जिस समय शरत् ने कलकत्ता छोडकर रंगून की राह ली थी, उस समय वह तिरस्कृत, उपेक्षित और असहाय था। लेकिन अब जब वह तेरह वर्ष बाद कलकत्ता लौटा तो ख्यातनामा कथाशिल्पी के रूप में प्रसिद्ध हो चुका था। वह अब 'वह' नहीं रह गया था, 'वे' के पद पर प्रतिष्ठित हो चुका था।
उनके प्रति बंगाल के लोग कितने उत्सुक थे और किस प्रकार उनका स्वागत हुआ, यह तथ्य किसी भी साहित्यिक के लिए ईर्ष्या का कारण हो सकता है। नाटककार द्विजेन्द्रलाल राय शरत के प्रशंसक थे, लेकिन उनके पुत्र दिलीपकुमार राय (जो बाद में संगीतज्ञ के रूप में प्रसिद्ध हुए) उनसे भी अधिक उनके भक्त हो चुके थे। 'चरित्रहीन' के कारण शरच्चन्द्र को जो बदनामी मिली, उससे वे और भी उनके 'हीरो' बन गए। वे मन ही मन सोचते, वे कलकत्ता क्यों नही आते? ऐसे विदेश में क्यों पड़े हैं जहां लोग नाप्पि खाते हैं।
जब उन्होंने सुना कि शरत् बाबू कलकत्ता आ रहे हैं तो उनकी प्रसन्नता का पार नहीं था। रात को नींद भी नहीं आती थी। सोचते थे, कब आयेंगे सात समुद्र और तेरह नदी पार से वे अपरूप गल्प - गंधर्व ।
आखिर शरत् आए और दिलीपकुमार उनसे मिलने के लिए पहुंचे। गुरुदास लाइब्रेरी में ऊपर के तल्ले पर एक छोटे से कमरे में उन्होंने पहली बार शरत् बाबू को देखा। उनके चारों ओर पुस्तकें बिखरी हुई थीं। बीच में वे बैठे थे। श्याम वर्ण बकरे जैसी दाढ़ी क्षीणकाय, केवल दो आखें कैसी तीक्ष्ण हैं कैसी तीक्ष्ण है नाक, लेकिन चेहरे पर तेज तो जरा भी नहीं है । अत्यन्त गद्यमय वेश... ।
दिलीपकुमार का उत्फुल्ल हृदय एक क्षण को जैसे बुझ गया हो। फिर भी प्रणाम करने के लिए पैरों की धूलि ली और कुछ घबराकर कहा, 'आप.......!
शरत् बाबू हंसे "हां, मैं शरच्चन्द्र ही हूं। मुझे देखकर तुम्हें दुःख हुआ । सोचा होगा कि मेरा चेहरा राजपुत्र के समान होगा। है न ? यही सोचा था?"
दिलीप ने लजाकर उत्तर दिया, "नहीं, नहीं, यह बात नहीं है। फिर भी......"
लेकिन स्नेह की प्रगाढ़ता केवल रूप की अपेक्षा नहीं रखती । उनमें ऐसी कुछ विलक्षणता थी जो शीघ्र ही दर्शक का ध्यान आकर्षित कर लेती थी, फिर दिलीप तो उनकी रचनाओं के उपासक थे। शीघ्र ही उनकी हार्दिक सरलता, निश्छल स्नेह और सन्तों जैसी सादगी ने दिलीप के मन को जीत लिया। इस श्रद्धा का एक और कारण था उनका मधुर कण्ठ । दिलीपकुमार स्वयं भी तो सुन्दर गायक थे। अपने पिता के कीर्तन - गान और हिन्दुस्तानी संगीत में उनकी अच्छी गति थी। जब वे अपने पिता का यह गीत गाते-'ओ जे गान ए-गए चोले जाए ।' तो शरत् बाबू बार-बार सुनकर भी तृप्त नहीं होते थे। कहते, "गाओ तो मन्टू, एक बार फिर वहीं पंक्ति...... ' से जे देवता भिखारी, मानव दुयारे, देखे जारे तोरा देख जा।' आहा तुम्हारे पिता केवल कवि ही नहीं थी, भक्त भी थे। नहीं तो ऐसे गीत नहीं लिख पाते।'
उनका एक और प्रिय कीर्तन था, 'चन्द्रद्रगुप्त' नाटक का यह गीत ........
