shabd-logo

अध्याय 16: दायोनिसस शिवानी से वैष्णवी कमललता तक

26 अगस्त 2023

24 बार देखा गया 24

किशोरावस्था में शरत् बात् ने अनेक नाटकों में अभिनय करके प्रशंसा पाई थी। उस समय जनता को नाटक देखने का बहुत शौक था, लेकिन भले घरों के लड़के मंच पर आयें, यह कोई स्वीकार करना नहीं चाहता था। शरत बाबू थे जन्मजात विद्रोही. इसलिए वे बराबर अभिनय में रुचि लेते रहे। कलकत्ता और फिर बर्मा जाकर भी उनका यह शौक किसी न किसी रूप में जीवित रहा। रंगन में उन्होंने बिल्वमंगल थियेटर की स्थापना का प्रयत्न किया था, परन्तु गायिका विधुबाला की अकस्मात् मृत्यु से इस थियेटर की भूण हत्या हो गई। —अभिनय में इतनी रुचि रहने पर उन जैसे कृतिकार के लिए यह स्वाभाविक था कि उनके मन में स्वयं नाटक लिखने की लालसा जागती ।

जिस समय वे अप्रसिद्धि के अधकार है बाहर आए उस समय उन्होने अपने परम मित्र प्रमथनाथ को एक पत्र लिखा था मैंने भी एक नाटक लिखने का निश्चय किया है। यदि अच्छा हो तो क्या उसका किसी थियेटर में अभिनय हो सकता है।" 

लेकिन ऐसा लगता है कि यह मात्र प्रस्ताव होकर ही रह गया। वे नाटक नहीं लिख पाये। फिर धीरे- धीरे इस ओर से उनका मन हटता गया । लगभग 15 वर्ष बाद जब उनके प्रशंसकों ने उनके उपन्यासों के आधार पर नाटक लिखने की बात उठाई, कुछ ने ऐसा करने का प्रयत्न भी किया तो उनका ध्यान फिर से इस ओर आकर्षित हुआ। श्री अक्षयचन्द्र सरकार को इस संबंध में उन्होंने एक पत्र में लिखा म्पेरे उपन्यासों को नाटक बनाकर अभिनय करने के संबंध में साधारण नियम इतना ही है कि वह नाटक छपाया न जा सकेगा और कोई व्यापारी थियेटर वाला उससे अर्थोपार्जन नहीं कर सकेगा। यदि यह न हो तो शौक से अभिनय करने और उसके लिए टिकट बेचने में मेरी कोई मनाही नहीं है । 

किन्हीं सज्जन ने 'दत्ता' उपन्यास के आधार पर एक नाटक तैयार भी किया था। शरत् बाबू ने स्वयं उसमें संशोधन किये और उसका नाम रखा 'विजया' । वे मानते थे कि नाटक बनाने के लिए उपन्यास की कथा को नया रूप देना होगा और यह काम उनके अतिरिक्त दूसरा व्यक्ति नहीं कर सकता। लेकिन यह नाटक आसानी से नहीं लिखा जा सका था। उनके प्रकाशक हरिदास चट्टोपाध्याय जब उनसे निराश हो गये तो उन्होंने किसी और व्यक्ति से उसे लिखा लेना चाहा । शरत् बाबू ने जवाब दिया, आप उसे दूसरे से लिखा लेना चाहते हैं, लेकिन क्या वह मुझसे जल्दी कर सकेगा? अनेक असुविधाएं उसे होंगी। बीच में लेखक के स्वयं न रहने से उनका दूर होना कठिन ही समझता हूं। और अभिनय की दृष्टि से भी वह बहुत अच्छा होगा, उसकी भी आशा नहीं रखता। मेरा अपना लिखा होने से वह बाधा नहीं रहती और मैं भी एक नाटक 'विजया' नाम से प्रकाशित कर सकता। दूसरे का लिखा होने से तो नहीं कर सकूंगा। .....

जथम अंक प्रबोध गुह देखने को ले गये थे, सो दिया ही नहीं । कापी थी, उसको अभिनयोपयोगी करके लिखना आरम्भ किया था कि इसी समय विस्म आ पड़ा। पर विलम्ब होने से अर्थात् 'विजया' की आशा में) बहुत क्षति होगी। व्यर्थ ही अभिनेताओं को वेतन देना पड़ रहा है। इस हालत में क्या करूं कुछ समझ में नहीं आता। पर एक तरह से पूरी पुस्तक तैयार है। केवल थोड़ा-बहुत रही -बदल और थोड़ा-सा लिखकर कापी करवानी है। अगर इस बीच मे अच्छा हो गया तो अवश्य ही कर डालूंगा । कुछ दिन पहले आपने यह फैसला किया होता तो कुछ बात ही नहीं थी।...

चुनत्व:- देखने के लिए पहले हिस्से को तुलू के हाथ भेज रहा हूं। इसे देखकर अगर समझें कि बाकी हिस्से को आप लिखा सकेंगे तो मुझे जताना। 1

शरत् बाबू नाटक नहीं लिख सके, लेकिन अपनी अक्षमता को स्वीकार करते हुए भी उनके मन में विश्वास था कि वे लिख सकते हैं। यह विश्वास पशुपति चट्टोपाध्याय को लिखे एक पत्र में प्रकट हुआ है:

'नाटक शायद मैं लिख सक्ता हू। कारण, नाटक की जो अत्यन्त प्रयोजनीय वस्तु है, उस कथोप थन को लिखने का अभ्यास मुझे है । बात कैसे कहनी चाहिए, कितनी सरल बनाकर कहने से वह मन पर गहरा असर करती है, इस कौशल को नहीं जानता, ऐसा नहीं है। इसके अतिरिक्त अगर चरित्र या घटना- निर्माण की बात कहते हो तो उसे भी कर सकता हूं ऐसा मुझे विश्वास है। नाटक में घटना या सिचुएशन तैयार करनी पड़ती है, चरित्र - सृजन के लिए ही । चरित्र - सृजन दो तरह से हा सकता है, एक है, प्रकाश अर्थात् पात्र-पात्री जो है उसी को घटना - परम्परा की सहायता से दर्शकों के समुख उपस्थित करना और दूसरा है। चरित्र का विकास, अर्थात् घटना- परम्परा के अन्दर से उसके जीवन में परिवर्तन दिखाना । यह अच्छाई की ओर हो सकता है और बुराई की ओर भी। मान लो कोई आदमी बीस साल पहले विल्सन होटल में खाना खाता था झूठ, बोलता था और दूसरे बुरे काम भी करता था। आज वह धार्मिक वैष्णव है, बंकिमचन्द्र के शब्दों में पत्तल पर मछली का रस गिर जाता है तो उसे हाथ से पोंछ देता है। फिर भी हो सकता है कि यह उसका दिखावटीपन न हो. सच्चा आन्तरिक परिवर्तन हो । कुछ घटनाओं के कारण या 10-५ भले आदमियों के सम्पर्क में आकर, उनसे प्रभावित होकर वह सचमुच ही बदल गया हो। अतएव वह बीस वर्ष पहले जो था वह भी सत्य है और आज जो हो गया है वह भी सत्य है। नाटक में इसी को रचना के अन्दर से पाठक या दर्शक के सम्मुख ऐसे उपस्थित करना होगा कि यथार्थ दिखाई दे। उन्हें ऐसा नहीं लगना चाहिए कि रचना में इस परिवर्तन का कारण कहीं ढूंढने पर भी नहीं मिलता। काम कठिन है।

और एक बात। उपन्यास की तरह नाटक में लचीलापन नहीं है। उसे एक निश्चित समय के बाद आगे नहीं बढ़ने दिया जा सकता। एक के बाद दूसरी घटना को सजाकर नाटक को दृ श्यों या अंकों में विभाजित करना, वह भी चेष्टा करने पर शायद दुस्साध्य नहीं उन्होंने कहा, थियेटर केवल आनन्द के लिए ही नहीं है, लोक-शिक्षण का कार्य भी करता है। लेकिन अगर देश के नाट्यकारों ने इस सत्य को प्रतिपादित करते हुए कभी ऐसा नाटक लिखा है तो वह फौरन ही शान्ति-रक्षा के नाम पर आईन की आड़ में राज्य सरकार द्वारा ज्ज्ञ कर लिया गया है। इसी कारण सत्य से वंचित हमारी नाट्यशाला आज देश के सामने ऐसी लज्जित व्यर्थ और अर्थहीन है।'

