उर्फ इन्द्रनाथ की याद

22 अगस्त 2023
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इसी समय सहसा एक दिन - पता लगा कि राजू कहीं चला गया है। फिर वह कभी नहीं लौटा। बहुत वर्ष बाद श्रीकान्त के रचियता ने लिखा, “जानता नहीं कि वह आज जीवित है या नहीं। क्योंकि वर्षों पहले एक दिन वह बड़े सुबह

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अध्याय 13: सृजिन का युग

22 अगस्त 2023
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इधर शरत् इन प्रवृत्तियों को लेकर व्यस्त था, उधर पिता की यायावर वृत्ति सीमा का उल्लंघन करती जा रही थी। घर में तीन और बच्चे थे। उनके पेट के लिए अन्न और शरीर के लिए वस्त्र की जरूरत थी, परन्तु इस सबके लि

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अध्याय 14: 'आलो' और ' छाया'

22 अगस्त 2023
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इसी समय निरुपमा की अंतरंग सखी, सुप्रसिद्ध भूदेव मुखर्जी की पोती, अनुपमा के रिश्ते का भाई सौरीन्द्रनाथ मुखोपाध्याय भागलपुर पढ़ने के लिए आया। वह विभूति का सहपाठी था। दोनों में खूब स्नेह था। अक्सर आना-ज

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अध्याय 15 : प्रेम के अपार भूक

22 अगस्त 2023
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एक समय होता है जब मनुष्य की आशाएं, आकांक्षाएं और अभीप्साएं मूर्त रूप लेना शुरू करती हैं। यदि बाधाएं मार्ग रोकती हैं तो अभिव्यक्ति के लिए वह कोई और मार्ग ढूंढ लेता है। ऐसी ही स्थिति में शरत् का जीवन च

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अध्याय 16: निरूद्देश्य यात्रा

22 अगस्त 2023
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गृहस्थी से शरत् का कभी लगाव नहीं रहा। जब नौकरी करता था तब भी नहीं, अब छोड़ दी तो अब भी नहीं। संसार के इस कुत्सित रूप से मुंह मोड़कर वह काल्पनिक संसार में जीना चाहता था। इस दुर्दान्त निर्धनता में भी उ

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अध्याय 17: जीवनमन्थन से निकला विष

24 अगस्त 2023
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घूमते-घूमते श्रीकान्त की तरह एक दिन उसने पाया कि आम के बाग में धुंआ निकल रहा है, तुरन्त वहां पहुंचा। देखा अच्छा-खासा सन्यासी का आश्रम है। प्रकाण्ड धूनी जल रही हे। लोटे में चाय का पानी चढ़ा हुआ है। एक

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अध्याय 18: बंधुहीन, लक्ष्यहीन प्रवास की ओर

24 अगस्त 2023
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इस जीवन का अन्त न जाने कहा जाकर होता कि अचानक भागलपुर से एक तार आया। लिखा था—तुम्हारे पिता की मुत्यु हो गई है। जल्दी आओ। जिस समय उसने भागलपुर छोड़ा था घर की हालत अच्छी नहीं थी। उसके आने के बाद स्थित

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" द्वितीय पर्व : दिशा की खोज" अध्याय 1: एक और स्वप्रभंग

24 अगस्त 2023
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श्रीकान्त की तरह जिस समय एक लोहे का छोटा-सा ट्रंक और एक पतला-सा बिस्तर लेकर शरत् जहाज़ पर पहुंचा तो पाया कि चारों ओर मनुष्य ही मनुष्य बिखरे पड़े हैं। बड़ी-बड़ी गठरियां लिए स्त्री बच्चों के हाथ पकड़े व

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अध्याय 2: सभ्य समाज से जोड़ने वाला गुण

24 अगस्त 2023
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वहां से हटकर वह कई व्यक्तियों के पास रहा। कई स्थानों पर घूमा। कई प्रकार के अनुभव प्राप्त किये। जैसे एक बार फिर वह दिशाहारा हो उठा हो । आज रंगून में दिखाई देता तो कल पेगू या उत्तरी बर्मा भाग जाता। पौं