आर केन मीछे आशा, मीछे भालबासा, मीछे केन तार भावना।
से जे सागरेर मणि आकाशेर चांद आमी तो ताहारे पाबना ।।
कलकत्ता आने के बाद शरत् बाबू सबसे पहले छ: नम्बर शिवपुर फर्स्ट बाई लेन (नील कमल कुण्डू लेन) में रहे और उसके बाद चार नम्बर फर्स्ट बाई लेन शिवपुर में स्थायी रूप में रहने लगे। घर छोटा था और पैसा भी नहीं था। परन्तु फिर भी उनका सौदर्य-प्रेम वैसा ही था। बैठक में एक मंझोले कद की मेज़, उसके तीन ओर तीन कुर्सियां एक बेंच। मेज पर सुन्दर जिल्द की दो कापियां, एक सुन्दर-सा कलमदान, काली और लाल स्याही की दवातें, चार कलम, दो कीमती फाउंटेनपेन और विज्ञान व अर्थशास्त्र की कई पुस्तकें जो करीने से हुई थीं।
पास ही एक बड़ा-सा हुक्का रखा रहता था। बीच-बीच में आवाज देकर नौकर को बुलाना वे नहीं भूलते थे।
कलकत्ता से जाने से पहले अपने जिन भाई-बहनों को अनाथ की तरह इधर-उधर अपने दूर के नातेदारों और दोस्तों के पास छोडू गए थे सबसे पहले उन्होंने उन्हें अपने पास बुलाया। छोटे भाई प्रकाशचन्द्र इस समय अग्रद्वीप में थे। वे अब बड़े भाई के पास आकर रहने लगे। मंझले भाई प्रभासचन्द्र नौकरी छोड़कर संन्यासी हो गए थे। इस समय वे रामकृष्ण मिशन सेवा आश्रम, वृन्दावन, का संचालन कर रहे थे। जब कभी वे कलकत्ता
आते तो पूर्वाश्रम के अपने बड़े भाई के पास ही ठहरते थे। बड़ी बहन अनिला देवी पास ही के गांव 'सामता बेड' में रहती थीं। पति-परिवार के साथ वे बार-बार अपने भाई से मिलने आतीं। उन्हीं के परिवार के कारण उनके रहने की व्यवस्था हो सकी थी।
सबसे छोटी बहन सुशीला को वे मकान मालकिन के पास छोड़ गए थे। छोटे मामा विप्रदास को शायद यह अच्छा नहीं लगा। वे उसे अपने पास ले आए। उन्होंने ही उसका विवाह किया। वह विवाह आसनसोल के एक कोयला व्यापारी के घराने में हुआ था। शरत् बाबू के कलकत्ता आने पर प्रकाशचन्द्र उससे मिलने के लिए गए। लेकिन सुना जाता है, किसी बात को लेकर सुशीला ने उन्हें कुछ सख्त - सुस्त कह दिया। वह लौट आए। कुछ भी हो सुशीला कभी उनके पास नहीं आई।
इस एक अपवाद को छोड़कर शरत्चन्द्र ने अपने विशृंखल परिवार को फिर से संगठित करने में कुछ न उठा रखा। कुछ समय बाद ही उनकी भानजी का विवाह हुआ और हिन्दू प्रथा के अनुसार उन्हें भात देना था। लेकिन उनके पास पैसे नहीं थे। उन्होंने अपने प्रकाशक को लिखा, "मेरी भानजी का विवाह इस शुक्रवार के बाद अगले शुक्रवार को होगा। मेरे ऊपर बड़ी जिम्मेदारी है। इतने दिनों तक एक बात आपको रही बताई कि देश में समाज - बहिष्कृत हूं। कामकाज के घर में जाना ठीक नहीं है। जो हो उसकी चिन्ता नहीं है. लेकिन रुपये देना चाहता हू। मैं न आऊं, यह उनकी गुप्त इच्छा है। मेरे पास चार सौ रुपये की कमी है वह मुझे चाहिए।"
वे अपनी दीदी को कितना प्यार करते थे यह पत्र से स्पष्ट हो जाता है। जाति- बहिष्कृत होने के कारण (वे जीवन-भर जाति बहिष्कृत रहे) वे उस उत्सव में सम्मिलित नहीं हो सकते थे। इसीलिए वे चाहते तो आसानी से भात देने से बच सकते थे. लेकिन अब उनके अन्तर का 'आवारा व्यक्ति' जैसे थक चला था या जैसे वह स्वयं उससे मुक्ति पाना चाहते हों, शायद इसीलिए परिवार का व्यक्ति होने की लालसा उनके मन में जाग आई थी। तभी तो उन्होंने यह अपमान सहकर भी रुपये भेजने से इनकार नहीं किया। लेकिन इसके साथ ही उन्हें जाति