संभवत: इसी कारण उन्होंने नाटक लिखने की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया। केवल दत्ता'. पल्ली समाज' और देना - पावना' इन तीन उपन्यासों के नाट्य-रूप तैयार किये। षोडशी' देना- पावना' का रूपान्तर है। इसका प्रथम प्रारूप कवि शिवराम चक्रवर्ती ने तैयार किया था। अन्तिम रूप दिया स्वयं शरत् बाबू ने । भारती में वह इन्हीं के नाम है प्रकाशित हुआ। और पारिश्रमिक रूप में तीन सौ रुपये मिले। उसमें से सौ रुपये उन्होंने शिवराम चक्रवर्ती को दे दिये।

नाट्य मंदिर के रंगमंच पर षोडशी' का निर्देशन उस समय के सुप्रसिद्ध निर्देशक श्री शिशिर भादुड़ी ने किया । मुख्य पात्रों की भूमिका में जीवानंद के रूप में स्वयं शिशिर भादुडी मंच पर आये । षोडशी का अभिनय अभिनेत्री चारुबाला, राय साहब का योगेश बाबू और सागर सरदार का मनोरंजन भट्टाचार्य ने किया। शिशिर और चारु का अभिनय शरतचन्द्र को बहुत पसन्द आया। मित्रों से उन्होंने उसकी बार-बार प्रशंसा की है। लेकिन उन्हें इस बात का सदा दुख रहा कि अपनी इच्छा के विरुद्ध. शिशिर बाबू के कहने पर उन्हें नाटक को दुखान्त बनाना पड़ा। उपन्यास में कहानी का अन्त सुखद है। नाटक में जीवानन्द को मारने की सार्थकता वे कभी स्वीकार नही कर सके। षोडशी का सन्देश उसके जीवित रहने में जिस प्रकार सार्थक होता है उस प्रकार मरने में नहीं। उन्होंने इस सबंध में शिशिर को एक पत्र भी लिखना शुरू किया था। लेकिन फिर उसे पूरा नहीं किया। क्योंकि वे जान गये थे कि थियेटर के सभी लोग एक जैस हैं मैं ' सस्ते देमैटिक इफैक्ट ' र्का चिन्ता है।

यह नाटक एक और कारण से महत्त्वपूर्ण है। कई बार कविगुरु रवीन्द्रनाथ से उनका मने?गांलनग् हुआ। उसके अनेक कारणों में एक कारण यह नाटक भी रहा है। नाटक में गीतों की आवश्यकता होती है। 'षोडशी ' के लिए गीत लिख देने की प्रार्थना उन्होंने कविगुरु से की थी, परन्तु व्यस्तता के कारण वे ऐसा नहीं कर सके। असमर्थता प्रकट की। शरत् बाबू इस कारण को स्वीकार नहीं कर सके। बहुत पहले से मन के किसी कोने में यह बात बैठ गई थी कि रवीन्द्रनाथ जान-बूझकर उनकी उपेक्षा करते हैं। फिर भी मान-अ - अभिमान की चिन्ता न करते हुए जब 'षोडशी' का प्रकाशन हुआ तब उसकी एक प्रति उन्होंने गुरुदेव को भेजी और चाहा कि वे अपनी सम्मति दें।

नाटक पढ़कर कविगुरु ने लिखा, तुम्हारी षोडशी' मिली। बंगला साहित्य में नाटक जैसे नाटक नहीं हैं। अगर मुझमें नाटक लिखने की शक्ति होती तो मैं कोशिश करता। क्योंकि नाटक साहित्य का एक श्रेष्ठ अंग है। मेरा विश्वास है कि तुममें नाटक लिखने की शक्ति है। भीतर की प्रकृति और बाहर की आकृति में दोनों जब सचमुच मिलते हैं तभी चरित्र-चित्रण सुन्दर होता है। मेरा विश्वास है कि यदि तुम्हारी कलम ठीक तरह से चले और रूप के साथ भाव का ताल-मेल बैठा सके तो तुम बहुत कुछ कर सकते हो, क्योंकि तुममें देखने की शक्ति है। चिन्तनशील मनु है। इसके अतिरिक्त देश के लोक चरित्र के संबंध में तुम्हारी अभिज्ञता का क्षेत्र बहुत बड़ा है। लेकिन तुम यदि वर्तमान के दावे और जनसमूह की अभिरुचि को नहीं भूल पाते तो तुम्हारी इस शक्ति में व्यवधान पड़ेगा। जो सचमुच बड़ा साहित्य है, उसका परिप्रेक्ष्य दूरव्यापी है। जो उसके साथ तालमेल बैठा सकता है, वही साहित्य टिक सकता है। पर जब आसपास के लोगों का शोर दीवार बनकर संकीर्ण परिवेश में उसको अवरुद्ध करता है, तब वह कुण्ठित और असत्य हो जाता है।

"षोडशी' में तुमने वर्तमान काल को प्रसन्न करना चाहा है। उसका मूल्य भी पाया है, लेकिन अपनी शक्ति के गौरव को खूब कुण्ठित किया है। जिस षोडशी' का निर्माण किया है, वह इस काल की फरमायश है। मन से गढ़ी हुई वस्तु है। वह अन्तर और बाहर का सत्य नहीं है। मैं यह नहीं कहता कि इस प्रकार की भैरवी नहीं हो सकती। किन्तु होने पर जिस भाषा और जिस ढांचे के बीच में उसका निर्माण होता, वह आजकल के अखबार पड़े हुए सेहरों में नहीं मिलती है। जिस कहानी में हमारे गांव की सच्ची भैरवी आत्म प्रकाश कर पाती, वह यह कहानी नहीं है। सर्जक के रूप में तुम्हारा कर्त्तव्य था कि इस भैरवी को एकान्त सत्य बना देते। लोकरंजन के लिए आधुनिक काल की चलती भादूकता से पूर्ण कहानी की रचना नहीं करनी थी । जानता हूं मेरी बात से तुम्हें गुस्सा आएगा । किन्तु तुम्हारी प्रतिभा में मुझे श्रद्धा है, तभी सरल मन से अपनी राय दे रहा हूं। नहीं तो कोई आवश्यकता नहीं थी। तुम साहित्य के बड़े साधक साए । इन्द्र यदि सामान्य प्रलोभन से तुम्हारा तपोभंग करते है, तो वह नुकसान साहित्य का है। तुम वर्तमान से मूल्य प्राप्त करके खुश हो सकते हो, किन्तु शाश्वत काल के लिए क्या दे जाओगे? " 

शरत् बाबू गुरुदेव की इस धारणा से सहमत नहीं हो सके। अपने मनोभावों को व्यक्त करते हुए उन्होंने एक लम्बा पत्र लिखा । यद्यपि इस पत्र में आवेश और उफान नहीं है, फिर भी इतना तो म्पष्ट है कि गुरुदेव की बात अच्छी नहीं लगी। उन्होंने लिखा, चह नाटक मेरे एक उपन्यास को लेकर लिखा गया है। इसलिए उपन्यास में जितनी बात कह पाया, चरित्र- चित्रण के लिए जितनी घटनाओं का समावेश कर पाया, नाटक में उतना नहीं कर सका। काल की दृष्टि म नाटक का परिसर विस्तार) छोटा है। व्याप्ति की दृष्टि से भी इसका स्थान संकीर्ण है। यह बात लिखते समय, मैंने भी बार नार अनभव की थी। यह ठीक नहीं हुआ। फिर उपन्यास जब इसका आधार है, तब ठीक किस प्रकार यह हो सकता - यह नहीं सोच सका। सोचता हूं, उपन्यास से नाटक तैयार करने पर एस दी होता है। एक ओर काम आसान हो जाता है, दूसरी अरि गलती र्भो बहुत होती है। । सा ही हुआ' है।

“एक और कारण है, इस जीवन में नाना अवस्थाओं से गुजरने पर आखों में बहुत सी वस्तुएं आती हैं। आपने इसी को इस देश के लोक चरित्र के संबंध में मेरी अभिज्ञता कहा हे । किन्तु बहुत कुछ देखना और जानना साहित्य के लिए अच्छा है या नहीं, इस विषय में मुझे संदेह है। अभिड़ाता केवल शक्ति ही नहीं देती, उसका हरण भी करती है एवं सांसारिक सत्य साहित्य का सत्य नहीं भी हो सक्ता । जान पड़ता है यह पुस्तक उसका उदाहरण है। इसको मैंने एक ऐसी घटना के आधार पर लिखा है, जिसको मैं घनिष्ठता से जानता हूं। यह ज्ञान ही मेरी मुसीबत हो गया है। लिखते समय कदम-कदम पर जिरह करके उसने मेरी कल्पना के आनन्द और गति में बाधा ही नहीं दी उन्हें विकृत भी किया है। सत्य के साथ कल्पना को मिश्रित करने पर, लगता है, ऐसा ही होता है। दुनिया में अचानक या सचमुच जो कुछ होता है, उसको उसी रूप में लिखना इतिहास हो सकता है, साहित्य नहीं हो सक्ता। किन्तु सत्य के साथ कल्पना मिलाकर मेरी षोडशी' का जन्म हुआ है। इस उपाय से साधारण जनता से तो बहुत आदर पाया है, किन्तु आपसे मूल्य नहीं पा सका।