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अध्याय 3: खोज और खोज

24 अगस्त 2023
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वह अपने को निरीश्वरवादी कहकर प्रचारित करता था, लेकिन सारे व्यसनों और दुर्गुणों के बावजूद उसका मन वैरागी का मन था। वह बहुत पढ़ता था । समाज विज्ञान, यौन विज्ञान, भौतिक विज्ञान, दर्शन, कुछ भी तो नहीं छू

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अध्याय 4: वह अल्पकालिक दाम्पत्य जीवन

24 अगस्त 2023
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एक दिन क्या हुआ, सदा की तरह वह रात को देर से लौटा और दरवाज़ा खोलने के लिए धक्का दिया तो पाया कि भीतर से बन्द है । उसे आश्चर्य हुआ, अन्दर कौन हो सकता है । कोई चोर तो नहीं आ गया। उसने फिर ज़ोर से धक्का

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अध्याय 5: चित्रांगन

24 अगस्त 2023
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शरत् ने बहुमुखी प्रतिभा के धनी रवीन्द्रनाथ के समान न केवल साहित्य में बल्कि संगीत और चित्रकला में भी रुचि ली थी । यद्यपि इन क्षेत्रों में उसकी कोई उपलब्धि नहीं है, पर इस बात के प्रमाण अवश्य उपलब्ध है

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अध्याय 6: इतनी सुंदर रचना किसने की ?

24 अगस्त 2023
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रंगून जाने से पहले शरत् अपनी सब रचनाएं अपने मित्रों के पास छोड़ गया था। उनमें उसकी एक लम्बी कहानी 'बड़ी दीदी' थी। वह सुरेन्द्रनाथ के पास थी। जाते समय वह कह गया था, “छपने की आवश्यकता नहीं। लेकिन छापना

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अध्याय 7: प्रेरणा के स्रोत

24 अगस्त 2023
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एक ओर अंतरंग मित्रों के साथ यह साहित्य - चर्चा चलती थी तो दूसरी और सर्वहारा वर्ग के जीवन में गहरे पैठकर वह व्यक्तिगत अभिज्ञता प्राप्त कर रहा था। इन्ही में से उसने अपने अनेक पात्रों को खोजा था। जब वह

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अध्याय 8: मोक्षदा से हिरण्मयी

24 अगस्त 2023
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शांति की मृत्यु के बाद शरत् ने फिर विवाह करने का विचार नहीं किया। आयु काफी हो चुकी थी । यौवन आपदाओं-विपदाओं के चक्रव्यूह में फंसकर प्रायः नष्ट हो गया था। दिन-भर दफ्तर में काम करता था, घर लौटकर चित्र

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अध्याय 9: गृहदाद

24 अगस्त 2023
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'चरित्रहीन' प्रायः समाप्ति पर था। 'नारी का इतिहास प्रबन्ध भी पूरा हो चुका था। पहली बार उसके मन में एक विचार उठा- क्यों न इन्हें प्रकाशित किया जाए। भागलपुर के मित्रों की पुस्तकें भी तो छप रही हैं। उनस

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अध्याय 10: हाँ , अब फिर लिखूंगा

24 अगस्त 2023
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गृहदाह के बाद वह कलकत्ता आया । साथ में पत्नी थी और था उसका प्यारा कुत्ता। अब वह कुत्ता लिए कलकत्ता की सड़कों पर प्रकट रूप में घूमता था । छोटी दाढ़ी, सिर पर अस्त-व्यस्त बाल, मोटी धोती, पैरों में चट्टी

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अध्याय 11: रामेर सुमित शरतेर सुमित

24 अगस्त 2023
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रंगून लौटकर शरत् ने एक कहानी लिखनी शुरू की। लेकिन योगेन्द्रनाथ सरकार को छोड़कर और कोई इस रहस्य को नहीं जान सका । जितनी लिख लेता प्रतिदिन दफ्तर जाकर वह उसे उन्हें सुनाता और वह सब काम छोड़कर उसे सुनते।