के भीतर लिया जाए, इसकी भी चेष्टा नहीं की। लाने की चेष्टा करनेवालों को भी प्रोत्साहित नही किया । नाना लोग नाना प्रकार के प्रस्ताव लेकर आते थे और सदा आते रह। किसी ने अंग्रेज़ी स्कूल को पांच सौ रुपया चन्दा देने की मांग की। किसी ने कहा कि यदि वे पोखर के चारों ओर पक्का घाट बनवा दें तो उन्हें फिर से जाति में लिया जा सकता है, लेकिन उन्होंने कोई भी शर्त मानने से इनकार कर दिया। यह घूस देना उनका अभिमानी मन बर्दाश्त नहीं कर सकता था।
परिवार के अतिरिक्त उन्होंने आसपास के लोगों से भी परिचय बढ़ाना शुरू किया। सौदा खरीदते खरीदते उनका परिचय मोदी शरत् सेठ से हो गया। उसके साथ वे अक्सर ताश खेला करते थे। तमाखू पीते रहते और तीसरे पहर से रात गए तक खेलते रहते। सेठ को उठने न देते। कहते 'नया आया हूं किसी से परिचय नहीं कहां बैठूं सो तुम्हारी दुकान ही सही।"
धीरे-धीरे परिचर का यह क्षेत्र बढने लगा। लोग उनके घर भी आने लगे। कई लोग तो उनमें ऐसे भी थे कि अधिकतर उनके पास ही जमे रहते। बेंच पर लेटे हुक्का पीते हुए वे उन्हें कहानियां सुनाया करते । इकतारा बजाकर गानेवाले वैष्णव भिखारियों का वे बड़ा आदर करते थें। उनका संगीत सुनते-सुनते वे तन्मय हो उठते । लेकिन दूसरे भिखारियों को एक आंख भी नहीं देख पाते थे। गोलियां खेलने की आयु तो कभी की बीत चुकी थी. पर सक्रिय दर्शक होने का चाव उन्हें अब भी था।
इसी समय उनका परिचय सर्वश्री सरोजरंजन बंदोपाध्याय और अक्षय कुमार सरकार से हुआ, जो शीघ्र ही घनिष्ठता में बदल गया । सरोजरंजन किसी ऊंचे पद पर थे। उन्होंने 'अरक्षणीया' की भूमिका लिखी है। इतिहास के अध्यापक अक्षय सरकार नियमित रूप से डायरी लिखते थे। उस डायरी मे शरत् बाबू के संबंध में बहुत कुछ लिखा हुआ है। शरत् ने 'शेष प्रश्त' में अध्यापक अक्षय का चित्रण करते समय अपने इस आदर्शवादी बन्धु को निश्चय ही याद रखा है।
जैसा कि उनका स्वभाव था, वे बहुत अधिक नहीं लिख पाते थे। आग्रह करने वाले बहु थे और सबकी रक्षा करना उनके लिए असम्भव था। जो उनको जानते थे और उनके परम भक्त थे, वे ही उनसे लिखवा सकते थे। उनमें अग्रणी थे- 'भारतवर्ष' के ख्यातनामा सम्पादक रायबहादुर जलधर सेन। 'बैकुण्ठ का वसीयतनामा" 2 अरक्षणीया' 3 'श्रीकान्त', 'निष्कृति' तथा 'समाज धर्मेर मूल्य' आदि उनकी रचनाएं 'भारतवर्ष' में ही प्रकाशित हुई। 'निष्कृति' का एक अंश 'घर भांगा' के नाम से 'यमुना' में भी छपा था।
'अरक्षणीया' एक मार्मिक कथा है। पहले उसका अन्त उन्होंने नायिका की आत्महत्या से किया था। वह अत्यन्त कुरूपा थी। उसकी मर्मान्तक व्यथा से मुक्ति उसे जल में डुबा देने में ही लेखक ने समझी परन्तु ऐसा लगता है कि यह अन्त न तो पाठकों को ग्राह्य हुआ और न लेखक को ही अच्छा लगा। विशेषकर प्रकाशक हरिदास चट्टोपाध्याय को बिलकुल अच्छा नहीं लगा। इसलिए पुस्तक रूप में आते-आते 'अरक्षणीया' को उसका रक्षक मिल गया। यह वही अतुल था जिसे उस रूपहीना कल्याणी ने मन से वरा था। इस परिवर्तन की कैफियत देते हुए उन्होंने कहा, "स्त्रियों में यह रोग (आत्महत्या) और न बढ़ाना ही अच्छा है । '
लेकिन लेखक ने अब भी स्पष्ट रूप से यह नहीं कहा कि अतुल ने ज्ञानदा से विवाह कर लिया। इसी बात को लेकर पाठकं बार-बार पूछते, "आखिर उन दोनों का हुआ क्या? क्या उन्होंने शादी कर ली?.