.......आपने ठीक-ठीक क्या कहा, वह मैं नहीं समझ सका। आपने परिप्रेक्ष्य का उल्लेख किया है। छवि आंकते समय इतनी दूर से बड़ी वस्तु छोटी, गोल वस्तु चपटी, ठिगनी वस्तु लम्बी और सीधी वस्तु बांकी दिखाई देती है। इतनी दूर कौन-से स्थान में वस्तु के आकार-प्रकार में कैसा और कितना परिवर्तन होगा, उसका एक बंधा हुआ नियम है। केमरा जैसे यन्त्र को भी उस नियम से छुट्टी नहीं मिलती, परन्तु साहित्य का तो ऐसा कोई बंधा हुआ नियम नहीं है। यह सब लेखक की रुचि और विचार बुद्धि पर निर्भर करता है। अपने-आपको कहां और कितनी दूर खड़ा करना होगा, इसका कोई निर्देश पाने का रास्ता नहीं है। इसलिए मूर्ति का परिप्रेक्षित और साहित्य का परिप्रेक्षित कथा की दृष्टि से एक होने पर भी कार्य की दृष्टि से एक नहीं है। इसके अतिरिक्त साहित्य में वर्तमान काल जितना बड़ा सत्य है, भविष्य किसी भी तरह ठीक उतना बड़ा सत्य नहीं है। नर-नारियों का जो एकनिष्ठ प्रेम है, उसको लेकर इतने समय से इतने काव्य लिखे गए, मनुष्य ने इतनी तृप्ति पाई है, आंखों का इतना जल बहाया है, वह भी हो सकता है, एक दिन हंसी का व्यापार हो जाएगा। अन्तत: यह असंभव नहीं है किन्तु ऐसा होने पर भी आज तो कल्पना में भी उसको ग्रहण नहीं किया जा सकता......।

“त्रामायण में राम-रावण के युद्ध के ब्यौरे ने बहुत जगह ली है। राक्षस और बन्दरों ने मिलकर किस प्रकार की लड़ाई की, किसने कौन-सा अस्त्र मारा, इस संबंध में कितने ही नाम तथा कितने ही प्रकार के वर्णन आते हैं। किसका हाथ किसका पैर और किसका गला कट गया, यह भी उपेक्षित नहीं हुआ है। युद्धक्षेत्र में यह ब्यौरा न तो छोटा है, न तुच्छ और शायद उस ज़माने की भीड़ ने कवि के निकट यह ब्यौरा मांगा भी था और पाकर लोगों को अकृत्रिम आनन्द भी मिला। पर आज इतने दिनों के बाद युद्धक्षेत्र में युद्धार्थी वीरों का युद्धकौशल बिलकुल तुच्छ हो गया है। साहित्य के सुदूर विस्तृत परिप्रेसित से शायद आपने उसी प्रकार की किसी बात का इंगित किया है।

मैंने कभी पहले नाटक नहीं लिखा। अब दो-एक लिखने की इच्छा होती है । किन्तु बाधाएं भी बहुत हैं। मेरे उपन्यासों पर विचार पाठक समाज ने किया है। उसका क्षेत्र प्रशस्त है । किन्तु नाटकों के परीक्षक कौन हैं, यह समझना कठिन है। थियेटर वाले या बुद्ध दर्शक? कहां उसकी हाईकोर्ट है, यह कोई नहीं जानता। रामायण, महाभारत या उन्हीं की तरह प्रतिष्ठित टाड साहब के राजस्थान से कथानक लेकर नाटक लिखने पर परीक्षा में पास हुआ जा सक्ता है। लेकिन आपसे तो ताड़ना ही पानी होगी।

“आपने मेरी शक्ति का उल्लेख करके लिखा है, “तुम यदि वर्तमान काल के दावे और लोगों की भीड़ की अभिरुचि नहीं भूल सके तो तुम्हारी इस शक्ति में व्यवधान पड़ेगा।” आप बहुत-से कामों में व्यस्त हैं, किन्तु मेरी बड़ी इच्छा है कि आपके पास जाकर इस बात को ठीक तरह से समझ लूं । कारण, वर्तमान काल भी एक बड़ी वस्तु है। इसका दावा न मानने से दण्ड मिलता है।... "

इसके उत्तर में रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने लिख, ' .. तुममें प्रतिभा है, इसलिए मैं तुमसे मांग करता हूं, वह मांग साहित्य की तरफ से मांग है। बहुत-से मामलों में (एक-एक युग के ) वर्तमान का भोग वर्तमान काल में ही समाप्त हो जाता है। पर साहित्य में प्रत्येक जाति चिरकाल की सम्पत्ति की कल्पना करती है। इस संपत्ति को सृजन करने की जिनमें क्षमता है, वे वर्तमान के किसी प्रलोभन में न आ जाएं और उनका तपोभंग न हो, यही हम लोग तहेदिल से चाहते हैं। जो लोग संसार में केवल वर्तमान काल की मांग की पूर्ति करने आये हैं, उनकी संख्या असीम है । उनको प्रचुर परिमाण में नकद विदाई मिलती है। उन लोगों की मजलिस क्षणिक उत्सव के लिए तैयार की हुई बांस की खपच्चियों से भरी मजलिस है। यदि तुम वहां पैर रखो, तो उससे तुम्हारी जाति चली जाएगी। तुमने लिखा है कि वर्तमान भी बहुत बड़ी वस्तु है। वहां पर वह सचमुच ही बहुत बड़ी वस्तु है, जहां अनुपस्थित काल में भी उसका प्रवेशाधिकार है। 'वर्तमान' काल का एक बहुत बड़ा अंश है, जो क्षण -जीवियों का है। आधुनिक डेमोक्रेसी के युग में साहित्य के दरबार में गला फाड़-फाड़कर वे अपनी मांग पेश करते रहते हैं। इस युग में इस मांग से बचकर निकल जाना एक बहुत कठिन समस्या हो गई है। पहले के युगों में यह समस्या इतनी कठिन नहीं थी। आज के युग की राजनीति, समाजनीति, अर्थनीति के प्रचलित नारे बराबर मुंह-दर-मुंह ध्वनित- प्रतिस्वनित हो रहे हैं। तुम्हारे सदृश साहित्यकारों को ऐसे लोगों से कहना चाहिए कि तुम लोगों का नारा मेरा नारा नहीं है। अदत दाशूराय के ज़माने में उस समय के काल ने दाधूराय को प्रचुर पुरस्कार दिया था। पर उस काल ने जिस चेक पर दस्तखत किया था, उसे आधुनिक काल के बैंक में कैश नहीं किया जा सकता। दूसरी तरफ मैमनसिंह के गाथाकाव्य और लोकसाहित्य की मियाद अब भी खत्म नहीं हुई है। वह अशिक्षित लोगों की सहज भाषा में रचित है। फिर भी उसकी भाषा चिरकाल की भाषा है।..... मैंने तुम्हारी जो कहानियां आदि पड़ी हैं, उनमें तुमने बिना किसी आयास के चिरकाल के सत्य को मूर्त क्वा है। भीड़ की वाणी तुम्हारी वाणी में प्रविष्ट होकर सत्य के चित्रण पर अपनी छाप नहीं मार सकी है ! उस समय तुम भीड़ से दूर थे, पर इस समय तुम जो कुछ लिखते हो, उसे पढ़ते हुए मुझे भय लगता है कि मैं कहीं यह आविष्कार न कर बैसूं कि तुम्हारी लेखनी पर तुम्हारी जानकारी या गैर-जानकारी में भीड़ का भार बैठ गया है। वह इतनी बड़ी हानि है कि उसे मैं अपनी आख से देख नहीं सकता।

“तुम्हारे नाटक के जिस परिक्षित की बात मैंने बताई है, वह नाटक के कथानक के संबंध में है। तुमने जो कुछ कहना चाहा है, उसे यदि उसकी परिस्थितियों के साथ संगत करके कहते तो, उससे वह भाषा और घटना में दूसरे ही रूप में सामने आता । मूल बात बनी रहती, पर रूप बदल जाता। कला में विषय के साथ रूप का सामंजस्य हो, तभी वह सत्य होता है। मने तुम्हारे इस नाटक के संबंध में जो मत व्यक्त किया गदि वह तुम्हे असंगत जंचे, तो उसे मन से एकदम निकाल दो। तुम्हारी सृष्टि का आदर्श तुम्हारे अपने ही मन में है। यदि तुमने उसकी रक्षा की है, तो कुछ नहीं कहना है पर यदि भीड़ के भोंड़े- भुलावे में तुम्हारी लेखनी विकृत हुई, तो वह चिन्तनीय है।