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अध्याय 12: सृजन का आवेग

24 अगस्त 2023
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‘रामेर सुमति' के बाद उसने 'पथ निर्देश' लिखना शुरू किया। पहले की तरह प्रतिदिन जितना लिखता जाता उतना ही दफ्तर में जाकर योगेन्द्रनाथ को पढ़ने के लिए दे देता। यह काम प्राय: दा ठाकुर की चाय की दुकान पर हो

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अध्याय 13: चरितहीन क्रिएटिंग अलामिर्ग सेंसेशन

25 अगस्त 2023
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छोटी रचनाओं के साथ-साथ 'चरित्रहीन' का सृजन बराबर चल रहा था और उसके प्रकाशन को 'लेकर काफी हलचल मच गई थी। 'यमुना के संपादक फणीन्द्रनाथ चिन्तित थे कि 'चरित्रहीन' कहीं 'भारतवर्ष' में प्रकाशित न होने लगे।

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अध्याय 14: ' भारतवर्ष' में ' दिराज बहू '

25 अगस्त 2023
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द्विजेन्द्रलाल राय शरत् के बड़े प्रशंसक थे। और वह भी अपनी हर रचना के बारे में उनकी राय को अन्तिम मानता था, लेकिन उन दिनों वे काव्य में व्यभिचार के विरुद्ध आन्दोलन कर रहे थे। इसलिए 'चरित्रहीन' को स्वी

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अध्याय 15 : विजयी राजकुमार

25 अगस्त 2023
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अगले वर्ष जब वह छः महीने की छुट्टी लेकर कलकत्ता आया तो वह आना ऐसा ही था जैसे किसी विजयी राजकुमार का लौटना उसके प्रशंसक और निन्दक दोनों की कोई सीमा नहीं थी। लेकिन इस बार भी वह किसी मित्र के पास नहीं ठ

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अध्याय 16: नये- नये परिचय

25 अगस्त 2023
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' यमुना' कार्यालय में जो साहित्यिक बैठकें हुआ करती थीं, उन्हीं में उसका उस युग के अनेक साहित्यिकों से परिचय हुआ उनमें एक थे हेमेन्द्रकुमार राय वे यमुना के सम्पादक फणीन्द्रनाथ पाल की सहायता करते थे। ए

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अध्याय 17: ' देहाती समाज ' और आवारा श्रीकांत

25 अगस्त 2023
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अचानक तार आ जाने के कारण शरत् को छुट्टी समाप्त होने से पहले ही और अकेले ही रंगून लौट जाना पड़ा। ऐसा लगता है कि आते ही उसने अपनी प्रसिद्ध रचना पल्ली समाज' पर काम करना शरू कर दिया था, लेकिन गृहिणी के न

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अध्याय 18: दिशा की खोज समाप्त

25 अगस्त 2023
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वह अब भी रंगून में नौकरी कर रहा था, लेकिन उसका मन वहां नहीं था । दफ्तर के बंधे-बंधाए नियमो के साथ स्वाधीन मनोवृत्ति का कोई मेल नही बैठता था। कलकत्ता से हरिदास चट्टोपाध्याय उसे बराबर नौकरी छोड़ देने क

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" तृतीय पर्व: दिशान्त " अध्याय 1: ' वह' से ' वे '

25 अगस्त 2023
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जिस समय शरत् ने कलकत्ता छोडकर रंगून की राह ली थी, उस समय वह तिरस्कृत, उपेक्षित और असहाय था। लेकिन अब जब वह तेरह वर्ष बाद कलकत्ता लौटा तो ख्यातनामा कथाशिल्पी के रूप में प्रसिद्ध हो चुका था। वह अब 'वह'

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अध्याय 2: सृजन का स्वर्ण युग

25 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र के जीवन का स्वर्णयुग जैसे अब आ गया था। देखते-देखते उनकी रचनाएं बंगाल पर छा गई। एक के बाद एक श्रीकान्त" ! (प्रथम पर्व), 'देवदास' 2', 'निष्कृति" 3, चरित्रहीन' और 'काशीनाथ' पुस्तक रूप में प्रक