एक दिन तो दो दलों में शर्त हो गई। बात शरत् बाबू तक पहुंची वे परेशानी में पड़ गए। हरिदास से बोले "तुम्हारे कारण ही यह सब हुआ। नहीं तो ज्ञानदा जल में डूब मरी थी, मर जाती तो बेचारा अतुल भी काली लड़की से बच जाता, लेखक-प्रकाशक भी बच जाते। अब क्या जवाब दूं? रोज ऐसे पत्र आते हैं। अच्छा, लिख दो कि उसके बाद शरत् बाबू की उन दानों से भेंट नहीं हुई। इसलिए फिर क्या हुआ पता नहीं।'
लेकिन अरक्षणीया की रक्षा करके शरत् बाबू ने सिद्धान्त तो बचा लिया परन्तु कला की निःसन्देह क्षति हुई। ट्रेजेडी में ही वह उपन्यास सार्थक था। फिर भी तत्कालीन समाज और समाज में परिवार के अन्दर जो अत्याचार और उत्पीड़न चलता था, उसका मर्मान्तक चित्र शरत्चन्द्र ने खींचा है। उच्चवर्ग के हिन्दू समाज के विवाह संबंधी विधि-विधान आज के लिए कितने घातक हैं ज़िन्दगी को वे किस प्रकार अशान्त कर निष्ठुर और नैतिकताविहीन बना देते हैं, यही कुछ बड़ी सहृदयता और संयम के साथ शरत् बाबू ने चित्रित किया है। रूपहीना पितृहीना और धनहीना ज्ञानदा अपने चरित्र और सहनशीलता से प्रत्येक सहृदय पाठक को हिला देती है।
एक और उपन्यास वह लिख रहे थे, लेकिन पूरा हो पाता इससे पूर्व ही उनके प्यारे कुत्ते भेलू ने उसे नष्ट कर दिया। एक दिन लिखते-लिखते किसी अति आवश्यक कार्य से उन्हें कही जाना पड़ा। जल्दी के कारण शायद कमरे में कुण्डी लगाना भूल गए। लौटकर देखा, उपन्यास की पांडुलिपि टुकड़े-टुकड़े होकर कमरे में बिखरी पड़ी है। आखों में आ छलछला आए। उनके विचार में वह उनकी सर्वोत्तम कृति होती। पूरे छ: महीने पूरी निष्ठा के साथ परिश्रम करके उन्होंने उसे लिखा था। नाम था उसका 'मालिनी । उसको वे फिर नहीं लिख सके।
इसी समय जोडासांकी में रवीन्द्रनाथ के पैतृक भवन में 'विचित्रा' की बैठकें हुआ करती थीं। रवीन्द्रनाथ और अवनीन्द्रनाथ के अतिरिक्त और भी अनेक सुपरिचित साहित्यिक तथा कलाकार उसमें आते थे। शरत् भी बीच-बीच में जाते थे। उसी को लेकर एक विचित्र प्रवाद उन दिनों प्रचलित हो गया था। सुना गया कि वहां हर बार किसी न किसी का जूता खो जाता है। इसीलिए सभी व्यस्त हो उठे थे। शरत् बाबू ने भी सुना। उस दिन वे अपना नया जूता पहने थे। उन्होंने चुपचाप उसे निकालकर अखबार में लपेट लिया। कवि सत्येन्द्रनाथ दत्त यह सब देख रहे थे। चुपके से रवीन्द्रनाथ के कान में उन्होंने यह बात डाल दी। कुछ देर बाद रवीन्द्रनाथ ने शरत् से पूछा, शरत्, तुम्हारे हाथ में यह पैकेट कैसा है?. जी, ऐसे ही एक चीज है?.
"क्या चीज़ है? कोई पुस्तक है?"
जी हां।'
कौन-सी पुस्तक है। शायद पादुका पुराण है?"
शरत् तो हतप्रभ-अवाक्, लेकिन सभा अट्टहास से गूंज गूंज उठी।