“इन दिनों मैं क्लकते में हूं, यदि किसी दिन भेंट हो तो आमने-सामने बैठकर आलोचना हो सक्ती है।" 

शरतचन्द्र नाटककार नहीं थे, परन्तु उनके उपन्यासों के नाट्य रूपान्तरों ने बंगाली रंगमंच की दुर्दिन में रक्षा अवश्य की दूरदर्शी रवीन्द्रनाथ ने उनकी शक्ति को व्यर्थ ही नहीं सराहा था। रचनाओं की लोकप्रियता, क्या में नाटकीय तथ्यों की प्रधानता, पारिवारिक वातावरण और पात्रों में आत्मीयता, सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार, यथार्थवादी अर्न्तदृष्टि, प्रसाद गुण, प्रांजल, सरल, अन्तस्पर्शीय भाषा, कितने सारे गुण उस शक्ति क आधार थे ! लेकिन एक अवगुण भी था, हृदय पक्ष का असाधारण महत्त्व अर्थात् भावुकता की प्रधानता। इसलिए चरम परिणति न्यायसंगत नहीं रह पाती थी। उनके नाटकों में ' षोडशी ' सर्वश्रेष्ठ है। इसका गठन- कौशल निर्दोष है और कथा में माधुर्य है। लेकिन दूसरे नाटक उतने सफल नहीं हो सके'

बहुत पहले श्री भूपेन्द्रनाथ बन्दोपाध्याय ने 'विराजबहू' का नाट्य रूपांतर किया था। स्टार थियेटर के मंच पर इसका अभिनय भी हुआ था। लेकिन शरत् बाबू का इस रूपांतर से कोई संबंध नहीं था। इसी तरह देवनारायण गुप्त ने 'रामेर सुमति' का नाट्य रूपान्तर किया वह भी बहुत सफल हुआ। 'पल्ली समाज' का रूपान्तर किया था उनके प्रकाशक श्री हरिदास चट्टोपाध्याय ने। आर्ट थियेटर द्वारा इसे स्टार के रंगमंच पर प्रस्तुत किया गया  । बाद में इसका परिवर्तित रूप 'रमा' के नाम से प्रकाशित हुआ।  शरत् बाबू ने इस पर काफी परिश्रम किगा था। शिशिर भादुड़ी ने इसी परिवर्तित रूप को नाट्य मन्दिर में बड़ी सफलतापूर्वक प्रस्तुत किया।

'आंधारे आलो' उनकी एक बहुत साधारण क्कानी है। उसके आधार पर कई वर्ष पूrk? 14 एक निर्वाक् चललित्र तैयार किया गया था। सवाक् चलचित्रों का तब तक प्रचलन नहीं हुआ था। उसके निर्माण-काल में शरत् बाबू ने उसमें रुचि ली थी। इस फिल्म की काफी चर्चा हुई। बहुत से लोगों ने इसकी गद्गद् भाव से प्रशंसा की। हिन्दी लेखक श्री इलाचन्द्र जोशी ने भी इस फिल्म को देखा था। जब वे शरतचन्द्र से मिलने के लिए गये तो उन्होंने जोशी जी से पूछा, “तुम्हें फिल्म कैसी लगी, सच बताना?”

सकुचाते हुए जोशीजी ने धीरे से उत्तर दिया, “किसी अच्छी साहित्यिक कहानी की स्पिट को फिल्म में उसी खूबी से उतार लाने की कला बहुत कठिन है। कोई विदेशी फिल्म भी अभी तक सफल नहीं हो पाई। इसलिए उच्चकोटि की साहित्यिक कला के मान से इस पर विचार करना उचित नहीं है। यदि करेंगे तो 'आंधारे आलो' को लेकर बड़ी निराशा होगी। लेकिन मुझे तो शिकायत कुछ दूसरी ही बात की है।”

उसुक्ता से शरत्चन्द्र ने पूछा, “किस बात की?”

“फिल्म निर्माता ने आपकी इसी कहानी को क्यों फिल्म के उपयुक्त समझा ? साहित्यिक दृष्टि से इससे कहीं अच्छी आपकी और बहुत-सी कहानियां हैं जो चित्रपट बनाने की दृष्टि से भी अधिक उपयुक्त हैं। "

“क्या ‘आंधार आलो’ साहित्यिक दृष्टि से भी तुम्हें नहीं जंचती ?”

"जंचती है। फिर भी उसमें आपकी कला का निखरा हुआ रूप नहीं मिलता। कहानी में अवास्तविकता, कृत्रिमता और अपरिपक्वता के स्पष्ट मिलते हैं। लगता है यह कहानी आपने प्रारम्भिक प्रयास के युग में लिखी होगी?”

“नहीं, तुम्हारी यह धारणा एकदम गलत है। यह कहानी मैंने तब लिखी थी, जब मेरे विचार परिपक्व हो चुके थे। और मेरी लेखनशक्ति पूर्णतया विकसित हो चुकी थी।”

अकृत्रिम आश्चर्य से जोशी ने कहा, “अच्छा, मैं तो समझता था कि 'देवदास' से पहले ही आपने उसे लिखा होगा?"

“पर तुम्हें इसमें अपरिपक्वता और अक्त्रिमता कहां नज़र आती है, यह तो तुमने बताया ही नहीं?"

जोशी ने विस्तार से कहानी की चर्चा करते हुए उसे अमनोवैज्ञानिक और अवास्तविक सिद्ध करने का प्रयत्न किया। कई क्षण तक शरत् बाबू गम्भीर भाव से सोचते रहे। फिर बोले, “चूम यह आशा क्यों करते हो कि औपन्यासिक सत्य जीवन के सत्य के अनुरूप ही होना चाहिए। क्या तुम यह चाहते हो कि उपन्यास जीवन का फोटो बनकर रह जाए? जो संभाव्य सत्य है, उसके लिए भी उपन्यास या कहानी में गुंजाइश रखनी ही होगी और फिर किसी विशेष आदर्श को उपस्थित करने के लिए यदि यथार्थ को तोड़ना-मरोड़ना भी पड़े, तो इसमें कोई अनौचित्य मैं नहीं मानता।”

जोशीजी ने उत्तर दिया “आदर्श का विरोध में नहीं करता। मैं यह भी नहीं मानता कि कोई कहानी या उपन्यास जीवन का फोटो होना चाहिए था, पर जो आदर्श यथार्थ के आधार पर प्रतिष्ठित नहीं होता, आज के जीवन में उसका मैं कोई मूल्य मानने को तैयार नही हूं। इसी कारण रूस के आदर्शवादी कलाकारों ने यथार्थ को बड़ी बारीकी से अपनाया है। आदर्शवादी होने पर भी ताल्साय ने प्रत्यक्ष जीवन की सचाई को, यथार्थवादी दृष्टिकोण को, स्वीकार किया है। मैं ज़ोला की कोटि के प्रकृतवादी कलाकारों को विशेष महत्व नहीं देता। वे जीवन के अच्छे और गन्दे सभी पहलुओं को वैसा ही चित्रण कर देने में अपने कर्तव्य की इतिश्री समझते हैं। और उस चित्रण को किसी आदर्श की स्थापना के लिए साधन न मानकर अपने-आपमें साध्य मानते हैं। पर आदर्श की स्थापना के लिए जीवन की सचाई पूर्णत: आवश्यक है, यह मेरा दृढ़ विश्वास है।”

शरत् बाबू सहमत नहीं हो सके, लेकिन बड़े शान्त भाव से उन्होंने कहा, “तुम्हारे दृढ़ विश्वास को खण्डित करने की प्रवृत्ति इस समय मुझमें नहीं जग रही है और न कोई उपयुक्त तर्क ही मुझे सूझ रहा है, पर इतना मैं बता देना चाहता हूं कि यथार्थवादी लेखकों की टेकनीक को मैं कभी नहीं अपनाऊंगा। वह मेरे स्वभाव के अनुकूल नहीं है और न वह उस जीवन के चित्रण और उस आदर्श की स्थापना के लिए उपयुक्त है जो मुझे अभीष्ट हैं।"