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अध्याय 3: आवारा श्रीकांत का ऐश्वर्य

25 अगस्त 2023
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'चरित्रहीन' के प्रकाशन के अगले वर्ष उनकी तीन और श्रेष्ठ रचनाएं पाठकों के हाथों में थीं-स्वामी(गल्पसंग्रह - एकादश वैरागी सहित) - दत्ता 2 और श्रीकान्त ( द्वितीय पर्वों 31 उनकी रचनाओं ने जनता को ही इस प

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अध्याय 4: देश के मुक्ति का व्रत

25 अगस्त 2023
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जिस समय शरत्चन्द्र लोकप्रियता की चरम सीमा पर थे, उसी समय उनके जीवन में एक और क्रांति का उदय हुआ । समूचा देश एक नयी करवट ले रहा था । राजनीतिक क्षितिज पर तेजी के साथ नयी परिस्थितियां पैदा हो रही थीं। ब

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अध्याय 5: स्वाधीनता का रक्तकमल

26 अगस्त 2023
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चर्खे में उनका विश्वास हो या न हो, प्रारम्भ में असहयोग में उनका पूर्ण विश्वास था । देशबन्धू के निवासस्थान पर एक दिन उन्होंने गांधीजी से कहा था, "महात्माजी, आपने असहयोग रूपी एक अभेद्य अस्त्र का आविष्क

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अध्याय 6: निष्कम्प दीपशिखा

26 अगस्त 2023
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उस दिन जलधर दादा मिलने आए थे। देखा शरत्चन्द्र मनोयोगपूर्वक कुछ लिख रहे हैं। मुख पर प्रसन्नता है, आखें दीप्त हैं, कलम तीव्र गति से चल रही है। पास ही रखी हुई गुड़गुड़ी की ओर उनका ध्यान नहीं है। चिलम की

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अध्याय 7: समाने समाने होय प्रणयेर विनिमय

26 अगस्त 2023
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शरत्चन्द्र इस समय आकण्ठ राजनीति में डूबे हुए थे। साहित्य और परिवार की ओर उनका ध्यान नहीं था। उनकी पत्नी और उनके सभी मित्र इस बात से बहुत दुखी थे। क्या हुआ उस शरतचन्द्र का जो साहित्य का साधक था, जो अड

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अध्याय 8: राजनीतिज्ञ अभिज्ञता का साहित्य

26 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र कभी नियमित होकर नहीं लिख सके। उनसे लिखाया जाता था। पत्र- पत्रिकाओं के सम्पादक घर पर आकर बार-बार धरना देते थे। बार-बार आग्रह करने के लिए आते थे। भारतवर्ष' के सम्पादक रायबहादुर जलधर सेन आते,

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अध्याय 9: लिखने का दर्द

26 अगस्त 2023
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अपनी रचनाओं के कारण शरत् बाबू विद्यार्थियों में विशेष रूप से लोकप्रिय थे। लेकिन विश्वविद्यालय और कालेजों से उनका संबंध अभी भी घनिष्ठ नहीं हुआ था। उस दिन अचानक प्रेजिडेन्सी कालेज की बंगला साहित्य सभा

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अध्याय 10: समिष्ट के बीच

26 अगस्त 2023
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किसी पत्रिका का सम्पादन करने की चाह किसी न किसी रूप में उनके अन्तर में बराबर बनी रही। बचपन में भी यह खेल वे खेल चुके थे, परन्तु इस क्षेत्र में यमुना से अधिक सफलता उन्हें कभी नहीं मिली। अपने मित्र निर

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अध्याय 11: आवारा जीवन की ललक

26 अगस्त 2023
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राजनीतिक क्षेत्र में इस समय अपेक्षाकृत शान्ति थी । सविनय अवज्ञा आन्दोलन जैसा उत्साह अब शेष नहीं रहा था। लेकिन गांव का संगठन करने और चन्दा इकट्ठा करने में अभी भी वे रुचि ले रहे थे। देशबन्धु का यश ओर प