जोशीजी ने इस अप्रिय प्रसगं को आगे नहीं बढ़ाया। उचित भी नहीं था, लेकिन जहां तक उनकी शिकायत का संबंध है वह सही है। कहानी में एक वेश्या का हृदय परिवर्तन दिखाया गया है परन्तु वह अत्यन्त आकस्मिक और अवास्तविक है। छोटी-सी कहानी में परस्पर विरुद्ध भावों को प्रस्कूटन इस प्रकार हुआ है कि वह अति नाटकीय ही लग सकता है। उसे विश्वसनीय बनाने के लिए बड़े आयाम की आवश्यकता थी। इसीलिए विस्तृत विलेषण के अभाव में वह सहज नहीं हो सका। कहा जा सकता है कि उसकी कथावस्तु उपन्यास के लिए अधिक उपयुक्त है। शरत् बाबू ने छोटी कहानियां अपेक्षाकृत कम लिखी हैं। उनकी प्रतिभा का वास्तविक क्षेत्र उपन्यास ही है।

अवाक् चलचित्रों के उस युग में “आंधारे आलो' के अतिरिक्त 'चन्द्रनाथ', 'देवदास', 'श्रीकान्त', 'चरित्रहीन' और 'स्वामी' के आधार पर चित्रपट तैयार किये गये थे। ऐसा लगता है उन्होंने अपनी कुछ कहानियों के आधार पर चित्र बनाने के अधिकार पन्द्रह वर्ष के लिए मंडन थियेटर को बेच दिये थे। 

68
रचनाएँ
आवारा मसीहा
0.0
मूल हिंदी में प्रकाशन के समय से 'आवारा मसीहा' तथा उसके लेखक विष्णु प्रभाकर न केवल अनेक पुरस्कारों तथा सम्मानों से विभूषित किए जा चुके हैं, अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद प्रकाशित हो चुका है और हो रहा है। 'सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार' तथा ' पाब्लो नेरुदा सम्मान' के अतिरिक्त बंग साहित्य सम्मेलन तथा कलकत्ता की शरत समिति द्वारा प्रदत्त 'शरत मेडल', उ. प्र. हिंदी संस्थान, महाराष्ट्र तथा हरियाणा की साहित्य अकादमियों और अन्य संस्थाओं द्वारा उन्हें हार्दिक सम्मान प्राप्त हुए हैं। अंग्रेजी, बांग्ला, मलयालम, पंजाबी, सिन्धी , और उर्दू में इसके अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं तथा तेलुगु, गुजराती आदि भाषाओं में प्रकाशित हो रहे हैं। शरतचंद्र भारत के सर्वप्रिय उपन्यासकार थे जिनका साहित्य भाषा की सभी सीमाएं लांघकर सच्चे मायनों में अखिल भारतीय हो गया। उन्हें बंगाल में जितनी ख्याति और लोकप्रियता मिली, उतनी ही हिंदी में तथा गुजराती, मलयालम तथा अन्य भाषाओं में भी मिली। उनकी रचनाएं तथा रचनाओं के पात्र देश-भर की जनता के मानो जीवन के अंग बन गए। इन रचनाओं तथा पात्रों की विशिष्टता के कारण लेखक के अपने जीवन में भी पाठक की अपार रुचि उत्पन्न हुई परंतु अब तक कोई भी ऐसी सर्वांगसंपूर्ण कृति नहीं आई थी जो इस विषय पर सही और अधिकृत प्रकाश डाल सके। इस पुस्तक में शरत के जीवन से संबंधित अंतरंग और दुर्लभ चित्रों के सोलह पृष्ठ भी हैं जिनसे इसकी उपयोगिता और भी बढ़ गई है। बांग्ला में यद्यपि शरत के जीवन पर, उसके विभिन्न पक्षों पर बीसियों छोटी-बड़ी कृतियां प्रकाशित हुईं, परंतु ऐसी समग्र रचना कोई भी प्रकाशित नहीं हुई थी। यह गौरव पहली बार हिंदी में लिखी इस कृति को प्राप्त हुआ है।
1

भूमिका

21 अगस्त 2023
21
0
0

संस्करण सन् 1999 की ‘आवारा मसीहा’ का प्रथम संस्करण मार्च 1974 में प्रकाशित हुआ था । पच्चीस वर्ष बीत गए हैं इस बात को । इन वर्षों में इसके अनेक संस्करण हो चुके हैं। जब पहला संस्करण हुआ तो मैं मन ही म

2

भूमिका : पहले संस्करण की

21 अगस्त 2023
5
0
0

कभी सोचा भी न था एक दिन मुझे अपराजेय कथाशिल्पी शरत्चन्द्र की जीवनी लिखनी पड़ेगी। यह मेरा विषय नहीं था। लेकिन अचानक एक ऐसे क्षेत्र से यह प्रस्ताव मेरे पास आया कि स्वीकार करने को बाध्य होना पड़ा। हिन्दी

3

तीसरे संस्करण की भूमिका

21 अगस्त 2023
3
0
0

लगभग साढ़े तीन वर्ष में 'आवारा मसीहा' के दो संस्करण समाप्त हो गए - यह तथ्य शरद बाबू के प्रति हिन्दी भाषाभाषी जनता की आस्था का ही परिचायक है, विशेष रूप से इसलिए कि आज के महंगाई के युग में पैंतालीस या,

4

" प्रथम पर्व : दिशाहारा " अध्याय 1 : विदा का दर्द

21 अगस्त 2023
4
0
0

किसी कारण स्कूल की आधी छुट्टी हो गई थी। घर लौटकर गांगुलियो के नवासे शरत् ने अपने मामा सुरेन्द्र से कहा, "चलो पुराने बाग में घूम आएं। " उस समय खूब गर्मी पड़ रही थी, फूल-फल का कहीं पता नहीं था। लेकिन घ

5

अध्याय 2: भागलपुर में कठोर अनुशासन

21 अगस्त 2023
2
0
0

भागलपुर आने पर शरत् को दुर्गाचरण एम० ई० स्कूल की छात्रवृत्ति क्लास में भर्ती कर दिया गया। नाना स्कूल के मंत्री थे, इसलिए बालक की शिक्षा-दीक्षा कहां तक हुई है, इसकी किसी ने खोज-खबर नहीं ली। अब तक उसने

6

अध्याय 3: राजू उर्फ इन्दरनाथ से परिचय

21 अगस्त 2023
2
0
0

नाना के इस परिवार में शरत् के लिए अधिक दिन रहना सम्भव नहीं हो सका। उसके पिता न केवल स्वप्नदर्शी थे, बल्कि उनमें कई और दोष थे। वे हुक्का पीते थे, और बड़े होकर बच्चों के साथ बराबरी का व्यवहार करते थे।

7

अध्याय 4: वंश का गौरव

22 अगस्त 2023
3
0
0

मोतीलाल चट्टोपाध्याय चौबीस परगना जिले में कांचड़ापाड़ा के पास मामूदपुर के रहनेवाले थे। उनके पिता बैकुंठनाथ चट्टोपाध्याय सम्भ्रान्त राढ़ी ब्राह्मण परिवार के एक स्वाधीनचेता और निर्भीक व्यक्ति थे। और वह

8

अध्याय 5: होनहार बिरवान .......

22 अगस्त 2023
2
0
0

शरत् जब पांच वर्ष का हुआ तो उसे बाकायदा प्यारी (बन्दोपाध्याय) पण्डित की पाठशाला में भर्ती कर दिया गया, लेकिन वह शब्दश: शरारती था। प्रतिदिन कोई न कोई काण्ड करके ही लौटता। जैसे-जैसे वह बड़ा होता गया उस

9

अध्याय 6: रोबिनहुड

22 अगस्त 2023
2
0
0

तीन वर्ष नाना के घर में भागलपुर रहने के बाद अब उसे फिर देवानन्दपुर लौटना पड़ा। बार-बार स्थान-परिवर्तन के कारण पढ़ने-लिखने में बड़ा व्याघात होता था। आवारगी भी बढ़ती थी, लेकिन अनुभव भी कम नहीं होते थे।

10

अध्याय 7: अच्छे विद्यार्थी से कथा - विद्या - विशारद तक

22 अगस्त 2023
3
0
0

शरत् जब भागलपुर लौटा तो उसके पुराने संगी-साथी प्रवेशिका परीक्षा पास कर चुके थे। 2 और उसके लिए स्कूल में प्रवेश पाना भी कठिन था। देवानन्दपुर के स्कूल से ट्रांसफर सर्टिफिकेट लाने के लिए उसके पास पैसे न

11

अध्याय 8: एक प्रेमप्लावित आत्मा

22 अगस्त 2023
3
0
0

इन दुस्साहसिक कार्यों और साहित्य-सृजन के बीच प्रवेशिका परीक्षा का परिणाम - कभी का निकल चुका था और सब बाधाओं के बावजूद वह द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया था। अब उसे कालेज में प्रवेश करना था। परन्तु

12

अध्याय 9: वह युग

22 अगस्त 2023
3
0
0

जिस समय शरत्चन्द का जन्म हुआ क वह चहुंमुखी जागृति और प्रगति का का था। सन् 1857 के स्वाधीनता संग्राम की असफलता और सरकार के तीव्र दमन के कारण कुछ दिन शिथिलता अवश्य दिखाई दी थी, परन्तु वह तूफान से पूर्व

13

अध्याय 10: नाना परिवार का विद्रोह

22 अगस्त 2023
3
0
0

शरत जब दूसरी बार भागलपुर लौटा तो यह दलबन्दी चरम सीमा पर थी। कट्टरपन्थी लोगों के विरोध में जो दल सामने आया उसके नेता थे राजा शिवचन्द्र बन्दोपाध्याय बहादुर । दरिद्र घर में जन्म लेकर भी उन्होंने तीक्ष्ण

14

अध्याय 11: ' शरत को घर में मत आने दो'

22 अगस्त 2023
3
0
0

उस वर्ष वह परीक्षा में भी नहीं बैठ सका था। जो विद्यार्थी टेस्ट परीक्षा में उत्तीर्ण होते थे उन्हीं को अनुमति दी जाती थी। इसी परीक्षा के अवसर पर एक अप्रीतिकर घटना घट गई। जैसाकि उसके साथ सदा होता था, इ

15

अध्याय 12: राजू उर्फ इन्द्रनाथ की याद

22 अगस्त 2023
3
0
0

इसी समय सहसा एक दिन - पता लगा कि राजू कहीं चला गया है। फिर वह कभी नहीं लौटा। बहुत वर्ष बाद श्रीकान्त के रचियता ने लिखा, “जानता नहीं कि वह आज जीवित है या नहीं। क्योंकि वर्षों पहले एक दिन वह बड़े सुबह

16

अध्याय 13: सृजिन का युग

22 अगस्त 2023
3
0
0

इधर शरत् इन प्रवृत्तियों को लेकर व्यस्त था, उधर पिता की यायावर वृत्ति सीमा का उल्लंघन करती जा रही थी। घर में तीन और बच्चे थे। उनके पेट के लिए अन्न और शरीर के लिए वस्त्र की जरूरत थी, परन्तु इस सबके लि

17

अध्याय 14: 'आलो' और ' छाया'

22 अगस्त 2023
3
0
0

इसी समय निरुपमा की अंतरंग सखी, सुप्रसिद्ध भूदेव मुखर्जी की पोती, अनुपमा के रिश्ते का भाई सौरीन्द्रनाथ मुखोपाध्याय भागलपुर पढ़ने के लिए आया। वह विभूति का सहपाठी था। दोनों में खूब स्नेह था। अक्सर आना-ज

18

अध्याय 15 : प्रेम के अपार भूक

22 अगस्त 2023
2
0
0

एक समय होता है जब मनुष्य की आशाएं, आकांक्षाएं और अभीप्साएं मूर्त रूप लेना शुरू करती हैं। यदि बाधाएं मार्ग रोकती हैं तो अभिव्यक्ति के लिए वह कोई और मार्ग ढूंढ लेता है। ऐसी ही स्थिति में शरत् का जीवन च

19

अध्याय 16: निरूद्देश्य यात्रा

22 अगस्त 2023
3
0
0

गृहस्थी से शरत् का कभी लगाव नहीं रहा। जब नौकरी करता था तब भी नहीं, अब छोड़ दी तो अब भी नहीं। संसार के इस कुत्सित रूप से मुंह मोड़कर वह काल्पनिक संसार में जीना चाहता था। इस दुर्दान्त निर्धनता में भी उ

20

अध्याय 17: जीवनमन्थन से निकला विष

24 अगस्त 2023
3
0
0

घूमते-घूमते श्रीकान्त की तरह एक दिन उसने पाया कि आम के बाग में धुंआ निकल रहा है, तुरन्त वहां पहुंचा। देखा अच्छा-खासा सन्यासी का आश्रम है। प्रकाण्ड धूनी जल रही हे। लोटे में चाय का पानी चढ़ा हुआ है। एक

21

अध्याय 18: बंधुहीन, लक्ष्यहीन प्रवास की ओर

24 अगस्त 2023
3
0
0

इस जीवन का अन्त न जाने कहा जाकर होता कि अचानक भागलपुर से एक तार आया। लिखा था—तुम्हारे पिता की मुत्यु हो गई है। जल्दी आओ। जिस समय उसने भागलपुर छोड़ा था घर की हालत अच्छी नहीं थी। उसके आने के बाद स्थित

22

" द्वितीय पर्व : दिशा की खोज" अध्याय 1: एक और स्वप्रभंग

24 अगस्त 2023
3
0
0

श्रीकान्त की तरह जिस समय एक लोहे का छोटा-सा ट्रंक और एक पतला-सा बिस्तर लेकर शरत् जहाज़ पर पहुंचा तो पाया कि चारों ओर मनुष्य ही मनुष्य बिखरे पड़े हैं। बड़ी-बड़ी गठरियां लिए स्त्री बच्चों के हाथ पकड़े व

23

अध्याय 2: सभ्य समाज से जोड़ने वाला गुण

24 अगस्त 2023
3
0
0

वहां से हटकर वह कई व्यक्तियों के पास रहा। कई स्थानों पर घूमा। कई प्रकार के अनुभव प्राप्त किये। जैसे एक बार फिर वह दिशाहारा हो उठा हो । आज रंगून में दिखाई देता तो कल पेगू या उत्तरी बर्मा भाग जाता। पौं

24

अध्याय 3: खोज और खोज

24 अगस्त 2023
3
0
0

वह अपने को निरीश्वरवादी कहकर प्रचारित करता था, लेकिन सारे व्यसनों और दुर्गुणों के बावजूद उसका मन वैरागी का मन था। वह बहुत पढ़ता था । समाज विज्ञान, यौन विज्ञान, भौतिक विज्ञान, दर्शन, कुछ भी तो नहीं छू

25

अध्याय 4: वह अल्पकालिक दाम्पत्य जीवन

24 अगस्त 2023
3
0
0

एक दिन क्या हुआ, सदा की तरह वह रात को देर से लौटा और दरवाज़ा खोलने के लिए धक्का दिया तो पाया कि भीतर से बन्द है । उसे आश्चर्य हुआ, अन्दर कौन हो सकता है । कोई चोर तो नहीं आ गया। उसने फिर ज़ोर से धक्का

26

अध्याय 5: चित्रांगन

24 अगस्त 2023
3
0
0

शरत् ने बहुमुखी प्रतिभा के धनी रवीन्द्रनाथ के समान न केवल साहित्य में बल्कि संगीत और चित्रकला में भी रुचि ली थी । यद्यपि इन क्षेत्रों में उसकी कोई उपलब्धि नहीं है, पर इस बात के प्रमाण अवश्य उपलब्ध है

27

अध्याय 6: इतनी सुंदर रचना किसने की ?

24 अगस्त 2023
4
0
0

रंगून जाने से पहले शरत् अपनी सब रचनाएं अपने मित्रों के पास छोड़ गया था। उनमें उसकी एक लम्बी कहानी 'बड़ी दीदी' थी। वह सुरेन्द्रनाथ के पास थी। जाते समय वह कह गया था, “छपने की आवश्यकता नहीं। लेकिन छापना

28

अध्याय 7: प्रेरणा के स्रोत

24 अगस्त 2023
2
0
0

एक ओर अंतरंग मित्रों के साथ यह साहित्य - चर्चा चलती थी तो दूसरी और सर्वहारा वर्ग के जीवन में गहरे पैठकर वह व्यक्तिगत अभिज्ञता प्राप्त कर रहा था। इन्ही में से उसने अपने अनेक पात्रों को खोजा था। जब वह

29

अध्याय 8: मोक्षदा से हिरण्मयी

24 अगस्त 2023
2
0
0

शांति की मृत्यु के बाद शरत् ने फिर विवाह करने का विचार नहीं किया। आयु काफी हो चुकी थी । यौवन आपदाओं-विपदाओं के चक्रव्यूह में फंसकर प्रायः नष्ट हो गया था। दिन-भर दफ्तर में काम करता था, घर लौटकर चित्र

30

अध्याय 9: गृहदाद

24 अगस्त 2023
2
0
0

'चरित्रहीन' प्रायः समाप्ति पर था। 'नारी का इतिहास प्रबन्ध भी पूरा हो चुका था। पहली बार उसके मन में एक विचार उठा- क्यों न इन्हें प्रकाशित किया जाए। भागलपुर के मित्रों की पुस्तकें भी तो छप रही हैं। उनस