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अध्याय 12: ' हमने ही तोह उन्हें समाप्त कर दिया '

26 अगस्त 2023
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देशबन्धु की मृत्यु के बाद शरत् बाबू का मन राजनीति में उतना नहीं रह गया था। काम वे बराबर करते रहे, पर मन उनका बार-बार साहित्य के क्षेत्र में लौटने को आतुर हो उठता था। यद्यपि वहां भी लिखने की गति पहले

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अध्याय 13: पथेर दाबी

26 अगस्त 2023
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जिस समय वे 'पथेर दाबी ' लिख रहे थे, उसी समय उनका मकान बनकर तैयार हो गया था । वे वहीं जाकर रहने लगे थे। वहां जाने से पहले लगभग एक वर्ष तक वे शिवपुर टाम डिपो के पास कालीकुमार मुकर्जी लेने में भी रहे थे

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अध्याय 14: रूप नारायण का विस्तार

26 अगस्त 2023
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गांव में आकर उनका जीवन बिलकुल ही बदल गया। इस बदले हुए जीवन की चर्चा उन्होंने अपने बहुत-से पत्रों में की है, “रूपनारायण के तट पर घर बनाया है, आरामकुर्सी पर पड़ा रहता हूं।" एक और पत्र में उन्होंने लिख

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अध्याय 15: देहाती शरत

26 अगस्त 2023
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गांव में रहने पर भी शहर छूट नहीं गया था। अक्सर आना-जाना होता रहता था। स्वास्थ्य बहुत अच्छा न होने के कारण कभी-कभी तो बहुत दिनों तक वहीं रहना पड़ता था । इसीलिए बड़ी बहू बार-बार शहर में मकान बना लेने क

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अध्याय 16: दायोनिसस शिवानी से वैष्णवी कमललता तक

26 अगस्त 2023
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किशोरावस्था में शरत् बात् ने अनेक नाटकों में अभिनय करके प्रशंसा पाई थी। उस समय जनता को नाटक देखने का बहुत शौक था, लेकिन भले घरों के लड़के मंच पर आयें, यह कोई स्वीकार करना नहीं चाहता था। शरत बाबू थे ज

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अध्याय 17: तुम में नाटक लिखने की शक्ति है

26 अगस्त 2023
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शरत साहित्य की रीढ़, नारी के प्रति उनका दृष्टिकोण है। बार-बार अपने इसी दृष्टिकोण को उन्होंने स्पष्ट किया है। प्रसिद्धि के साथ-साथ उन्हें अनेक सभाओं में जाना पडता था और वहां प्रायः यही प्रश्न उनके साम

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अध्याय 18: नारी चरित्र के परम रहस्यज्ञाता

26 अगस्त 2023
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केवल नारी और विद्यार्थी ही नहीं दूसरे बुद्धिजीवी भी समय-समय पर उनको अपने बीच पाने को आतुर रहते थे। बड़े उत्साह से वे उनका स्वागत सम्मान करते, उन्हें नाना सम्मेलनों का सभापतित्व करने को आग्रहपूर्वक आ

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अध्याय 19: मैं मनुष्य को बहुत बड़ा करके मानता हूँ

26 अगस्त 2023
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चन्दन नगर की गोष्ठी में उन्होंने कहा था, “राजनीति में भाग लिया था, किन्तु अब उससे छुट्टी ले ली है। उस भीड़भाड़ में कुछ न हो सका। बहुत-सा समय भी नष्ट हुआ । इतना समय नष्ट न करने से भी तो चल सकता था । ज

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अध्याय 20: देश के तरुणों से में कहता हूँ

26 अगस्त 2023
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साधारणतया साहित्यकार में कोई न कोई ऐसी विशेषता होती है, जो उसे जनसाधारण से अलग करती है। उसे सनक भी कहा जा सकता है। पशु-पक्षियों के प्रति शरबाबू का प्रेम इसी सनक तक पहुंच गया था। कई वर्ष पूर्व काशी में

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अध्याय 21:  ऋषिकल्प

26 अगस्त 2023
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जब कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर सत्तर वर्ष के हुए तो देश भर में उनकी जन्म जयन्ती मनाई गई। उस दिन यूनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट, कलकत्ता में जो उद्बोधन सभा हुई उसके सभापति थे महामहोपाध्याय श्री हरिप्रसाद शास्त

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अध्याय 22: गुरु और शिष्य

27 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र 60 वर्ष के भी नहीं हुए थे, लेकिन स्वास्थ्य उनका बहुत खराब हो चुका था। हर पत्र में वे इसी बात की शिकायत करते दिखाई देते हैं, “म सरें दर्द रहता है। खून का दबाव ठीक नहीं है। लिखना पढ़ना बहुत क

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अध्याय 23: कैशोर्य का वह असफल प्रेम

27 अगस्त 2023
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शरत् बाबू की रचनाओं के आधार पर लिखे गये दो नाटक इसी युग में प्रकाशित हुए । 'विराजबहू' उपन्यास का नाट्य रूपान्तर इसी नाम से प्रकाशित हुआ। लेकिन दत्ता' का नाट्य रूपान्तर प्रकाशित हुआ 'विजया' के नाम से

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अध्याय 24: श्री अरविन्द का आशीर्वाद

27 अगस्त 2023
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गांव में रहते हुए शरत् बाबू को काफी वर्ष बीत गये थे। उस जीवन का अपना आनन्द था। लेकिन असुविधाएं भी कम नहीं थीं। बार-बार फौजदारी और दीवानी मुकदमों में उलझना पड़ता था। गांव वालों की समस्याएं सुलझाते-सुल

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अध्याय 25: तुब बिहंग ओरे बिहंग भोंर

27 अगस्त 2023
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राजनीति के क्षेत्र में भी अब उनका कोई सक्रिय योग नहीं रह गया था, लेकिन साम्प्रदायिक प्रश्न को लेकर उन्हें कई बार स्पष्ट रूप से अपने विचार प्रकट करने का अवसर मिला। उन्होंने बार-बार नेताओं की आलोचना की

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अध्याय 26: अल्हाह.,अल्हाह.

27 अगस्त 2023
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सर दर्द बहुत परेशान कर रहा था । परीक्षा करने पर डाक्टरों ने बताया कि ‘न्यूरालाजिक' दर्द है । इसके लिए 'अल्ट्रावायलेट रश्मियां दी गई, लेकिन सब व्यर्थ । सोचा, सम्भवत: चश्मे के कारण यह पीड़ा है, परन्तु

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अध्याय 27: मरीज की हवा दो बदल

27 अगस्त 2023
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हिरण्मयी देवी लोगों की दृष्टि में शरत्चन्द्र की पत्नी थीं या मात्र जीवनसंगिनी, इस प्रश्न का उत्तर होने पर भी किसी ने उसे स्वीकार करना नहीं चाहा। लेकिन इसमें तनिक भी संशय नहीं है कि उनके प्रति शरत् बा

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अध्याय 28: साजन के घर जाना होगा

27 अगस्त 2023
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कलकत्ता पहुंचकर भी भुलाने के इन कामों में व्यतिक्रम नहीं हुआ। बचपन जैसे फिर जाग आया था। याद आ रही थी तितलियों की, बाग-बगीचों की और फूलों की । नेवले, कोयल और भेलू की। भेलू का प्रसंग चलने पर उन्होंने म

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अध्याय 29: बेशुमार यादें

27 अगस्त 2023
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इसी बीच में एक दिन शिल्पी मुकुल दे डाक्टर माके को ले आये। उन्होंने परीक्षा करके कहा, "घर में चिकित्सा नहीं ही सकती । अवस्था निराशाजनक है। किसी भी क्षण मृत्यु हो सकती है। इन्हें तुरन्त नर्सिंग होम ले

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