31

अध्याय 10: हाँ , अब फिर लिखूंगा

24 अगस्त 2023
2
0
0

गृहदाह के बाद वह कलकत्ता आया । साथ में पत्नी थी और था उसका प्यारा कुत्ता। अब वह कुत्ता लिए कलकत्ता की सड़कों पर प्रकट रूप में घूमता था । छोटी दाढ़ी, सिर पर अस्त-व्यस्त बाल, मोटी धोती, पैरों में चट्टी

32

अध्याय 11: रामेर सुमित शरतेर सुमित

24 अगस्त 2023
2
0
0

रंगून लौटकर शरत् ने एक कहानी लिखनी शुरू की। लेकिन योगेन्द्रनाथ सरकार को छोड़कर और कोई इस रहस्य को नहीं जान सका । जितनी लिख लेता प्रतिदिन दफ्तर जाकर वह उसे उन्हें सुनाता और वह सब काम छोड़कर उसे सुनते।

33

अध्याय 12: सृजन का आवेग

24 अगस्त 2023
2
0
0

‘रामेर सुमति' के बाद उसने 'पथ निर्देश' लिखना शुरू किया। पहले की तरह प्रतिदिन जितना लिखता जाता उतना ही दफ्तर में जाकर योगेन्द्रनाथ को पढ़ने के लिए दे देता। यह काम प्राय: दा ठाकुर की चाय की दुकान पर हो

34

अध्याय 13: चरितहीन क्रिएटिंग अलामिर्ग सेंसेशन

25 अगस्त 2023
1
0
0

छोटी रचनाओं के साथ-साथ 'चरित्रहीन' का सृजन बराबर चल रहा था और उसके प्रकाशन को 'लेकर काफी हलचल मच गई थी। 'यमुना के संपादक फणीन्द्रनाथ चिन्तित थे कि 'चरित्रहीन' कहीं 'भारतवर्ष' में प्रकाशित न होने लगे।

35

अध्याय 14: ' भारतवर्ष' में ' दिराज बहू '

25 अगस्त 2023
2
0
0

द्विजेन्द्रलाल राय शरत् के बड़े प्रशंसक थे। और वह भी अपनी हर रचना के बारे में उनकी राय को अन्तिम मानता था, लेकिन उन दिनों वे काव्य में व्यभिचार के विरुद्ध आन्दोलन कर रहे थे। इसलिए 'चरित्रहीन' को स्वी

36

अध्याय 15 : विजयी राजकुमार

25 अगस्त 2023
1
0
0

अगले वर्ष जब वह छः महीने की छुट्टी लेकर कलकत्ता आया तो वह आना ऐसा ही था जैसे किसी विजयी राजकुमार का लौटना उसके प्रशंसक और निन्दक दोनों की कोई सीमा नहीं थी। लेकिन इस बार भी वह किसी मित्र के पास नहीं ठ

37

अध्याय 16: नये- नये परिचय

25 अगस्त 2023
1
0
0

' यमुना' कार्यालय में जो साहित्यिक बैठकें हुआ करती थीं, उन्हीं में उसका उस युग के अनेक साहित्यिकों से परिचय हुआ उनमें एक थे हेमेन्द्रकुमार राय वे यमुना के सम्पादक फणीन्द्रनाथ पाल की सहायता करते थे। ए

38

अध्याय 17: ' देहाती समाज ' और आवारा श्रीकांत

25 अगस्त 2023
1
0
0

अचानक तार आ जाने के कारण शरत् को छुट्टी समाप्त होने से पहले ही और अकेले ही रंगून लौट जाना पड़ा। ऐसा लगता है कि आते ही उसने अपनी प्रसिद्ध रचना पल्ली समाज' पर काम करना शरू कर दिया था, लेकिन गृहिणी के न

39

अध्याय 18: दिशा की खोज समाप्त

25 अगस्त 2023
1
0
0

वह अब भी रंगून में नौकरी कर रहा था, लेकिन उसका मन वहां नहीं था । दफ्तर के बंधे-बंधाए नियमो के साथ स्वाधीन मनोवृत्ति का कोई मेल नही बैठता था। कलकत्ता से हरिदास चट्टोपाध्याय उसे बराबर नौकरी छोड़ देने क

40

" तृतीय पर्व: दिशान्त " अध्याय 1: ' वह' से ' वे '

25 अगस्त 2023
1
0
0

जिस समय शरत् ने कलकत्ता छोडकर रंगून की राह ली थी, उस समय वह तिरस्कृत, उपेक्षित और असहाय था। लेकिन अब जब वह तेरह वर्ष बाद कलकत्ता लौटा तो ख्यातनामा कथाशिल्पी के रूप में प्रसिद्ध हो चुका था। वह अब 'वह'

41

अध्याय 2: सृजन का स्वर्ण युग

25 अगस्त 2023
1
0
0

शरतचन्द्र के जीवन का स्वर्णयुग जैसे अब आ गया था। देखते-देखते उनकी रचनाएं बंगाल पर छा गई। एक के बाद एक श्रीकान्त" ! (प्रथम पर्व), 'देवदास' 2', 'निष्कृति" 3, चरित्रहीन' और 'काशीनाथ' पुस्तक रूप में प्रक

42

अध्याय 3: आवारा श्रीकांत का ऐश्वर्य

25 अगस्त 2023
1
0
0

'चरित्रहीन' के प्रकाशन के अगले वर्ष उनकी तीन और श्रेष्ठ रचनाएं पाठकों के हाथों में थीं-स्वामी(गल्पसंग्रह - एकादश वैरागी सहित) - दत्ता 2 और श्रीकान्त ( द्वितीय पर्वों 31 उनकी रचनाओं ने जनता को ही इस प

43

अध्याय 4: देश के मुक्ति का व्रत

25 अगस्त 2023
1
0
0

जिस समय शरत्चन्द्र लोकप्रियता की चरम सीमा पर थे, उसी समय उनके जीवन में एक और क्रांति का उदय हुआ । समूचा देश एक नयी करवट ले रहा था । राजनीतिक क्षितिज पर तेजी के साथ नयी परिस्थितियां पैदा हो रही थीं। ब

44

अध्याय 5: स्वाधीनता का रक्तकमल

26 अगस्त 2023
1
0
0

चर्खे में उनका विश्वास हो या न हो, प्रारम्भ में असहयोग में उनका पूर्ण विश्वास था । देशबन्धू के निवासस्थान पर एक दिन उन्होंने गांधीजी से कहा था, "महात्माजी, आपने असहयोग रूपी एक अभेद्य अस्त्र का आविष्क

45

अध्याय 6: निष्कम्प दीपशिखा

26 अगस्त 2023
1
1
0

उस दिन जलधर दादा मिलने आए थे। देखा शरत्चन्द्र मनोयोगपूर्वक कुछ लिख रहे हैं। मुख पर प्रसन्नता है, आखें दीप्त हैं, कलम तीव्र गति से चल रही है। पास ही रखी हुई गुड़गुड़ी की ओर उनका ध्यान नहीं है। चिलम की

46

अध्याय 7: समाने समाने होय प्रणयेर विनिमय

26 अगस्त 2023
1
0
0

शरत्चन्द्र इस समय आकण्ठ राजनीति में डूबे हुए थे। साहित्य और परिवार की ओर उनका ध्यान नहीं था। उनकी पत्नी और उनके सभी मित्र इस बात से बहुत दुखी थे। क्या हुआ उस शरतचन्द्र का जो साहित्य का साधक था, जो अड

47

अध्याय 8: राजनीतिज्ञ अभिज्ञता का साहित्य

26 अगस्त 2023
1
0
0

शरतचन्द्र कभी नियमित होकर नहीं लिख सके। उनसे लिखाया जाता था। पत्र- पत्रिकाओं के सम्पादक घर पर आकर बार-बार धरना देते थे। बार-बार आग्रह करने के लिए आते थे। भारतवर्ष' के सम्पादक रायबहादुर जलधर सेन आते,

48

अध्याय 9: लिखने का दर्द

26 अगस्त 2023
1
0
0

अपनी रचनाओं के कारण शरत् बाबू विद्यार्थियों में विशेष रूप से लोकप्रिय थे। लेकिन विश्वविद्यालय और कालेजों से उनका संबंध अभी भी घनिष्ठ नहीं हुआ था। उस दिन अचानक प्रेजिडेन्सी कालेज की बंगला साहित्य सभा

49

अध्याय 10: समिष्ट के बीच

26 अगस्त 2023
1
0
0

किसी पत्रिका का सम्पादन करने की चाह किसी न किसी रूप में उनके अन्तर में बराबर बनी रही। बचपन में भी यह खेल वे खेल चुके थे, परन्तु इस क्षेत्र में यमुना से अधिक सफलता उन्हें कभी नहीं मिली। अपने मित्र निर

50

अध्याय 11: आवारा जीवन की ललक

26 अगस्त 2023
1
0
0

राजनीतिक क्षेत्र में इस समय अपेक्षाकृत शान्ति थी । सविनय अवज्ञा आन्दोलन जैसा उत्साह अब शेष नहीं रहा था। लेकिन गांव का संगठन करने और चन्दा इकट्ठा करने में अभी भी वे रुचि ले रहे थे। देशबन्धु का यश ओर प

51

अध्याय 12: ' हमने ही तोह उन्हें समाप्त कर दिया '

26 अगस्त 2023
1
0
0

देशबन्धु की मृत्यु के बाद शरत् बाबू का मन राजनीति में उतना नहीं रह गया था। काम वे बराबर करते रहे, पर मन उनका बार-बार साहित्य के क्षेत्र में लौटने को आतुर हो उठता था। यद्यपि वहां भी लिखने की गति पहले

52

अध्याय 13: पथेर दाबी

26 अगस्त 2023
1
0
0

जिस समय वे 'पथेर दाबी ' लिख रहे थे, उसी समय उनका मकान बनकर तैयार हो गया था । वे वहीं जाकर रहने लगे थे। वहां जाने से पहले लगभग एक वर्ष तक वे शिवपुर टाम डिपो के पास कालीकुमार मुकर्जी लेने में भी रहे थे

53

अध्याय 14: रूप नारायण का विस्तार

26 अगस्त 2023
1
0
0

गांव में आकर उनका जीवन बिलकुल ही बदल गया। इस बदले हुए जीवन की चर्चा उन्होंने अपने बहुत-से पत्रों में की है, “रूपनारायण के तट पर घर बनाया है, आरामकुर्सी पर पड़ा रहता हूं।" एक और पत्र में उन्होंने लिख

54

अध्याय 15: देहाती शरत

26 अगस्त 2023
1
0
0

गांव में रहने पर भी शहर छूट नहीं गया था। अक्सर आना-जाना होता रहता था। स्वास्थ्य बहुत अच्छा न होने के कारण कभी-कभी तो बहुत दिनों तक वहीं रहना पड़ता था । इसीलिए बड़ी बहू बार-बार शहर में मकान बना लेने क

55

अध्याय 16: दायोनिसस शिवानी से वैष्णवी कमललता तक

26 अगस्त 2023
1
0
0

किशोरावस्था में शरत् बात् ने अनेक नाटकों में अभिनय करके प्रशंसा पाई थी। उस समय जनता को नाटक देखने का बहुत शौक था, लेकिन भले घरों के लड़के मंच पर आयें, यह कोई स्वीकार करना नहीं चाहता था। शरत बाबू थे ज

56

अध्याय 17: तुम में नाटक लिखने की शक्ति है

26 अगस्त 2023
1
0
0

शरत साहित्य की रीढ़, नारी के प्रति उनका दृष्टिकोण है। बार-बार अपने इसी दृष्टिकोण को उन्होंने स्पष्ट किया है। प्रसिद्धि के साथ-साथ उन्हें अनेक सभाओं में जाना पडता था और वहां प्रायः यही प्रश्न उनके साम

57

अध्याय 18: नारी चरित्र के परम रहस्यज्ञाता

26 अगस्त 2023
1
0
0

केवल नारी और विद्यार्थी ही नहीं दूसरे बुद्धिजीवी भी समय-समय पर उनको अपने बीच पाने को आतुर रहते थे। बड़े उत्साह से वे उनका स्वागत सम्मान करते, उन्हें नाना सम्मेलनों का सभापतित्व करने को आग्रहपूर्वक आ

58

अध्याय 19: मैं मनुष्य को बहुत बड़ा करके मानता हूँ

26 अगस्त 2023
1
0
0

चन्दन नगर की गोष्ठी में उन्होंने कहा था, “राजनीति में भाग लिया था, किन्तु अब उससे छुट्टी ले ली है। उस भीड़भाड़ में कुछ न हो सका। बहुत-सा समय भी नष्ट हुआ । इतना समय नष्ट न करने से भी तो चल सकता था । ज

59

अध्याय 20: देश के तरुणों से में कहता हूँ

26 अगस्त 2023
1
0
0

साधारणतया साहित्यकार में कोई न कोई ऐसी विशेषता होती है, जो उसे जनसाधारण से अलग करती है। उसे सनक भी कहा जा सकता है। पशु-पक्षियों के प्रति शरबाबू का प्रेम इसी सनक तक पहुंच गया था। कई वर्ष पूर्व काशी में

60

अध्याय 21:  ऋषिकल्प

26 अगस्त 2023
1
0
0

जब कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर सत्तर वर्ष के हुए तो देश भर में उनकी जन्म जयन्ती मनाई गई। उस दिन यूनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट, कलकत्ता में जो उद्बोधन सभा हुई उसके सभापति थे महामहोपाध्याय श्री हरिप्रसाद शास्त

61

अध्याय 22: गुरु और शिष्य

27 अगस्त 2023
1
0
0

शरतचन्द्र 60 वर्ष के भी नहीं हुए थे, लेकिन स्वास्थ्य उनका बहुत खराब हो चुका था। हर पत्र में वे इसी बात की शिकायत करते दिखाई देते हैं, “म सरें दर्द रहता है। खून का दबाव ठीक नहीं है। लिखना पढ़ना बहुत क

62

अध्याय 23: कैशोर्य का वह असफल प्रेम

27 अगस्त 2023
1
0
0

शरत् बाबू की रचनाओं के आधार पर लिखे गये दो नाटक इसी युग में प्रकाशित हुए । 'विराजबहू' उपन्यास का नाट्य रूपान्तर इसी नाम से प्रकाशित हुआ। लेकिन दत्ता' का नाट्य रूपान्तर प्रकाशित हुआ 'विजया' के नाम से

63

अध्याय 24: श्री अरविन्द का आशीर्वाद

27 अगस्त 2023
1
0
0

गांव में रहते हुए शरत् बाबू को काफी वर्ष बीत गये थे। उस जीवन का अपना आनन्द था। लेकिन असुविधाएं भी कम नहीं थीं। बार-बार फौजदारी और दीवानी मुकदमों में उलझना पड़ता था। गांव वालों की समस्याएं सुलझाते-सुल

64

अध्याय 25: तुब बिहंग ओरे बिहंग भोंर

27 अगस्त 2023
1
0
0

राजनीति के क्षेत्र में भी अब उनका कोई सक्रिय योग नहीं रह गया था, लेकिन साम्प्रदायिक प्रश्न को लेकर उन्हें कई बार स्पष्ट रूप से अपने विचार प्रकट करने का अवसर मिला। उन्होंने बार-बार नेताओं की आलोचना की

65

अध्याय 26: अल्हाह.,अल्हाह.

27 अगस्त 2023
1
0
0

सर दर्द बहुत परेशान कर रहा था । परीक्षा करने पर डाक्टरों ने बताया कि ‘न्यूरालाजिक' दर्द है । इसके लिए 'अल्ट्रावायलेट रश्मियां दी गई, लेकिन सब व्यर्थ । सोचा, सम्भवत: चश्मे के कारण यह पीड़ा है, परन्तु

66

अध्याय 27: मरीज की हवा दो बदल

27 अगस्त 2023
1
0
0

हिरण्मयी देवी लोगों की दृष्टि में शरत्चन्द्र की पत्नी थीं या मात्र जीवनसंगिनी, इस प्रश्न का उत्तर होने पर भी किसी ने उसे स्वीकार करना नहीं चाहा। लेकिन इसमें तनिक भी संशय नहीं है कि उनके प्रति शरत् बा

67

अध्याय 28: साजन के घर जाना होगा

27 अगस्त 2023
1
0
0

कलकत्ता पहुंचकर भी भुलाने के इन कामों में व्यतिक्रम नहीं हुआ। बचपन जैसे फिर जाग आया था। याद आ रही थी तितलियों की, बाग-बगीचों की और फूलों की । नेवले, कोयल और भेलू की। भेलू का प्रसंग चलने पर उन्होंने म

68

अध्याय 29: बेशुमार यादें

27 अगस्त 2023
1
0
0

इसी बीच में एक दिन शिल्पी मुकुल दे डाक्टर माके को ले आये। उन्होंने परीक्षा करके कहा, "घर में चिकित्सा नहीं ही सकती । अवस्था निराशाजनक है। किसी भी क्षण मृत्यु हो सकती है। इन्हें तुरन्त नर्सिंग होम ले

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए